सज़ा

अमिताभ वर्मा (अंक: 170, दिसंबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

कालू बड़ी देर से मन्दिर के अहाते के बाहर गुमसुम बैठा था। अहाते के फाटक के पास जूते-चप्पल सहेजने की कोटरें थीं। वहीं से कोमल हरी दूब की पगडण्डी नलों की क़तार की ओर जाती थी, जिसके आगे पैर धोने की व्यवस्था भी थी। थोड़ी दूर जाकर कम ऊँचाई की दीवारों से घिरा चबूतरा प्रारम्भ होता था। गर्मियों में गाँव के बच्चे पानी पीकर उन्हीं दीवारों पर बैठ कर गप मारते, और वयस्क चबूतरे पर लेट कर सुस्ताते। चबूतरे के पश्चिमी छोर से सीढ़ियाँ पीतल की छोटी-छोटी घण्टियों से सुसज्जित आबनूसी लकड़ी के नक़्क़ाशीदार प्रवेशद्वार तक जाती थीं। गर्भगृह के प्रवेशद्वार को केवल बाबू साहब, उनके अनुमति-प्राप्त भक्त, और पुरोहित ही पार करते थे। शेष लोग चबूतरे से ही साष्टांग नमन करते और गर्भगृह के अंधकार से युद्धरत टिमटिमाते दीपकों के मलिन प्रकाश में मूर्ति की झलक पा सकने पर स्वयं को धन्य अनुभव करते थे। गाँव की सीमा पर स्थित यह गणेश मन्दिर बाबू साहब की निजी सम्पत्ति था। उनका इतना ही उपकार क्या कम था कि वे हर सवर्ण को ईश्वर के दुर्लभ दर्शन करने का अवसर प्रदान कर रहे थे?  
आसपास कोई न था, फिर भी कालू सिमटा बैठा था। उसका वास्तविक नाम जानने की न किसी को इच्छा थी, न ही आवश्यकता। कालू ’यथा नाम तथा गुण’ के कथन को पूर्णतः चरितार्थ करता था। वह इतना काला था कि प्रकाश भी उसके रुखड़े-कान्तिहीन शरीर से टकरा कर ओझल हो जाता था। उसके शरीर की असंख्य झुर्रियों में सदियों से बसे पसीने और मिट्टी ने घर कर लिया था। उसके बदन पर सिर्फ़ एक फटी मैली-कुचैली धोती थी, जो जंघा प्रदेश से अधिक भाग को ढँकने में दयनीय रूप से असमर्थ थी। कालू ने बगल में पड़ी लाठी को देखा, पास सहेजे पॉलिथीन के पैकेट को जतन से टटोला, और आश्वस्त हो गया। रात के अँधेरे में मेंढ़कों की टर्र-टर्र, झींगुरों की झनझनाहट, और मछलियों की डुबकियों की गुड़ुप-गुड़ुप के मध्य वह यह क्रिया कई बार दोहरा चुका था।   

कालू के जीवन में महत्वाकांक्षा क्या, सामान्य आकांक्षा के लिए भी स्थान न था। बस, प्राणों का मोह आज उसे मन्दिर के द्वार तक घसीट लाया था। उसके अस्तित्व की पतंग की डोर बाबू साहब की उँगलियों से लिपटी थी। वही बाबू साहब, जो दो घण्टे से कपाटबन्द मन्दिर के अन्दर भजन सुन रहे थे। एक वे थे जो अपार सुख-समृद्धि के बावजूद ईश्वर-स्तुति के लिए समय निकाल लेते थे, और एक वह था जिसका जन्म ही पाप के साथ हुआ था। वह सुख की आशा कर भी कैसे सकता था?

कालू अछूत था। ऐसा-वैसा नहीं, भयंकर अछूत। ऐसा, कि उसकी छाया पड़ने पर स्नान करना आवश्यक हो जाता था। गाँववालों को उसका ध्यान सिर्फ़ तब आता था जब किसी के घर मिट्टी उठती और अन्तिम-क्रिया का प्रबन्ध करना होता। उसके पुरखे गाँव के बाहर झोंपड़े में बसते आए थे। उनका अपना कुँआ था जिससे गर्मियों में पानी कम और मिट्टी-पत्थर ज़्यादा निकलता था। कुआँ सूख जाने पर कालू के पुरखे बगल के गाँव से पानी का प्रबन्ध करते। पर वहाँ भी अछूत पानी की कौन-सी बहार थी? ग़रीबी में आटा गीला होने की बात थी। पानी की एक बाल्टी के बदले कई लाठियाँ चलना और बहुत-से सिर फूटना अनहोनी न था। कालू की पैदाइश भी एक ऐसी ही गर्मी में हुई थी जब सूखा कुआँ भाँय-भाँय कर रहा था। उस दिन महापाप हुआ था। प्रसव के समय पानी की आवश्यकता दूसरे गाँव के अछूत कुएँ से नहीं, अपने ही गाँव के एक कुलीन कुएँ से नज़र बचा कर पूरी कर ली गई थी। सारा गाँव जवाहरलाल की मौत के सदमे से बौराया हुआ था, और चमाइन ने सन्नाटे का लाभ उठा कर झटपट दो बाल्टी पानी चुरा लिया था। उसकी माँ ने इस काली करतूत की किसी को ख़बर नहीं होने दी थी कई बरस। उसे इस पाप की भनक मूँछ-दाढ़ी निकलने के बाद मिली थी, और वह नई जवानी के उफ़ान के बावजूद सन्न रह गया था। 

आज़ादी को चाहे पचास बरस हो जाएँ या एक सौ पचास, अछूत को अपनी जगह पहचाननी चाहिए—कालू का अटल विश्वास था। आख़िर यह जगह ब्रह्माजी ने कुछ सोच-समझकर ही बनाई है। वह मानता था कि पूर्व-जन्म के पापों के कारण ही आदमी नीच कुल में पैदा होता है, ताकि इस जन्म में उनका प्रतिकार कर ले। उसे दलित दूल्हों के घोड़ी चढ़ने और आनन्द मनाने पर घोर आपत्ति होती थी, ऐसे अपराधियों को दी गई हर सज़ा को वह धर्म-संगत समझता था। 

कालू का पुश्तैनी मसानी का काम महीने-छः महीने में आता था। शेष समय में वह कभी ख़ाल उतार कर चमड़ा सुखाता, कभी नाले खोदता, और कभी सुस्ता रहे चरवाहों के ढोर-ढंगर चरा दिया करता। बदले में उसे रुपये-दो रुपये, रोटी, कपड़ा—कुछ भी—मिल जाता था। उसकी जोरू और माँ उससे कम डरपोक थीं। वे गाँव के बाहर जलावन चुनतीं, घास काटतीं, गोबर के उपले पाथतीं, और छोटी-मोटी चोरियाँ कर कालू से अधिक धनोपार्जन कर लेती थीं। कालू के बच्चे तो सात हुए थे, सप्ताह के हर दिन के हिसाब से उनका नाम भी रखा गया था, पर जीवित केवल बुधिया ही बचा था। वह शहर में काम करता था। साल-छः महीने में घर आता तो कुछ पैसे दे जाता था। बुधिया का मन बिना बिजली-पानी की झोंपड़ी से जल्द उकता जाता, और वह दो दिनों से ज़्यादा कभी नहीं रुकता। कालू इसमें भी अपने पूर्व-जन्म के पाप का प्रतिबिम्ब ही देखता।

आदमी कितना भी बच-बच कर चले, होनी को कौन टाल सकता है। कालू के हाथों भी एक दिन अनर्थ हो गया था। बात आज की नहीं है, बीस बरस तो हो ही गए होंगे। बाबू साहब के बँगले पर गाड़ियों की आवाजाही में बढ़त देख कर कालू समझ गया था कि राज्य में राजपूत की सरकार आ गई थी। बाबू साहब ठाकुर थे न! कभी-कभी तो उनके घर छत पर लाल-लाल बत्ती फिराती सफ़ेद-सफ़ेद गाड़ियों की क़तार लग जाती। और लगती क्यों नहीं? बाबू साहब उसकी तरह करमजले अछूत नहीं थे, राजपूत थे, राजपूत। वह दूर, बेल के पेड़ और बेर की झाड़ियों की ओट से गाड़ियों से उतरते लोगों को देखता। उनके कपड़े और औरतों के गहने दूर से ही चमकते थे। लगता था, वे लोग पृथ्वीलोक से नहीं, सीधा स्वर्ग से उतर रहे हों। बाबू साहब और उनकी मेम साहब मुस्करा-मुस्करा कर मेहमानों से हाथ मिलाते, और पता नहीं किस बात पर ठठा कर हँसने के बाद उन्हें महल के अन्दर ले जाते। कभी-कभी वे लोग महल की छत के गुम्बद के पास टहलते दिखते। कालू ज़्यादा देर देख नहीं पाता। दरबान को पता चलते ही बखेड़ा खड़ा हो जाता था। लोहे के फाटक के पार से देखने, वहाँ खड़े होने पर भी उसे डाँटने लगता। जैसे कालू के देखभर लेने से बाबू साहब की इज़्ज़त मटियामेट हो जाएगी। बाबू साहब का जन्म उसके सामने हुआ था, वह उनसे पाँच साल बड़ा था। वह कैसे चाहता उनकी बुराई? पर उस बेवक़ूफ़ दरबान से कौन माथा फोड़े! उससे तो महल में पहरा देनेवाले चारों कुत्ते अच्छे थे। महल के पीछे तालाब था, और उसके बाद, दूर, रेल लाइन तक, बाबू साहब के खेत लहलहाते थे। बस, वहीं तो हुआ था अनर्थ।    

उस दिन बाबू साहब के गाँव के किनारेवाले खेत में एक अनजान आदमी हल चला रहा था। कालू बेर की झाड़ियों के पीछे टीले पर ढोर की रखवाली कर रहा था। चरवाहा नज़र रखने को कह दिशा-मैदान गया था। बोल कर तो गया था कि बीड़ी ख़त्म होते-होते लौट आएगा, पर अब घण्टा होने को आ रहा था। कालू को भी कोई जल्दी नहीं थी। वह बेल के पेड़ से कोई बढ़िया फल तोड़ने के विचार में मस्त था। बेल के पेड़ का कोई मालिक थोड़े ही था, उसका फल कोई भी बिना मोल दिए खा सकता था। पर एक बात थी। अछूतों को पेड़ में लगे फल तोड़ने की बजाय नीचे गिरे फल चुनने चाहिएँ, धर्म की यह बात कालू को अच्छी तरह से पता थी। बेल और बेर जैसे फल ही तो शंकर भगवान्  को चढ़ाए जाते हैं। अगर पेड़ को छूत लग गई तो भगवान् क्या भूखे रहेंगे? भूखे शंकर का ताप कौन झेलेगा? दुनिया भस्म हो जाएगी। न, वह फल तोड़ने की केवल कल्पना कर रहा था, वस्तुतः अनर्थ कर श्राप झेलने का साहस नहीं था उसमें!

इंजन की सीटी की आवाज़ सुन उसने बेल के पेड़ से रेल लाइन की ओर दृष्टि फेर दी। भूरा इंजन लम्बी-सी मालगाड़ी को खींचता लिए जा रहा था। इतनी दूर से कितनी छोटी लग रही थी गाड़ी, जैसे हथेली में समा जाय! उसने बचपन में रेलगाड़ी को पास से देखा था। काला-काला धुआँ उगलते इंजन की सीटी बड़ी मधुर लगती थी उसे। उसकी माँ हर दो-तीन दिन पर रेल लाइन से कोयला बीन लाती थी रसोई पकाने के लिए। रोटी पर कभी-कभी कोयले के कण सटे रह जाते, और पता चलने से पहले ही कालू के दाँत उनकी लुगदी बना देते। मुँह में आया कौर फेंकने की परम्परा नहीं थी, कालू के पास निवाले को मजबूरन निगलने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता। 

मुँह में कोयले का स्वाद लिए उसने छोटी होती मालगाड़ी को हरे खेतों के पार गुम होते देखा। एक बार उसकी माँ ने कहा था कि वह खेत बाबू साहब ने सरकारी ज़मीन दख़ल कर जबरन हथियाए हैं। कालू को ऐसी बातों में दिलचस्पी न थी। बाबू साहब गाँव के सबसे बड़े आदमी थे। उसकी समझ में उसका धर्म उनकी रक्षा करना था, उन पर उँगली उठाना नहीं। उसकी माँ के इसी अधर्म के कारण उसका गठिया ठीक होने का नाम नहीं ले रहा था, कालू ने सोचा।

कंधे पर हाँफने की आवाज़ सुन उसने चौंक कर देखा। चरवाहा वापस आ गया था। 

"रात में कटहल खाए रहे का जो इतनी देर लगा दी," कालू ने पूछा। 

"नाहीं। पोखर में पानी छूवत रहे तो देखा दुई बड़की-बड़की आँखन हमका ही ताक रही थीं।" फिर स्वर नीचा कर, भेद-भरे स्वर में बोला, "ई पानी में मगर है। राम क़सम!"

"का बकते हो? पचीस बरस से हम ई पोखर को देख रहे हैं। हमको तो नहीं दिखा कोई मगर!" कालू अस्वाभाविक दृढ़ता से बोला।

"चलो, अभी दिखाय देते हैं," चरवाहे ने चुनौती दी।

कालू पेड़ के तने पर हाथ रख चलने को उद्धृत हुआ, तो देखा, अनजान आदमी उन्हीं की तरफ़ आ रहा था। किसान कम, लठैत ज़्यादा दिखता था वह। 

"क्या खुसुर-पुसुर कर रहे हो?" उसने दूर से ही ललकारा। 

कालू की घिग्घी बँध गई, पर चरवाहा डरपोक न था। तपाक से बोला, "भैया, पोखरवा में मगर दिखाई दिया हमको। वही बताय रहे थे।"

"हूँ, बाबू साहब डलवाय हैं कल रात," लठैत ने लापरवाही से कहा। उसने शायद समझ लिया था कि उसका पाला मूर्खों से पड़ा है। 

"लेकिन, मगर तो बज्जर होत हैं। आदमी को खाय जात हैं," चरवाहा हैरान हो गया।

"अरे सौकीन आदमी हैं। जनावर का सौक रखते हैं। कुतवन नहीं देखे हो उनके, कित्ते डबल-डबल हैं! अब जाओ, इहाँ भीड़ न बढ़ाओ।"

"सच तो है। बाबू साहब जैसे बड़े लोग मगर और घोड़े नहीं पालेंगे तो क्या सुग्गे पोसेंगे," कालू ने सोचा। वैसे उसे एक अफ़सोस भी था। उसकी जोरू पहले अलसुबह और शाम के झुटपुटे में मैदान के बहाने पोखर के किनारे से कछुए, घोंघे और मागुर मछली पकड़ लाती थी। अब मगर के हमले का डर रहेगा।

रात में उसने मगरवाली बात बताई तो उसकी माँ और जोरू को विश्वास न हुआ। गाँव के तालाब में बाबू साहब भला मगर क्यों छोड़ेंगे? उनके विचार में चरवाहा सिरफिरा था और लठैत ने उन्हें डरा कर मज़ा लूटा था। अगले दिन ख़ुद तालाब का मुआयना करने का फ़ैसला कर दोनों स्त्रियाँ सो गईं।

कालू दूसरे दिन सुबह-सुबह बगल के गाँव में नाला साफ़ करने चला गया। उसे गन्दगी से घृणा न थी, पर नाले की भाप में उसकी साँसें रुकने लगती थीं, लगता था कि अभी मर कर गिर पड़ेगा। उस दिन भी वैसा ही हुआ। लेकिन काम कम था, दोपहर तक छुट्टी मिल गई। तीस रुपया मेहनताना भी मिला। उसने तली मछली के साथ एक पौआ चढ़ाया, और मस्ती में गाता हुआ घर की ओर वापस चल दिया। वह क्या गा रहा था, ख़ुद उसकी समझ से भी बाहर था। गाना समझ में आने की ज़रूरत भी क्या है? आनन्द आना चाहिए, बस! उसने एक ऊँची तान मारने के लिए सिर ऊपर किया तो उसका मुँह खुला ही रह गया। उसकी झोंपड़ी के बाहर कोहराम मचा था। उसकी जोरू और माँ छाती पीट-पीट कर धाड़ें मार रहीं थीं। उनकी सारी दौलत—एक टूटी खटिया, एक बाँस की मचिया, और कुछ बर्तन—झोंपड़ी के बाहर पड़े थे। कुछ लोग आसपास खड़े तमाशा देख रहे थे। कालू का सिर फिर गया। जल्दी-जल्दी डग भरता वह झोंपड़ी के पास पहुँच कर चिल्लाया, "किस हरामी की मौत बुलाय रही है?" 

अनर्थ हो गया! उसने सोचा था कि वह बदमाशी बगलवाले गाँव के नीचों ने की होगी और वह उनसे दो-दो हाथ कर लेगा, लेकिन उसकी पिण्डुली पर पड़ी लाठी की ’तड़ाक्’ ने ऐलान कर दिया कि वह काण्ड किसी नीच की नहीं, ख़ुद बाबू साहब की कृति था। कलवाले लठैत ने उसकी बाँह जकड़ कर कहा, "चल हमरे साथ, अभी पता लग जावेगा किसकी मौत किसको बुलाय रही है।" उफ़्! कितनी कठोर थी उसकी पकड़, जैसे लोहे के जबड़े में बाँह चली गई हो और सलामत लौट कर आने की उम्मीद न हो।

वही लठैत कालू को उस रात झोंपड़ी के बाहर नंग-धड़ंग फेंक गया। कालू की पीठ पर चमड़ी न बची थी। जगह-जगह माँस उधड़ आया था। ज़मीन उसके लहू से लाल हो रही थी। वह होश में नहीं था, पर इतना बेहोश भी नहीं था कि अपना अपराध न जाने। अगर वह चुप रहा होता, तो यह नौबत ही न आती। बाबू साहब ने उसका सामान फिंकवा कर उसकी जोरू और माँ के तालाब में ताक-झाँक करने की सज़ा दे ही दी थी। सिर झुका कर मान लेता तो उसकी पीठ की चर्बी यूँ हवा में न उछलती। पर उस पर तो शराब का नशा व्याप्त था। उसने न केवल सबके सामने बाबू साहब की न्याय−व्यवस्था को चुनौती दी थी, बल्कि उन्हें गाली दी थी, उनकी मौत की बात की थी। ठाकुर साहब ने उसके हर जुर्म की सज़ा दो-दो कोड़े मुकम्मल की थी, पर वह तो तीसरा कोड़ा खा कर ही बेहोश हो गया था। उसे मुँह पर पानी के छींटे मार कर होश में लाया गया, पर वह पाँचवाँ कोड़ा खा कर ऐसा बेहोश हुआ कि सहृदय बाबू साहब को रहम आ गया था। उसे छठा कोड़ा नहीं लगाया गया था। 

कालू के घाव दस-पन्द्रह दिनों में भरने लगे थे, पर वह महीनों पीठ के बल नहीं सो सका था उसके बाद। लेकिन उसके मन में बाबू साहब के लिए कोई मैल न हुआ। वे मालिक थे, वह रियाया था। उनका धर्म था दण्ड देना और उसका कर्तव्य था दण्ड को सहर्ष स्वीकार करना। राजा प्रजा से दोस्ती रखेगा तो चल चुका शासन!

बीस बरस तक कालू से फिर कोई ग़लती नहीं हुई। बाबू साहब जेल गए, पर उसने ख़ुशी नहीं मनाई। उनके मन्त्री बनने पर उसने दीवाली मनाई। बाबू साहब की कनपटी के बाल सफ़ेद होते गए, और कालू की कमर झुकती गई। छोटी-सी धोती लपेटे जब वह नंगे बदन लाठी टेकता चलता, तो उसकी पीठ पर कोड़ों के निशान ऐसा आभास दिलाते मानो कोई दैत्याकार गिलहरी रेंग रही हो। बुधिया के बच्चे उसके घाव के दाग़ों पर सीढ़ी-सीढ़ी खेलते, पर उनकी वज़ह कभी नहीं पूछते। अगर उन्हें उन घावों और तालाब के बीच के सम्बन्ध के बारे में पता चल भी जाता तो कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता। तालाब ऊँची-ऊँची झाड़ियों से घिरवा दिया गया था। बाबू साहब की न्याय−व्यवस्था अब भी क़ायम थी। सुनने में तो यह भी आता था कि उन्होंने कुछ दुश्मनों को मरवा कर तालाब में फिंकवा दिया था, जहाँ मगरमच्छ ने उनका नामो-निशान मिटा दिया। कालू को इन बातों की परवाह नहीं थी। वह बस यह चाहता था कि उसकी ज़िन्दग़ी के बचे-खुचे पाँच-दस बरस आराम से कट जाएँ, उसे कोई सज़ा न झेलनी पड़े। वह पैंतीस साल की उम्र में पाँच कोड़े भी ठीक से बर्दाश्त नहीं कर सका था, अब किसी ग़लती की सज़ा पाने की ताब उसमें न बची थी।  

पर ग़लती जानबूझ कर थोड़े ही होती है? वह तो बस, हो जाती है। जैसे आज दोपहर हो गई। बुधिया सुबह-सुबह बीवी-बच्चों के साथ आ गया था। अब तो वह एक रात भी नहीं रुकता, आज शाम को ही उसे वापस जाना था। माँ और दादी के लिए साड़ी, आधा किलो बेसन के लड्डू, और कालू के लिए चप्पल लाया था। उतारनवाली नहीं, सस्तीवाली भी नहीं—पॉलिथीन के पैकेट में, कूट के डब्बे में, पतले सफ़ेद काग़ज़ में लिपटी चमड़े की बढ़िया चप्पल। देख कर कालू का हृदय जुड़ा गया। बुधिया उसका लड़का है, बातचीत ना के बराबर ही करता है, पर बाप का कितना ख़याल है उसको, कालू ने सोचा।

दोपहर में कालू झोंपड़े के बाहर सुस्ता रहा था, कि बुधिया के छोटे लड़के के चिल्लाने की आवाज़ आई, "गई, गई, गई!" 

बड़ा लड़का बोला, "बाबू! गेन्द उधर चली गई!"

कालू समझ गया, ’उधर’ मतलब बाबू साहब के खेत में, जिसे कुछ साल पहले बाड़ से घेर दिया गया था।

गेन्द नई थी, हरी-पीली, बड़ी अच्छी। दोनों लड़के बाड़ पार करने का प्रयास करने लगे। बुधिया को कालू की पीठ पर अंकित चिन्हों की गाथा स्मरण थी। वह डाँटने लगा, "नहीं! गई तो गई। जाने दे। सम्भाल कर क्यों नहीं खेले?"

बच्चे रोने लगे। बुधिया उन्हें पीटने पर उतारू हो गया। कालू का दिल पसीज गया। वह बोला, "मत पीट इनको। हम लाते हैं गेन्द!"

वह बाड़ के कँटीले तारों को ऊपर-नीचे खिसका कर अन्दर घुसने की जगह बना ही रहा था कि सर्वनाश हो गया। ’पों पों’ करती बाबू साहब की गाड़ी पास आकर रुकी, और ड्राइवर ने सिर बाहर निकाल कर आवाज़ लगाई, "क्या बात है?"

कालू की घिग्घी बँध गई। बुधिया को भी जैसे साँप सूँघ गया। दोनों के मुँह से एक अक्षर तक न निकला। बच्चे ज़्यादा निडर थे, बोल बैठे, "गेन्द निकाल रहे हैं।"

ड्राइवर ने पिछली सीट पर बैठे बाबू साहब से कुछ बात की, फिर बोला, "तू कलुआ है न? आज रात को बँगले पर आना।"

बिजली गिरने से उतना आघात न लगता, जितना कालू को इन शब्दों को सुनने से लगा। पता नहीं कितने कोड़े पड़ेंगे। इस बार सहन नहीं होगा, प्राण निकल जाएँगे। बुधिया का मुँह भी सूख गया। बच्चे "गेन्द-गेन्द" रिरियाते रहे, और वह कालू की ओर अवाक् होकर ताकता रहा। बहुत देर बाद बोला, "अगर तुम्हारी जगह हमें सजा दें, तो? बच्चे तो हमारे ही हैं।"

कालू को होश आया, "जब हमका नाम लेकर बुलाय हैं, तो सजा भी तो हमका ही देंगे।"

"जे बात तो है।" 

बुधिया कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, "पिछली दफ़ा पाँच कोड़े की सजा दी रही न?"

"सजा छः कोड़ों की थी, हम झेल नहीं पाए थे पाँच के बाद।" बात पूरी करते-करते कालू के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। 

थोड़ी देर शान्ति रही, फिर बुधिया धीरे से बोला, "पिछली बार जुर्म भी तो जादा रहा। इस बार किया ही क्या है?" 

"अब मालिक की मरजी पर है। चाहे जान मार दें, चाहे छोड़ दें।" कालू ने गहरी निःश्वास छोड़ी।

कुछ देर घास का तिनका चबाने के बाद बुधिया अचानक उठ कर वहाँ से चल दिया। थोड़ी देर में वापस आया तो कालू झोंपड़ी के आगे निढाल पड़ा था। बच्चे अन्दर अपनी माँ से बतिया रहे थे। कालू की बगल में बैठ कर बुधिया ने उसका निर्जीव-सा हाथ अपने हाथ में लिया, और बोला, "हम दरबान से पूछ आए हैं। बाबू साहब मन्दिर गए हैं, एकान्त में भजन सुनने। दू-तीन घण्टे में लौटेंगे। तुम मन्दिर के बाहर ही उनके चरनों में गिर जाओ। हो सकता है, सजा कम कर दें। एक कोड़ा तो सह लोगे न?"

कालू ने अपने पोपले मुँह से हामी भरी, "हाँ, एक कोड़ा तो सह ही लेंगे।"

सहसा उसमें उत्साह आ गया। हो सकता है, जब बाबू साहब शान्त-मन मन्दिर से बाहर निकलें, तो सचमुच उसकी सज़ा कम कर दें। बँगला वापस पहुँचने पर, क्या पता, उनका मिज़ाज बिगड़ जाए। यही ठीक रहेगा। उसके शरीर में वापस जान आ गई। वह झटपट झोंपड़े के अन्दर गया और दाएँ हाथ में लाठी और बाएँ हाथ में चप्पल का डिब्बा लिए बाहर निकला। बुधिया ने उसे अचरज से देखा तो कालू बोला, "बाबू साहब को भेंट दे देंगे।"

बुधिया चुप रह गया।

मन्दिर पहुँच कर बाबू साहब ने ड्राइवर को ऐसे काम के लिए शहर भेज दिया जिसे पूरा करने में दो घण्टे से कम न लगते। गाड़ी की आवाज़ सुन कर पुजारी बाहर आ गया। उसने बाबू साहब को पूर्ण भक्ति से प्रणाम किया, उनके माथे पर तिलक लगाया, और उनके अन्दर आते ही गर्भगृह के किवाड़ बन्द कर दिए। बाबू साहब ने गणेश की काली प्रस्तर प्रतिमा को हाथ जोड़े, और फिर पुजारी की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि गड़ा दी।

"नीचे है," पुजारी ने शान्त स्वर में कहा। 

"हूँ," बाबू साहब गर्भगृह के अन्दर बनी सीढ़ियों से तहख़ाने में चले गए। उन्होंने दरवाज़े पर साँकल चढ़ाई और पलंग पर सिमटी गौर वर्ण कन्या की एक झलक देखने के बाद प्रकाश धीमा कर दिया। आज वे हर बार की तरह हार मानने को तैयार नहीं थे, विशेष प्रबन्ध कर के आए थे। विदेशी औषधि ने चमत्कार दिखाया, और न जाने कितने दशकों के बाद बाबू साहब को रगों में चिन्गारी दौड़ती महसूस हुई। दोनों शरीर पसीने में सराबोर हो गए, पलंग की चादर ज़मीन पर गिर गई, साँसें धौंकनी की तरह चलने लगीं, और आनन्द की चरम सीमा के स्पर्श के बाद कुछ पलों के लिए निस्तब्धता छा गई। इतना आनन्द! काश, ऐसी दवा पहले मिलती तो उन्हें बच्चा गोद नहीं लेना पड़ता।

बाबू साहब ने निर्वस्त्रावस्था में ही ड्राइवर को फ़ोन किया। उसके आने में अभी पंद्रह मिनट शेष थे। उन्होंने कन्या से कुछ और सेवाएँ प्राप्त कीं, वस्त्र पहने, पलंग पर नोट रखे, और उसके नग्न शरीर पर अंतिम नज़र फेर कर तहख़ाने से बाहर आ गए। वे इतने गम्भीर थे मानो काम-साधना नहीं, ईश्वर-साधना में संलग्न होकर लौट रहे हों। चरणामृत निगल, माथे पर तिलक लगवा, गले में माला डाल वे बाहर प्रकट हुए। उन्हें खुली हवा अति प्रिय लगी। 

"तहख़ाने में एयर वेण्ट लगवा दूँगा," उन्होंने निर्णय लिया और चप्पल पहनने लगे। गाड़ी फाटक के बाहर लग चुकी थी। 

वे गाड़ी की ओर बढ़े, तभी उनके पैरों के आगे कालू लोट गया, "हमको माफ कर दीजिए, बाबू साहब, हमको माफ कर दीजिए!"

ड्राइवर ने डाँटा, "ऐ! हट। पगला गया है क्या?"

"इसको क्या हो गया है?" फिर ध्यान से देखकर बोले, "यह कालू ही है न?"

"जी हाँ, आपने रात में बँगले पर बुलाया था इसको," ड्राइवर ने याद दिलाई।

"हाँ! अच्छा हुआ तुम यहीं मिल गए। सुनो, रात में बँगले पर आकर नौकरों से बात करना। वह बताएँगे कि संडास की नाली कहाँ जाम है। उसे रातों-रात साफ़ कर निकल जाना। कोई देखने न पाए कि बँगले पर अछूत आते हैं।" कहते-कहते बाबू साहब गाड़ी में बैठ कर चल दिए।

कालू की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। उसने चप्पलें निकाल कर पहन लीं, डिब्बा काँख में दबाया, और मस्ती में गाता हुआ घर की ओर वापस चल दिया। वह क्या गा रहा था, ख़ुद उसकी समझ से भी बाहर था। गाना समझ में आने की ज़रूरत भी क्या है? आनन्द आना चाहिए, बस! 
 

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