संवाद यात्रा : कुछ अनछुए पहलू

15-09-2021

संवाद यात्रा : कुछ अनछुए पहलू

डॉ. विजय मणि त्रिपाठी (अंक: 189, सितम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक का नाम: संवाद यात्रा
लेखक: प्रो. चंदन कुमार
प्रकाशक: संचय प्रकाशन, सोनिया विहार, दिल्ली-110090
संस्करण: 2020
मूल्य: 200 रुपए
पृष्ठ: 150

प्रस्तुत पुस्तक ‘संवाद यात्रा’ प्रो. चन्दन कुमार द्वारा दिए गये वक्तव्यों की विचार यात्रा है। तकनीक ने यह सुविधा उपलब्ध कराई है कि हम सब अपने विचारों को दिए गये व्याख्यान और वक्तव्य को संरक्षित कर सकते हैं। यह संरक्षण भविष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि इनमें बहुत से ऐसे विचारों के बीज होते हैं, जिसे पल्लवित-पुष्पित किया जाये तो ये बहुत ही परिवर्तनकारी हो सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में कुछ ऐसे ही विचारों का, वक्तव्यों का लेखन कार्य किया गया है, जिन्हें विकसित किया जाये तो ये साहित्य, संस्कृति और अकादमिक जगत में परिवर्तन करने वाले हैं। यह कहें कि साहित्य, संस्कृति और अकादमिक जगत में लंबे समय से व्याप्त जड़ता को तोड़ने वाले हैं, तो ग़लत नहीं होगा। इसमें सम्मिलित किये गये विभिन्न विषय चिंतन करने पर बाध्य करते हैं।

लेखक ने संवाद यात्रा की प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि उसे पिछले कुछ सालों में भारत के विभिन्न भागों में जाने और वहाँ की साहित्यिक, सांस्कृतिक और स्थानीय विशेषताओं को जानने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी क्रम में बोलना, पढ़ना और गुनना हुआ। वे यह स्वीकार करते हैं कि ‘भारतीय बोध में यात्रा ज्ञान का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।' लेखक इस बात पर भी बल देता है कि ‘आज के समय में कला, मानविकी और समाज विज्ञान के अनुशासन को भारत बोध की केंद्रीयता में समझने की आवश्यकता है।' लेखक स्वातंत्र्योत्तर भारत के शिक्षा पद्धति और उसके पाठ्यक्रम में परिवर्तन की वकालत करता है। आज भारतीय समाज को जिस प्रकार की शिक्षा और शिक्षण व्यवस्था की ज़रूरत है, उसे यह जड़ और परिवर्तनविहीन शिक्षण पद्धति पूरा नहीं करते हैं। इसके कारणों के विषय में वे लिखते हैं कि, “विश्वविद्यालयों और विभागों के पाठ्यक्रम समाज की संवादहीनता के संदर्भ बनाते दिखते हैं। मेरी संवाद यात्राएँ इसी आवश्यकता से प्रेरित हैं।” प्रस्तुत पुस्तक में सम्मिलित किए गये विभिन्न वक्तव्यों को पढ़कर लेखक के इस उद्देश्य को भली प्रकार से समझा जा सकता है।

इस ‘संवाद यात्रा’ में ऐसा ही एक महत्वपूर्ण लेख ‘तुलसीदास के काव्य में व्यक्त समाज, संस्कृति और भक्ति” है। तुलसीदास पर अब तक बहुत कुछ लिखा-पढ़ा और विभिन्न सभा सेमिनारों में वक्तव्य भी दिया गया है। लेकिन यहाँ तुलसीदास का विश्लेषण एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में किया गया है। लेखक हिंदी के प्रथम इतिहास लेखक ग्रियर्सन का उल्लेख करते हुए, लिखते हैं कि, “जार्ज ग्रियर्सन हिंदी साहित्य के काल विभाजन में ग्यारह शीर्षक बनाते हैं। इन ग्यारह शीर्षकों में छठा शीर्षक ‘तुलसीदास’ है और आठवाँ शीर्षक तुलसीदास के अन्य परवर्ती है।” वे इस कथन के द्वारा यह सत्यापित करते हैं कि हिंदी साहित्य का काल विभाजन करते समय ग्रियर्सन की दृष्टि हिंदी के सांस्कृतिक इतिहास पर थी। तुलसीदास भारतीय संस्कृति के बड़े कवि हैं। इसी कारण ग्रियर्सन ‘वर्नाकुलर लिटरेचर के इतिहास को तुलसीदास की केंद्रीयता में पढ़ते हैं।’ इन्होंने ही भक्तिकाल को सर्वप्रथम हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युग बताया। तुलसीदास को शायद ही इस तरीक़े से पढ़ा-समझा गया हो। अब तक तुलसीदास जैसे कवि को सगुण–निर्गुण के चौखटे में ही पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा रही है। लेखक यहाँ तुलसीदास को समाज और संस्कृति की केंद्रीयता में पढ़ने की बात करते हैं। क्योंकि “वे समाज के कवि हैं। हिंदी समाज अपनी जय-पराजय को, जीवन–मरण को, यश–अपयश को उनकी कविताओं में देखता है। उनकी कविताएँ जीवन को एक ऐसा वैरागी बनाती हैं, जहाँ आस्तिक मन अपनी जागतिकता का समाधान ढूँढ़ लेता है।” यही तुलसीदास को समाज का लोकप्रिय कवि बनाता है। इन सब बातों के अलावा लेखक ने तुलसीदास को पढ़ने, समझने के लिए बहुत से विचारणीय बिंदुओं को प्रस्तुत लेख में व्यक्त किया है, जिस पर विचार करने की आवश्यकता है।

‘संवाद यात्रा’ में संकलित एक और विचारणीय लेख ‘भारत में उच्च शिक्षा और विचारधारा’ है। इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का यदि सफलतापूर्वक सामना करना है तो हमें आज की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा। क्योंकि जिस उद्देश्य को लेकर मैकाले ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को औपनिवेशिक भारत में लागू किया था, उससे अँग्रेज़ों का हित तो सध गया लेकिन आज के भारत का हित नहीं हो सकता। इन्होंने जान-बूझकर सोची समझी रणनीति के तहत इस प्रकार से भारतीय साहित्य, इतिहास, संस्कृति आदि का पाठ निर्मित करवाया। जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि यहाँ का सारा का सारा ज्ञान और ग्रंथ कूड़ा है। इस औपनिवेशिक विचारधारा को बनाए रखने का कार्य आज़ाद भारत में वामपंथी विचारधारा ने किया। यह दुःखद है कि आज़ादी के बाद उच्च शिक्षा के महत्वपूर्ण संस्थाओं पर इसी विचारधारा वाले लोगों का कब्ज़ा रहा। इसके आज हमारे समाज में बहुत से दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं। लेखक ने ठीक ही लिखा है कि, “समाज को बाँटने की क़ीमत पर न तो संस्थान चल सकते हैं और न संस्थानों की वैचारिकी।” प्रस्तुत लेख में लेखक ने विस्तार से उच्च शिक्षा की स्थिति पर विचार किया है और ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया है जो विचारणीय हैं।

इसी लेख में वे बेवाक सामाजिकों के सामने यह प्रश्न रखते हैं कि– “आख़िर क्या कारण है कि आज भी इस देश के उच्च शिक्षा के संस्थान और वहाँ का पाठ्यक्रम कुल मिलाकर हमारे समाज, इतिहास और ऐतिहासिक प्रतीकों की बैशिंग का पाठ्यक्रम है। वहाँ आपको स्थापनाएँ मिलेंगी कि आर्य बाहर से आये थे, मुगल बहुत उदार थे, औरंगज़ेब ने मंदिर बनवाए, मंदिरों को दान दिया, अँग्रेज़ों ने हमें सभ्य बनाया और भारत राष्ट्र नहीं है, बल्कि राष्ट्रों का समुच्चय है।” ऐसी बहुत सी स्थापनाएँ हैं जो आज पुनर्विचार की माँग करती हैं। क्योंकि “आप इन संकायों में पाठ्यक्रम और शोध के विषय उठाकर देख लीजिए, आपको अपने देश, समाज और इतिहास को लेकर एक हीनता, घृणा और बँटे होने का एहसास पैदा होगा।” आज ज़रूरत इस तरह की स्थापनाओं को बदलने की है। क्योंकि जब तक हमारे भीतर अपने ज्ञान–विज्ञान, इतिहास, संस्कृति को लेकर आत्मगौरव का भाव नहीं होगा। तब तक आत्मविश्वास नहीं होगा और जब तक हमारे भीतर आत्मविश्वास नहीं होगा तब तक दुनिया के सामने हम अपनी बात को प्रमुखता से नहीं रख सकते हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने प्राचीन ज्ञान–विज्ञान को दृष्टि में रखते हुए, विश्व में ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को ध्यान में रखकर समयानुकूल परिवर्तन करते रहें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लेखक उच्च शिक्षा में और शिक्षण संस्थाओं में परिवर्तन के हिमायती है।

प्रस्तुत पुस्तक में संकलित एक अन्य महत्वपूर्ण लेख ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय साहित्य’ है। इसमें भारतीय राष्ट्रवाद को समझने की एक नई दृष्टि मिलती है। क्योंकि भारतीय राष्ट्रवाद को पश्चिमी चश्मे से ही अब तक देखा-पढ़ा और पढ़ाया जाता रहा है। बड़े गर्व के साथ यह बताया जाता है कि हम सब भारतीयों को अँग्रेज़ों का अहसानमंद होना चाहिए, जिन्होंने हमें एक राष्ट्र के रूप में संगठित किया। प्रस्तुत लेख में लेखक इस दृष्टिकोण को नकारते हैं और विचार करते हैं कि “हमारे सामने प्रश्न है कि भारत को कैसे समझा जाए ? क्या भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, सोवियत संघ या यूगोस्लाविया जैसे देशों की तरह समझा जा सकता है? क्या भारतीय राष्ट्र को समझने के मूल्य या मापदंड वही हो सकते हैं, जो इन राष्ट्रों के हैं?” इन प्रश्नों पर लेखक ने भारतीय साहित्य, इतिहास और संस्कृति को ध्यान में रखकर महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।

यहाँ लेखक ज़ोर देकर कहते हैं कि भारतीय राष्ट्र की अवधारणा यूरोपीय राष्ट्रों की निर्मित्ति से भिन्न है। वे लिखते हैं कि पश्चिम के राष्ट्र ‘कृत्रिम Nation है, इसीलिए टूटते/बिखरते रहते हैं।' वे यह मानते हैं कि भारतीय मूल्यबोध सत्ता केंद्रित मूल्यबोध नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद के केंद्र में संस्कृति है। यहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। इसलिए यह इतना मज़बूत है। क्योंकि यह बाह्य नहीं आंतरिक है। लेखक यहाँ यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्याख्या तो आप किसी ख़ास संगठन या सत्ताधारी दल से जोड़कर देखेंगे तो शायद एक राष्ट्र के रूप में हमारी निरंतरता को न पढ़ पायें। उस संगठन या दल की कमियाँ / शिकायतें सांस्कृतिक राष्ट्र की कमियों या शिकायतों में बदल जाएँगी। सत्ताधारी दल या संगठन नहीं था तब भी एक राष्ट्र के रूप में हमारी सांस्कृतिक पहचान थी।” यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है जिसकी ओर संकेत लेखक ने किया है। लेखक अतीत को व्यतीत नहीं मानते हैं बल्कि सजीव मानते हैं। इस सजीवता का अनुभव हम सब भारतीय साहित्य में कर सकते हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने पूर्वोत्तर भारत से जुड़े विविध पक्षों पर विस्तार से विचार किया है। पूर्वोत्तर भारत जो अब तक व्यापक भारत से सांस्कृतिक, सामाजिक रूप से अलग–थलग जान पड़ता है। लेखक ने पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न पक्षों का ज्ञान अपने लेखों के माध्यम से संपूर्ण भारतीयों को कराया है। लेखक द्वारा किया जा रहा यह कार्य पूर्वोत्तर भारत से शेष भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक संबंध को प्रगाढ़ करता है। संबंधों की यह प्रगाढ़ता संपूर्ण भारत में शांति एवं स्थायित्व के लिए अति आवश्यक है। लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि, “प्राग्ज्योतिषपुर, वर्तमान में कहें तो पूर्वोत्तर भारत अपना इश्क़ है।” यह इश्क़ प्रस्तुत पुस्तक में सम्मिलित किये गये विभिन्न लेखों में झलकता भी है।

ऐसा ही एक लेख ‘पूर्वोत्तर भारत का वनवासी समुदाय : जीवन मूल्य और दर्शन’ है। इस लेख में लेखक ने पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी वनवासी समुदायों का परिचय, उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति, लोक मान्यताएँ और विश्वास आदि के बारे में विस्तारपूर्वक बताया है। यहाँ लेखक ने उन बातों को भी सम्मिलित किया है जो अब तक कहीं भी लिखित रूप में उपस्थित नहीं हैं। वे यहाँ यह स्वीकार करते हैं कि, “मेरी जानकारी बताती है कि असम को छोड़ दिया जाए तो ‘प्राग्ज्योतिषपुर’ जो कि पूर्वोत्तर का सांस्कृतिक नाम है, के अन्य क्षेत्रों पर बहुत लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है। चाहे ‘आपातानी’ समुदाय हो या ‘गारो’, ‘खासी’ और ‘जयंतिया’ जैसे समुदाय हों, ‘मिज़ो, हो, ‘नागामी’ हो, ‘बोडो’ हो, ‘कर्वी’ हो, ‘राभा’ हो या फिर ‘न्यिशी’ या ‘मिसिंग’ हो – इनकी दार्शनिक मान्यताओं का डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ है। पाठ की लिखित परंपरा नहीं है, हाँ, समृद्ध वाचिक परंपरा है।” वाचिक परंपरा से तथ्यों का संग्रह अत्यंत ही श्रमसाध्य कार्य है। यह कार्य और भी दुष्कर, तब अधिक हो जाता है जब इन आदिवासी समुदायों की भाषा को समझने में कठिनाई हो।

लेखक ने इस क्षेत्र का सामाजिक और सांस्कृतिक परिचय कराने के साथ-साथ, यहाँ के प्रकृति और भौगौलिक क्षेत्र की विशिष्टता का उल्लेख प्रस्तुत लेख में कराया है। उन्हीं के शब्दों में “भारत का यह ईशान क्षेत्र भौगोलिक रूप से कमोबेश एक जैसा है। सिक्किम से लेकर अरुणाचल तक और नागालैंड से लेकर त्रिपुरा तक अनेकानेक भाषाओं, बोलियों, समुदायों, नृत्य–संगीत, वनस्पतियों–वन्यजीवों, पारिस्थितिक विविधताओं, लोक संस्कृतियों और रीति-रिवाज़ों को जीता हुआ क्षेत्र उत्सव धर्मी है।” इस उत्सवधर्मिता की अभिव्यक्ति लोकनृत्य और लोकगीतों में होती है। अरुणाचल प्रदेश में छब्बीस मुख्य जनजातीय समुदाय हैं। ये सभी मुख्यतः प्रकृति पूजक हैं। इनकी अपनी पौराणिक मान्यताएँ एवं विश्वास हैं। “मेघालय में खासी समुदाय की मान्यता है कि प्रारंभ में पृथ्वी एक चौरस विस्तृत मैदान भर थी। उस समय आग, पानी और धूप की तीन देवियाँ हुआ करती थीं। इन देवियों के नाम थे– ‘का डिंग’, ‘काउम’ तथा ‘कासंगी’। इस तरह के बहुत सारी मान्यताएँ और विश्वास इन वनवासी समुदायों के बीच में प्रचलित है। इनका विस्तृत वर्णन इस लेख में किया गया है, जिनमें खासी, गारो, जैयंतिया, मोंपा, न्यिशी, नागामी, नागा, कूकी, बोड़ो, कछारी, राभा, कार्बी, मिकिर, मैतेयी आदि प्रमुख हैं।

पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन को समझने में ‘पूर्वोत्तर का धार्मिक–सांस्कृतिक जीवन और सत्र’ लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। असम ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पूर्वोत्तर में शंकरदेव और उनके द्वारा स्थापित सत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि “लगभग पाँच सौ वर्षों से असम के ‘सत्र’ यहाँ की जनता के धार्मिक, सांस्कृतिक एवं समाज कल्याण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। समाज को नई दिशा प्रदान करने के लिए यह ‘सत्र’ समाज में भक्ति के साथ-साथ शिक्षा, विभिन्न कलाओं आदि का ज्ञान जनता तक पहुँचा रहे थे। सत्र पंचायती न्याय प्रणाली, संगीत, कला के साथ-साथ स्वावलंबन के भी केंद्र हैं।” ‘सत्र’ असम तथा समूचे पूर्वोत्तर भारत को शेष भारत से सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से जोड़ने की धुरी भी है। इन सत्रों की संरचना का निर्माण शंकरदेव द्वारा स्थापित ‘नव्य वैष्णव धर्म’ के आधार पर की गई है। ऐसी मान्यता है कि जिस–जिस स्थान पर शंकरदेव ने अपने शिष्यों के साथ विभिन्न धार्मिक, सामाजिक विषयों पर संवाद किया वे स्थान बाद में ‘सत्र’ के रूप में विकसित हुए।

शंकरदेव ने अपने शिष्यों के साथ लंबे समय तक भारत के महत्वपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक स्थानों का भ्रमण किया था। जब वह पुनः असम लौटे तो उन्होंने सर्वप्रथम असम के बरदोवा नामक स्थान पर अपने धार्मिक तथा सांस्कृतिक विचार व्यक्त किये। यहाँ उन्होंने सर्वप्रथम ‘सत्र’ की स्थापना की। शंकरदेव के विचारों को प्रचारित–प्रसारित करने में इनके शिष्यों का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके प्रमुख शिष्यों की संख्या बारह है। इन्हीं में से इनके एक महत्वपूर्ण शिष्य माधवदेव हैं। उन्होंने बरपेटा में वृहद ‘थान’ या ‘सत्र’ का निर्माण कराया। इस तरह से कई सत्रों की स्थापना हुई। जिसका प्रभाव समूचे असम और उसके आस–पास के क्षेत्रों में देखा जा सकता है। सत्र और शंकरदेव के महत्व को बताते हुए लेखक ने लिखा है कि “श्रीमंत शंकरदेव की विचार यात्रा, सत्र–परंपरा के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पुनर्जागरण की यात्रा है। सत्र परंपरा में धर्म, अध्यात्म और भक्ति समाज विमुख नहीं है। अपितु यह वस्त्र निर्माण, अभिनय कला, हस्तकला, चित्रकला, नौका निर्माण कला और मुखौटा कला के भी केंद्र है।” इस तरह से सत्र समाज और संस्कृति के व्यापक उद्देश्यों से परिचालित है। ‘सत्र’ सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को भी सुनिश्चित करते है। ‘सत्र’ इसके भी उदाहरण है कि ‘धर्म समाज युक्त होकर कैसे आदर्श जीवन व्यवस्था बन जाता है।’

प्रस्तुत पुस्तक में इसी से जुड़ा हुआ अन्य महत्वपूर्ण लेख ‘असम के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में सत्रों का महत्व’ और ‘शंकरदेव एवं सत्र परंपरा’ है। जिसमें शंकरदेव तथा सत्र व्यवस्था का बहुत ही सूक्ष्म मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। ये लेख और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि अब तक शंकरदेव को लेकर हिंदी के लेखकों में एक अनुत्साह का भाव रहा है। हिंदी क्षेत्र के लोगों ने उत्तर भारत तक ही अपने को सीमित रखा है। जिसके कारण हिंदी का अपना क्षेत्र ही सिमटा हुआ है। हिंदीतर क्षेत्र के विद्वानों पर किया जाने वाला लेखन स्वयं हिंदी के क्षेत्र को भी विस्तृत करता है। जो संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोता है।

इसी से जुड़ा हुआ एक अन्य लेख ‘पूर्वोत्तर भारत में हिंदी की दिशा और दशा’ है। पूर्वोत्तर भारत में हिंदी की स्थिति को जानने में यह लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस तरह के लेख शायद ही इतनी तथ्यपरक जानकारियों के साथ उपलब्ध हो। लेखक ने पूर्वोत्तर भारत में हिंदी भाषा के पहुँच को शंकरदेव से जोड़ा है। वे लिखते हैं कि “शंकरदेव ने अपने जीवन में दो बार भारत का भ्रमण किया था। वे अपने साहित्य में कहीं भी असम शब्द का प्रयोग नहीं करते, भारतवर्ष उनकी रचनाधर्मिता के केंद्र में है। यही वह बिंदु हैं जहाँ से मैं पूर्वोत्तर और हिंदी के रिश्तों को समझता हूँ।” क्योंकि शंकरदेव ने जिस नववैष्णव धर्म को ‘ब्रजबुलि’ के द्वारा प्रचारित–प्रसारित किया। वह ‘ब्रजबुलि’, ब्रजभाषा, असमिया, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला से मिलकर बना है।

आज के परिवेश में हिंदी संपूर्ण पूर्वोत्तर में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है। यहाँ यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि ‘सिक्किम से लेकर अरुणाचल तक और नागालैंड से लेकर त्रिपुरा तक भारत के आठ राज्यों में लगभग दो सौ से अधिक जनजातियाँ निवास करती हैं।' लेखक यह भी बताते हैं कि “इनका हिंदी से परिचय भावात्मक कम तार्किक ज़्यादा है।” इसके कारण को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि “उत्तरी भारत पश्चिमी भारत या दक्षिणी भारत में हिंदी से प्यार और घृणा के संबंध भावुकता केंद्रित ज़्यादा है। असमिया-बोड़ो से, बोड़ो-कर्वी से, कार्बी-मिसिंग से, मिसिंग-निशि से, निशि-सोनबल से, संवाद किस भाषा में करें? आपको यहाँ बैठे लगता होगा कि पूर्वोत्तर के सातों-आठों राज्यों का मामला एक जैसा है। जबकि आप वहाँ जाएँ तो पता चलता है कि मिज़ो हिंदी को तो बर्दाश्त कर ले पर असमिया से घृणा करता है।” इस तरह के बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियों से यह लेख संपन्न है। पूर्वोत्तर के विविध राज्यों में हिंदी की स्थिति को लेकर भी लेखक ने विस्तार से विचार किया है, जो वहाँ हिंदी की तात्कालिक स्थिति के बारे में बताता ही है। साथ में यह भी प्रस्तावित करते हैं कि वहाँ हिंदी के और व्यापक प्रचार–प्रसार के लिए और क्या–क्या प्रयत्न किया जाना चाहिए।

लेखक ने ‘बाज़ारवाद, नैतिकता और समकालीन मीडिया’ विषय पर भी प्रस्तुत पुस्तक में अपने विचार व्यक्त किये हैं। इस लेख में लेखक ने इन विषयों पर बहुत ही व्यावहारिक नज़रिए से विचार किया है। ज़्यादातर इन विषयों पर बहुत ही सैद्धांतिक और नैतिक तरीक़े से विचार किया जाता है। विश्वविद्यालयों में कुछ इसी तरीक़े से पठन–पाठन भी किया जाता है। वे लिखते है कि “जिस मीडिया से विश्वविद्यालय परिचय करा रहा है, वह व्यवहारिक जीवन में किसी काम का नहीं है। आप जो पढ़ा रहे हैं, आप जिन चीज़ों को गुण बात रहे हैं, वह बाज़ार के लिए अवगुण हैं। आप पढ़ाते हैं–आदर्श संवाददाता कैसा होना चाहिए? आप विद्यार्थियों को एक यूटोपियन दुनिया में ले जाते हैं।” जब वह बाहर की दुनिया में जॉब के लिए जाता है तो शैक्षणिक संस्थाओं में बताए गये गुण अवगुण में बदल जाते हैं। उन्होंने बहुत ही तार्किक ढंग से यह बताया है कि ‘आज की मीडिया जेम्स आगस्टस हिकी, बाबूराव विष्णु राव पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी और महावीर प्रसाद द्विवेदी वाला मीडिया नहीं है।’ आज की मीडिया रूपर्ट मर्डोक, वार्नर ब्रदर्स, बैनेट एंड कौलेमन, बिरला जी, एक्सप्रेस समूह यानी गोयनका जी का माध्यम है।

अतः ये “सत्य और न्याय के लिए हज़ार करोड़ रुपये लगाए नहीं बैठे हुए हैं। ये पूँजी के बड़े खेल हैं जनाब। इनके केंद्र में अर्थोपार्जन है।” आज की मीडिया वित्तीय पूँजी वाली मीडिया है। इसका बहुत ही क्रूर खेल है। लेखक ने ठीक ही लिखा है कि ‘इसे समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और कल्याणकारी राज्य की फीकी हुई शब्दावली में नहीं समझा जा सकता।’ इन विषयों पर बिना लाग–लपेट के लेखन बहुत कम देखने को मिलेगा। आदर्श में सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखता है लेकिन कई बार वास्तविकता थोड़ी कड़वी होती है। “खेल बदल गया। सामने बाज़ार है। आपकी नैतिकता रो रही है, जो प्रतिमान आपने बनाए, वे प्रतिमान मैले और निरर्थक हो गए है।” अब समय आ गया है कि हम अपने नए प्रतिमानों को निर्मित करें जिसका सरोकार व्यवहारिकता से ज़्यादा हो। तभी हम इस वैश्विक पूँजी और बाज़ार के खेल में बने रह सकते हैं। इस लेख में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो इन विषयों को समझने की नवीन दृष्टि प्रदान करती है।

प्रस्तुत पुस्तक में हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकारों पर भी लेखक ने अपने विचार व्यक्त किये है। ‘मानवबोध और मैथिलीशरण गुप्त’ लेख में लेखक ने मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य कर्म को, उनकी महत्ता को पुनः रेखांकित किया है। इसके कारण को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं कि “हिंदी कविता की आलोचना में गुप्त जी के साथ न्याय नहीं हुआ। अपनी असाधारण काव्य प्रतिभा के बावजूद हिंदी के विश्वविद्यालयी मार्क्सवादी आलोचना में वे एक साधारण कवि ही माने जाते हैं।” यह बहुत हद तक सत्य भी है। लंबे समय तक विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों पर एक ख़ास विचारधारा के विद्वानों का एकाधिकार रहा। जो कवि या रचनाकार इनके विचारधारा के अनुकूल होते उन्हें तो साहित्य जगत की केंद्रीयता में स्थापित किया गया और जो इनके विचारधारा के अनुरूप नहीं थे उनको हाशिए पर रखा गया।

लेखक ने गुप्त जी पर पुनर्विचार करते हुए लिखा है कि “उनकी काव्य की लोकप्रियता हिंदी समाज की काव्य संवेदनशीलता का प्रमाण है । सीधी सरल भाषा, पौराणिक कथा लोकों का चुनाव, राष्ट्र और हिंदू नैतिक मूल्यों का समर्थन उन्हें एक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित कवि के रूप में स्थापित करता है।” गुप्त जी की कविताओं की पंक्तियाँ आज भी साधारण जन की ज़ुबान पर हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय इन्होंने देश भक्तों के हृदय में आत्मसम्मान और आत्मगौरव का भाव जगाया। लेखक ने ठीक ही लिखा है कि ‘गुप्त जी की रचनात्मकता स्मृतिभ्रंश का प्रतिपक्ष है।’ वे हमारे इतिहास के उज्ज्वल सामाजिक, सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करते हैं। “मैथिलीशरण गुप्त की रचनात्मकता स्मृतिभ्रंश से उपजे भारतीय समाज के दोषों का परिहार करने की सृजनात्मक कोशिश है। यह सृजनात्मक कोशिश मनावभाव, वैष्णवभाव और राष्ट्रभाव की त्रिकोणीयता में विकसित होती है।” गुप्त जी से संबंधित बहुत से तथ्यात्मक निष्कर्षों को लेखक ने प्रस्तुत लेख में समाहित किया है, जिस पर पुनर्विचार करना आवश्यक है।

प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ पर 'नाट्यशास्त्र भारतीय संस्कृति एवं विरासत को समझने की एक दृष्टि’ शीर्षक से महत्वपूर्ण लेख को समाहित किया है। यह ग्रंथ भारतीय ज्ञान के गौरव का ग्रंथ है। लेखक ने ठीक ही लिखा है कि ‘नाट्यशास्त्र पर चर्चा करना किसी पुस्तक पर चर्चा करना नहीं है। यह भाषा की सर्जनात्मक क्षमता पर चर्चा करना है।” इसकी रचना का समय लगभग 500 ई. पूर्व है। यह ग्रंथ 36 अध्यायों में विभक्त है और इसमें 6000 श्लोक हैं। इसकी महत्ता इसी बात से सिद्ध होती है कि इसे पंचम वेद की संज्ञा दी जाती है। इस ग्रंथ में बहुत कुछ है जो आज की हमारी ज्ञान परंपरा को और आगे बढ़ा सकता है। लेखक ने इस बात की ओर भी संकेत किया है कि “नाट्यशास्त्र इस अवधारणा का भी प्रमाण है कि ज्ञान–निर्माण कोई निजी संपत्ति नहीं है– ज्ञान व्यक्ति के प्रयास से निर्मित हो सकता है। यह वैयक्तिक नहीं है– Person होना और Personal होना एक कैसे हो सकता है? आदिभारत के 36,000 वैदिक श्लोकों से भरत की नाट्यशास्त्र की यात्रा है– इस यात्रा में ज्ञानार्जन की एक पूरी परंपरा समाहित है।” यह प्रोक्त शैली का अनुपम ग्रंथ है। जिसमें शिष्य अपने गुरु से प्रश्न करता है और गुरु शिष्य के प्रश्नों का उत्तर देता है। लेखक ने ठीक ही इसे ज्ञान की सामूहिकता का शास्त्र कहा है। लेखक ने इस ग्रंथ को समझने के सूत्र प्रस्तुत लेख में दिए हैं। जिस पर और विचार–विमर्श करने की ज़रूरत है।

‘आचार्य महाप्रज्ञ का हिंदी साहित्य को अवदान’ लेख प्रस्तुत पुस्तक में संकलित महत्वपूर्ण लेख है। प्राचीन साहित्य की निर्मिति में जैन कवियों का महत्वपूर्ण योगदान है। आदिकाल तक जैन कवियों की समृद्ध साहित्यिक परंपरा का उल्लेख विभिन्न साहित्येतिहास की पुस्तकों में किया गया है। लेकिन इसके बाद जैन साहित्य के बारे में बहुत जानकारी नहीं प्राप्त होती। क्या जैन संतों की साहित्यिक परंपरा अचानक समाप्त हो गई? यह शोध का विषय है। लेखक आचार्य महाप्रज्ञ के विश्लेषण के द्वारा इसी परंपरा के विकास को खोजने का प्रयास करते हैं। वे लिखते है कि “आधुनिक युग में यदि हम क़िस्से, कहानियाँ, गीत, ग़ज़लों से अलग विचारशील साहित्य की परंपरा का अनुसंधान करें तो हमें आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा विरचित साहित्य के अमूल्य ग्रंथ प्राप्त होते हैं।” इन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। जिसे अध्ययन की सुविधा के लिए लेखक ने तीन भागों में विभाजित किया है– सामाजिक चिंतन प्रधान रचनाएँ, आध्यात्मिक रचनाएँ और काव्य रचनाएँ।

लेखक ने आचार्य महाप्रज्ञ की एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लोकतंत्र : नया व्यक्ति नया समाज’ का उल्लेख किया है। यह पुस्तक इनके सामाजिक निबंधों का संकलन है। इसी पुस्तक में एक निबंध है ‘लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता’ इसमें “आचार्य ने लिखा है कि भगवान महावीर ने धर्म के दस प्रकारों में ‘राष्ट्रधर्म’ को प्रमुख रूप के उल्लिखित किया है।” उन्होंने राष्ट्रधर्म की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “राष्ट्र की आचार संहिता का पालन।” महाप्रज्ञ जी का विचार है कि ‘हिंदुस्तान में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है। चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो।’ वे हिंदू शब्द को राष्ट्र के साथ जोड़ने की वकालत करते हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने भाषा की सबसे छोटी सार्थक इकाई शब्द पर भी अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। इन्होंने अन्य विषयों पर भी ‘राजनीति का धर्म’, किसने कहा मन चंचल है’, ‘महावीर का अर्थशास्त्र’, ‘अहिंसा और शांति के अर्थशास्त्र’, ‘व्यक्तिगत स्वामित्व और उपभोग का समीकरण’ और भी बहुत से लेख एवं कविताओं का लेखन कार्य किया है। जिसका विश्लेषण लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में किया है, जो हिंदी के लिए एक नया क्षेत्र है। जिसमें पठन-पाठन और शोध की अपार संभावनाएँ हैं। ये विषय हिंदी के शोधार्थियों के समक्ष परंपरित विषयों से हटकर शोध की नई दिशाओं को खोलता है।

यहाँ प्रस्तुत पुस्तक में संकलित कुछ ही लेखों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने इस ‘विचार यात्रा’ में ऐसे अनेक विषयों को अपने चिंतन के केंद्र में लाते हैं, जिन पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। ये विषय निम्न हैं– ‘भारतीय समाज और संस्कृति में गुरु गोविंद सिंह जी का योगदान’, ‘लोकनाट्य का जगत और बिदेसिया’, ‘साहित्य शिक्षण और मूल्यबोध’, ‘लोकतंत्र विकास और भागीदारी के सवाल’, ‘भाषा और सशक्तिकरण के आयाम’, ‘पत्रकारिता और रोजगार : बदलते संदर्भ में’, ‘अमृतलाल नागर की रचनात्मकता (संपादन और सिनेमा के संदर्भ में)’, ‘हिंदी साहित्य में गांधी को पढ़ना’, ‘राहुल सांकृत्यायन’, ‘रचनात्मक लेखन और सर्जना के विविध पहलू’, ‘इक्कीसवीं सदी के कथा साहित्य में स्त्री छवि’, ‘दया प्रकाश सिन्हा के नाटकों का संग्रह ‘नाट्य समग्र’ आदि।

इन सब विषयों पर लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में अपने विचार व्यक्त किए हैं। ये विचार अब तक कहे गये, लिखे गये का पृष्ठपेषण नहीं है। इनमें बहुत सारे विषयों पर अब तक जो स्थापनाएँ दी गई हैं, उनमें चिंतन के कुछ नए आयाम जोड़ता है। जो अब तक स्थापनाएँ चली आ रही हैं, उन्हें तोड़ता है। पठन-पाठन तथा शोध के नए क्षेत्रों को प्रस्तावित कर हिंदी भाषा तथा उसके क्षेत्र का विस्तार करता है। हिंदी भाषा तथा उसकी प्रासंगिकता को आज के आधुनिक परिदृश्य से जोड़कर, हिंदी भाषा को जीवंत बनाता है। मीडिया और बाज़ार से जोड़कर हिंदी को रोज़गारोन्मुख बनाता है। हिंदी भाषा तथा साहित्य को हिंदीतर क्षेत्रों के विद्वानों से जोड़कर पढ़ने-लिखने की समझ विकसित करता है, जो हिंदी को राष्ट्रीय फलक प्रदान करता है। अन्य भाषा–भाषियों के मध्य साहित्यिक, सांस्कृतिक, भावात्मक तथा बौद्धिक संबंध स्थापित करता है। अंततः यह कहाँ जा सकता है कि प्रस्तुत पुस्तक में संकलित लेख साहित्य, समाज और संस्कृति को नए सिरे से परिभाषित करने की दृष्टि प्रदान करता है, जिस पर विचार करने और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।

डॉ. विजय मणि त्रिपाठी
असिस्टेंट प्रोफेसर
आत्माराम सनातन धर्म महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

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