सराबों तक ले आने वाली शायरा 

01-03-2021

सराबों तक ले आने वाली शायरा 

डॉ. सरिता मेहता (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हिन्दी सिंधी साहित्य की ललक सराबों तक ले आई मुझे– देवी नागरानी
    

न्यू यॉर्क! दोपहर का समय, मैं अपने ‘सिन्दूरी शाम’ प्रोग्राम के आयोजन में व्यस्त थी। फोन की घंटी बजी और उनकी मधुर आवाज़ सुनाई दी। और मेरी पहली मुलाक़ात उनसे उसी आयोजित कार्यक्रम में 11 नवंबर 2008 में हुई। श्री सत्यनारायण मंदिर, वुड साइड, न्यू यॉर्क में, विद्याधाम की ओर से आयोजित एक बहु-भाषी कवि-सम्मेलन था। पहली बार उस आयोजन में देवी जी ने एक सिन्धी की ग़ज़ल अपने सुरमई आवाज़ में सुनाई, और साथ में उसका हिन्दी अनुवाद भी उसी लय में गाकर सुनाया, जिसकी प्रतिध्वनि आज भी यादों में माधुर्य भर देती है। तब से आज तक यह सिलसिला मिलने का, बातचीत करने का, सतत क़ायम है। आज छः बरस के बाद मुझे मौक़ा मिला है उनसे बातचीत करने का, उनके अन्तर्मन को जानने का, उनके जीवन के उन क्षणों के तजुर्बात से रू-ब-रू होने का, जो संघर्ष की राहों से होकर उन्हें साहित्य के चौराहे तक ले आए हैं। मन में कई सवाल कुलबुला रहे हैं, छटपटा रहे हैं, अपनी देवी नागरानी से जवाब पाने के लिए! जी हाँ मैं शायरा देवी नागरानी जी से मुख़ातिब हुई हूँ। तो आइये देवी जी से रू-ब-रू होते हैं– और सुनते है उनकी कहानी उनकी ज़ुबानी:

सरिता मेहता: 

जब अचानक आपको पहली बार न्यू यॉर्क में आयोजित ‘सिंदूरी शाम’ के मंच में पर सम्मानित किया गया तो आप को कैसा लगा?             

देवी नागरानी: 

सरिता जी 11 नवंबर 2008 की शाम मेरी स्मृतियों में एक ख़ुशनुमा यादगार शाम बनकर रह गई है। श्री सत्यनारायण मंदिर, में आपकी संस्था ‘विद्याधाम’ ने मुझे निमंत्रित किया जिसके लिए मैं आभारी हूँ। यह बहु-भाषी कवि सम्मेलन मेरे लिए विदेश की सरज़मीं पर एक नया मंच रहा जिसने मुझे बहुत अधिक रोमांचित किया क्योंकि इसमें बहु-भाषी पंजाबी, बंगाली, सिन्धी, अवधी और अँग्रेज़ी भाषा के कवियों ने भाग लिया और सोने पे सुहागा ही कहूँ जब आप ने मुझे सिन्धी एवं हिन्दी में पाठ करने का अवसर दिया।                 

निर्देशिका के तौर पर आपने और मंदिर के मुख्य पंडित शास्त्री जगदीश त्रिपाठी जी के साथ मुझे ‘काव्य रतन’ स्मृति चिन्ह व् शाल देकर सम्मान किया! मान-सम्मान बहुत अच्छा लगता है, ख़ुशी भी होती है, और साथ में एक जवाबदारी की भावना भी जुड़ जाती है। तब से आज तक जो लेखन मेरी पहचान बना है, उसे बनाए रखने की मर्यादा भी भावनाओं में शामिल रहती है। उसके प्रति सजग व जागरूक रहकर और बेहतर लिख पाऊँ; यही कोशिश करती हूँ। वही लिखूँ जिसका संबंध समाज से हो, उसमें पल रही कुरीतियों से हो . . . हाँ लिखने मात्र से बदलाव लाने की जागरूकता संचारित होने की संभावना बनी रहती है। सामाजिक प्राणी जो इन विषयों को पढ़ते हैं, अपने विचार अभिव्यक्त करते हैं, उससे चेतना का संचार होता है। यही तो है जागरूकता . . . जहाँ जन-जनार्दन अपनी सोच के साथ सामने आए . . . अपनी बात रखने की क्षमता रखे . . . बस यहीं से बदलाव की शुरुआत होती है। एक साँझी जवाबदारी सी होती है अपने समाज के प्रति, अपने देश के प्रति और अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा के प्रति। आपको इस सफल बहु-भाषी काव्य कवि-गोष्ठी के लिए पुनः बधाई।

सरिता मेहता:

आपके अमेरिका के नूतन अनुभव?

देवी नागरानी:
             अमेरिका में रहते हुए मैंने एक नए माहौल, नई संस्कृति, नए परिवेश से समझौता करती हुई मनोवृति का आवरण पहन लिया। यहाँ के वातावरण को देखा, समझा और ख़ुद को उसमें पूरी तरह से ढाल लिया। हाँ समय ज़रूर लगा, पर काम करते-करते बहुत कुछ सीखा, जिसकी संभावनाएँ भारत में शायद कम होतीं। खुले हुए माहौल में हर तरह की आज़ादी को महसूस किया, वेश-भूषा की आज़ादी, आर्थिक आज़ादी, निर्णयात्मक आज़ादी . . .! एक बात जो अमेरिका में मुझे अच्छी लगी वह है स्पेस, जो हर किसी को मिलता है। हाँ, एक कमी जो यहाँ और वहाँ के बीच लगी वह थी किताबों की कमी! हिन्दी साहित्य पढ़ने के लिए जो ललक थी वह मुझे सराबों तक ले आई है। 

सरिता मेहता:

आप के इस साहित्यक सफ़र की शुरूआत कब हुई? आप को कैसी अनभूति होती है?

देवी नागरानी:

सरिता जी कब, कैसे और किन हालातों में मेरा यह सफ़र शुरू हुआ याद नहीं। पर एक बात तय है, दर्द का दौर जब शिद्दत की हदों को छूता है तो, सोच करवटें बदलती हैं, ख़यालों में तहलका मच जाता है, और मन अपने मनचाहे पड़ाव पर थाह पाने के लिए छटपटाता है। ऐसा ही कुछ हुआ जब 1972 में मेरे पति के बाद मेरी ज़िंदगी की कश्ती डगमगाने लगी। इस संगीन हादसे ने मुझे हिलाकर रख दिया . . . दिल को करारी चोट लगी। तद्‌पश्चात 1982 में मेरे बहनोई हृदय की गति रुक जाने के कारण हमें छोड़ गए, बहन छोटी थी, मैं बड़ी। उसे सँभालते-सँभालते पहले वाले ज़ख़्म फिर से हरे हो गए। शायद यही वह क़बूलियत का लम्हा था जब कश्मकश से गुज़रते मैंने पहली बार क़लम उठाई और कागज़ पर दर्द की लकीरें खींचती चली गयी। यह पता न था कि आँसुओं की बहती धाराएँ गद्य और पद्य के बीच की लकीरों को मिलाने के रास्ते तराश रही हैं। यहीं से मेरी शुरुआत हुई। 1982 के हादसे ने जैसे हवन की आग में घी का काम किया। जो लिखा वह आँसुओं की ज़ुबानी था . . .

दर्द नहीं दामन में जिनके / ख़ाक वो जीते ख़ाक वो मरते!

तब यह भी पता नहीं था कि यह शेर है, बस कुछ कुछ मन की संघर्षमय स्थिति को बेज़ुबान शब्दों में लिखने से कुछ राहत ज़रूर मिलती और एक अनकहा, अछूता शौक़ मेरी झोली को भरता रहा। वे शब्द फूलों की मानिंद डायरी में बंद रहे, न जाने कितने दिन, महीने, साल . . .! मैं मात्र कच्ची मिट्टी, वो कुम्हार जो अपने पात्र को गढ़ता रहा . . .

मैं क़लम थामे हुए हूँ, लिख रहा कोई और है
मैं लकीरें खींचती हूँ, सोचता कोई और है . . .

सरिता मेहता: 

आप दोनों भाषाओं में लिखती रहीं, उन रचनाओं को प्रकाशित करवाना चहिए, यह प्रेरणा कहाँ से मिलती?

देवी नागरानी:

एक जुनून की तहत यह होता गया, जैसे कोई सैलाब हो जो मुझे साथ बहा ले जा रहा हो। यह न सोचा कि लिखना क्या है, क्यों लिखना है, बस मन के उद्गारों को भाषा में बुनती रही। 

फिर अचानक बरसों बाद 1992 के आस-पास लिखना मेरी मातृ भाषा सिन्धी में हुआ। मुझे याद है जब मेरा पहला सिंधी लेख “नज़ाकत रिश्तों की” चार किस्तों में, सिंधी इंटरनेशनल “हिंदवासी” सप्ताहिक पेपर में छपा था, पहली बार एक गुदगुदाती ख़ुशी का अहसास हुआ। यह प्रकाशन  शायद एक शुभारंभ ही था जो मुझे प्रेरित करता रहा। या यूँ कहें, एक नई ‘देवी’ का जन्म हुआ . . .! 

1995 में मैंने हिन्दी भाषा में लिखना शुरू किया . . .और आज तक निरंतर प्रयास जारी है; इस ख़याल के साथ, इस विश्वास के साथ कि यह लिखने की देन मेरे लिए वरदान है, उस मालिक की बख़्शीश है। 

उसके बाद मेरी लेखन की पगडंडी ग़ज़ल विधा के पथ पर चलने लगी और उसी धुन में चार साल तक एक नशे जैसी हालत में बस गुनगुनाती रही, शब्दों को सँजोते हुए लिखती रही . . .

फ़िक्र क्या, बहर क्या, क्या ग़ज़ल गीत क्या
मैं तो शब्दों के मोती सजाती रही 

सरिता मेहता: 

जिन्दगी फ़ूलों की सेज़ तो नहीं है। कोई भी मुक़ाम हसिल करने के लिए बहुत सी कठनाइयों का सामना करना पड़ता है। बहुत सी करारी चोटें खा कर, और दर्द सह कर आप इस मुक़ाम पर पहुँची हैं। क्या आप विस्तार से अपने इस सफ़रनामे को हमारे साथ साझा करना चाहेंगी?

देवी नागरानी: 

जीवन एक संघर्ष, एक चुनौती है जिसे हर इंसान को स्वीकारना पड़ता है। संघर्ष में न सिर्फ़ उन्हें ऊर्जस्विता मिलती है, बल्कि जीवन की विविध दिशाओं और दशाओं से उनका परिचय भी होता है। मानव समाज के इतिहास में, स्त्री को सत्ता, प्रभुत्व एवं शक्ति से दूर रखने की प्रमुखता है। वर्तमान दौर में स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारी के अधिकारों को एक विषय बनाकर वाद-विवाद होता आया है, पर ज़िंदगी वाद-विवाद नहीं जो तर्क-वितर्क से उलझनों को सुलझा सके। व्यवस्था के संघर्ष के साथ-साथ जब तक स्त्री समाज की लड़ाई से नहीं जुड़ेगी, तब तक उसे अपना अभीष्ट, अपना अधिकार, अपना सम्मान हासिल नहीं कर सकेगी। यह दर्शन इस संघर्षशील समाज में अनेक विमर्शों– दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, शिक्षा विमर्श के सरोकारों से जुड़ा हुआ है, और रहेगा। एक मैं ही नहीं, हर नारी अपने जीवन में किसी न किसी मोड़ पर इन व्यवस्थाओं से जूझती हुए अपना रास्ता निकाल लाती है। जीवन में संघर्ष ही शायद उसे अपनी पहचान पाने का अवसर प्रदान करते हैं, और जूझने की प्रबलता देते हैं। बिना लड़ाई लड़े जीत पाना भी क्या कोई जीत है? नारी में आज हर चुनौती स्वीकार करने की शक्ति आ गई है . . .क़दम अब आगे कि ओर बढ़ रहे हैं . . .आगे और आगे- . . .! 

सरिता मेहता: 

आपने कई विषयों पर कवितायें और ग़ज़लें लिखी हैं। क्या आपको नहीं लगता कि कुछ नए विषयों पर, जैसे कि राजनीति, धर्म या अब समाज में हो रहे औरतों पर आत्याचारों पर भी लिखें? इसके प्रति‍ आपकी क्‍या प्रति‍क्रि‍या है? 

देवी नागरानी:

बहुत ही सटीक सवाल पूछा है आपने सरिता जी। मैंने कई गीत ग़ज़ल, लेख व संस्मरण लिखे हैं। समाज ने हमें दिया भी बहुत है, पर लिया भी कम नहीं; कर्ज़ फिर भी बाक़ी है, जाने कब चुकता होगा। अब तो जो आस-पास हादसा होता है, धमाके की तरह होता है। दिल के ज़ख़्म रिसने लगते हैं। 2008 में मुंबई में हुए ताजमहल होटल वाले भयानक कांड ने वातावरण को स्याह, बोझिल बना दिया और भारत माँ की धरती पर लाल दाग़ लगा दिया। नौजवान वीर सैनानियों के कारनामे देखे, जो जान हथेली पर लेकर मौत के उस तांडव में कूद पड़े। उन दिनों मैं मुंबई में थी, दहशत हवाओं में थी पर उन वीर जवानों की बहादुरी पर न जाने कितनी नज़्में, ग़ज़लें लिख दीं, कुछ जाने पहचाने पत्रकारों की शोक सभाओं में शामिल हुई और आँसुओं की सियाही से लिखा –

इस देश के जवां सब, अपने ही भाई बेटे
ममता का कर्ज़ ‘देवी’ हँस हँस के है उतारा
हिन्दोस्तां के हम हैं, हिन्दोस्तां हमारा
पहचानता है यारो, हमको जहां सारा . . .

बस इस बात का लेखा जोखा ही नहीं, कि क्या पाया और क्या खोया . . . 

सरिता मेहता: 

क्या आप को लगता कि लेखक समाज में परिवर्तन ला सकता है?

देवी नागरानी:

निश्चित ही! सार्थक साहित्य अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ होता है। अपनी भाषा, परिवेश, सभ्यता संस्कृति की सियाही से समय के पन्नों पर लिखे हुए शब्दों के शब्दार्थ जीते हैं। ताकि परिभाषित भाषा में उनके जिये हुए पलों का निचोड़, तजुर्बा, अनुभूति से अभिव्यक्ति तक के सफ़र में आने वाले कल की राहें रौशन करता रहे।

साहित्य में निरंतर प्रगति हो रही है। आज की नव पीढ़ी एक सुनहरे भविष्य का निर्माण कर रही है। उनकी भावुक सोच, कल्पना, और आने वाले कल के सुंदर भविष्य के यथार्थ को शब्दों में ढाल रही है। उनकी लेखनी के तेज़ाबी तेवर और भाषायी प्रवाह भी प्रशंसनीय है . . .सोच और शब्दों का तालमेल भी प्रखर है . . .फिर चाहे वह अभिव्यक्ति किसी भी विधा में हो . . .! आज सबसे बड़ी बात यह है कि लेखक के साथ-साथ पाठक भी जागरूक है!

सरिता मेहता: 

आपको अब तक मिले सम्मान और प्राप्‍त पुरस्‍कारों के बारे में कुछ बताएँ?

देवी नागरानी:

सम्मान और पुरस्कार एक लेखक की जीवनी को सुशोभित करने के साथ-साथ संचारित भी करते हैं। अपनी तारीफ़ किसे अच्छी नहीं लगती। इसके बावजूद भी मुझे नहीं लगता कि मान-सम्मान हमारे साहित्य सफ़र के मापदंड हैं। समाज की ओर से इस पथ पर मिले साम्मान से, जहाँ पहचान का विस्तार बढ़ता है, वहीं उसके साथ लेखन में जवाबदारी भी बढ़ जाती है। अपने लेखन के प्रति जागरूकता का भाव लेखक को आज़ादियों और परिधियों से भी ख़बरदार करता है। शब्दों के अर्थ में भी अनर्थ की व्यवस्था रहती है, उचित-अनुचित के बीच की बारीक़ रेखा का उल्लंघन न हो इस लिए जागरूकता भी उचित है। वॉशिंगटन के प्रखर गीतों के बादशाह श्री राकेश खंडेलवाल जी की निम्न पंक्तियाँ उसी शब्द स्वरूपी अक्षर की परिभाषा जो स्पष्ट करते हुए कहती हैं–

जीवन की गति जिसे उड़ाती रही . . ./ पतझड़ी पत्र बनाकर शब्द
कभी न बन पाया जो, कैसा इकलौता अक्षर हूँ . . .!

मुझे पद्मश्री श्री श्याम सिंह शशि जी की लिखी पंक्तियाँ आ रही है, जो कहते हैं–

“वे दो अक्षर लिखते हैं, तो उम्र भर गाते हैं। 
हम पोथियाँ लिखते हैं, इक उम्र दे जाते हैं।“

सच की परिभाषा इससे ज़्यादा बेहतर और क्या हो सकती है। 

राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय संस्थाओं, विश्वविद्यालयों द्वारा सम्मान व पुरस्कार मिले हैं, जिसे मैं रब की देन मानती हूँ। न्यू जर्सी, न्यू यॉर्क, ओस्लो, चेन्नई, धारवाड़-कर्नाटक, रायपुर, जोधपुर, नागपुर, लखनऊ, हैदराबाद, सिंधी विकास परिषद, व महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादेमी, यू.पी. की से भी पुरस्कार पाया। सिंधी विकास परिषद से भी 2009 में पुरस्कार हासिल है। हमारी सिंधी भाषा में एक कहावत है जिसका अर्थ है: चादर जितनी गीली होगी, उतनी ही भारी होती जाती है। सम्मान हासिल होने के बाद लेखन में और भी गहराई और गीराई का होना लाज़मी हो जाता है, एक जवाबदारी का एहसास जुड़ जाता है। 

सरिता मेहता: 

क्या आपको लगता है कि भाषा के क्षेत्र में जितना आपने अब तक काम किया है, आपको सहित्य जगत में उतना मान-सम्‍मान नहीं मिल पाया है।

देवी नागरानी:

सरिता जी, मेरे साथ इसके बिलकुल विपरीत हुआ। इस मामले में मैं बहुत भाग्यशाली रही हूँ कि जिस उम्र में लोग हर काम से निवारित होते हैं, मैंने लिखना शुरू किया . . .! लिखने का सफ़र ग़ज़ल से शुरू हुआ, और मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह ’चराग़े-दिल’ लोकप्रिय हुआ और मेरी पहचान भी बना। तद्‌पश्चात 2007 में पुस्तक समीक्षा का सफ़र अंजना संधीर के संग्रह ‘प्रवासिनी के बोल’ से शुरू हुआ। विद्याधाम की संस्था की निदेशिका के तौर आपका बाल साहित्य पर संग्रह –“आओ हिन्दी सीखें” शिक्षा के क्षेत्र में मील का पत्थर बनकर स्थापित हुआ, जिसकी नींव वैज्ञानिक तत्वों की आधारशिला पर टिकी हुई थी। उस पुस्तक की समीक्षा लिखने का भी मुझे मौक़ा मिला। अनेक दस्तावेज़ी शख़्सियतों के व्यक्तित्व व कृतित्व पर क़लम चलाई। सबसे सुखद स्थिति यह रही कि पत्रिकाओं और रसालों में मेरी रचनाएँ स्थान पाती रहीं। उनकी प्रतिक्रिया के रूप में चिट्ठियाँ, या फोन आते रहे, तो लगा यही असली मान है, यही सम्मान है। लोगों तक हमारा लिखा पहुँचे, उनके दिलों पर दस्तक दे, यही उपलब्धि है। सुधि पाठक हों, थोड़े ही क्यों न हों . . .लेकिन जो विश्लेषण कर पाएँ भाषा का, अनुवाद का और क़लम की हर तर्जुमानी का, वह किसी सम्मान से कम नहीं। 

सरिता मेहता: 

देवी जी आप मूलतः सिन्धी भाषी हैं, और हाल ही में मुझे एक कहनी संग्रह "और मैं बड़ी हो गई” हासिल हुआ, जिसमें सिन्धी कथाकारों की अनुवाद की हुई कहानियाँ हैं। जैसा कि आप ने बताया कि आप अनुवाद का काफ़ी कार्य कर रहीं हैं, तो परस्पर किन भाषाओं में कर रही, इसके बारे में बताएँ कि अनुवाद करते आपको किन बातों, या किन परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है?

देवी नागरानीः

सरिताजी, अच्छा सवाल किया है। सन्‌ 2011 सितम्बर जब मैं भारत गई, तो देखा अनेक सिन्धी, व हिन्दी कहानियों के संग्रह व कई पत्रिकाएँ साल भर की वहाँ जमा मिलीं, जिनमें एक सिन्धी संग्रह में एक लेखक का पत्र भी था, मुझे उनकी कोई भी एक कहानी अनुवाद करने के लिए अनुरोध था। वह 6 माह पुरानी चिट्ठी थी, मैंने उन्हें प्रत्युतर देते हुए लिखा कि मैं यह प्रयास ज़रूर करूँगी। और एक महीने में उनकी कहानी ‘सच्चा पाकिस्तानी’ का सिंधी से हिन्दी में अनुवाद किया और वह हमारे जाने-माने हमारे सिन्धी संपादक सेतपाल जी की सिन्धी व हिन्दी साहित्यकारों की अनूठी पत्रिका ‘प्रोत्साहन’ में छपी। कुछ चिट्ठियाँ, कुछ फोन आए और उस कहानी में एक अछूतापन है और कराची हवाई अड्डे की, व लेखक के बचपन से जवानी तक की कुछ खट्टी-मीठी यादें लेखक ने उस कहानी में यूँ दर्ज की हैं कि सिन्ध का एक सजीव चित्र आँखों के सामने उभरने लगा। इस कहानी की ठोस बातों ने मुझे भी रोमांचित किया। मैं सिन्ध की पैदाइश हूँ पर याद कुछ भी नहीं। हाँ, विभाजन के बाद की कुछ धुँधली यादें मेरी विरासत में आईं। बस फिर एक जुनून के तहत एक के बाद एक सिंधी कहानी पढ़ने लगी। साहित्य अकादमी से पुराने सिंधी संग्रह ले आई, पढ़ती रही और जो कहानी मन को छूती उसे अनुवाद करती रही।

हाँ, एक विडंबना इस दौरान ज़रूर हुई, मुझे शब्दार्थ के लिए अरबी सिंधी शब्दकोश से हिन्दी के अर्थ निकालने में मेहनत करनी पड़ी, कभी तो लेखकों को फोन करके उनसे पूछ लेती। पर जब 2012 में बीस सिन्धी कहानियों का हिन्दी अनूदित संग्रह “और मैं बड़ी हो गई” मंज़र-ए-आम पर आया, तो उसकी प्रतिक्रया बड़ी ही सकारात्मक व प्रोत्साहनजनक रही। विश्वास बढ़ा और मैंने उसी साल हिन्दी कथाकारों की कहानियों का अरबी सिंधी में अनुवाद किया और दिसम्बर 2012 में दूसरा “बारिश की दुआ” प्रकाशित हुआ, जिसमें हिन्दी के 17 कहानीकरों की हिन्दी से सिंधी कहानियों में अनुवाद रहीं। 2013 अनूदित कहानी संग्रह “अपनी धरती’ (2013) नाम से अरबी सिन्धी लिपि में प्रकाशित हुआ। इसमें भी अलग-अलग भाषाओं से अनुवाद की हुई 15 कहानियाँ है– मेरे अनुवाद की हुई कहानियों के और संग्रह हैं– पंद्रह सिन्धी कहानियाँ (2014), सिन्धी कहानियाँ (2015), सरहदों की कहानियाँ (2015), अपने ही घर में (2015), दर्द की एक गाथा (2015), एक थका हुआ सच (2016) में, विभाजन की त्रासदी (2017) और प्रांतीय भाषाओं का संग्रह “प्रान्त प्रान्त की कहानियाँ” है जिसमें कश्मीरी, बलूची, पशतु, उर्दू, तेलुगु, हिन्दी, सिन्धी, अँग्रेज़ी, डोगरी, भाषाओं की कहानियाँ शामिल हैं। जिनकी पठनीयता एक परिवेश के इन्सान को दूसरे परिवेश के इन्सान से, उनकी भावनाओं से अवगत करती है। 

एक जूनून के तहत सिन्धी से हिंदी कथा अनुवाद करती रही। इन कहानियों की एक अलग ख़ुशबू है, शहरों का तेज़ाब नहीं है पर गाँव की मिट्टी की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू है जो बोलचाल की भाषा की तरह हमसे गुफ़्तार करती हैं। अपने आस पास की परिधि से वाक़िफ़ कराती हैं, और इन कहानियों को पढ़ते वक़्त एक अलग ज़ायका मिलता है

सरिता मेहता: 

आपका एक संग्रह “एक थका हुआ सच” काफ़ी चर्चित रहा, उसके बारे में कुछ बताएँ? 

देवी नागरानी:

जी हाँ, २०१६ में सिन्ध पाकिस्तान की बाग़ी शायरा अत्तिया दाऊद के एक सिंधी काव्य संग्रह का हिन्दी में अनुवाद किया, जिसकी इज़ाज़त पाने में मुझे एक साल लग गया। उस काव्य के तेज़ाबी तेवर हर नारी के संघर्षमय राह में प्राण फूँक देते हैं। मैं ख़ुद इतनी मुतासिर हुई कि उसे हिंदी भाषा में ले आना जैसे एक मक़सद हो गया। एक बात के लिए शुक्रगुज़ार हूँ उस रब की जिसने यह क़लम मेरे हाथ थमाई है– अपनी सिंधी भाषा से हिंदी अनुवाद करते हुए लगा जैसे मैं अपनी भूमि का जिससे कोई पुराना नाता रहा, अपनी माँ का जिससे मैं बचपन में बिछड़ी थी, वो फिर से जुड़ गया। इसके लिए मुझे संघर्ष करते हुए अपनी सिन्धी भाषा सीखनी पड़ी। यह एक लम्बी दास्ताँ है सरिता जी। पर जो हुआ बहुत अच्छा हुआ। मुझे सुकून हासिल हुआ यह मेरे लिए एक अनुभव है, एक उपलब्धि है।

सरिता मेहता: 

देवी जी, आप ने निरन्तर इतने साल अनुवाद का कार्य किया, इस दौरान कोई अनुभव जो आप पाठकों से शेयर करना चाहेंगी? 

देवी नागरानी:

हाँ बिलकुल, यह एक तजुर्बा है कि मन कब, कौन सी करवट लेता है, और फिर क़लम की धार क्या कराती है . . .छः बरस लगातार 2012 से 2018 तक सिर्फ़ व् सिर्फ़ अनुवाद करती रही, और सभी संग्रह प्रकशित हुए। बीच में कुछ लघुकथाओं का हिंदी से सिन्धी में अनुवाद किया, वह संग्रह भी “बर्फ़ कि गरमाइश” नाम से प्रकाशित हुआ। इसी लेखन की पगडंडी पर सफ़र सतत जारी रहा. . . बस फिर एक ख़ालीपन मेरे भीतर समाने लगा, एक अनजानी कशिश महसूस जैसे मुझे आवाज़ देती रही, जो मुझे जैसे आवाज़ देकर बुलाती रही, वापस मेरे ग़ज़ल संसार में. . . आ लौट के आजा मेरे मीत  . . .!

सरिता मेहता: 

आपकी और नई योजनाएँ क्‍या हैं? क्या कोई नया संग्रह नि‍कट भवि‍ष्‍य में प्रकाशि‍त होने वाला है?

देवी नागरानी: 

इस प्रकाशन का ज़िक्र मैं ऊपर कर चुकी हूँ, और इनमें से कई संग्रह पाठकों के हाथों में हैं। चौथी कूट (सा॰ अ॰ पुरस्कृत वरियम कारा के कहानी संग्रह का सिन्धी अनुवाद-साहित्य अकादेमी की ओर से मिला प्रोजेक्ट रहा जो मैंने नवम्बर 2014 में सम्पूर्ण किया, वह 2018 में मंज़रे आम पर आया। अभी एक बाल साहित्य के मनोवैज्ञानिक लघु पुस्तक श्री प्रबोध गोयल जी का “मंगल ग्रह के जुगनू” का सिंधी में अनुवाद किया है। अब मेरी दिली तमन्ना है कि मैं अनुवाद के चक्रव्यूह से निकल कर अपनी प्रिय ग़ज़ल वाटिका के रचना संसार से जुड़ सकूँ। 

सरिता मेहता: 

देवी जी आप की अच्छी सेहत और तन्दरुस्ती की दुआ करती हूँ ताकि आप ज़्यादा से ज़्यादा कवि‍तायें और ग़ज़लें लि‍खें, तथा आप और भी कामयाबी की बुलंदियों को चूम सकें। मैं स्वयं को ख़ुशनसीब समझती हूँ कि आपसे यह साक्षात्कार करने का मौक़ा मिला। 

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