नींद,
बोती रही रात भर
सपनों की फसल!
सुबह,
किसान सूरज आया,
रशिमियों की दराँती से
काट कर वह फसल,
कर गया मेरे हवाले
कि
उगा इसे फिर
अपने दिन के सीने में,
और साँस की हवाओं
चाह की आग,
पसीने के पानी से,
सच
कर ही डाल अब
ये सपने!!
मैं असमंजस में थी !!!!!!
पथरीली ज़मीन,
हिमखंड हुई उम्मीदें,
रेगिस्तानी, धूल भरी आँखें!
कहाँ?
कैसे?
बो पाऊँगी
सपनों की यह फसल
पर मन
में एक क्षीण तार
टुनटुनाता है,
मरने के पहले
ना मरने की आस दिलाता है
और
उषा की गुलाबी मुस्कुराहट
कान में दोहराती है...
असंभव कुछ भी नहीं होता!!
असंभव कुछ भी नहीं होता!!