संचार माध्यम और सामाजिक सरोकार

22-09-2017

संचार माध्यम और सामाजिक सरोकार

विजय राघवन

समाज है तो संचार माध्यम है। संचार माध्यम है तो समाज है। विचारों का विनिमय और सूचनाओं का साझाकरण इस सामाजिक संरचना की महत्वपूर्ण देन है। सामाजिक जीवन के अच्छे-बुरे कर्म के निर्वाह में संचार माध्यम की अनदेखी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संचार माध्यम के जिन चयनित आयामों जैसे प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दूरदर्शन, आकाशवाणी, टेलीविज़न चैनल और सोशियल मीडिया पर चर्चा की गई है वे प्रत्यक्ष रूप से समाज से जुड़े हैं। मीडिया एक सामाजिक व्यवस्था है जो समाज का, समाज के लिए, समाज द्वारा संचालित है। देश की शासन और न्याय प्रणाली में इसका अमूल्य योगदान है। उक्त वर्णित सभी माध्यम स्वयं में साधन और साध्य है जिनका एकमात्र उद्देश्य सतर्कता लाना है। अंग्रेज़ी में इसकी एक प्रभावी उक्ति है "अवेयरनैस इज़ दी प्राइस ऑफ़ डेमोक्रेसी" यानी जागरूक होना लोकतंत्र का मूल्य है। इससे स्पष्ट है कि समाज को सतर्क और जागरूक करने का पूरा दारोमदार जनसंचार माध्यमों का है। 1991 के उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद संचार माध्यमों का त्वरित विकास-विस्तार हुआ। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पूँजी प्रवाह ने मीडिया ख़ासकर प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रोफ़ेशनल शब्द को जोड़ दिया है।

जनसंचार माध्यम की विभिन्न आयामों ने समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रभावित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि समाज से भी मीडिया प्रभावित हुआ है।

मीडिया में प्रोफ़ेशन शब्द जुड़ने से इसकी अवधारणा व्यापक रूप से बदली है। यह पेशा कला और विज्ञान का अपूर्व समन्वय हो चुका है जिसमें आज की प्रौद्योगिकी का अपना बहुमूल्य स्थान है। लगातार हो रहे बदलावों पर ध्यान दिया जाए तो भविष्य डिजीटल मीडिया का ही दिखाई पड़ता है। पेशेवर पत्रकारिता और समाज की बात की जाए तो प्रिंट पत्रकारिता ने स्वयं को परिभाषित किया है। यह परिभाषा सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर चलती है। पहले अख़बार घटना प्रधान होते थे। अब प्रिंट मीडिया समाचारों का सृजन भी करता है। इस सर्जना के पीछे जनहित और समाज हित की भावना होती है। पहले अख़बारों में प्रकाशित होने वाले समाचार अब जनकल्याणकारी अभियान का रूप ले चुके हैं। अब प्रत्येक समाचार जनता की रायशुमारी और प्रतिक्रियाओं के बगैर अधूरा माना जाता है। उसकी अखबार के पन्नों में कोई जगह नहीं होती। वस्तुत: यही प्रिंट मीडिया का कार्य भी है। यदि वह जनता की आवाज को मंच नहीं देगा तो उसका कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा। पत्रकारिता में "पाठक ही सर्वोपरि" का नारा राजस्थान पत्रिका का है। पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक डा. गुलाब कोठारी कहते हैं, "हम जनता और सरकार के बीच के सेतु हैं।"

यही वजह है कि देश में अख़बारों समेत प्रकाशनों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। आरएनई (रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूज़पेपर फोर इंडिया) की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार 2015 तक देश में सभी माध्यमों से कुल पाठकों की संख्या 51 करोड़ 5 लाख 21 हज़ार 445 थी। इसमें हिन्दी पाठकों की संख्या 25 करोड़ 77 लाख 61 हज़ार 985 और अंग्रेज़ी पाठकों की संख्या 6 करोड़ 26 लाख 62 हज़ार 670 थी। साथ ही देश में कुल पंजीकृत प्रकाशनों की संख्या 1 लाख 5 हज़ार 443 थी।

टेलीविजन क्रांति और नए चैनलों की बाढ़ ने समाज के हर वर्ग के अनुरूप कार्यक्रमों का प्रसारण कर जीवटता का परिचय दिया है। खासकर महिलाओं को शिक्षित व जागरूक बनाने में इसकी भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती है। प्रत्येक चैनल पर दिन के वक्त महिला आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण होता है जिनमें उनके लिए सीख होती है।

प्रिंट मीडिया में नए क्षेत्रों में नए संस्करण खुलने से उन पाठकों तक भी अख़बार पहुँचने में कामयाब हुए हैं जहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी तक नहीं पहुँच पाया है। स्थानीय मसले उठाने में आज भी प्रिंट मीडिया की भूमिका पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है। बड़े अख़बार समूहों ने सामाजिक सरोकारों का बख़ूबी निर्वाह किया है फिर चाहे वह समाज के प्रति हो अथवा पर्यावरण संरक्षण के प्रति अथवा भ्रष्टाचार की कलई खोलनी हो। ऐसे में यही कहा जाएगा कि प्रिंट मीडिया भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे अब्दुल कलाम आज़ाद के सपने का पूरा करने में लगा है। वे कहते हैं, "आप केवल 300 मिलियन शहरी लोगों का मीडिया बनकर नहीं रह सकते हैं। आपको 6 लाख गाँवों और 2 लाख पंचायतों का भी मीडिया बनना होगा।"

समाज में छोटे बच्चों, स्कूल विद्यार्थियों और किशोरों पर भी जनसंचार माध्यमों का कमोबेश गहरा प्रभाव दिखाई दिया है। टीवी पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक, फिल्में, अपराध प्रधान कार्यक्रम का उनके दिल-दिमाग़ पर असर देखा गया है। तमिलनाडु में कुछ दिल-दहला देने वाली घटनाएँ इसका उदाहरण भी बनी हैं कि किस तरह आस-पास की घटनाओं और प्रवृत्तियों को स्कूली बच्चे अपने दिनचर्या में अपना रहे हैं। आठ साल के किशोर का चेन्नई में अपनी स्कूल अध्यापिका की कक्षा में हत्या कर देना, दक्षिणी जिलों में छात्राओं का शराब पीकर कक्षा में आना, एक छात्र का दूसरे पर हमला बोलना, मारपीट करना, छोटी क्लास में ही इश्क़बाज़ियाँ लड़ाना कुछ ऐसे पहलू जो शोचनीय और वेदनीय है। क्या इनकी इस तरह की प्रवृत्तियों के लिए मीडिया को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यह सवाल बहस का मसला है। मीडिया में अच्छी बुरी दोनों चीज़ें दिखाई जा रही हैं। देखने वाला क्या देखता और सीखता है, इस पर नज़र रखी जानी चाहिए। शिक्षकों और अभिभावकों की भी इसमें भूमिका है। किशोरों को अकेले उनके हाल में छोड़ देना कतई ठीक नहीं होगा। वो भी आज के दौर में जब उनके हाथ में मोबाइल रूपी आत्मघाती यंत्र है। वे एकांत में क्या कर रहे हैं यह देखना समाज का कर्तव्य है ताकि वे ग़लत रास्ते पर नहीं चल पड़ें।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चों का प्रशिक्षण एक कला है जिसके लिए रचनात्मकता, समय, धन और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बच्चों के प्रशिक्षण में प्रयोग की जाने वाली ऊर्जा का अधिकांश भाग, उनके लिए कार्यक्रम बनाने और बच्चों के खाली समय को सही ढंग से भरने में खर्च होता है। अलबत्ता कार्य का परिणाम सदैव संतोष जनक नहीं होता क्योंकि बहुत से माता-पिता या अभिभावक, बच्चों के खाली समय को भरने के लिए उचित कार्यक्रम बनाने में सफल नहीं हो पाते। वर्तमान समय में विश्व में बहुत से लोग और संगठन समाज के इस वर्ग की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयासरत हैं और वे इसके प्रति लोगों को जागरूक भी बना रहे हैं। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार वर्तमान समय में संसार में लगभग दो अरब से अधिक बच्चे रहते हैं और प्रतिदिन उनमें से लाखों बच्चों के अधिकारों का हनन होता है। समाज शास्त्रियों ने वर्तमान समय में बच्चों के प्रशिक्षण को ऐसा विषय बताया है जिसे विभिन्न प्रकार की बाधाओं और समस्याओं का सामना है। सामाजिक समस्याओं की समीक्षा यह दर्शाती है कि किशोर अवस्था तथा युवा अवस्था में होने वाले मनोरोगों और सामाजिक बुराइयों में बचपन के दौरान प्रशिक्षण की शैली का बहुत प्रभाव पड़ता है।

एक विशेषज्ञ का मानना है कि संचार माध्यमों को बच्चों के प्रशिक्षण के लिए नैतिकता, धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों, तथा शारीरिक एवं मानसिक आयामों की ओर ध्यान रखना चाहिए। संचार माध्यमों के संचालकों को चाहिए कि वे आवश्यक दूरदर्शिता के साथ बच्चों में चिंतन और तर्कशक्ति को बढ़ावा दें।

यही सवाल युवा पीढ़ी के लिए भी है। आज की युवा पीढ़ी जनसंचार माध्यमों के किस पहलू पर अधिक अग्रसरित हो रही है। सकारात्मक पहलू पर या नकारात्मक पहलू पर। देश की क़रीब साठ फीसदी आबादी युवा है। यह वर्ग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति जनसंचार माध्यमों के जरिए ही कर रहा है। मीडिया इन युवाओं को सपने दिखाने से लेकर इन्हें निखारने तक में अहम भूमिका निभाने का काम करता है। यह वर्ग सपने भी इन पर देखता है और सफल होने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीक़े से आश्रित भी इन पर ही रहता है। अखबार-पत्र-पत्रिकाएँ जहाँ युवाओं को जानकारी मुहैया कराने का गुरू दायित्व निभा रहे हैं, वहीं टेलीविजन-रेडियो-सिनेमा उन्हें मनोरंजन के साथ आधुनिक जीवन जीने का सलीक़ा सिखा रहे हैं। लेकिन युवाओं पर सबसे ज़्यादा और अहम असर हो रहा है सोशियल मीडिया का। 2जी इंटरनेट से लेकर 4जी और वाईफाई के इस दौर ने देश-दुनिया की सीमाओं का मतलब इन युवाओं के लिए ख़त्म हो गया है। इनके सपनों को प्रौद्योगिकी और संचार क्रांति के पंख लग गए हैं। ब्लॉगिंग के जरिए जहाँ ये युवा अपनी समझ-ज्ञान-पिपासा-जिज्ञासा-कौतूहल-भड़ास निकालने का काम कर रहे हैं। वहीं सोशियल मीडिया साइट्स के जरिए दुनिया भर में अपनी समान मानसिकता वालों लोगों को जोड़ कर सामाजिक सरोकार-दायित्व को पूरी तन्मयता से पूरी कर रहे हैं। हाल में अरब देशों में आई क्रांति इसका सबसे तरोताज़ा उदाहरण है। इन आंदोलनों के जरिए युवाओं ने सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका का लोहा मनवाया तो युवाओं के जरिए मीडिया का भी दम पूरी दुनिया ने देखा। युवाओं पर इसका अधिक प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि वे उपभोक्तावादी प्रवृति के होते हैं। वे बिना किसी हिचकिचाहट के किसी भी नई तकनीक का उपभोग करना शुरू कर देते हैं। भारत में भी सोशियल मीडिया ने जनांदोलन में बड़ी भूमिका निभाई है। जिसका ताज़ा उदाहरण 2017 का जल्लीकट्टू आंदोलन है। वह इस मंच का उपयोग हितकारी कार्यों में कर रहा है तो अनुशासन के अभाव में उग्रता, तनाव और आतंक को भी भड़का रहा है। प्रत्येक पक्ष का वाद-विवाद जब सोशियल मीडिया पर होता है तो निजी हमले और टिप्पणियाँ होने लगती है। इस मंच पर महिलाओं को बलात्कार करने, एसिड फेंकने और जान से मारने तक की धमकियाँ खुल्लमखुल्ला दी जाती है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि युवा वर्ग जनसंचार की चमक के मायाजाल में फंसता जा रहा है। इस आलोच्य में कहा जाए तो युवाओं में तेज़ी से पनप रहे मनोविकारों और दिशाहीनता की वजह जनसंचार माध्यम ही है। पश्चिम का अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति उन्हें आधुनिकता और यथार्थ का पर्याय लगने लगी है। इनसे युवाओं की पूरी जीवन-शैली प्रभावित दिखलाई पड़ रही है जिससे रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा और बोलचाल सभी समग्र रूप से शामिल है। मद्यपान और धूम्रपान उन्हें एक फ़ैशन का ढंग लगने लगा है। नैतिक मूल्यों के हनन में ये कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी है। आपसी रिश्तेे-नातों में बढ़ती दूरियाँ और परिवारों में बिखराव की स्थिति इसके दुखदायी परिणाम हैं।

इंडिया बिजनेस न्यूज़ एंड रिसर्च सर्विसेज़ द्वारा 1200 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण जिनमें 18-35 साल की उम्र के लोगों को शामिल किया गया था। इसमें क़रीब 76 फीसदी युवाओं ने माना कि सोशियल मीडिया उनको दुनिया में परिवर्तन लाने के लिए समर्थ बना रही है। उनका मानना है कि महिलाओं के हित तथा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ये सूचना का एक महत्वपूर्ण उपकरण साबित हुई है। यहाँ फिर सोशियल मीडिया की उपयोगिता उसके उपयोगकर्ताओं के स्वभाव, व्यक्तित्व व विचार पर निर्भर करती है। वह इसका उपयोग कट्टरता और विष फैलाने में कर सकता है तो प्रेम, मोहब्बत, अमन, शांति और भाईचारे का संदेश भी दे सकता है।

वास्तव में जनसंचार माध्यमों ने ग्लोबल विलेज की अवधारणा को जन्म दिया है। जनसंचार के अंतर्गत आने वाले माध्यम है पत्र-पत्रिकाएँ, टीवी, रेडियो, मोबाइल, इंटरनेट। इन माध्यमों से आबालवृद्ध सभी न्यूनाधिक रूप से प्रभावित हैं। इनका प्रभाव इतना शक्तिशाली है की आज के युवा इन जनसंचार माध्यमों के बिना अपने दिन की शुरुआत ही नहीं कर सकते। सवाल जनसंचार माध्यमों की सोच का भी है। उनका कामुकता और अश्लीलता परोसना, अनैतिक संबंधों को प्यार की भावुकता और यथार्थ के नाम पर दिखाने की कोशिश करना ऐसे पहलू हैं जिन पर निज अनुशासन ज़रूरी है। अधिकांशत: इन कार्यक्रमों और ऐसे साहित्यों के प्रकाशन के पीछे तर्क दिया जाता है कि यह समाज की माँग है, इसलिए हम दे रहे हैं। क्या इसके विपरीत यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि आप दे रहे हैं और यह सहज सुलभ है इसलिए समाज इसे देख रहा है, सुन रहा, पढ़ रहा है और अपना रहा है। नतीजतन वह पतन की तरफ निरंतर अग्रसर हो रहा है।

सारांश के रूप में यह कह सकते हैं कि सभी जनसंचार माध्यमों ने जहाँ ग्लोबल विलेज, शिक्षा, मनोरंजन और जनमत निर्माण, समाज को गतिशील बनाने तथा सूचना का बाज़ार बनाने में सहयोग किया वहीं अश्लीलता, हिंसा, मनोविकार, उपभोक्तावादी प्रवृत्ति तथा समाज को नैतिक और सांस्कृतिक पतन की ओर अग्रसर किया है। अब हम समाज को स्वयं ही इसका चयन करना होगा कि वो किस ओर जाना चाहते हैं। बुलंदी पर या पतन की ओर? वर्तमान युग में अपने और संसार के प्रति लोगों की सोच, संस्कार, रीति-रिवाजों और दृष्टिकोणों पर संचार माध्यमों के प्रभाव का इनकार नहीं किया जा सकता। किंतु बहुत से लोगों का मानना है कि वर्तमान समय में संचार माध्यमों की मूल गतिविधियाँ जीवन शैली तथा उसके प्रति लोगों के विचार को परिवर्तित करने पर केंद्रित हैं और विश्व के अधिकांश स्थानों पर मीडिया के कार्यक्रम तैयार करने वालों का हर संभव प्रयास यही होता है कि कार्यक्रमों को जीवन शैली पर केंद्रित रखें। जीवन शैली, चयन पर निर्भर होती है और चयन, सूचनाओं तथा संपर्क की प्रक्रिया के फल पर निर्भर होता है। संचार माध्यम ये सूचनाएँ लोगों तक पहुँचाते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में किसी व्यक्ति के पास क्या विकल्प हैं और वह क्या चयन कर सकता है। संचार माध्यमों से जिसका लगाव जितना अधिक होगा उतना ही उस पर संचार माध्यमों का प्रभाव भी अधिक होगा। जीवन शैली पर प्रभाव डालने वाले तत्वों में संस्कृति की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस संबंध में संस्कृति लोगों की पसंद, शैली, पहचान और उन्हें स्वीकार करने की क्षमता पर सीधा प्रभाव डालती है और जीवन शैली को पूर्णत: भिन्न बना सकती है।

P. S. Vijay Raghavan
Sr. Correspondent, Rajasthan Patrika,
Chennai.
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