सौ साल की दिल्ली और हिंदी कविता

24-06-2014

सौ साल की दिल्ली और हिंदी कविता

डॉ. सारिका कालरा

12 दिसंबर 2011 को दिल्ली सौ साल की हो गई। 12 दिसंबर के ही दिन सन् 1911 को किंग जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को घोषित किया और इस तरह ब्रिटिश हुकूमत ने इस छोटे से शहर में व्यवसाय की अपार संभावनाओं को देखते हुए अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर डाली। यह तिथि ब्रिटिश इतिहास और साथ ही साथ भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसी दिन दिल्ली में बुराड़ी के पास ब्रिटिश सरकार ने एक भव्य दिल्ली दरबार का आयोजन किया। वैसे यह भव्य दिल्ली दरबार इस तिथि से पहले 1877 और 1903 में दो बार आयोजित हो चुका था पर तीसरा दिल्ली दरबार कुछ खास था और वह कारण था - दिल्ली को नई राजधानी घोषित करना। यह जानकारी ब्रिटिश सरकार के कुछ महत्वपूर्ण लोगों को पहले से ही थी। ब्रिटिश सरकार ने अपने देश इंग्लैंड के प्रख्यात वास्तु शिल्पी एडविन लैंडसीयर लुटियन्स को दिल्ली के कायापलट के लिए बुलाया और इसके बीस साल बाद नई दिल्ली अस्तित्व में आई। राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और इंडिया गेट लुटियन्स की वास्तुकला का ही श्रेष्ठ नमूना हैं।

2011के दिसंबर महीने की शुरुआत के साथ ही दिल्ली के सौ बरस के होने और उसके इतिहास की जानकारी समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, एफ एम रेडियो चैनलों, टेलिविजन, इंटरनेट आदि पर जोर-शोर से दी जाने लगी पर दिल्ली का जहाँ ऐतिहासिक महत्व है, वहीं उसका साहित्यिक महत्व भी कम नहीं है। हिंदी कवियों की कविताओं में दिल्ली और उसके आकर्षण का ज़िक्र हिंदी भाषा की शुरुआत से ही देखने को मिलता है। अठाहरवीं शताब्दी के प्रसिद्ध संत कवि गरीबदास के पुत्र कवि जैतराम ब्रह्मचारी ने लिखा है -

दिल्ली मंडल देश बखानों, हरियाणा कहलावै।
बागड़ जमना मध बिचालै, सुखदाई मन भावै।।

बागड़ हिसार के आसपास का वह क्षेत्र है जिसमें सिरसा, फतेहाबाद, रिवाड़ी, होसी, महेन्द्रगढ़, नारनौल और दिल्ली की तरफ का झज्झर-रोहतक का इलाका शामिल है। यमुना नदी के निगमबोध घाट से वर्तमान महरौली तक का प्राचीन इंद्रप्रस्थ उस समय दिल्ली नाम से जाना जाता था। 19वीं शताब्दी के मध्य तक दिल्ली मंडल में पानीपत, हिसार, रोहतक और गुड़गाँव ज़िले सम्मिलित थे। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन अर्थात् 1857 के बाद अंग्रेज सरकार ने इन्हें हरियाणा के अन्य क्षेत्रों के साथ पंजाब में मिला दिया। कवि जैतराम की उपर्युक्त कविता प्राचीन दिल्ली के क्षेत्रों के उन स्थानों की जानकारी देती है, जो समय के साथ परिवर्तित होते रहे।

आधुनिक काल में अनेक उभरते हुए हिंदी लेखकों, कवियों के लिए दिल्ली प्रारंभ से ही आकर्षण का केंद्र रही है। हिंदी के महान साहित्यकारों ने अपनी लेखनी की शुरूआत चाहे लखनऊ, बनारस, कानपुर, भोपाल, गोरखपुर, इलाहाबाद, जबलपुर आदि स्थानों से की हो लेकिन दिल्ली के प्रति जिज्ञासा और आकर्षण उनका हमेशा बना रहा। दिल्ली के बाहर रहते हुए या दिल्ली में उनके आने के बाद दिल्ली के प्रति उनकी क्या मानसिकता रही यह उनकी रचनाओं में झलकता है। भारत की आज़ादी के बाद दिल्ली राजनीति का केंद्र तो बनी, साथ ही साथ व्यवसायिक केंद्र के रूप में भी फली फूली। दिल्ली और उसके आस-पास अनेक औद्यौगिक इकाईयों के खुलने के बाद भारत के कई राज्यों के होनहार नौजवान दिल्ली की तरफ खिंचे चले आए और इस तरह दिल्ली धीरे-धीरे एक छोटे भारत में तब्दील होती चली गई।

आज़ादी के बाद भारत का राजनीतिक चरित्र पूर्णतः बदल चुका था और दिल्ली क्योंकि राजनीतिक सत्ता का केंद्र बिंदु थी वहॉँ इन परिवर्तनों को तेज़ी से देखा जा सकता था। उन दिनों हिंदी कविताओं का स्वर बदल गया था। रघुवीर सहाय, जिन्होंने ‘नवजीवन’ मासिक पत्र से अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत की थी, 1951 में अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘प्रतीक’ मासिक के सहायक संपादक बनकर दिल्ली आए थे। रघुवीर सहाय ने 1948 में अपनी आरंभिक कविताओं को जिस डायरी में इकट्ठा किया था उसका शीर्षक उन्होंने दिया ‘सपने और सवेरा’। यह शीर्षक कवि की उस पूरी मनःस्थिति को व्यक्त करता है जो स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में बनी थी। सभंवतः आज़ादी मिलने के पूर्व आज़ादी पाने के जो सपने थे और आज़ादी मिलने के बाद उससे जुड़ा हुआ आज़ादी हासिल करने का जो ‘सवेरा’ था यह शीर्षक उसे ध्वनित कर रहा है। ‘दिल्ली मेरा परदेश’ की भूमिका में रघुवीर सहाय ने स्वीकारा है - ‘‘मेरे जैसे कई लेखकों के लिए जो आज़ादी के वर्ष 1947 में लिखना शुरू कर चुके थे, उसके बाद के करीब दस वर्ष एक तरह के उत्साह के वर्ष थे। उत्साह सब में था, पर हम कुछ अलग ही थे । हम लोग राष्ट्र के नाम पर स्थापित किए जाने वाले हर किस्म के दकियानूसीपन की आलोचना बिना भय के कर सकते थे। हमें अस्पष्ट सही, विश्वास था कि राष्ट्र को हम ही बना रहे हैं।’’ (दिल्ली मेरा परदेश, रघुवीर सहाय, पृ.2)

रघुवीर सहाय और उनकी समकालीन युवा पीढ़ी के लिए एक नए युग में प्रवेश पाने का उत्साह स्वाभाविक ही था। परंतु आज़ादी मिलने के साथ ही देश के शर्मनाक विभाजन के बाद सांप्रदायिकता ने आदमी के भीतर दहशत, अविश्वास और अनास्था को पैदा किया। रामधारी सिंह दिनकर अपनी ‘समर शेष है’ कविता में लिखते हैं -

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली। तू क्या कहती है?
तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बन्दिनी, बता, किस घर में?

‘दिल्ली’ नामक संग्रह में दिल्ली से संबंधित दिनकर की चार कविताएँ संगृहीत हैं। उनमें से पहली कविता उनके काव्य-संग्रह ‘हुंकार’ की ‘दिल्ली’ शीर्षक कविता है जो इस संग्रह में ‘नई दिल्ली के प्रति’ शीर्षक से छपी। दूसरी कविता का शीर्षक ‘दिल्ली और मास्को’, तीसरी ‘हक की पुकार’ तथा चौथी ‘भारत का यह रेशमी नगर’ है। बिहार राज्य से आए राष्ट्रीय कवि दिनकर को दिल्ली और उसकी वास्तविकताओं को नज़दीक से देखने का काफी मौका मिला। उनके व्यक्तित्व में साहित्यिक व्यक्तित्व के साथ-साथ राजनीतिक व्यक्तित्व का भी मेल था। वे 1952-1964 के बीच राज्यसभा के सदस्य भी रहे। इस तरह राजनीति के गलियारों में भी उनकी दख़लदांज़ी रही। अपनी कविता ‘भारत का यह रेशमी नगर’ में उन्होंने दिल्ली के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है-

प्रेमिका कंठ में पड़ी मालती की माला
दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।

  X  X X X

दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी
दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है।

यह कविता केवल दिल्ली के ऐश्वर्य का ही वर्णन नहीं करती अपितु इसमें कवि के पीड़ा से भरे हुए स्वर हैं। सत्ता पक्ष की ऐसी क्रुरतम सच्चाइयाँ हैं जो भीतर तक हिला कर रख देती हैं।

दिल्ली, आह कलंक देश का
दिल्ली, आह ग्लानि की भाषा
दिल्ली, आह मरण पौरुष का
दिल्ली, छिन्न-भिन्न अभिलाषा।

दिल्ली की संस्कृति, दिल्ली का अपनापन-बेगानापन भी कई कवियों की कविताओं में झलक उठता है। भगवत रावत की लम्बी कविता है - ‘कहते हैं दिल्ली की है कुछ आबोहवा और’ जिसमें उन्होंने ‘गालिब’ की दिल्ली और उसके बदले हुए रंग को स्पष्ट शब्दों में अपने पाठकों के सम्मुख रखा है और अपने भोपालवासियों को सावधान होने की चेतावनी इन शब्दों में दी है-

दिल्ली का होने के लिए
दिल्ली का होना ज़रूरी नहीं है

समझ से काम लें
तो दिल्ली आप की हो सकती है
और होने को दिल्ली भोपाल में हो सकती है

 X  X X X

वह तो गनीमत है कि मुम्बई कोलकाता और
चेन्नई की तर्ज़ पर
बदला नहीं गया है अभी भोपाल का नाम
अब किसको कैसे पुकारूँ
कि भोपाल वासियों
सावधान
भोपाल हुआ जा रहा है दिल्ली।

लेकिन फिर भी लोग अनजाने स्वर्ग की तलाश में इस दिल्ली में भागे चले आते हैं-

फिर भी कुछ है कि हम बार-बार
न जाने किस स्वर्ग की उम्मीद में
भागे चले आते हैं दिल्ली।

100 वर्ष पूर्व जॉर्ज पंचम द्वारा भारत की घोषित राजधानी दिल्ली का रंग अब कुछ और ही है। कितनी ही बार लुटी फिर आबाद हुई। मुगल शासन, ब्रिटिश शासन के उत्थान-पतन की कहानी कहती इस दिल्ली का हर रंग निराला है। राजनीतिक, साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बिन्दु दिल्ली शैक्षणिक स्तर पर विश्व के मानचित्र पर भी अपना दबदबा बनाए हुए है। हिंदी साहित्यकार चाहे वे दिल्ली के हों या दिल्ली के बाहर के, लगभग सभी ने कम या ज़्यादा अपनी लेखनी इस शहर पर चलाई है। दिल्ली का ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चरित्र सभी उनके विषय रहे हैं। साहित्यकार अपनी सूक्ष्म संवेदनशील दृष्टि से समाज से गहरे रूप में तदाकार होना चाहता है और परिणामस्वरूप उसकी लेखनी हर अनछुए बिन्दु का स्पर्श करना चाहती है। इसीलिए सामने आती हैं ऐसी कविताएँ जो कुछ शब्दों में दिल्ली तो क्या किसी भी शहर का अतीत, वर्तमान और भविष्य उजागर कर देती हैं।

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