सरकारी हवा-हवाई सरकार

01-06-2021

सरकारी हवा-हवाई सरकार

अखतर अली (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

इन दिनों सरकार पर हवा का ज़बरदस्त दबाव है, हवा में पूरा सिस्टम तिनके की तरह उड़ गया है। सरकार की हवा बंद है, न हवा अंदर जा रही है न बाहर निकल रही है, और न ही हवा पास हो रही है। प्रबंधन के हकीम इस कोशिश में है कि हवा पास हो जाये तो वे फ़ेल होने से बच जाएँगे। कुर्सी पर सरकार गुब्बारे में हवा की तरह बैठी है, गुब्बारा कब फट जाये कोई भरोसा नहीं है।

हवा को लेकर सरकार चिंतित है, चिंता की बात यह है कि अगर हवा नहीं होगी तो हवाई क़िले कैसे खड़े किये जायेगे, हवा में कौन बातें करेगा, विरोधी की हवा कैसे निकाली जायेगी, हवा हवा जैसे गाने कैसे हिट होगे, हवा में उड़ता जाये मेरा लाल दुपट्टा मलमल का वाली शायरी तो फ़ेक न्यूज़ की श्रेणी में आ जायेगी।

जब हवा भरपूर थी तब समझते थे हवा बस एक ही क़िस्म कि होती है अब जब हवा की क़िल्लत हो गई है तो पता चला हवा की कई क़िस्में हैं जिसमें एक प्रकार की हवा का नाम आक्सीजन है। आक्सीजन हवाओं की सरदार है, हवाओं की रानी है।

मेरा विचार है कि हवा की ख़बर हवा में फैलते ही सरकार को हवा में तीर चला देना था, हवा विभाग की स्थापना कर हवा मंत्री बना कर एक हज़ार करोड़ रुपये की राशि हवा फ़ंड में जमा कर देते और हमाम में गाते रहते ’इन हवाओं में इन फ़िज़ाओं में तुझको मेरा प्यार पुकारे’। देश की जनता को समझाते कि हमारे क्षेत्र की हवा पर पड़ोसी देश ने कब्ज़ा कर लिया है, उसकी यह हरकत बर्दाश्त नहीं की जायेगी, उसे मुँह तोड़ जवाब दिया जायेगा।

सरकार को तो अध्यादेश जारी कर हवा के बहने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिये था और हवा के नाम नोटिस जारी करना था कि हमारी अनुमति के बिना साँस बनकर किसी भी नाक में प्रवेश न करे और जनता के लिये भी नियम बना देते की आम आदमी के साँस लेने पर आगामी आदेश तक प्रतिबंध लगा दिया गया है। वही आदमी साँस ले सकेगा जिसके पास साँस लेने का परमिट हो, अगर कोई भी आदमी अवैध रूप से साँस लेते पाया जाता तो उसकी नाक ज़ब्त कर लेते।

यही तो अवसर था जब सरकार का हवा विभाग सार्वजनिक हवा वितरण प्रणाली के तहत नई नौकरियाँ उपलब्ध कराता। पूरे देश में हवा दिवस, हवा सप्ताह और हवा माह मनाया जाता। कवियों से कहा जाता कि वे हवा पर कविता लिखें, नाट्य संस्थाओं से कहा जाता कि हवा पर नुक्कड़ नाटक तैयार करे, हवाई साहित्य पर लाखों रुपये का पुरस्कार प्रदान किया जाता। एक बार कवि और कलाकार सेट हो जाये तो सरकार निश्चित होकर अपने पक्ष में हवा बना सकती है।

यही तो अवसर था कि सरकार सात दिवसीय हवा उत्सव का आयोजन करती, जहाँ लोक कलाकार अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते, आदिवासी शिल्प के स्टाल लगाये जाते, हवा में कलाबाज़ी दिखाने वाले कलाकारों को हवाश्री की उपाधि दी जाती। इस अवसर पर साँस रोको प्रतियोगिता का आयोजन किया जाना चाहिये था, लोगो से अपील की जानी चाहिये थी कि देश हित में साँसों का त्याग करें।

मेरे विचार से तो सरकारी अमले को इस काम में लगा दिया जाना था कि हिसाब करो कि अपने वायु क्षेत्र में कितनी हवा है और अपने पास साँस लेने वाले लोगों की संख्या कितनी है, इस आधार पर प्रति व्यक्ति के हिस्से में कितनी साँसें आयेंगी। उन लोगों की सूची बनाई जानी चाहिये थी कि ऐसे कितने लोग है जो महँगे दाम पर अतिरिक्त साँसें ख़रीद सकते हैं और ऐसे कितने लोग हैं जो इस कठिन परिस्थति में स्वेच्छा से अपनी साँसें छोड़ने को तैयार है। सरकार को इस बात का आंकलन करना चाहिये था कि किसके साँस लेने से देश को क्या लाभ है और किसकी साँसें रोक देने से किसी को कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा।

मेरे विचार से तो सरकार को इस प्रणाली से काम करना चाहिये था कि देश के हर नागरिक का महत्व एक जैसा नहीं है। वी. आई. पी . श्रेणी के लिये साँसों का अलग कोटा, अल्पसंख्यको के लिये साँस का अलग कोटा, पिछड़े वर्ग के लिये साँस का अलग कोटा तय कर दिया जाना चाहिये था। साँसों की कालाबाज़ारी करने वालों को विशेष छूट दी जानी चाहिये थी, चोरी-छिपे साँस का धंधा इतना चलता कि व्यापारी को साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं मिलती, लोग साँस ख़रीदने के लिये ऐसे टूट पड़ते कि उन्हें बोलना पड़ता भाई एक मिनट साँस तो ले लेने दे।

साँस के लिये परमिट वाला खेल भव्यता से भरपूर हो सकता था, इसके लिये एक फ़ार्म भरवाया जाता और आवेदनकर्ता से पूछा जाता कि उसे साँस लेने की आवश्यकता क्यों पड़ी, उसे कितने वर्षों से साँस लेने का अनुभव है, उसके घर में कौन कौन साँस ले रहा है, उसे कितने दिनों तक साँस लेने की अनुमति चाहिये? इसके बाद अधिकारी की भूमिका शुरू होती वह आवेदन टेबल के ऊपर से लेता और परमिट टेबल के नीचे से देता, परमिट का बहुत बड़ा खेला हो सकता था।

अब मेरे मन में विचार आ रहा है कि ऐसा विचार मेरे मन में आया तो आया कैसे, इसका लिंक क्या है, इस विचार का आधार क्या है? मैं भी न– कुछ भी सोचता रहता हूँ, आप ही बोलिये भला ऐसा भी कहीं हो सकता है?

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