संस्मरण विधा और कथेत्तर: धूप में नंगे पाँव

15-02-2021

संस्मरण विधा और कथेत्तर: धूप में नंगे पाँव

बी एम नंदवाना (अंक: 175, फरवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

आधुनिक गद्य साहित्य की कथेत्तर विधाओं में संस्मरण विधा का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। संस्मरण यानी किसी व्यक्ति, घटना, वस्तु, दृश्य आदि के समग्ररूप का आत्मीयता एवं गंभीरता से सस्मरण करना।

‘हिंदी साहित्य कोष’ के अनुसार संस्मरण में लेखक अपने समय के इतिहास को लिखना चाहता है परन्तु यह इतिहासकार के वस्तुपरक रूप से बिलकुल अलग है। संस्मरण लेखक जो देखता है, जिसका वह स्वयं अनुभव करता है, उसी का वर्णन करता है। उसके वर्णन में उसकी अपनी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ भी रहती हैं।

बाबू गुलाबराय संस्मरण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: "वे प्रायः घटनात्मक होते हैं, किन्तु वे घटनाएँ सत्य होती हैं और साथ में चरित्र की परिचायक भी। उनमें थोड़ा चटपटेपन का भी आकर्षण रहता है।"

कथेतर विधाओं में संस्मरण विधा का प्रवर्तन द्विवेदी युग से माना जाता है। प्रायः देखा जाता है कि हर नई साहित्यिक विधा ने अपने आगमन की घोषणा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही की है। संस्मरण-साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। उस समय की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सरस्वती’ के माध्यम से संस्मरण-साहित्य ने अपने अस्तित्व की सूचना दी। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित पुस्तक ‘हरिऔध जी के संस्मरण’ जिसके लेखक बालमुकुन्द गुप्त थे, को संस्मरण की पहली पुस्तक माना गया है।

द्विवेदी युग के बाद संस्मरण पत्र-पत्रिकाओं में धड़ल्ले से प्रकाशित होते रहे, जिनमें ‘सुधा’ (1921) में प्रकाशित ‘मेरे प्राथमिक जीवन की स्मृतियाँ’ (इलाचंद्र जोशी) और ‘कुछ स्मृतियाँ’ (वृदावंलाल वर्मा) संस्मरण विधा की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। उस युग में जिन उल्लेखनीय संस्मरण-संकलनों का प्रकाशन हुआ, वे इस प्रकार हैं: “मदनमोहन के सम्बन्ध में कुछ पुरानी स्मृतियाँ’ ( शिवराम पाण्डेय-1932), ‘शिकार’ (श्रीराम शर्मा-1936), ‘क्रान्ति-युग के संस्मरण’ (मन्मथनाथ गुप्त-1937) और ‘झलक’ (शिवनारायण टंडन-1938)।

पाँचवे और छठे दशक में जो संस्मरण-साहित्य प्रकाशन में आया उसमें प्रमुख कृतियाँ हैं: घनश्याम दास बिरला की संस्मरण पुस्तक ‘बापू’ (1940), रामनरेश त्रिपाठी की पुस्तक ‘तीस दिन: मालवीय जी के साथ’ (1942), जनार्दन प्रसाद द्विज का ‘चरित्र रेखा’ (1943), शिवरानी की पुस्तक ‘प्रेमचंद घर में’ (1944), शांतिप्रिय द्विवेदी की ‘पथ चिन्ह’ (1946), भदंत आनंद कौशल्यायन की कृति ‘जो भूल न सका’ (1946)। इसके अलावा महादेवी वर्मा की दो अत्यंत मूल्यवान कृतियों - ‘स्मृति की रेखाएँ’(1947) और ‘अतीत के चलचित्र’ (1941) ने संस्मरण-साहित्य को प्रतिष्ठा दी। ‘मेरा परिवार’ और ‘पथ के साथी’ भी उनकी संस्मरण पुस्तकें हैं। आज़ादी के बाद बनारसीदास चतुर्वेदी (संस्मरण और रेखाचित्र, 1952) और कन्हैयालाल मिश्रा प्रभाकर (‘भूले हुए चेहरे’ तथा ‘दीप जले, शंख बजे’) प्रमुख संस्मरण लेखक के रूप में उभरे। उपेन्द्र नाथ अश्क की बेजोड़ कृति ‘मंटो मेरा दुश्मन (1950) उन्हीं दिनों आई। संस्मरण विधा को समृद्ध करने में मोहनलाल महतो वियोगी, विष्णु प्रभाकर और प्रभाकर माचवे का भी योगदान रहा। उसके बाद, अगर हम जगदीशचन्द्र माथुर की ‘दस तस्वीरें’ और अज्ञेय की ’स्मृति-लेखा’ को अपवाद मान लें तो आठवें दशक तक संस्मरण क्षेत्र वीरान-सा रहा।

इधर दो-तीन दशकों से कथेत्तर-साहित्य का महत्व बढ़ता जा रहा है। हाल ही में डॉ. माधव हाडा को साक्षात्कार देते हुए प्रख्यात वयोवृद्ध आलोचक डॉ. नवल किशोर कहते हैं: “मैं यही कहना चाहता हूँ कि टूल्स बदलते हैं। यह जो यन्त्र है उसका प्रभाव भी सृजनात्मकता पर पड़ता है। हमारे ज़माने में केवल रेडियो था। एकांकी और ध्वनि नाटक आपने सुना होगा। इसके अलावा नाटक का दृश्य रूप उपलब्ध नहीं था . . .उसके बाद दूरदर्शन आया। दूरदर्शन के साथ न्यूज़ चैनल आये। वास्तविकता का आग्रह बढ़ा। ख़बरों की दुनिया का विस्फोट हुआ। रचनाकारों को लगा कि उनके माध्यम अधूरे हैं। इसलिए अपने माध्यम के अलावा, आप जिसे कथेतर कहते हैं, उन माध्यमों की ओर उनका झुकाव हुआ।" (आजकल जुलाई 2019 पृ. 19)

संस्मरण-साहित्य के बारे में अरुण प्रकाश का कहना है कि “हिंदी में संस्मरण यदाकदा लिखे जाते थे। आलोचना भी उसे एक अमहत्वपूर्ण विधा मानकर चलती थी, लिहाज़ा संस्मरणों की अनदेखी होती थी। जहाँ तक मेरा अनुमान है कि विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा नामवर सिंह पर लिखे संस्मरण ‘हक जो अदा न हुआ’ ने ऐसा धूम मचाया कि एकदम से इस विधा की क्षमता का पुनर्प्रकटीकरण हुआ और संस्मरण की ओर कई रचनाकार मुड़े। काशीनाथ का इस तरफ पहले मुड़ना संगत ही माना जाना चाहिए।" (गद्य की पहचान पृ. 150)

स्वयं प्रकाश हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखक हैं। उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, साथ में दो उपन्यास भी। वर्ष 2000 में स्वयं प्रकाश की ‘हमसफ़रनामा’ (परिवर्धित संकरण, 2010) प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने अपने समकालीनों को स्मरण किया है, उनमें आलोचक, लेखक, सम्पादक, कहानीकार, उपन्यासकार शामिल हैं। प्रमुख हैं: डॉ. नामवरसिंह, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर। रमेश उपाध्याय, असगर वज़ाहत, राजेश जोशी, प्रकाश जैन, प्रकाश आतुर, आलमशाह खान, हबीब कैफ़ी और कमर मेवाड़ी। कवि और प्रख्यात स्तंभकार भारत भारद्वाज ‘हमसफ़रनामा’ पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं: “इस बात का उल्लेख मुझे ज़रूरी लगता है कि स्वयं प्रकाश ने इस पुस्तक में जहाँ कुछ लेखकों पर संस्मरण लिखे हैं तो कुछ पर मूल्यांकन परक लेख और एक-दो अपने आत्मीय मित्रों पर छक्के भी लगाएँ हैं। (बनास प्रवेशांक बसंत - 2008 पृ. 283)

इधर कहानीकार स्वयं प्रकाश की कथेतर रूपबंध में ‘धूप में नंगे पाँव’ नामक पुस्तक आयी है। इस पुस्तक के बारे में कहा गया है कि यह रूपबंध पारंपरिक साँचे को तोड़ता है, कहीं तो वह यात्रा-वृत्त है तो कहीं डायरी, कहीं संस्मरण और फिर पढ़ते हुए इसमें कहीं आत्मकथा की झलक भी मिलती है…

यहाँ अरुण प्रकाश को उद्धृत करना यथेष्ट रहेगा। वे कहते हैं कि ‘संस्मरण इतनी तरल विधा है कि अपने बारे में लिखो तो आत्मकथा लगे, दूसरों के बारे में लिखो तो रेखाचित्र या निबंध दिखे, और जगहों, यात्राओं के बारे में लिखा जाए तो यात्रा-वृत्तांत। (गद्य की पहचान पृ. 158)

स्वयं प्रकाश की संस्मरण पुस्तक ‘धूप में नंगे पाँव’ उनके द्वारा नौकरी करते हुए बिताए 36 वर्षों के कालखंड पर आधारित है। सन् 1966 में नौकरी करने के लिए अजमेर से निकले और सन् 2003 में स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर भोपाल आ बसे। स्वयं प्रकाश को नौकरी के दरमियान अनगिनत दिलचस्प लोग मिले, अनेक खट्टे-मीठे अनुभव हासिल हुए, जो उनकी स्मृति के स्थायी अंग बन गए। हालाँकि स्वयं प्रकाश द्वारा लिखी ढाई सौ से ऊपर कहानियों में अधिकांश पात्र उनके आस-पास के लोग रहे हैं। फिर भी कुछ लोग, कुछ घटनाएँ, कुछ क़िस्से उनके कथा-संसार का हिस्सा नहीं बन पाए, “इसलिए अपनी कथायात्रा के अंतिम पड़ाव पर ‘धूप में नंगे पाँव।’"

लेखक के इस दिलचस्प जीवन-यात्रा के आठ पड़ाव हैं। पहला पड़ाव है मुंबई – जहाँ उन्होंने भारतीय नौसेना, ग्रेट ईस्टर्न शिपिंग कंपनी, सिंधिया स्टीमशिप्स, जयंती शिपिंग कंपनी और फिर कुछ समय फ़िल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में काम किया। दूसरा पड़ाव है मद्रास (चेन्नई), जहाँ लेखक डाक-तार विभाग में नियुक्ति के पश्चात ट्रेनिंग के लिए मद्रास आता है। तीसरा पड़ाव राजस्थान के ज़िले का छोटा-सा क़स्बा भीनमाल है, जहाँ बकौल लेखक, ‘वहाँ मैंने नौकरी कम की बाक़ी काम ख़ूब किये।’ जैसलमेर लेखक का चौथा पड़ाव है जहाँ उनका तबादला ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ के रूप में हुआ।’ जहाँ लेखक ने अच्छी और मक़बूल कहानियाँ लिखी, ख़ूब घुम्मकड़ी की। पाँचवें पड़ाव सुमेरपुर में रहते हुए लेखक अधिस्नातक हुए और विद्यावाचस्पति की उपाधि प्राप्त की। छठा पड़ाव था उड़ीसा प्रांत का सुदूर आदिवासी इलाक़ा सर्गीपल्ली, जहाँ लेखक को सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान, हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड में राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति के उपरान्त जाना पड़ा। वहाँ लेखक छह साल रह कर राजस्थान लौटा। सातवाँ पड़ाव खदानों का है- जावर माइंस और दरीबा माइंस। उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर जावर माइंस - कंपनी की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी - माइंस थी। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में एक राजभाषा अधिकारी की उपस्थिति अवांछनीय मानते हुए, वहाँ के अधिकारीगण उन्हें किस रूप में देखते हैं, इसका बहुत ही सटीक वर्णन लेखक ने किया है। वहाँ से विभागीय परीक्षा उतीर्ण कर जब लेखक सतर्कता अधिकारी बनकर दरीबा माइंस आ गया . . . "तो लगा हम गंगा नहाए। काम कैसा भी हो, ज़िल्लत की रोटी से तो पीछा छूटा।" आठवाँ और अन्तिम पड़ाव था चंदेरिया – चितौड़ शहर से बारह किलो मीटर दूर, जहाँ कंपनी का सुपर स्मेल्टर था। एक सतर्कता अधिकारी के रूप में लेखक को कंपनी की ओर से बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध थीं और ‘साला मैं तो साहब बन गया’ जैसा ठाठ था। फिर सरकार के एक निर्णय के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियों को बेचने की तैयारी शुरू हो गयी और इसकी चपेट में हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड भी आ गयी। अंततः कंपनी का विनिवेश हो गया और रातोंरात प्रबंधन भी बदल गया। कंपनी की ओर से एक स्वैच्छिक सेवानिवृति योजना आई और लेखक भी सेवानिवृत हो कर भोपाल आ गए।

स्वयं प्रकाश ने अपनी इस पुस्तक ‘धूप में नंगे पाँव’ में इस यात्रा के साथी-सहयोगियों को, जो समय-समय पर उनके हमक़दम हुए बहुत ही आत्मीयता से स्मरण किया है।

कॉलेज के दिनों के अपने मित्र और उसकी माँ को स्मरण करते हुए स्वयं प्रकाश बताते हैं कि बेरोज़गारी के दिनों में जब भी वे आज़ाद (मित्र का नाम) के घर गए, वे वहाँ से बग़ैर भोजन किये नहीं लौटे। वे कहते हैं: “दो-चार बार तो ऐसा भी हुआ कि रसोई में पटरे बिछाकर बीच में थाली रखकर आज़ाद ने, आज़ाद के भाइयों ने और मैंने खाना खा लिया और अंत में बाई जी यानी आज़ाद की माँ सब्ज़ी की ख़ाली कढ़ाई में एक गिलास पानी डालकर उसे हिला कर पी गयीं और उठ गईं।" एक बार जब लेखक के पास अन्तिम दिन तक फ़ीस भरने के लिए घर से मनी-आर्डर नहीं आया। और आज़ाद के परिवार के सभी सदस्य किसी शादी में शरीक होने उदयपुर गए हुए थे, तब आज़ाद ने बाई जी के संदूक को तोड़ कर पैतीस रुपये फ़ीस भरने के लिए लेखक को दिए और उनका एक साल ख़राब होने से बच गया। स्वयं प्रकाश लिखते हैं: “वो पैंतीस रुपये मैंने आज तक नहीं लौटाए। सोचता हूँ कि आज उसे मैं पैंतीस हज़ार या पैंतीस लाख रुपये लौटा दूँ तो क्या बाई जी के संदूक का ताला तोड़कर दिए गए उन पैंतीस रुपयों का कर्ज़ उतर जाएगा?"

लेखक ने अपने भीनमाल के साहित्यिक मित्र सदाशिव क्षोत्रिय को बहुत ही शिद्दत से याद किया है। सदाशिव क्षोत्रिय वहाँ कॉलेज मैं अँग्रेज़ी के प्राध्यापक थे। बेहद प्यारे इंसान और बेहद संवेदनशील कवि, साहित्य पर गहरी पकड़ वाले सदाशिव जी के बारे में लेखक लिखते हैं: “सदाशिव जी को ग़ालिब, कबीर और शमशेर का नशा था। इनमें वे घंटों डूबे रह सकते थे। वे मध्यकालीन अँग्रेज़ी कवियों में से न जाने किस-किस को निकाल कर मुझे दिखाते रहते थे – ‘ये देखिये. . . ग़ालिब जिस इस तरह कहते हैं, कोलरिज उसी को कैसे कहता है . . .वगैरह।" सदाशिव जी के बारे में लेखक आगे कहता है : “हालाँकि यह भी सच था कि हिंदी के बहुत बड़े-बड़े रचनाकार अँग्रेज़ी साहित्य के अध्यापक रहे थे, लेकिन सदाशिव जी को देखकर मैं हमेशा गहरे ताज्जुब में पड़ जाता था कि नाथद्वारा जैसी छोटी-सी जगह के एक प्राथमिक स्कूल के अध्यापक का लड़का जो म्यूनिसिपालिटी के स्कूलों में पढ़ा और स्नातक तक विज्ञान का विद्यार्थी रहा, और जिसने उदयपुर जैसी छोटी-सी जगह से अँग्रेज़ी में एम.ए. किया - जहाँ हिंदी भी उच्च और अभिजात है – कैसे अँग्रेज़ी साहित्य में इतनी गहरी रूचि और गति पैदा कर सका। मैं मन ही मन उनका आदर करने लगा।" लेखक ने सदाशिव जी के सहयोग से भीनमाल में एक सैटरडे क्लब चालू किया जहाँ पच्चीस-तीस मित्र बैठते और महत्वपूर्ण सामयिक विषयों पर बहस करते। लेखक को यदा-कदा लगता रहा कि “वह (सदाशिव जी) अपनी प्रतिभा और संभावना के साथ पूरा-पूरा न्याय नहीं कर पाए। शायद उन्हें ज्ञान, अनुभूति या अनुभव को उपलब्धि में बदलना घटिया बात लगती हो, पर क्या ऐसे लोग भी नहीं होते?"

भीनमाल में प्रवास के दौरान लेखक ने वहाँ से ‘क्यों’ नामक पत्रिका निकाली। उस समय तक वे हिंदी साहित्यजगत में एक कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे एवं ‘मुक्तवाणी’ नाम से एक साप्ताहिक समाचारपत्र निकालने का खट्ठा-मीठा अनुभव भी हासिल कर चुके थे। ‘क्यों’ पत्रिका ने निकलते ही हिंदी साहित्य में धूम मचा दी। पत्रिका के केवल नौ अंक ही निकल पाए। लेकिन उसकी प्रेरणा पाकर अनेक लघु पत्रिकाएँ निकलने लगी। उस समय के साहित्यिक माहौल को लेखक कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं: “उसकी प्रेरणा से उस जैसी अनेकानेक पत्रिकाएँ निकाली जाने लगी और यह हिंदी लघुपत्रिकाओं की छिपी शक्ति का सूत्र जैसा बन गया कि एक बंद होती है तो दो निकलती है। इस कालखंड ने कहानी, कविता, आलोचना, पोलेमिक्स के मिज़ाज को हमेशा के लिए बदल दिया और हिंदी साहित्य में जनवादी सक्रियता का एक ऐसा ज्वार आया जो लगभग दो दशक तक चला।" लेखक के इस एडवेंचर के पीछे जो शख़्सीयत थी वे थे मोहन क्षत्रिय, कॉलेज में अँग्रेज़ी के व्याख्याता – “एक दिलकश नौजवान, एक सुलझे हुए कॉमरेड, एक सुरुचिपूर्ण पढ़ाकू, और शिक्षकों की यूनियन के नेता तो थे ही, कवि विजेंद्र के विद्यार्थी भी रह चुके थे, इसलिए उनसे तत्काल मित्रता हो गयी और वह मित्रता दिन-ब-दिन गाढ़ी होती गयी।"

अपने भीनमाल के प्रवास के दौरान लेखक की सबसे पहले मुलाक़ात हिंदी स्कूल के अध्यापक पुष्पकान्त जी और किराणा के व्यापारी कुर्बान भाई से हुई। पुष्पकांत जी के परिवार में सब कलाकार थे। परिवार के कला-प्रेम से अभिभूत लेखक ने उन्हें ससम्मान याद किया है। कुर्बानभाई के बारे में वे लिखते हैं: “क्योंकि कुर्बान भाई मेरी दो कहानियों में आये हैं जिनमें से एक पार्टीशन तो काफ़ी मक़बूल भी रही है और आज भी चार-पाँच विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पढ़ायी जाती है, इसलिए यहाँ कुर्बान भाई के बारे में ज़्यादा नहीं कहूँगा।" भीनमाल के अन्य दो विशिष्ट व्यक्तियों – वैद्य रामदत्त जी, जो न केवल एक लोकप्रिय चिकित्सक थे, बल्कि एक गीतकार और गायक भी थे और महाविद्यालय के प्राचार्य द्विजेन्द्रलाल पुरकायस्थ जो दर्शन के अध्यापक व संस्कृत के कवि थे – को भी लेखक ने आत्मीयता से स्मरण किया है।

पुस्तक में जैसलमेर का विस्तृत वर्णन दिया गया है। वहाँ के पर्यटन स्थल, फ़िल्मी हस्तियों का आना-जाना, वहाँ की जलवायु, लोगों की वेशभूषा, मुख्य रोज़गार, खान-पान, रहन-सहन, पानी के प्रति उनकी सजगता, बॉर्डर का परिदृश्य - इन सब पर लेखक की पैनी नज़र पड़ी है। यहाँ लेखक के कथाकार रूप का चिपरिचित अंदाज़ जैसे पुनर्जीवित हो उठा है। वैसे तो लेखक का कथाकारावतार पूरी पुस्तक पर छाया हुआ है।

लेखक एक गाइड की तरह हमें जैसलमेर की सैर कराते हैं। यहाँ छोटे-बड़े सात तालाब हैं। उनमें प्रमुख हैं, गढ़सीसर, अमरसागर और अमरसागर के चार किलो मीटर दूर बड़े बाग़ का तालाब जो एक महल से जुड़ा हुआ था। “जैसलमेर राजघराने के स्त्री-पुरुष यहाँ नहाने-तैरने आते थे। उनके लिए महल के भीतर से ही सीढ़ियाँ तालाब तक जाती थीं। पता चला कि सबसे ज़्यादा नशा किसी चीज़ में है तो वो चाँदनी रात में इस तालाब में नहाने में – या तैरती – नहाती हुई निर्वस्त्र महिलाओं को देखने में। मुझे भी लगा कि यह बेहद रोमांटिक जगह है और खुले आसमान के नीचे प्रकृति की गोद में सरे आम सम्भोग करने की जो संभावनाएँ हैं वे प्रचुर से भी अधिक हैं।" फिर वे हमें सैर कराते है शहर के बीचोंबीच पहाड़ी पर बने भव्य क़िले की, जो काफ़ी लम्बे-चौड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ है, क़िले के नीचे बने महल ‘बादल निवास’ और ‘जवाहर निवास’ की। उस भव्य क़िले की विशेषता यह थी कि “सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूरज की किरणें सीधी क़िले की फ़सीलों पर पड़ती हैं और वह बहुत सुन्दर और जादुई लगता है। सत्यजीत राय ने तो इसके इर्द-गिर्द एक कहानी गढ़कर इस पर एक फ़िल्म ही बना दी – ‘सोनार केल्ला’।" फिर वे निकल पड़ते हैं जग-प्रसिद्ध रेत के टीलों की ओर – जैसलमेर से आगे मोहनगढ़, सम और तन्नोट के टीले। जहाँ सर्दियों में साइबेरिया के प्रवासी पक्षी और गोडावण (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) आते और झुण्ड बनाकर आसमान में ऊँची उड़ती कुरजां एक नेकलेस की शक्ल में नज़र आतीं।

जैसलमेर के प्रति फ़िल्मवालों का एक अलग ही आकर्षण रहा है। यहाँ ऐसा क्या था? जो ख्वाजा अहमद अब्बास, एस. सुखदेव, सत्यजीत राय, के. आसिफ, यश चोपड़ा जैसी फिल्मी हस्तियों को आकर्षित करता था – “वहाँ के लोग, उनकी वेशभूषा, बच्चों की अंगरखी, रबारियों के पोतिये (फैंटे), मोट्यारों के साफे, बुजुर्गों की बीच में से बंटी फरफराती दाढ़ी, लुगाइयों की बंधेज की रंग-बिरंगी ओढ़नी, गोटा लगी कांचली, अस्सी कली के घाघरे, मरदानी पगरखी. . .चाँदी के मोटे-मोटे तोड़े, करधनी, पाजेब, बिछुए और बड़ी-सी नथ या दो लौंग - एक इधर, एक उधर, और तो और ऊँट के भी गहने . . और गहनों के गीत . .’गोरबंद नखरालो’, फिर महल, अटारी, झरोखे, गोखड़े, तालाब, पोखर, बावड़ी। सुग्गा, मैना, कमेड़ी, मोर हर चीज़ . . .वहाँ की हर चीज़ फ़िल्मवालों के लिए ज़बरदस्त आकर्षण रखती थी।"

जैसलमेर के बारे में हमें कई जानकारियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे ‘राजपूत’ कोई जाति नहीं होती, रामगढ़ में हिन्दुओं की क़ब्रें हैं। “वहाँ यह भी पता चला कि इस क्षेत्र में रहने वालों की एक बड़ी संख्या ‘साध’ है जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान। बस वे हैं, अच्छे ख़ासे मनुष्य हैं। कबीर, दादू, पीपा, सैना की बानियों और स्वरचित बाबा रामचंद्र पीर जैसों की चमत्कार कथाओं के सहारे जीवित हैं।"

फिर स्वयं प्रकाश जैसलमेर से सुमेरपुर आ गए, राजस्थान के पाली ज़िले में। यहीं रहते हुए उन्होंने हिंदी में एम.ए. और फिर पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की। सुमेरपुर से करीब 40 कि.मी. दूर सिरोही क़स्बे में एक अच्छा पुस्तकालय था और डिग्री कॉलेज था। जिसमें सदाशिव क्षोत्रिय के मित्र दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (जाने-माने शिक्षाविद, प्रतिष्ठित लेखक-आलोचक और स्तंभकार) हिंदी विभाग में व्याख्याता थे। उनका संगीत का शौक और साहित्यिक अभिरुचि लेखक को उनके क़रीब ले गयी। “दुर्गाप्रसाद जी की मेहमाननवाज़ी भी बेमिसाल थी। और सिर्फ़ मेरे लिए नहीं। दोस्त बनाने में और दोस्ती निभाने में उनसे निपुण व्यक्ति मैंने नहीं देखा। साहित्य में तो उनकी रुचि थी ही – और उस समय तो हम दोनों राजस्थान साहित्य अकादमी की सरस्वती सभा और संचालिका के सदस्य थे – मेरी सोहबत में उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा में भी रस आने लगा था।" सुमेरपुर का एक और वाक़या लेखक ने आत्मीयता के साथ सुनाया है जब वे अपने एम.ए. का अंतिम पर्चा देने सिरोही कॉलेज 10 बजे के बजाय पौने बारह बजे पहुँचते हैं। इस बीच दुर्गा प्रसाद जी, भार्गव साहब (डिग्री कॉलेज के प्राचार्य और जो वर्षों पहले गवर्नमेंट कॉलेज में लेखक के प्राध्यापक रह चुके थे।) व उनके अन्य मित्र परेशान हो रहे थे। “दुर्गाप्रसाद जी अपनी इन्वीजिलेशन की ड्यूटी छोड़कर मेन गेट पर खड़े मेरा रास्ता देख रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने अपने नीले विजय सुपर स्कूटर में किक मारी और मुझे बग़ैर एक शब्द भी पूछे, बोले परीक्षा हॉल तक ले गए। वहाँ फ़ौरन मुझे कॉपी-पेपर पकड़ाया  . . .। कुछ देर बाद भार्गव साहब आये और हस्बेमामूल सभी परीक्षार्थियों के बीच टहलते हुए मेरे पास आकर एक मिनट रुके, धीरे से मेरी पीठ पर हाथ रखा और चले गए। एक आदमी को बनाने में किस-किस व्यक्ति का कैसा-कैसा योगदान रहता है। दस बजे की परीक्षा में किसी परीक्षार्थी को बारह बजे प्रवेश की अनुमति देना भार्गव साहब के लिए भी सरल नहीं रहा होगा।"

वहीं सुमेरपुर रहते हुए, मित्रों की सलाह पर लेखक ने पीएच.डी. करने का मानस बनाया, शोध का विषय था – ‘राजस्थान की हिंदी कहानी’। वे कहते हैं: “उस समय की पुस्तकों ढूँढ़-ढूँढ़ कर इकट्ठा करना अपने आप में काफ़ी श्रमसाध्य कार्य था। मुझे तो इस मामले में जिसने सबसे ज़्यादा मदद की वे थे मेरे कहानीकार मित्र स्वर्गीय ईश्वरचंदर और लहर के सम्पादक प्रकाश जैन और मनमोहिनी।"  पीएच.डी. की थीसिस सबमिट करने के पश्चात वायवा वाले दिन जो घटा उसका दिलचस्प वर्णन लेखक ने विस्तार से किया है। उस समय उदयपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापकों की आपसी खींचातानी की ओर इशारा करते हुए वे डॉ. प्रकाश आतुर को बहुत ही आत्मीयता एवं सहृदयता से याद करते हैं: “लेकिन प्रकाश आतुर मेरे लिए ढाल बन कर खड़े हो गए। आलमशाह खान को तो एक तरह से उन्होंने डपट ही दिया और नवल जी को ऐसी निगाह से देखने लगे कि नवल जी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। प्रकाश आतुर के व्यक्तित्व का एक विशिष्ट दबदबा था।" और उन्हें पीएच.डी. की उपाधि मिलने की सूचना किस रोमांचक ढंग से प्राप्त हुई उसका ज़िक्र करते हुए लिखते हैं:

“उस शाम राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रकाश आतुर ने – जिन्हें मैं ठीक से जानता तक नहीं था – मुझे पीएच.डी. मिलने की ख़ुशी में अपने आवास पर अपने अन्तरंग मित्रों को दावत दी, सबसे पहले उन्होंने मुझे ‘डॉक्टर स्वयं प्रकाश’ कहकर हँसते हुए गले लगाया। हम सब को छककर दारू पिलाई और रात के ढाई बजे श्रीमती प्रकाश आतुर ने हमें बेहद लज़ीज़ और गरमागरम खाना खिलाया।

बाद में जब सुनता था कि पीएच.डी. के वायवा के समय शोधार्थियों को पूरे विभाग को खिलाना-पिलाना पड़ता है, जिसमें पाँच-छह हज़ार रुपये तक ख़र्च हो जाते हैं तो हैरान होकर सोचता था कि मैंने कैसे पीएच,डी. कर ली कि जेब से पाँच रुपये भी ख़र्च नहीं हुए।"

पीएच.डी. कर लेने के बाद स्वयं प्रकाश का चयन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड में राजभाषा अधिकारी के रूप में हो जाता है और उनकी पोस्टिंग उड़ीसा प्रांत के आदिवासी इलाक़े सर्गीपल्ली (सुन्दरगढ़) माइंस में होती है। झारसूगुडा तक तो आसानी से पहुँचा जा सकता था। झारसूगुडा से सर्गीपल्ली की दूरी पचपन किलोमीटर की थी। वहाँ जाने के लिए दिन में एक ही प्राइवेट बस थी। सर्गीपल्ली से घाट जाकर नाव से इच्छा नाला पार करना पड़ता था। और वहाँ से छह किलोमीटर दूर सुंदरगढ़ माइंस थी। एक बार स्वयं प्रकाश परिवार (पत्नी, बहिन और दो साल की बच्ची) के साथ अजमेर से सुन्दरगढ़ माइंस जाते हुए इच्छा नाला में डूबते-डूबते बचे। सर्गीपल्ली पहुँचने तक रात हो गयी। बरसात हो रही थी, इच्छा नाला नदी-सा उफान पर था। उनकी जीप बीच धारा में फँस गयी। इस प्राकृतिक आपदा से किसी तरह निपटते हुए (जिसका रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण लेखक ने प्रस्तुत किया है) स्वयं प्रकाश परिवार सहित नाले के उस पार किनारे पहुँच पाए। वहाँ से मदद के लिए गुहार लगाई। उनकी आवाज़ पास में रह रहे साईट इंजनियर महापात्र और उनकी टीम ने सुन ली और वे तुरंत ही पहुँच गए। स्वयं प्रकाश इस रोमांचित कर देने वाली घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं:

“हमारे लिए तो महापात्र अपने साथियों के साथ किसी देवदूत की तरह ही आये थे। वे हमारे हाथ पकड़ कर हमें अपनी झोंपड़ियों में ले गए। हमारा बचा-खुचा सामान उठवाकर लाए। हमें हाथ-पाँव पोंछने के लिए तौलिये दिए। एक महिला किसी बच्चे के दो बड़े-बड़े फ्रॉक ले आई – ‘बच्चों को पहना दो बदलकर, नहीं तो ताप लग जाएगा।’ उन्होंने हमें चाय पिलाई, बिस्कुट खिलाए, साइकिल पर आदमी भेजकर माइंस खबर करवाई। ऐसे देवदूत को कोई कभी भूल सकता है? क्या मैं महापात्र बाबू का दयालु चेहरा मरते दम तक भूल सकता हूँ?" स्वयं प्रकाश आगे कहते हैं: “अगर इस दुनिया में सौ-दो सौ महापात्र बाबू भी हैं, तो इससे अच्छी जगह और कहाँ हो सकती है।" और फिर वे पाठकों से प्रश्न करते हैं: “और क्या तुम्हारी जिन्दगी में भी कोई महापात्र बाबू नहीं आये। और छाती पर हाथ रखकर बताना। इतने बरस जी लिए। क्या तुम कभी किसी के लिए महापात्र बनकर पहुँचे?"

स्वयं प्रकाश की अंतिम पोस्टिंग चितौड़गढ़ के पास चंदेरिया माइंस में सतर्कता अधिकारी के रूप में होती है। उन दिनों की एक घटना उनके एक्सीडेंट की है। दोनों हाथों पर पक्का प्लास्टर चढ़ा। तीन महीने बाद फिजियोथेरेपी शुरू हुई। उस समय उनकी पत्नी द्वारा समर्पित भाव से की गयी सेवा को याद करते हुए स्वयं प्रकाश कहते हैं: “मैंने रश्मि के बारे में रश्मि की नज़र से सोचने की कोशिश की। कौन है यह लड़की? यह एक जज की बेटी है। सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ रही है और अपने पति, अपनी सास, अपने ससुराल के बारे में सोच रही है। स्वयं की पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में, माँ के रूप में कल्पना कर रही है। क्या आज जो इसे करना पड़ रहा है, वह कभी भी इसके सपनों में रहा होगा? क्या पुरुष ठीक इसी तरह आवश्यकता पड़ने पर अपनी पत्नी की सेवा कर सकते हैं? क्या ज़रूरत पड़ने पर मैं ठीक इसी तरह रश्मि की सेवा कर पाऊँगा?" 

यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मोटर-साइकिल दुर्घटना के समय स्वयं स्वयं प्रकाश ने जो हौसला दिखाया उसका उल्लेख उनके साहित्यकार मित्र सदाशिव क्षोत्रिय ने भी अपने एक संस्मरण-आलेख में किया किया है। वे कहते हैं: “स्वयं प्रकाश के जिस एक और गुण ने मुझे जबरदस्त प्रभावित किया वह उनकी संघर्षशीलता और विषम परिस्थितियों में हँसते रहने की उनकी अद्भुत क्षमता है . . . मैं उनकी उस बहादुरी, सहनशीलता और जीवट का गवाह हूँ जिसका प्रदर्शन उन्होंने चितौड़ में उनके साथ हुई मोटरसाइकिल दुर्घटना के समय किया था।" (चौपाल अंक:7 –कथा शिखर: स्वयं प्रकाश पृ.8)

अपनी नौकरी के दौरान, स्वयं प्रकाश कहीं भी रहे हों, चाहे भीनमाल में या जैसलमेर में या फिर सुन्दरगढ़ उड़ीसा में, हम देखते हैं कि वे वहाँ के सांस्कृतिक चेतना, साक्षरता अभियान और अंधविश्वास-निवारण जैसे कार्यक्रमों में अपनी वैज्ञानिक सोच और विवेकशील व्यवहारिक बुद्धि के कारण सहजता से जुड़ जाते हैं और अपना सहयोग देने अथवा अपने अनुभव बाँटने में हमेशा तत्पर दिखाई देते हैं।

एक साक्षात्कार में स्वयं प्रकाश कहते हैं: “मैंने अपने चिंतन में, लेखन में, अपने जीवन में भी हमेशा मनुष्य की अच्छाई को खोजा है। मेरा मानना है कि मनुष्य देवताओं का सबसे बड़ा स्वप्न है और ये सब लोग अपनी अच्छाई से अच्छे लोगों का अच्छा समाज बना सकते हैं।"

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