संघर्ष ’एक आवाज़’ - 1 प्राक्कथन

22-03-2016

संघर्ष ’एक आवाज़’ - 1 प्राक्कथन

सुरजीत सिंह वरवाल

सत्य घटना पर आधारित

"जब राहगीर चल पड़े हो मंज़िल पर ...
तो मंज़िल भी क्या चीज़ है ...।"

मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। वह अपने इसी चिंतन से अच्छे बुरे का फ़ैसला करता है। जब आम व्यक्ति अपनी जिजीविषा के लिए चिन्तनशील बना होता है, तो उसके सामने दो रास्ते खुलते हैं। एक वह जिसमें व्यक्ति चिंताओं की बलि चढ़ जाता है। वह उसे इस प्रकार से घेर लेती हैं जिसके चलते उसे प्राणों की आहुति देनी पड़ती है। दूसरा वह चिंताओं को ज्वालामुखी के उद्गार की तरह बाहर निकालता है। धरती के अंत:करण में, जिस प्रकार से गैसें आपस में टकराती हुई हलचल करती हुई धरती की कमज़ोर पपड़ी को चीरती हुई आवागमन करती हैं; ठीक इसी प्रकार से व्यक्ति की चिंताएँ काम करती हैं।

आज हम 21वीं सदी के ग्लोबलाइज़ेशन में जीवन यापन कर रहे हैं। हम तकनीकीकरण और इंटरनेट से घर बैठे पूरे विश्व पर नज़र रखे हुए हैं। आज भी स्वयं हम में जाग्रति की इतनी कमियाँ हैं जिनके चलते हुए हमें कभी भ्रष्ट नेताओं ने खाया तो कभी सरकार की गिरगिटिया नीतियों ने। आज पूर्ण आवश्यकता बन चुकी है कि हमें भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, लाला लाजपत राय, चंद्रशेखर आज़ाद, शहीद उधम सिंह और वह सभी जिन्होंने भारत माता को माता समझा उनकी क़ुर्बानियों को सही अर्थों में श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें। इसलिए हमें जागृत होना होगा, विद्यार्थी वर्ग को नौजवान दोस्तों को, और हर वह आदमी जो कुचला हुआ है।

15/04/2011 रात के 9 बज चुके थे। मैंने अपने सफ़ेद पर्चों को इकट्ठा कर उस पर कुछ लिखने का यत्न किया। वैसे तो हमारे इस संसार में इतनी समस्याएँ हैं जिनको लिखते-लिखते उम्र गुज़र जाए। कई बार हम ट्रेन में, बस में, या भीड़ में जिनको हम नहीं जानते अगर उनको कष्ट होता है तो हमारे मन में दया, करुणा, का भाव जागृत हो जाता है। उस स्थिति में अनजान शख़्स की सहायता करने पर हम अपना समय, अंग, भावनाएँ सब दे देते हैं। आज मैं इसी ‘आम आदमी’ को लेकर चिंतित था। मेरा उद्देश्य किसी प्रकार की ख्याति या पुरस्कार प्राप्त करना नहीं है। बल्कि मैं तो वह कार्य करना चाहता हूँ जो ‘मोरियो वर्गास लोसा’ ने अपने देश की सोई जनता के लिए किया। यहाँ पर मैंने ‘आम आदमी’ की बात इसलिए की है क्योंकि आम आदमी दिखने में जितना साधारण, नरम, हृदय-स्पर्शी होता है.., वह उतना ही ज्वालामुखी भी।

मैंने अपने जीवन के हर क्षण को महसूस किया, और परखा भी। ग़रीबी से संघर्ष करते हुए हर ‘आम आदमी’ को देखा है। इस संसार की भीड़ में हर वह ‘आम आदमी’ है जो अपनी जिजीविषा के लिए संघर्षशील है। दो वक़्त की रोटी के लिए आए दिन बुरे कार्यों का ताना-बाना बुन रहा है। आज मेरे विश्व के दोस्त साहित्य को चरम पर ले गए हैं। बड़ी से बड़ी ख्याति अर्जित कर चुके हैं। यह वाकई काबिले तारीफ़ है। लेकिन मेरी न्ज़र में वहीं सच्चा साहित्यकार है, जो साहित्य को ऐसा आकार प्रदान कर सके जिससें बेसुध हुई जनता अपने विवेक का प्रयोग कर सके। ‘आम आदमी’ की बात करें तो राष्ट्र-निर्माण ‘आम आदमी’ ही करता है। जब आम आदमी अपनी शक्ति का जौहर दिखता है तो क्षेत्र क्या, राष्ट्र क्या, संसार तक बदल जाता है। इतिहास भी इसका गवाह है.., हिटलर, नपोलियन, इसके सशक्त उद्धरण हैं। यूँ तो आम आदमी को सम्पन्न वर्ग कीड़े-मकोड़े समझ कर मसलता है। उनको इस्तेमाल करता है...फेंक देता है। इसी अहम में उन्हें यह स्मरण नहीं रहता कि यह वही शक्ति है जिसके आगे सारा संसार नतमस्तक हो जाता है।

मेरा यह उपन्यास ऐसे ही आम आदमियों से जुड़ा हुआ है जिन्हें राजनेता तथा कथित सिस्टम, कीड़े मकोड़ों की तरह मसलते हुए अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। इस उपन्यास में जो समस्याएँ हैं वह कार्ल मार्क्स के समय में थी, और प्रेमचंद के समय में भी। वह न तो सुधरी है और न ही सुधर सकती हैं...क्योंकि इनके समाधान के लिए हर आम आदमी को जागृत होना होगा। भ्रष्ट लोगों को बेनक़ाब करते हुए आम आदमी की दहलीज़ पर खड़ा करना होगा।

सर्वप्रथम मैं अपने स्वर्गवासी पिता का शुकरगुज़ार हूँ, जिन्होंने मेरे अन्दर के लेखक को पहचाना और मुझे संसार के लोगों के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया। आज वह इस दुनिया में नहीं है लेकिन मैं वादा करता हूँ कि मैं उनकी हर बात को सच साबित करूँगा। मैं अपनी माता और भाई-बहन का भी धन्यावद करता हूँ जिन्होंने समय-समय पर मुझे प्रेरणा रूपी वृक्ष की छाया दी। माँ का तहदिल से आभारी हूँ जिन्होंने कठिन से कठिन समय में भी मुझे आगे बढ़ने की शक्ति और हौसला प्रदान किया। मैं धन्यवाद देता हूँ उन गुरुजनों का भी जिनकी छत्रछाया में पला और बड़ा हुआ। उनकें आदर्श रास्तों पर चलकर ही मेरी यह कृति सम्पूर्ण हो सकी।

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