शहर में चाँदनी
सुशील कुमारभागो कि सब भाग रहे हैं
शहर में
कंकड़ीले जंगलों में
मुँह छिपाने के लिए
चाँद
ईद का हो या
पूर्णिमा का
टी.वी. में निकलता है अब
रात मगर क्या हुआ
मेरी परछाई के साथ
चाँदनी चली आई
कमरे में
सौम्य, शीतल,
उजास से भरी हुई
लगा मेरा कमरा
एक तराजू है
और
मै तौल रहा हूँ
चाँदनी को
एक पलड़े में रख कर
कभी ख़ुद से
कभी अपने तम से
लगा रहा हूँ हिसाब
कितना लुट चुका हूँ
शहर में!