शहरी लड़के

15-07-2021

शहरी लड़के

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

जैसा कुछ दिन पहले मेरे  मित्र चकोर के साथ हुआ, वैसा मेरे या आपके साथ भी हो सकता है यदि हम भी चकोर की तरह किसी छोटे से गाँव में जन्में हों और फिर स्कूल-कॉलेज की शिक्षा ग्रहण करने के बाद हमने शहर जाकर गाँव से रिश्ता तोड़ दिया हो।

ख़ैर, हुआ यूँ कि पच्चीस वर्ष की आयु में गाँव से निकलने के बाद चकोर  वहाँ साठ वर्ष की आयु में  फिर तब आये जब गाँव में रिश्ते में उनके एक चचेरे भाई कमल ने गाँव में वर्षों बाद होने वाले माँ भगवती के विशाल जागरण में उनसे आने का आग्रह किया। जागरण से एक दिन पहले वे अपने गाँव के नज़दीक के क़स्बे कोटद्वार ट्रेन से पहुँचे। फिर वहाँ से अपने पहाड़ी गाँव के लिए वे बस में बैठे तो ड्राइवर ने उन्हें बताया कि अभी बस चलने में आधा घंटे का समय है। चकोर जी बस से उतरे और फिर वे पास के एक खोखे पर चाय पीने चले गए। कोई बीस-पच्चीस मिनट बाद जब वे बस में वापस चढ़े तो उन्होंने देखा कि वे जिस सीट पर बैठे थे, अब उस पर एक युवक बैठा हुआ था। जब चकोर जी ने उस युवक को अन्यत्र बैठने के लिए कहा तो वह लापरवाही से बोला, “इस सीट पर आपका नाम तो नहीं खुदा है; आप भी तो कहीं और बैठ सकते हैं।”

इतना कहकर वह युवक अपने साथी से हँसते हुए बोला, “राजू, इस बस में भी लोग रिज़र्वेशन करने लगे हैं और वह भी मुफ़्त में। "

बहरहाल, चकोर जी बिना कोई बहस किए चुपचाप अगले दरवाज़े से सटी सीट पर बैठ गए। कोई तीन घंटे बाद वे जब अपने गाँव पहुँचे तो उनका चचेरा भाई उनके स्वागत के लिए बस स्टैंड पर खड़ा था। यह देख चकोर जी बहुत ख़ुश हुए। तभी वह युवक और उसका साथी बस से उतरे तो उनके चचेरे भाई ने उस युवक से कहा, “समीर, इधर आ; ताऊ जी को प्रणाम कर।”

कमल के मुँह से यह सुनकर चकोर को यक़ीन हो गया कि देर से ही सही, उनके गाँव के लड़के भी अब 'शहरीक' हो गए हैं।    

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