शब्दो

डॉ. परमजीत ओबराय (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

शब्दो आओ,
कल्पनाएँ बिखरी हुईं हैं।
विचार राह देखते हैं,
बुद्धि चलने लगी है,
क़लम भी हाथ में आने को,
आतुर है।
पृष्ठ भी खाली हैं,
जैसे सजे हैं तुम्हारे लिएl
शब्दो आओ,
भावनाएँ अंतर्मन में,
हिलोरें ले रहीं हैं।
कहीं ज्वालामुखी की तरह,
वे भीतरी गुहा में-
धधक न उठें,
कहीं तुम जल न जाओ,
इसी शीत-शांत वातावरण में।
तुम आओ-
मेरे विचारों को सजाओ,
भाव व विचार-
आश्रित हैं तुम पर,
तुम आ इन्हें समेटो,
सब के सम्मुख पृष्ठ पर उतरकर।
मैं तुम्हारा आकार-
हाथ से बनाऊँगी,
तुम कितने महान हो,
सब समझ गए हैं।
शब्दों में गहराई है,
विचारों की
विचारों को यदि तुम,
थाह न दो अपने आँगन में,
तो विचार खड़ा हो,
दस्तक देता रहेगा,
तुम्हारे द्वार पर।
इसलिए तुम आओ,
विचारों कल्पनाओं,
और भावों को,
अपना रूप वाला,
आभूषण पहनाओl
यदि न हो ये सब,
तो व्यर्थ है,
तुम हो-
तभी तो इनका अर्थ है।

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