सत्यनारायण से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

15-04-2021

सत्यनारायण से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

डॉ. अवनीश सिंह चौहान (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

[1974 के जे.पी. आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करते हुए लोक-जागरण के लिए फणीश्वरनाथ रेणु की अगुआई में नुक्कड़ों-चौराहों पर काव्य-पाठ एवं संयोजन-संचालन करने वाले ख्यात कवि एवं संपादक सत्यनारायण जी का जन्म 03 सितम्बर, 1935 को कौलोडिहरी, गाँव अंचल सहार, भोजपुर, बिहार में हुआ। 'सत्य को नारायण' के रूप में स्वीकार कर सार्थक सर्जना करने वाले सत्यनारायण जी पिछले छः दशक से अधिक अवधि से हिंदी एवं भोजपुरी में साहित्य सेवा कर रहे हैं। जनता से जनता की भाषा में संवाद करने की कला में निपुण इस रचनाकार की रचनाएँ 'नवगीत अर्द्धशती' (सं.– शम्भुनाथ सिंह, 1986), 'धार पर हम' (सं.– वीरेंद्र आस्तिक, 1998), 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' (सं.– कन्हैयालाल नंदन, 2001) सहित देश के तमाम महत्वपूर्ण संकलनों में संकलित की जा चुकी हैं। 'तुम ना नहीं कर सकते' (कविता संग्रह, 1983), 'टूटते जल-बिंब' (नवगीत संग्रह, 1985), 'सभाध्यक्ष हँस रहा है' (नवगीत/ कविता संग्रह, 2011), 'सुनें प्रजाजन' (गीत/ नवगीत संग्रह, 2011), 'स्मृतियों में' (साहित्यकारों के संस्मरण, 1987) आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। उन्होंने 'धरती से जुड़कर' (कविता संग्रह) एवं 'नुक्कड़ कविता' (पत्रिका) का संपादन किया है। 'विशिष्ट साहित्य सेवा सम्मान' (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, बिहार सरकार, 1980) से अलंकृत एवं बिहार राज्य गीत– 'तुझको शत-शत वंदन बिहार' के लिए एक लाख रु की सम्मान राशि से पुरस्कृत (2012) सत्यनारायण जी वर्तमान में डी ब्लॉक, बी.पी. सिन्हा पथ, कदमकुआँ, पटना-800003 (बिहार) में निवास कर रहे हैं। – अवनीश सिंह चौहान]

अवनीश— 

कहते हैं कि बचपन कभी भुलाये नहीं भूलता। एक अच्छे मनुष्य के रूप में आपके पास भी अपने बचपन से संदर्भित कुछ अनुभव अवश्य होंगे? बचपन में आपकी शिक्षा-दीक्षा किस प्रकार से हुई? आपके जीवन का प्रथम गुरुमंत्र क्या था?

सत्यनारायण— 

मेरा जन्म भोजपुर (तब का शाहाबाद ज़िला, बिहार) के एक गाँव में हुआ। गाँव सोन नदी से निकली नहर पर था। खेतों में झूमती-लहराती फसलों के बीच मटरगस्ती बड़ी भली लगती। नहर में नहाने-तैरने का अलग मज़ा था। नहर आरा मुख्यालय से जोड़ती थी। आवागमन के दो साधन थे। आरा सासाराम के बीच छोटी रेल चलती थी। नज़दीक के स्टेशन से गाँव लगभग चार कोस था। इसे हम बैलगाड़ी से तय करते। दूसरा साधन नहर में चलने वाला स्टीमर था। इसे हम बोट कहते थे। गाँव आने जाने में दस-ग्यारह घण्टे लग जाते। हम अक़्सर बोट से ही आते-जाते। जल का स्तर नियंत्रित करने के लिए हर कोस-डेढ़-कोस पर 'लॉक' थे। इसे हम 'लख' कहते थे। दोनों ओर बड़े फाटक। बोट के लख में घुसते ही पीछे का फाटक बन्द कर दिया जाता। आगे के फाटक से धीरे-धीरे पानी छोड़ा जाता था। जब पानी का स्तर लेबल पर आ जाता तो आगे का फाटक खोल दिया जाता और बोट चल पड़ता। बन्द लख के बीच बढ़ते-उतरते जल स्तर के साथ बोट का ऊपर-नीचे होना मुझे विस्मयकारी रोमांच और अबूझे भय से भर देता। आज सोचता हूँ, कि मेरे नवगीत-संकलन– 'टूटते जल बिम्ब' में जल से जुड़े मेरे अनेक गीत शायद इसी स्मृति से उपजे हैं। फिर, अपने गाँव के वह धनीराम मास्टर की पाठशाला। गोबर लीपी ज़मीन पर बोरियाँ बिछाकर हम बैठते– स्लेट-पेंसिल और 'मनोहर पोथी' के साथ। सामने गज-भर की खजूर की छड़ी के साथ ड़ेढ़ हाथ ऊँची, चौकोर चौकी पर मास्टर जी विराजते। धनीराम जी बातों से कम, छड़ी से ज़्यादा काम लेते। प्रार्थना में कुछ छूट गया तो छड़ी, पाठ में चूक हुई तो छड़ी, जोड़-घटाव ग़लत हुआ तो छड़ी। मतलब मास्टर जी को हमारी असावधानी बर्दाश्त नहीं थी। तो रचना के क्षणों में सावधान रहने का कदाचित पहला गुरुमंत्र था यह मेरे लिए।

अवनीश—

काव्य के व्याकरण का प्रथम पाठ आपने कहाँ से सीखा? बचपन और युवावस्था की रोमांचकारी अनुभूतियाँ आपके मन में कब और कैसे अपना शब्दाकार लेने लगीं? आपके रचनात्मक लेखन में आपके शिक्षकों की किस प्रकार की भूमिका रही? 

सत्यनारायण—

सन् 1942 में, मैं पटना आ गया और बिहार के प्रमुखतम विद्यालय पटना कॉलेज में दाख़िला लिया। उसी वर्ष मुझे काव्य-पाठ प्रतियोगिता में शामिल होने का सुयोग मिला। मैंने 'जयद्रथ वध' की कुछ पंक्तियों का (स्मरण से) पाठ किया और पुरस्कृत हुआ। हमारे हिन्दी शिक्षक थे (स्व.) डॉ. रामखेलावन पाण्डेय। एम.ए. में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय ज्वाइन किया और रांची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए। यहाँ यह भी बता दूँ कि पाण्डेय जी ने स्कूल शिक्षक रहते हुए प्राइवेट छात्र के रूप में आई.ए.बी.ए. और एम.ए. किया। यह वही रामखेलावन पाण्डेय हैं, जिन्होंने हिन्दी में गीति साहित्य की पहली प्रामाणिक और महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। उनका स्नेहाशीष मुझे निरन्तर मिलता रहा। उन्होंने मेरे प्रथम काव्य-संकलन– 'तुम ना नहीं कर सकते' की भूमिका लिखी। पाण्डेय जी के जाने के बाद गीत के सुकंठ और सुपरिचित कवि रामगोपाल 'रुद्र' हमारे शिक्षक हुए। उनकी प्रेरणा से मैं तुकबन्दी करने लगा और वे बड़े स्नेह से रचनाएँ सुधारते-सलाह देते थे। गीत के व्याकरण का प्रथम पाठ मैंने उन्हीं से सीखा। यह दौर स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक दौर (1942-46) भी था। आज़ादी के तराने हमारे होठों पर होते थे। कॉलेज के दिनों में आकस्मिक रूप से बच्चन जी को सुनने का सुयोग मिला था। वे हमारे प्राध्यापक से मिलने कॉलेज आए थे। हम लोगों ने उन्हें घेरा और कविता सुनाने की ज़िद की। क्लास रूम में ही बच्चन जी ने अपने दो गीत सुनाए थे– 'प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ' तथा 'कौन हंसिनिया लुभाए हैं तुझे, जो मानसर भूला हुआ है।'

अवनीश—

आप अपनी युवावस्था में कई बड़े रचनाकारों को समीप से देख-सुन चुके हैं; कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपको स्वयं एक सुयोग्य रचनाकार के रूप में कब और कैसे नोटिस किया गया?

सत्यनारायण—

वर्ष 1963-65 के बीच छोटी पत्रिकाओं के अतिरिक्त 'लहर' और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में मेरी कविताएँ और गीत समय-समय पर आते रहे। वह साठोत्तरी लेखन का दौर था। इनमें कई रचनाओं की नोटिस ली गई। लघु और बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित मेरी काव्य-रचनाएँ (इस जनतंत्र में ‘आदमखोर’, ‘शहंशाह सुनो’ आदि) पढ़कर 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' (पटना) के तत्कालीन ब्यूरो चीफ़ पत्रकार-साहित्यकार (स्व.) जितेन्द्र सिंह ने ‘पोयट ऑफ़ प्रोटेस्ट’ शीर्षक से एक लम्बा आलेख लिखा था। उमाकान्त मालवीय ने मेरे नवगीतों की नोटिस ली। 'वासन्ती' की संगोष्ठी में उन्होंने मेरे एक नवगीत– 'अब नहीं मिलता कहीं भी लहर का संकेत' की विषद विवेचना प्रस्तुत की थी। काम आगे बढ़ा और मैं लिखता रहा। ठाकुर प्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, शम्भुनाथ सिंह, रमानाथ अवस्थी का स्नेह-सानिध्य अनायास मिलता रहा।

अवनीश—

जीवन्त अनुभवों से लैस आपकी गहन एवं बोधपूर्ण रचनाओं में जहाँ लोकाचार एवं लोकमंगल के अक्स दिखाई पड़ते हैं, वहीं उनमें समकालीन विद्रूपताओं, अन्तर्विरोधों, आकांक्षाओं और कुंठाओं का कोरस भी सुनाई पड़ता है। आप यह सब सोद्देश्य करते (रचते) हैं या स्वतः ही हो जाता है?

सत्यनारायण—

देखिए, यह किया नहीं जाता है, हो जाता है। दरअसल, यह निरन्तर क्रूर और हिंसक होता हुआ हमारा समय है। आज भूख और बीमारी से हुई मौत पर सन्देह होता है कि कहीं यह हत्या तो नहीं है। चीन से मिली शर्मनाक हार (1962) के बाद भारतीय जनमानस का पूरी तरह मोहभंग हो गया। तब राजनीति के फलक पर राममनोहर लोहिया सर्वाधिक प्रासंगिक होकर उभरे। उनकी सोच और भाषा ने साठोत्तरी लेखन को भी प्रभावित किया। हालात बद से बदतर होते रहे। कुछ ही अन्तराल के बाद बिहार आन्दोलन (1974) घटित हुआ। इसे जे.पी.मूवमेन्ट भी कहा गया। जन उभार के अजीब दिन थे वे। हम कवि-कलाकार फणीश्वरनाथ रेणु की अगुआई में सड़कों-चौराहों पर उतर आए। यह कविता की सर्वथा नई, अनूठी भूमिका थी– जनता की बोली-बानी में जनता से सीधा संवाद। 'जुल्म का चक्कर और तबाही कितने दिन?/ सच कहने की मनाही कितने दिन?/ यह गोली, बन्दूक, सिपाही कितने दिन?'– जैसी मेरी गीत-पंक्तियाँ नुक्कड़-चौराहों, जुलूसों, सभाओं और जेल की दीवारों के भीतर गूँजने लगी थीं। यह आकस्मिक नहीं है कि मेरे इस तेवर के गीतों का स्वतंत्र संकलन 'प्रजा का कोरस' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।

अवनीश—

क्या नई कविता और गीत/ नवगीत के बीच कोई ऐसी विभाजक रेखा मौजूद है जो कथ्य या शिल्प के स्तर पर उनकी अलग विधाओं के रूप में पहचान बनाने में सहायक हो? यदि नहीं है, तो क्या कारण है?

सत्यनारायण—

मुझे समझ में नहीं आता कि विभाजक रेखा की बात बार-बार क्यों की जा रही है। पचास के दशक में नई कवितावादियों ने गीत की अस्मिता पर सवाल खड़े किये तो हम गीत के कवियों ने नई-कविता पर प्रहार किया। नतीज़ा यह निकला कि कविता वाले ‘कवि’ और गीत वाले ‘गीतकार’ हो गए। देश के विभाजन के बाद साहित्य में यह विस्मयकारी बँटवारा हुआ। हम गीतधर्मी आल्हादित हैं कि हमें हमारी ‘टेरीटरी’ मिल गई। क्या गीत/ नवगीत कविता नहीं है? कोई मुझे बताए कि गीत के शिखर निराला ही क्यों? नरेन्द्र शर्मा, अंचल, नेपाली, जानकीवल्लभ, आर. सी. बाबू को गीतकार कहकर सम्बोधित किया गया क्या? क्या गीत/ नवगीत और कविता की अन्तर्वस्तु में कन्टेन्ट में कोई बुनियादी अन्तर है? फ़ार्म (छन्द और छन्दमुक्त) को छोड़कर इनके बिम्ब, प्रतीक अलग-अलग नहीं होते। शिल्प तो रचना की अपनी विशिष्टता है। रचना कथ्य के अनुरूप अपना शिल्प गढ़ती है।

अवनीश—

आज के कठिन समय में रचना एवं पाठक या श्रोता के बीच सेतु के रूप में बौद्धिक एवं मनोवैज्ञानिक तन्तुओं का प्रयोग हो रहा है। ऐसे में गीत की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया कहाँ तक प्रभावित हो रही है और यह भावक को किस प्रकार से संवेदित कर रही है?

सत्यनारायण—

हाँ, आज का समय कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर कई तरह के बौद्धिक और मनोवैज्ञानिक दबाब हमें अपनी चपेट में ले रहे हैं। सामाजिक संरचना, आर्थिक परिदृश्य, राजनीतिक उथल-पुथल सब संक्रमण के दौर से गुज़र रहे हैं। ऐसे में रचना की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया मायने नहीं रखती। आज का रचनाकार सब कुछ खुली आँखों से देख रहा है और रचना के स्तर पर उसकी चुनौतियों को पूरी चेतना से झेल रहा है। गीत का कवि अपनी रागदीप्त संवेदना के साथ सार्थक हस्तक्षेप कर रहा है। नईम की पंक्तियाँ हैं– 'दिन जो दीनइलाही होते/ तब भी सघन तबाही होते/ आलमगीर जेठ शासक है/ समझदार मरते दारा से।' क्या इन पंक्तियों का अन्तरंग इस कठिन होते समय में पाठक या श्रोता को संवेदित नहीं करता?

अवनीश—

आज के साहित्य में मानवीय आयामों (मानवीय सम्बन्ध) को किस तरह से परिभाषित किया जा रहा है और यह अतीत से कितना भिन्न है?

सत्यनारायण—

आज के साहित्य में मानवीय आयाम (मानवीय सम्बन्ध) अलग-अलग सन्दर्भों में परिभाषित हो रहे हैं। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श साहित्यकार की चिन्ताओं में प्रमुखता से शामिल हैं। भूमण्डलीकरण, ग्लोबल मार्केट, विश्व ग्राम के स्वर साहित्य में दिखाई पड़ रहे हैं। यह सब इस तरह पहले नहीं था।

अवनीश—

आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का उपयोग बढ़ रहा है। कई पत्रिकाएँ इंटरनेट पर अपनी पहचान बना रहीं हैं। कई साहित्यकारों ने अपने ब्लॉग खोल लिये हैं। इससे प्रिंट मीडिया पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ सकता है?

सत्यनारायण—

इसको लेकर मैं क़तई चिन्तित नहीं हूँ। यह एक फ़ेज़ है। क्या समाचार-पत्रों के बाज़ार में मंदी आई? पत्र-पत्रिकाओं और साहित्य का प्रकाशन हो ही रहा है। पाठक वर्ग बना हुआ है। सो, प्रिंट मीडिया की ज़रूरत है, और बनी रहेगी।

अवनीश—

आज गीत के सामने विधागत चुनौती क्या है? युवा गीतकारों में आप किस प्रकार की सम्भावनाएँ देखते हैं?

सत्यनारायण—

मेरी चिन्ता वस्तुतः यह है कि आज हिन्दी में ग़ज़लों की बाढ़ आई हुई है। युवा मानस ही क्यों, अनेक बुज़ुर्ग-गीतकवि भी ग़ज़लों को लोकप्रियता का शार्टकट मानकर अपना पाला बदल चुके हैं। फिर भी ऐसे ढेर सारे युवा कवि हैं जो पूरी निष्ठा से गीत लिख रहे हैं। उनका गीत-विवेक, उनकी गीत-भाषा बहुत आश्वस्त करती है।

अवनीश—

क्या आप नई पीढ़ी को कोई संदेश देना चाहेंगे?

सत्यनारायण—

संदेश क्या दूँ। मेरी क़ुव्वत भी नहीं। बकौल केदारनाथ अग्रवाल नई पीढ़ी से इतना ही कह सकता हूँ– 'टूटें न तार कभी जीवन सितार के/ ऐसे बजाओ इन्हें प्रतिभा के ताल से/ किरणों के कुमकुम से, सेनुर, गुलाल से/ लज्जित हो युग का अँधेरा निहार के।'

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