संस्‍मरण साहित्‍य में महादेवी की रचनाधर्मिता

01-05-2019

संस्‍मरण साहित्‍य में महादेवी की रचनाधर्मिता

मनोज कुमार रजक

संस्‍मरण विधा आधुनिक युग की देन है। इसका जन्‍म पत्र-पत्रिकाओं के माध्‍यम से हुआ था। 'संस्मरण' शब्द‍ की उत्पत्ति सम्+स्मृ+ल्युट से हुई है जिसका अर्थ है सम्यक स्मरण। अत: संस्मरण का आशय सहज आत्मियता या गंभीरता से किसी व्यक्ति, घटना, दृश्य, वस्तु आदि का स्मरण करना। मुख्य रूप से कहा जा सकता है कि साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में किसी महापुरुष अथवा विशिष्टता संपन्न सामान्य पुरुष के संबंध में चर्चा करते हैं या स्वयं के जीवन के किसी अंश को प्रकाशित करने का प्रयत्न करते हैं तो उसे संस्मरण कहते हैं। यह विधा स्मृति पर आधारित होती है। डॉ. नगेन्द्र लिखते हैं- "व्यक्तिगत अनुभव तथा स्मृति से रचा गया इतिवृत्त अथवा वर्णन ही संस्मरण है। इनमें लेखक प्राय: अपने जीवन का वृत्तांत अथवा जीवन में घटित घटनाओं का वर्णन करता है। इस दृष्टि से यह साहित्य रूप आत्मकथात्मक होता है।"1 संस्मरण अतीत का ही हो सकता है वर्तमान या भविष्य का नहीं। इसके लेखन के लिए यह आवश्यक है कि वर्णित व्यक्ति या घटना आदि के साथ लेखक का व्यक्तिगत संबंध रहा हो। इसके अंतर्गत उन्हीं तथ्यों का वर्णन होता है जो वास्तव में घटित हो चुका है। इसके अंदर कुछ भी जोड़ने की छूट नहीं है। इसमें किसी न किसी प्रकार से लेखक के विचार आ ही जाते हैं क्योंकि लेखक के जीवन से इसका संबंध गहरा होता है। संस्मरण का जन्म पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ था। हिन्दी का पहला संस्मरण सन् 1907 ई. में बालमुकुन्द गुप्त द्वारा प्रतापनारायण मिश्र पर लिखा गया। इसके अतिरिक्त गुप्त जी को ‘हरिऔध जी के संस्मरण’ नामक पुस्तक में पन्द्रह संस्मरण प्रकाशित हैं। सन् 1928 ई. में रामदास गौड़, श्रीधर पाठक और रायदेवी प्रसाद पूर्ण जैसे साहित्यकारों के संस्करण लिखे। सन् 1929 से लेकर 1937 ई. में कई संस्मरण- रेखाचित्र लिखे गए जिनमें मुख्य हैं – आचार्य जोशी का ‘मेरे प्रारंभिक जीवन की स्मृतियाँ’। इसके अलावा रूपनारायण पाण्डेय, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, महावीर प्रसाद द्विवेदी के संस्मरण साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। इन संस्मरणों में सामाजिक और राजनीतिक जीवन की झांकियाँ ही अधिक मिलती थीं। यह संस्मरण का आस्मिक रूप था। श्रीराम शर्मा की रचनाएँ भी संस्म‍रण जगत् में अनमोल हैं जिनमें प्रमुख हैं – ‘बोलती प्रतिमा’, ‘जंगल के जीवन’ और ‘वे कैसे जीते हैं’। इनके पश्चात् राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के संस्मंरण ‘टूटा तारा’ ‘सूरदास’ उल्लेखनीय हैं। इनके संस्मरणों में रेखाचित्र के तत्वा घुले-मिले पाए जाते हैं।

महादेवी वर्मा हिन्दीं की श्रेष्ठ लेखिकाओं में से एक हैं। महादेवी अपने बारे में लिखती हैं – “एक व्यानपक विकृति के समय निर्जीव संस्कारों के बोझ से जड़ीभूत वर्ग में मेरा जन्मी हुआ परंतु एक ओर आस्तिक और साधनपूत भावुक माता और दूसरी ओर सब प्रकार की सांप्रदायिकता से दूर दार्शनिक और कर्मठ पिता ने अपने संस्कामर देकर मेरे जीवन का जैसा किया, उसमें भावुकता बुद्धि के कठोर धरातल पर साधना एक व्याकपक दार्शनिकता और आस्थाप–आस्तिकता एक सक्रिय चेतना पर ही स्थित हो सकती थी।”2 इनके संस्मरण हिन्दी साहित्य की अनमोल निधियाँ हैं। इनके संस्मरणों में - ‘अतीत के चलचित्र’ (सन् 1941), ‘स्मृति की रेखा एँ’ (सन् 1943) और ‘पथ के साथी’ (सन् 1956) प्रमुख हैं। महादेवी संस्मरण लेखन में अत्यंत ही उच्च पद की अधिकारिणी है। उन्होंने स्मृति के पात्रों के साथ स्वयं को इस प्रकार बाँधा है कि पात्रों की जीवंतता के साथ उनका भी जीवनादर्श प्रकट हो जाता है। पात्रों के मन में पैठ कर उनका अंकन करना महादेवी खूब जानती थी। ‘अतीत के चलचित्र’ में मारवाड़ी सेठ की विधवा पतोहू, विमाता के अत्याचार का शिकार बिंदा, गुरू भक्त घीसा, वेश्या माँ की सती पुत्री तथा लछमा आदि सभी पात्र समाज पीड़ित व्यक्ति हैं जिनकी करुण कथाओं को महादेवी ने उकेरा है। 'स्मृति की रेखा एँ' में भक्ति चीनी फेरी वाला, गुठीया, ठाकुरी बाबा आदि चित्र अंकित है जो अपनी पूरी सजीवता और साहित्यिकता के साथ चित्रित हुए हैं। इनके आर्थिक-सामाजिक और धार्मिक स्थितियों का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है लेखिका ने। महादेवी वर्मा रेखाचित्र और संस्मरण लेखन में बेजोड़ मानी जाती है इसका मुख्य कारण है कि वे अपने जीवन में आए पात्रों का वर्णन कुछ इस प्रकार करती हैं कि मानो महादेवी के मुख से स्वयं पात्र ही बोल रहा हो। ‘पथ के साथी’ नामक संस्मरण में लेखिका ने समकालीन साहित्य कार जैसे- पंत, निराला, मैथिलीशरण गुप्त आदि का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया है जो अपनी संजीवता के साथ प्रकट होता है। इन पात्रों का महादेवी के चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 

‘पथ के साथी’ महादेवी वर्मा द्वारा रचित संस्मरण साहित्य है जिसका प्रकाशन सन् 1956 में हुआ था। इस रचना में महादेवी ने अपने समकालीन साहित्यकारों का वर्णन किया है जो अपनी विधा की बेजोड़ साहित्यिक कृति है। ‘पथ के साथी’ में महादेवी वर्मा ने अपने समकालीन लेखकों का वर्णन किया है। जिनमें रविन्द्रनाथ टैगोर, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, जयशंकर प्रसाद, निराला और सियारामशरण गुप्त का वर्णन किया गया है। ‘पथ के साथी’ एक संस्मरणात्मक रचना है इनमें जिन कवियों का जिक्र महादेवी करती है उनसे वे अपने जीवन में गहरे रूप से जुड़ी है। लेखिका अपने जीवन में अनेक लोगों से जुड़ी जिनमें से कई के व्यक्तित्व से वे प्रभावित भी हुईं। वे लिखती हैं– “वर्तमान विद्यार्थी को अपने संस्कृति को मानना तथा उनके जीवन मूल्यों को आत्मसाक्षात् करना चाहिए। अपनी पहचान बनानेक उपरांत ही वह अंतरराष्ट्रीय जगत् में भारत की पहचान बना सकता है।”3 सरल शब्दों में यदि कहा जाए तो अपनी गहराई में दूसरों को खोजना और दूसरों की अनेकता में स्वयं की तलाश महादेवी की विशेषता रही है। ‘पथ के साथी’ में चित्रित प्रत्येक कवि का व्यक्तित्व एक जीवन दृष्टि लिए हुए दिखाई देता है। इस संस्मरण में वर्णित सबसे पहले कवि रविन्द्र को महादेवी तीन प्रकार के परिवेश में देखती है जिससे उत्पन्न अनुभूति कोमल, प्रभात, प्रखर दोपहरी और कोलाहल में विश्राम का संकेत देती हुई संध्या के समान है। रविन्द्र के दर्शन ने महादेवी के कल्पना को अधिक सजीवता प्रदान की थी। उनका व्यक्तित्व महादेवी को घट के जल सा प्रतीत होता है। 

महादेवी निराला में भाई-बहन का संबंध था, इस तथ्य की पुष्टि महादेवी स्वयं करती है। लेखिका ने कवि निराला के जीवन को बड़े निकटता से देखा था। विद्रोही कहे जाने वाला यह कवि जीवन में कितना अकेला, आधारभूत साधनों से हीन व्यक्ति है किन्तु उसका हृदय इतना सरल है कि दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझता है। निराला की यह चिंता उनके समकालीन कवि सुमित्रानंदन पंत जी के लिए थी जो टाईफाइड ज्वर से पीडि़त थे। निराला ने आर्थिक कमी देखी थी। यदि कहा जाए की जीवन जीने के लिए एक सामान्य व्यक्ति को जो साधन चाहिए होते हैं निराला उनसे वंचित रहे तो गलत न होगा। किन्तु इन विषमताओं को झेलते हुए भी उनके हृदय में कटुता की जगह सब के लिए ममत्व की भावना ही पली यह बड़ी बात है। महादेवी ने जयशंकर प्रसाद की तुलना एक देवदारू वृक्ष से की है जो हिमालय की गर्वीली चोटी के समान ऊँचा है बड़े-बड़े आंधी-तूफान भी उसके जड़ को नहीं हिला पाते। महादेवी ने अपने संस्मरण में महान कवियों के हृदय को जैसे खोल कर रख दिया है। लेखिका की दृष्टि इतनी पैनी है कि चाहे प्रसाद हो या पंत उनकी दृष्टि सबको भेद लेती है। कोमलकान्त कहे जाने वाले सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत के जीवन के पीछे छिपी कठोरता को महादेवी ने देखा था। एक बालक जो बचपन से ही मातृ प्रेम की छाया से वंचित रहा था उसे यदि लोगों का प्रेम मिला भी तो सिर्फ दया के रूप में। पंत ने अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे किन्तु उनका चित्तम हमेशा प्रसन्न रहता था किसी मूल्यवान वस्तु़ को पा लेने का सुख और उसे खो देने का दु:ख ये दोनों बातें पंत के लिए अलग-अलग भाव न थे, अर्थात् वे जिस प्रकार खुश में प्रसन्नचित्त होते थे उसी प्रकार दु:ख में भी। उनकी इसी विशेषता के कारण शायद वे हिन्दी के श्रेष्ठा कवि बने। एक तथ्य तो पूर्ण रूप से कहा जा सकता है कि कुछ विशेषताएँ जो कवि को आम से ख़ास बना देती हैं और जिसका उपयोग आम व्यक्ति भी अपने जीवन में प्रेरणा स्रोत रूप में कर सकता है। कोई भी व्यक्ति जन्म से ख़ास नहीं होता उसे उसकी परिस्थितियाँ मूल्यवान बनाती हैं। 

महादेवी केवल कविताओं के कानन की रानी नहीं है गद्यात्मक निबंधों में भी उनकी लेखनी बेजोड़ है। महादेवी के संस्मरण (पथ के साथी) में केवल वैचारिकता ही नहीं है बल्कि मानसिक ग्रंथियों के साथ ही हृदयवादी आस्था भी प्रमाणित रूप से चित्रित हुई है। महादेवी एक विशिष्ट संपन्न दृष्टि रखती है इसका प्रमाण उनके रेखाचित्रों और संस्मरणों में देखने को मिलता है। लेखिका के भाषा में एक ऐसी चित्रात्मकता है कि बिम्ब स्वत: ही आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है। ‘पथ के साथी’ में महादेवी की पारखी दृष्टि सामने आई है। कई आलोचक बड़ी आसानी से कई बड़े-बड़े लेखकों या कवियों की प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं या उनकी आलोचना किसी न किसी विचारधारा के तहत कर देते हैं। यहाँ महादेवी भी एक आलोचक के रूप में खड़ी होती प्रतीत होती हैं जो अपने समकालीन कवियों को किसी विचारधारा के खाँचे में खड़ा कर उसका मूल्यांकन नहीं करती। वे तो ऐसी प्रहरी हैं जो कवियों के हृदय में झाँक कर उनकी विशेषताएँ पहचान लेती हैं। कोई भी कवि (निराला, पंत या सुभद्रा कुमारी चौहान) उनकी पारखी नज़र से बच नहीं पाता। व्यक्ति अपने युग का सृष्टा कैसे बन सकता है या यूँ कहें कि युग अपने रचयिताक निर्माण स्वयं कैसे करता है। एक साहित्यकार किन परिस्थितियों को झेल कर अपने युग का सृष्टा होता है यह महादेवी ने बख़ूबी ही दर्शाया है।

सन्दर्भ सूची: 

1.‘मानविकी परिभाषा कोश’, ‘साहित्य खण्ड’, संपा.- डॉ.नगेन्द्र, पृष्ठ 168 
2. www.Pravasiduniya.com/Mahadevi-verma-Profileandbiography
3. ‘पथ के साथी’ महादेवी वर्मा, लोकभारतीय प्रकाशन, 2007, पृष्ठ 46,  

मनोज कुमार रजक
शोधार्थी कलकत्ता विश्वविद्यालय
मो. नं. – 7685918656, 
ईमेल- mkrajak22@gmail.com
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें