संपादकीय टिप्पणियों में सच से वार्तालाप 

01-06-2020

संपादकीय टिप्पणियों में सच से वार्तालाप 

प्रो. निर्मला एस मौर्य (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति : संपादकीयम् (लेख/पत्रकारिता)
लेखक- ऋषभदेव शर्मा
आईएसबीएन: 97893-84068-790
प्रकाशक- परिलेख, नजीबाबाद
वितरक- श्रीसाहिती प्रकाशन, 
हैदराबाद : मोबाइल +91 98499 86346

दैनिक समाचारपत्र में संपादकीय पृष्ठ समाचार की अपेक्षा विचार का पृष्ठ हित है। उसमें भी संपादकीय आलेख वाला कालम तो एक प्रकार से अख़बार की नाभि ही होता है। इसके अंतर्गत प्रायः दैनंदिन ज्वलंत विषयों पर विश्लेषणात्मक टिप्पणी रहती है। ये टिप्पणियाँ उस अख़बार के विचार और सरोकार का भी आईना होती हैं। इसलिए संपादकीय टिप्पणीकार से उम्मीद की जाती है कि वह अपने चारों ओर सजग दृष्टि बनाए रखते हुए अपने आँख-कान खुले रखे और अपने आसपास होने वाली विभिन्न गतिविधियों पर अपनी बेबाक राय को शब्दबद्ध करता चले। दक्षिण भारत के  एक अग्रणी  दैनिक समाचार पत्र  के लिए डॉ. ऋषभदेव शर्मा द्वारा समय-समय पर लिखे गए संपादकीय इस कसौटी पर खरे तो उतरते ही हैं; साथ ही इन्हें पढ़कर पत्रकारिता के विद्यार्थी यह भी सीख सकते हैं कि किसी दैनिक के लिए संपादकीय कैसे लिखा जाए। निस्संदेह ये आलेख मात्र शब्दों का खेल नहीं बल्कि आज के समय की पुकार हैं। इन संपादकीयों में एक तीक्ष्णता है, जो पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। समसामयिक संदर्भों में लिखी गई उनकी अनेक टिप्पणियों में से  चुनी गई 61 टिप्पणियाँ उनकी इस क्रम की पहली पुस्तक 'संपादकीयम्' (2019) में  देखी जा सकती हैं, जो विषय-वस्तु के रूप में विभिन्न विमर्शों को अपने में समेटे हुए है। आठ खंडों में बँटी यह वैचारिकी स्त्री संदर्भ, लोकतंत्र और राजनीति, जो उपजाता अन्न, शहर में दावानल, व्यवस्था का सच, हमारी बेड़ियाँ, अस्तित्व के सवाल और वैश्विक संदर्भ के बहाने पाठक को एक अलग दुनिया में ले जाने में समर्थ है। यह दुनिया हम सब की होते हुए भी संपादक की अपनी दुनिया है। तात्कालिक संदर्भ तो बहाना भर हैं, लेखक उनके सहारे अपनी वेदना और संवेदना को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है। आइए, तनिक संपादक की इस अपनी दुनिया की सैर पर चलें।

कहने को तो दुनिया की आधी आबादी स्त्रियों की है, पर क्या उसको वे सब अधिकार मिले हैं, जो पुरुष को मिले। पुराणों में पार्वती को शिव की शक्ति कहा गया तो प्रसाद ने नारी को ‘नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत- नग पगतल में। पीयूष-स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में' कहकर उसका मान बढ़ाया। किंतु इन सबसे अलग हटकर नारी का एक और रूप है जो इन संपादकीय आलेखों में दिखाई देता है। सन 2018 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित नादिया मुराद और डेनिसमुक्केगे को यह सम्मान विश्व भर में हर तरह के युद्ध और संघर्ष में हथियार के रूप में ‘यौन हिंसा’ के इस्तेमाल को ख़त्म करने के प्रयासों के लिए दिया गया। भारत ही नहीं, अपितु यह विश्व की सच्चाई है कि स्त्री कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में नारकीय यंत्रणा भोगती रही है और भोग रही है। जिस तरह भारत में हिंदुओं के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार वर्ण हैं, इसी तरह हर मुल्क में जितने भी धर्म हैं, वे अलग-अलग समुदायों में बँटे हुए हैं। इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी समुदाय भी पुन: अनेक समुदायों में बँटे हुए हैं। किसी भी समाज की वह हर नारी जो अपनी जिजीविषा को क़ायम रखते हुए आतंक और हिंसा की अग्नि से कुंदन की तरह तपकर बाहर निकलती है, हमेशा एक असाधारण वीरांगना ही होती है। ऐसे बहादुरों के लिए नोबेल पुरस्कार भी छोटे पड़ जाते हैं। मानव तस्करी, सेक्स-स्लेवरी, यौन हिंसा, युद्ध, आतंक, संघर्ष आदि की समस्याओं को उठाता हुआ यह संपादकीय पाठकों के मन में एक बहुत बड़ा प्रश्न छोड़ जाता है और इस्लामिक स्टेट का ख़ौफ़नाक चेहरा सामने लाता है।

'नोबेल शांति पुरस्कार: एक असाधारण वीरांगना को’ – संपादकीय  खंड 1 : 'स्त्री संदर्भ' का  ऐसा पहला आलेख है, जो पाठकों के मन में इन संपादकीयों को पढ़ने की रुचि जागृत करता है। ‘बोलने वाली औरतें बनाम पुरुष प्रधान समाज’ एक व्यंग्यपरक संपादकीय है, जिसमें पुरुष प्रधान समाज की सच्चाइयों का रेशा-रेशा खुलकर हमारे सामने आ जाता है। 2019 में ‘मी टू’ अभियान बड़ी तेज़ी से चला था, जिसमें समाज के हर वर्ग की महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं के ख़ुलासों से लोग सच्चाई से रूबरू हो पाए। इस अभियान से कई बड़े-बड़े लोग भी लपेटे में आ गए। मीडिया ने भी इसे ख़ूब प्रचारित किया। लेखक तंज कसते हैं- ‘सच तो यह है कि आज भी उन्हें अपने इस बोलने की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। लेकिन फिर भी अब वे साहस (या दुस्साहस?) पूर्वक बोलने लगी हैं और इससे बहुत से चमकीले चेहरों के आवरण उतरने के कारण कुछ न कुछ असहजता अवश्य महसूस की जा रही है|’ उन्होंने ऐसी स्त्रियों पर भी तंज कसा है, जो स्त्री देह को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करके अपनी पहचान बनाना चाहती हैं। इस पुरुष प्रधान समाज में आज भी स्त्रियों को खुलकर बोलने की अनुमति नहीं है। जो स्त्रियाँ खुलकर बोलती हैं उन्हें किसी न किसी तरह चुप कराने की कोशिश की जाती है। स्त्रियाँ जानती हैं कि उन्हें इस स्त्री उत्पीड़न के अभिशाप से मुक्त होना है, इसके लिए प्रयास भी जारी हैं, किंतु आज भी यह एक गंभीर समस्या  बनी हुई है। इस संपादकीय को पढ़कर मन में एक आशा जगती है कि अब महिलाओं को लोग सहज उपलब्ध सामग्री मानना बंद कर देंगे।

आयोग गठित किए जाते हैं लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए, किंतु हमेशा से समाज में हर पुरुष स्वयं को आयोग ही समझता रहा है। ‘जबकि हर पुरुष स्वयं आयोग है’ में पुरुष की इसी सोच पर व्यंग्य की स्थिति देखने को मिलती है। संसद में बैठा हुआ सांसद यदि राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय पुरुष आयोग की माँग करता है, तो इससे ज़्यादा हास्यास्पद स्थिति और क्या बनेगी? तभी तो लेखक कहते हैं- ‘पत्नी पीड़ित पति संघ की तर्ज़ पर ऐसे किसी आयोग के गठन की ज़रूरत महिलाओं द्वारा प्रताड़ना की तुलना में क़ानून के दुरुपयोग के कारण अधिक महसूस की जा सकती है। अन्यथा किसे नहीं मालूम कि हमारा समाज आज भी घोर पुरुषवादी समाज है तथा अपने वर्चस्व के दर्प में फूला हुआ हर पुरुष स्वयं एक-एक आयोग है।’ जब ऐसी फिजूल समस्याओं के लिए आंदोलन की तैयारी की जाती है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे आंदोलन महिला सशक्तिकरण के अभियान को कमज़ोर करते हैं और कहीं न कहीं स्त्री-द्वेषी मानसिकता से प्रेरित दिखाई देते हैं। भारतीय समाज की स्त्रियाँ प्रतिपल डर-डर कर जीती हैं, इससे हममें से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। लेखक का मानना है कि हमारी यह लड़ाई उस मानसिकता के ख़िलाफ़ होनी चाहिए जो स्त्री को ढंग से जीने की आज़ादी नहीं देती और उसकी हर छोटी से छोटी गतिविधि पर रोक लगाने की कोशिश करती है। कभी-कभी स्त्रियाँ भी कम नहीं होतीं और वे पुरुषों को प्रताड़ित करती हैं, इसमें भी कोई दो राय नहीं, किंतु दोनों ही के पास न्यायालय की शरण में जाने के विकल्प मौजूद हैं। हमारे समाज को ध्यान में रखते हुए, जहाँ एक ओर स्त्रियाँ सहज ही न्यायालय तक नहीं पहुँच पातीं और किसी अन्य का सहारा लेती हैं, वहीं पुरुष बड़े आराम से न्यायालय तक पहुँच जाता है। इसीलिए उसे राष्ट्रीय पुरुष आयोग की कोई आवश्यकता नहीं है और इस बात पर अधिक राजनीति करने की भी आवश्यकता नहीं है। विवाहेतर संबंध केवल भारत की नहीं अपितु पूरे विश्व की एक समस्या है। ‘विवाहेतर संबंध: निजता बनाम नैतिकता’ में बड़ी बेबाकी से यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या संवैधानिक पीठ द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा- 497 को असंवैधानिक मानते हुए रद्द किया जाना उचित है? क्या ऐसा क़दम उठाने से समाज में व्यभिचार और विषमताएँ नहीं फैलेंगी? निजता और नैतिकता में चुनाव करना हो, तो निजता का अधिकार अधिक न्यायसंगत लगता है, जबकि नैतिकता और उसका नियमन क़ानून का कम तथा सामाजिक संस्कारों का विषय अधिक प्रतीत होता है। जब किसी समाज में स्त्री को पुरुष की संपत्ति माना जाता है, तब ऐसे में विरोध के स्वर उठने स्वाभाविक हैं। कहने को तो पति और पत्नी का दर्जा बराबर होता है, किंतु इस क़ानून में स्त्री की इच्छा का कोई सम्मान नहीं किया गया। स्थिति तब और भी हास्यास्पद हो जाती है, जब कोई पत्नी पति की अनुमति से परपुरुष से संबंध बना सकती है और यदि ऐसा संबंध पति की इच्छा के बिना बनाया जाता है, तो ऐसा करने वाले को पाँच साल की सज़ा तक का प्रावधान है। इस पूरे संपादकीय में शब्दों और भाषा की बेबाकी विषय के प्राण तत्व बनकर उभरे हैं। दक्षिण भारत के केरल में भगवान अय्यप्पा स्वामी का मंदिर सबरीमलै शबरी के नाम पर है। यह मंदिर 18 पहाड़ियों के बीच में बसा है। इस मंदिर में महिलाओं का आना वर्जित है, जिसके पीछे यह मान्यता है कि श्री अय्यप्पा ब्रह्मचारी थे, इसलिए यहाँ 10 से 50 साल तक की लड़कियों और महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता। इस मंदिर में ऐसी छोटी बच्चियाँ आ सकती हैं जिनको मासिक धर्म शुरू न हुआ हो, या ऐसी बूढ़ी औरतें जो मासिक धर्म से मुक्त हो चुकी हों। ‘परंपरा के नाम पर भेदभाव कब तक’ तथा ‘समानता और पूजा-पद्धति के अधिकारों का टकराव’ इन संपादकीयों में इसी बात को बहस का मुद्दा बनाया गया है। लेखक कहते हैं- ‘परंपरा का अर्थ यदि एक पैर ज़मीन पर जमा कर दूसरे पैर को अगले क़दम के रूप में ऊपर उठाने से लगाया जाता है, तो इस देश की प्रगतिशीलता और बहुलता का रहस्य समझ में आता है। लेकिन जब परंपरा का अर्थ जड़-रूढ़ियों के पालन तक सिमट जाता है, तो इस देश की लंबी गुलामी के कारणों पर से पर्दा उठता है।’ समय के साथ प्रथाओं का बदलना ज़रूरी होता है अन्यथा वे ताल के ठहरे पानी की तरह सड़ांध से भर उठती हैं। वे यह भी मानते हैं कि प्रथा या पुरातनता के नाम पर किसी अनुचित नियम को बनाए रखना भारत का स्वभाव नहीं है।  उन्होंने लक्षित किया है कि जब मंदिर में प्रतिबंधित आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने से जुड़े मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आया, तब उस पर राजनीति जमकर की गई। ईश्वर का अपना एक लोक है जिसमें किसी के साथ भेदभाव नहीं होता, जिस दिन तथाकथित समाज के ठेकेदार और स्वयं को ईश्वर का बड़ा भक्त कहने वाले लोग इस बात को समझ लेंगे, उस दिन किसी भी भक्त के अधिकारों का हनन नहीं होगा। ईश्वर के लिए बालक, स्त्री, पुरुष, ऊँच-नीच जैसी स्थितियाँ कोई मायने नहीं रखतीं। उन्हें तो बस अपने भक्तों से प्रेम होता है।

वैसे तो सदैव ही विश्व के पटल पर महिलाओं की स्थिति शोचनीय रही है किंतु भारत जैसे देश में स्त्रियों की स्थिति और भी दयनीय तथा कारुणिक है। ‘सुपौल से बॉलीवुड तक पीड़ित बेटियाँ’ और ‘बेटियों के सामने शर्मिंदा एक महादेश’ में जहाँ एक ओर बिहार के सुपौल जिले के कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय विद्यालय की छात्राओं की निर्मम पिटाई की शर्मनाक घटना का उल्लेख हुआ है, वहीं दुख इस बात का भी होता है कि पिटाई करने वालों में 3 महिलाएँ भी शामिल होती हैं। एक ओर यह समाज बेटियों को बचाने-पढ़ाने का नारा लगाता है, तो दूसरी ओर उन्हीं बेटियों पर हर तरह से मानसिक और शारीरिक अत्याचार करने से भी बाज़ नहीं आता। इस प्रकार के मानसिक और शारीरिक अत्याचार केवल गाँवों या क़स्बों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि बॉलीवुड तक में भी इस अत्याचार को महसूस किया जा सकता है। ‘मी टू कैंपेन’ के तहत यही सच्चाई लोगों के सामने आई। फ़िल्मी दुनिया ही नहीं, बल्कि अनेक स्थानों और संस्थानों में तथाकथित शरीफ़ वर्ग किस प्रकार स्त्रियों को उत्पीड़ित करता है, इससे हम रूबरू होते ही रहते हैं। धीरे-धीरे मीडिया के अधिक जागरूक और सजग होने के कारण ये समस्याएँ और भी अधिक उभर कर सामने आने लगी हैं। कोई भी देश बेटियों के सामने मात्र शर्मिंदा हो जाए, इससे बेटियों को क्या हासिल होता है? उन्हें तो समाज के भेड़ियों से सुरक्षित होने की आवश्यकता अधिक है। लेखक उस सर्वे का भी उल्लेख करते हैं जिसमें यह पाया गया था कि भारत महिलाओं के लिए सबसे ख़तनाक देश है। वे बताते हैं कि यौन हिंसा और महिलाओं से गुलामों जैसा व्यवहार करने वालों में यह देश नंबर वन है तथा स्त्री अधिकारों की हत्या करने में इसने अफ़गानिस्तान व सीरिया जैसे युद्धग्रस्त देशों को भी पीछे छोड़ दिया है।

क्या कभी आपने घर को बोलते सुना है? एक कविता पंक्ति है- ’घर बोलता है खुशियों की भाषा’ और कई बार घर यह भी बोलता है कि वह स्त्रियों के लिए सबसे ख़तनाक जगह भी है। 'सबसे ख़तनाक जगह: घर’ से एक पंक्ति- ‘सबसे ज़रूरी है कि पुरुषों को आरंभ से ही स्त्रियों के सम्मान की शिक्षा दी जाए क्योंकि आज भी अधिकांश पुरुष स्त्रियों को मनोरंजन की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझते।’ इक्कीसवीं सदी की ओर क़दम बढ़ाते समाज को पुनः  आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है। भले ही पूरी दुनिया में स्त्री अधिकारों को लेकर बातें की जाएँ या उनके विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए क़ानून और योजनाएँ बनाई जाएँ, किंतु सकारात्मक परिणाम कुछ भी नहीं मिलते। आज भी स्त्रियों की समस्याएँ वही की वही हैं और समाज की गतिविधियाँ भी उसी तरह चल रही हैं। तीन संपादकीय मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को लेकर लिखे गए हैं। ‘अमानुषिक है प्रथा के नाम पर औरतों पर बर्बरता’ में मुस्लिम समुदाय में महिला ख़तना जैसी कुप्रथा को अमानुषिक बताते हुए यह चिंता व्यक्त की गई है कि जिस दाऊदी बोहरा मुस्लिमों को दूसरे मामलों में प्रगतिशील समझा जाता है, उस समुदाय में यह अमानुषिक स्थिति अब तक कैसे बनी हुई है? इसे दकियानूसी पुरुष वर्चस्ववादी सोच का परिणाम बताते हुए इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि इसे क़ानूनी तौर पर प्रतिबंधित करने की ज़रूरत है। यह तो वास्तव में स्त्री के वस्तुकरण की क्रूर प्रक्रिया का प्रतीक भी है। कई प्रथाएँ ऐसी हैं जिन्हें स्त्री नहीं चाहती, फिर भी बलात उस पर थोपी जाती हैं। धार्मिक प्रथा के नाम पर होने वाली इस अमानवीय कुप्रथा को अवश्य समाप्त करना होगा, तभी सभ्य समाज में स्त्री को उसके मनुष्य होने का अधिकार मिलेगा। तीन तलाक की समस्या पर आधारित ‘एक स्त्री-विरोधी कुप्रथा से मुक्ति’ तथा ‘मुस्लिम स्त्री के मानवाधिकार की खातिर’ में भारत की मुस्लिम महिलाओं के मानवाधिकार की बात की गई है- ‘स्त्री सशक्तिकरण के नज़रिए से यह बेहद महत्वपूर्ण प्रावधान है क्योंकि, स्त्री की इच्छा-अनिच्छा की तनिक भी परवाह न करने वाली तीन तलाक़ प्रथा पूरी तरह पुरुष तानाशाही की पोषक प्रथा है।' जब किसी भी कुप्रथा को ख़त्म करने की बात आती है, तब उसे हमेशा धर्म से जोड़कर देखा जाता है। सीधी बात है कि यह कुप्रथा वास्तव में मानवाधिकार विरोधी और स्त्रीविरोधी है। ऐसी स्थिति में कोई भी सरकार क्यों न हो, उसे सामंती मानसिकता को त्याग कर महिलाओं के कल्याण के लिए आगे आना चाहिए। चाहे वे महिलाएँ हिंदू समाज की हों या मुस्लिम समाज की। सबकी समस्याएँ ऊपर से भले ही अलग-अलग दिखाई 7देती हों, किंतु उनके मूल में पुरुषवादी सामंती मानसिकता ही कार्य करती नज़र आती है। लोकसभा ने ‘मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण (तीन तलाक़) विधेयक- 2018’ को पारित कर दिया है। ऐसे अच्छे कार्यों का विरोध बड़ा ही स्वाभाविक है, किंतु इन पंक्तियों में एक आक्रोश दिखाई देता है- ‘जो लोग देश में फ़तवे की दुकान खोलकर बैठे हैं, उनकी इस प्रवृति को अब बंद होना चाहिए। देश क़ानूनों से चलता है फ़तवों से नहीं।’ दुनिया के अनेक मुस्लिम देशों ने तीन तलाक की प्रथा को बंद कर रखा है,तब भारत में इस प्रथा को अब तक ढोना कहाँ तक लाजमी है? 

खंड 2: में ‘लोकतंत्र और राजनीति’ से संबंधित बारह आलेख हैं। भारत ‘अल्पसंख्यकों का स्वर्ग’ है। वर्ग संघर्ष से दुनिया का विकास हुआ। विश्व में अलग-अलग धर्म और संप्रदाय के लोग निवास करते हैं, किंतु भारत की स्थितियाँ इनसे भिन्न है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जिसे सुविधाओं और अधिकारों की दृष्टि से अल्पसंख्यकों का स्वर्ग माना जाता है। यहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकों में सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन आदि आते हैं। किंतु मुख्य स्थान मुस्लिम समुदाय को प्राप्त है। वैसे तो भारत में संप्रदाय और धर्म को लेकर झगड़े होते ही रहते हैं। किंतु जब आपस में जोड़ने की बात आती है, तो विविध समुदायों को परस्पर जोड़कर रखने वाला सामाजिकता और राष्ट्रीयता का धागा उन्हें हमेशा जोड़े रखता है। विविधता में एकता भारत की पहचान है और यह लोकतंत्र की ताक़त भी है। जम्मू कश्मीर के अलग संविधान को लेकर एक आलेख ‘भारतीय संविधान के बावजूद अन्य संविधान क्यों?’ नाम से लिखा गया है। यह संपादकीय पढ़कर पाठकों के मन में विचारों का संघर्ष शुरू होता है और वे यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि एक ही देश में एक अलग राज्य के लिए विशेष तौर पर अलग संविधान क्यों रहा? हम सभी जानते हैं कि कुछ विशेष स्थितियाँ अरुणाचल प्रदेश के साथ भी हैं। शायद सभी को यह जानकारी होगी कि वहाँ के नागरिक भारत में कहीं भी नौकरी कर रहे हों, उन्हें आयकर देने की ज़रूरत नहीं होती; जबकि भारत के अन्य राज्यों का कोई भी व्यक्ति यदि अरुणाचल प्रदेश में नौकरी करता है, तो उसे आयकर देना होता है। यह अजीब सी विसंगति है। इस संपादकीय में निहित कुछ विचारों को देखा जा सकता है- 'किसी भी राज्य को निजी पहचान के नाम पर देश की संप्रभुता के अतिक्रमण की छूट नहीं मिलनी चाहिए। यदि किसी को मिल रही है तो इस ग़लती को यथाशीघ्र सुधारा जाना चाहिए। यह झूठा भ्रम ही है कि विशेष अधिकार न रहने पर कश्मीर की सांस्कृतिक अस्मिता ख़तरे में पड़ जाएगी|’ भारत एक ऐसा देश है जहाँ अपने-अपने राज्यों की संपूर्ण संस्कृतियाँ हैं और किसी भी राज्य की सांस्कृतिक अस्मिता कभी ख़तरे में पड़ी हो, ऐसा देखने और सुनने में कभी नहीं आया। कश्मीर मुद्दे से जुड़ा हुआ लद्दाख का मुद्दा भी है जिसे कई वर्षों से स्वतंत्र केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग उठती रही है। ‘उपेक्षित लद्दाख का दर्द’ में जहाँ एक ओर लद्दाख के विकास को लेकर प्रश्न उठाए गए हैं, वहीं दूसरी ओर यह संपादकीय इस बात की ओर संकेत करता है कि जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख तीनों इलाके अपने इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से अलग-अलग चरित्र वाले हैं। हमेशा यह बात उठती रही है कि जम्मू और लद्दाख को अलग केंद्र शासित राज्य होना चाहिए, किंतु अनुच्छेद 379 के कारण ऐसा कोई निर्णय सामने नहीं आ पाया। धीरे-धीरे यह स्थिति देखने में आ रही है कि जब एक बड़ा राज्य अपने विकास की स्थिति में कमज़ोर हो जाता है, तब वह टूट कर अलग-अलग राज्यों में बँट जाता है। मध्य प्रदेश के साथ यही स्थिति देखने को मिलती है, जब वह टूट कर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बंट गया। छत्तीसगढ़ राज्य से संबंधित दो संपादकीय हैं- ‘रिश्ता वोट का शराब से‘ और ‘मतदाता की उदासीनता का अर्थ’। छत्तीसगढ़ में लाखों महिलाएँ शराब के कारण नारकीय जीवन भुगत रही हैं। वहाँ की सरकार इन समस्याओं को समझती है, किंतु चाह कर भी कोई ठोस क़दम नहीं उठा पा रही, जिसका फ़ायदा विपक्ष उठाना चाहता है। यहाँ लगातार शराबबंदी की माँग उठती रही है। किंतु यह सभी जानते हैं कि राज्य सरकार के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा शराब की बिक्री से ही आता है। फिर इस फ़ायदे को वह कैसे अपने हाथ से जाने दे। ऊपर से यह कि, शराब बंद करना आसान काम नहीं है और इससे जो वित्तीय हानि होगी उसकी भरपाई कैसे की जाएगी?  लेखक के अनुसार यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं है।

‘मतदाता की उदासीनता का अर्थ’ संपादकीय में ‘नोटा’ अर्थात ‘इनमें से कोई नहीं’ और ‘जूरी ड्यूटी’ के उदाहरण देते हुए इस बात की ओर संकेत किया गया है कि छत्तीसगढ़ में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों का मतदान काफ़ी कम रहा। नोटा का उपयोग पहली बार भारत में 2009 में किया गया था। स्थानीय चुनावों में मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने वाला छत्तीसगढ़ भारत का पहला राज्य था। नोटा बटन ने 2013 के विधानसभा चुनाव में चार राज्यों- छत्तीसगढ़ मिज़ोरम, राजस्थान और मध्य प्रदेश-  तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में अपनी शुरुआत की और 2014 से नोटा पूरे देश में लागू हो गया। पहले वोटिंग मशीनों में ऐसा कोई विकल्प नहीं होता था। बाद में इसका प्रावधान दिया गया। मशीन में एक गुलाबी रंग का बटन होता है जो नोटा का प्रतीक होता है। जब मतदाता को कोई उम्मीदवार पसंद नहीं आता है तब वह इसका उपयोग करता है। सन 2018 में नोटा को भारत में पहली बार उम्मीदवारों के समकक्ष दर्जा दिया गया। भारत में यह एक बहुत बड़ी विसंगति है कि यहाँ वोट ख़रीदे जाते हैं। जहाँ विदेशों में हम देखते हैं कि उम्मीदवार और राजनैतिक पार्टियाँ अपने द्वारा किए गए कार्यों के बल पर वोट माँगते हैं, वहीं भारत में उम्मीदवार और राजनीतिक पार्टियाँ अपने विरोधियों को नीचा दिखाते हुए और विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देते हुए वोट माँगते हैं। किंतु अब धीरे-धीरे स्थितियाँ बदल रही हैं। अब कई जगह उम्मीदवार अपने द्वारा किए गए कार्यों का लेखा-जोखा जनता के सामने प्रस्तुत करते हुए उनसे वोट माँगते हैं और स्वयं को जिताने पर कई प्रकार के कार्यों को करने का हवाला देते हैं। जब तक उम्मीदवार मतदाता की उदासीनता को नहीं समझ पाएँगे, तब तक उनका जीतना नामुमकिन है। इसी प्रकार डॉ. ऋषभ  ने चुनाव को जूरी ड्यूटी से भी जोड़ा है। वे मानते हैं कि देश के सभी नागरिकों को कभी न कभी जूरी ड्यूटी पर होना ही चाहिए। वैसे ही विधायक और सांसद भी नियुक्त होने चाहिए। उनका यह विचार बड़ा ही क्रांतिकारी है, यदि ऐसा संभव हो जाता है तो वह दिन दूर नहीं, जब राजनीति व्यवसाय नहीं बनेगी और न ही पैसा कमाने का साधन भर।

अब राजनीति के तेवर बदल रहे हैं। इसी बदले हुए तेवर से जुड़ा संपादकीय ‘राजनीति की भाषा में बढ़ती अशिष्टता’ राजनीति के प्रति एक नया अर्थ गढ़ता दिखाई देता है। आम जनता राजनीति के इस बदलते हुए तेवर से क्षुब्ध है। अब तो राजनीति में किसी भी व्यक्ति या परिवार पर कटाक्ष करना, उन्हें गालियाँ देना बड़ी आम बात हो गई है। जब तक राजनीति में भाषाई शिष्टाचार नहीं होगा, तब तक राजनीति का यह गंदा रूप आम जन को दुखी करता रहेगा, कहीं एक दिन ऐसा न आ जाए कि जनता किसी को वोट ही न दे। अब तो कोई भी दल गालियों की भाषा ही बोलता है- ‘अंतर बस गालियों के चुनाव और उनके इस्तेमाल की इंटेंसिटी का है। जो भाषा के जादूगर हैं, वे व्यंग्य और कटाक्ष का सहारा लेकर गाली देते हैं; और जो बाज़ार की भाषा के माहिर हैं, वे सीधे-सीधे गाली देते हैं। जनता पर भी शायद सत्ता और प्रतिपक्ष के इस तरह के गाली-युद्धों का असर होना बंद हो गया है।’ वयस्कता समय से नहीं समझदारी से आती है। 'जाति और गोत्र की वेदी पर लोकतंत्र’ में चुनावी लोकतंत्र की विकृत होती छवि पर चिंता जताई गई है। देश को स्वतंत्र हुए तिहत्तर वर्ष हो गए हैं, पर आज भी भारत का लोकतंत्र वयस्क नहीं हुआ है। यह अपने आप में एक चिंता का विषय है। किसी भी देश या समाज में धर्म, जाति, गोत्र, देवता, मंदिर और आस्था के तमाम प्रश्न महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। किंतु जब इन प्रश्नों को केंद्र में रखकर राजनीति होने लगे, तो इससे देश के लिए बहुत बड़ा ख़तरा पैदा हो जाता है। जब राजनैतिक पार्टियाँ अपने किए गए कार्यों, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को मुख्य मुद्दा न बनाकर धर्म, संप्रदाय, जाति को गृहयुद्ध के स्तर तक ले आएँ तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- ‘भारत का लोकतंत्र मनुस्मृति से चलेगा या भारतीय संविधान से।’ पहले राजनीति धर्मपरक होती थी। अब धर्म का राजनीतिकरण हो गया है। पहले राजनैतिक पार्टियाँ एक आदर्श विचारधारा को लेकर चलती थीं। किंतु आज राजनीति काजल की कोठरी हो गई है, जिसकी कालिख में घुसकर राजनीतिज्ञों को आनंद आने लगा है। अब महागठबंधन की सरकारें बन रही हैं और स्वार्थ की राजनीति हो रही है। एक ही परिवार की कई पीढ़ियाँ राजनीति में आ रही हैं और दोनों हाथों से जनता को लूट-लूट कर अपनी जेबें भर रही हैं। अब तो राजनीति में लॉबिंग करना बड़ी आम बात हो गई है। भाजपा के बदलते चरित्र को ‘क्या बदल रहा है भाजपा का भी चरित्र’ में बख़ूबी दर्शाया गया है। वहीं ‘सवर्ण आरक्षण: हल या छल?' और ‘विरोध भी, समर्थन भी: ख़ूबी लोकतंत्र की’ जैसे संपादकीय केंद्र सरकार का असली चेहरा हमारे सामने लाते हैं।

भारत ऐसा देश है जहाँ आरक्षण की व्यवस्था का परिणाम यह है कि कई बड़े-बड़े पदों पर ऐसे चेहरे दिखाई देते हैं, जो आरक्षण के बल पर आ तो जाते हैं, पर अपने कर्तव्यों का पूरी तरह निर्वाह नहीं कर पाते। अब तक आरक्षण की सुविधा सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को ही प्राप्त थी। जब अलग-अलग अटकलों को एक तरफ़ रखते हुए राज्यसभा के शीतकालीन सत्र में बढ़ाए गए आख़िरी दिन में आर्थिक तौर पर पिछड़े सामान्य वर्गों को 10% आरक्षण देने का संविधान संशोधन पारित हो गया, तब इस पर बहस भी चली, तर्क भी दिए गए,  किंतु समर्थन भी मिला। कांग्रेस ने इसका समर्थन किया- ‘सही अर्थों में वह भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबसूरती का प्रतीक है। विरोध के बावजूद लोकहित के प्रश्न पर समन्वय का प्रदर्शन इस देश का चरित्र रहा है। यही इस ऐतिहासिक संविधान संशोधन के पारित हो पाने का रहस्य है। सियासी चालाकियाँ और रणनीतिक दाँवपेच अपनी जगह।’ मेरा तो यह मानना है कि आरक्षण किसी भी देश के लिए एक बीमारी की तरह है और आरक्षण नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो क़ाबिल है वह अपने बलबूते पर अपनी रोज़ी-रोटी की व्यवस्था कर ही लेगा। यदि आरक्षण दिया भी जाता है तो ऐसे लोगों को दिया जाए, जिन्हें सच में इसकी आवश्यकता है।‘ज़ोर आज़माइश से पहले शक्ति-प्रदर्शन’ लोकतंत्र के महादंगल को दर्शाता हुआ संपादकीय है। इसी तरह ‘चुनाव का मौसम और डांस बार’ में बड़ी चुभती हुई तल्ख़ भाषा के सहारे नैतिकताहीन राजनीति के परखच्चे उड़ाए गए हैं। जब चुनाव सिर पर आते हैं, तब राजनैतिक पार्टियाँ अपनी जीत के लिए कई हथकंडे अपनाती हैं। लोकसभा चुनाव के सिर पर आते ही सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई के डांस बारों को दोबारा खोलने की इजाज़त दे दी। वैसे तो चुनावी राजनीति ने देश को ही डांस बार बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति यह है कि अब तो जिधर देखिए डांस ही चल रहा है। वैसे तो नेता जनता को रिझाने के लिए नाचते-कूदते दिखाई देते हैं, पर वास्तविकता कुछ और ही होती है। जैसे ग्राहक को लगता है कि बार-बाला नाच रही है और उसका मनोरंजन कर रही है, किंतु होता इसके उलट है। सच्चाई तो यह है कि वह अपने संकेतों पर ग्राहकों को नचाती है। कुछ ऐसी ही स्थिति नेता और जनता के बीच होती है। न जाने कब- ‘वे बीन बजाने वाला सपेरा बन जाते हैं। सत्ता के इशारे पर शत-कोटि जनता फन लहरा-लहरा कर नाचती रहती है और पता ही नहीं चलता कि कब सपेरा लुटेरा बन गया।’ इस तरह डांस भी चलता रहता है, लूट भी चलती रहती है और राजनीति भी। ‘राजनीति के नचनियों पर भी यह प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता कि वे धार्मिक स्थानों और शिक्षा संस्थानों से दूर रहें। चुनाव के मौसम में तो यह तनिक भी संभव नहीं। चुनाव-नृत्य में धर्म और शिक्षा की जुगलबंदी के बिना मज़ा ही कहाँ आता है।’ ये पंक्तियाँ जहाँ एक ओर राजनीति की हास्यास्पद स्थिति की ओर संकेत करती हैं, वहीं दूसरी ओर हास्यात्मक व्यंग्य की विशेषता लिए हुए पाठकों के मन को झिंझोड़ जाती हैं।

खंड 3: 'जो उपजाता अन्न’ के अंतर्गत चार संपादकीय और खंड 4: 'शहर में दावानल' में छह संपादकीय हैं। ये क्रमशः किसानों की समस्याओं और शहरों की समस्याओं पर केंद्रित हैं। जब सदियों पहले न तो टीवी थे, न रेडियो और न ही कोई सरकारी मौसम विभाग, तब से अर्जित लोक ज्ञान पर आधारित किसान कवि घाघ और भड्डरी की कहावतें खेतिहर समाज का  पीढ़ियों से पथ प्रदर्शन करती आई हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के गाँवों में ये कहावतें आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं। ग्रामीणों की यह धारणा रही है कि घाघ की कहावतें प्रायः सत्य साबित हुआ करती थीं। उन्होंने खेती के महत्व को बताते हुए कहा था, ‘उत्तम खेती मध्यम बान। निषिध चाकरी भीख निदान..' उन्होंने सुकाल, अकाल, वर्षा, पैदावार, बुवाई, जुताई आदि सभी पर कहावतें कहीं हैं। ‘सबका अन्नदाता हड़ताल पर है’ में सवाल उठाया गया है कि,  कृषि प्रधान देश भारत में जब देश का अन्नदाता ग़रीबी और बदहाली में जीवन जिए, तब ऐसी स्थिति में देश का विकास कैसे होगा? यदि किसान अपनी किसानी से हाथ खींच ले, तो पूरी दुनिया किस तरह भुखमरी और बदहाली का शिकार हो जाएगी, इसका अंदाज़ा सभी लगा सकते हैं। पैदावार अधिक हो, तो भी उन्हें तकलीफ़ होती है क्योंकि उनके पास पर्याप्त जगह नहीं होती कि पैदावार को संरक्षित किया जाए। जब पैदावार कम होती है, तब भी उनके लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। यहाँ तक कि उन्हें अनेक आश्वासन दिए जाते हैं, पर उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं होता। बड़े किसानों की बात अलग है। वे इन समस्याओं से रूबरू नहीं होते। ‘अन्नदाता से दिल्ली दूर क्यों?’ किसानों के आंदोलन को दर्शाता आलेख है। इसमें इस घटना की ओर संकेत किया गया है कि जब किसान हरिद्वार से किसान घाट तक की यात्रा करना चाहते हैं, तब उन्हें बीच रास्ते में रोका जाता है। इसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि सरकार की तरफ़ से विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस कार्यक्रम क्यों सामने नहीं लाया जाता? चाहे वह कर्ज़ माफ़ी की स्थिति हो या अन्य कोई समस्या। देश की व्यवस्था इन अन्नदाताओं के प्रति कितनी संवेदनहीन रही है? यह किसी से छिपा नहीं है। ‘कर्ज़ माफ़ करने की राजनीति’ और ‘आत्महत्याओं का इलाज़ कर्ज़ माफ़ी नहीं’ अति संवेदनशील संपादकीय हैं, जिनमें कर्ज़ से जुड़े राजनैतिक पार्टियों के राजनीतिकरण और इससे उत्पन्न विभिन्न समस्याओं की ओर संकेत किया गया है। केवल कर्ज़ माफ़ कर देने भर से क्या किसानों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं का सिलसिला रुकेगा? जबकि सच्चाई यह है कि, ‘इस माफ़ी का लाभ छोटे और सचमुच ज़रूरतमंद किसान तक कितना पहुँच पाता है, इसमें भी बड़ा संदेह है। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश की (तत्कालीन) नवगठित कांग्रेस सरकार की कर्ज़माफ़ी की योजना के दायरे में कथित रूप से न आने के कारण एक सप्ताह के अंदर दो किसानों ने आत्महत्या कर ली।’ किसानों की आत्महत्या का इलाज कर्ज़माफ़ी नहीं है, बल्कि उनकी आत्महत्या की समस्याओं से कारगर ढंग से निबटने के लिए ज़्यादा लक्षित कार्यक्रमों की ज़रूरत है, जिससे वे आशावादी बनें और स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें। धीरे-धीरे शहर की समस्याएँ विकराल होती जा रही हैं। ‘अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेलें हैं’ और ‘लोकतंत्र को कलंकित करता भीड़-न्याय' में भीड़ की हिंसक प्रवृत्ति और हिंसा का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। दुनिया के कुछ देशों में अपराधियों को दंड देने के लिए उन्हें भीड़ के हवाले कर दिया जाता था, क्योंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता बस एक मुखौटा होता है जिसके सहारे कायर से कायर आदमी भी अपने को शेर समझने लगता है। भारत में कभी भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं रही। पर बदलते समय के साथ अब भारत में भी भीड़ के द्वारा की जाने वाली हिंसा लोकतंत्र के लिए ख़तरा बनती जा रही है। इस संपादकीय का शीर्षक बड़ी लाक्षणिक भाषा में लिखा गया है। भीड़ से संबंधित मेरी कुछ पंक्तियाँ- ‘भीड़ का मनोविज्ञान अलग होता है/ उसकी आँखें नहीं होती/ कान नदारद होते हैं/ दिल नहीं होता और दिमाग अंधा हो जाता है।’ ऐसी भीड़ से कोई न्याय की आशा कैसे रख सकता है? इस संपादकीय में बच्चों के साथ होने वाले घृणित अपराधों का ज़िक्र कहीं मन को छू जाता है। अभी हाल ही में महाराष्ट्र में कुछ साधुओं को भीड़ ने केवल इसीलिए पीट-पीट कर मार डाला क्योंकि उसने उन साधुओं को बच्चा-चोर समझा था। ऐसे भीड़ के न्याय लोकतंत्र को केवल कलंकित ही करते हैं। ‘लोकतंत्र को कलंकित करता भीड़-न्याय’ में मॉब लिंचिंग के प्रसंग को उठाते हुए महात्मा गाँधी का प्रसंग जोड़ा गया है। इसे अंग्रेज़ी नाम दिया जाता है, या सीधे शब्दों में कहें तो जब किसी भीड़ द्वारा किसी अफ़वाह के चलते या किसी अन्य कारण के चलते किसी की हत्या कर दी जाती है या मार दिया जाता है। ‘अब किसके पिता की बारी है?’ में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के एक गाँव स्याना में घटित एक हिंसक घटना का जिक्र है। यहाँ हुए हिंदू-मुस्लिम विवाद में पुलिस अधिकारी की जान चली गई, जबकि उनकी कोई गलती नहीं थी- ‘देखना होगा कि भीड़ के मुखौटे के पीछे छिपे वास्तविक अपराधियों को बेनकाब करने में प्रशासन और न्यायपालिका कहाँ तक समर्थ हो पाते हैं।’ सीधी सी बात है कि भीड़ के द्वारा हिंसा किसी भी प्रकार से वैध नहीं है और इसके लिए जो जिम्मेदार होते हैं, उन्हें कभी बख्शा नहीं जाना चाहिए। ऐसा लेखक का ही मत नहीं, बल्कि सभी बुद्धिजीवियों को भी मान्य होगा। भारत की न्याय प्रणाली बड़ी धीमी चलती है, इसे ‘न्याय का शासन’ में बड़ी शिद्दत से अभिव्यक्ति मिली है। सन 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जो हिंसा भड़की थी और दंगे हुए थे, उसके लिए कई लोगों को गिरफ्तार किया गया था। उसी में एक कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार थे, जिन्हें बड़ी लंबी लड़ाई के बाद जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिया गया। किंतु विसंगति देखिए- ‘इतनी लंबी अवधि तक न्याय की प्रतीक्षा में बच्चे बूढ़े हो गए हैं और बूढ़े मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं!’ मीडिया जिन्न की तरह होता है और जहाँ चाहता है न चाहते हुए भी प्रकट हो जाती है। कई बार भीड़ को हिंसक करने में और समाज में गलत अफवाह फैलाने में मीडिया का बहुत बड़ा हाथ होता है, इसी पर प्रश्न उठाता संपादकीय है- ‘कैसे टूटेगा फ़ेक न्यूज़ का चक्रव्यूह’। कई बार सोशल कहा जाने वाला मीडिया एँटी-सोशल की भूमिका निभाता है- ’इसीलिए फेसबुक, व्हाट्सएप और यूट्यूब जैसे मंचों को भस्मासुर बनते देख कर कई देशों ने इन पर प्रतिबंध लगा रखा है।’ हम सभी जानते हैं कि फेसबुक या व्हाट्सएप पर आने वाली सभी खबरें विश्वसनीय नहीं होतीं और इन पर रोक लगाना नाकों चने चबाने जैसा है, किंतु इन्हें कैसे कम किया जाए या रोका जाए, यही प्रश्न इस संपादकीय का केंद्र बिंदु है। ‘ ऊपरवाला देख रहा है’ संपादकीय का शीर्षक देखने में मजाकिया सा लगता है, किंतु इसका अर्थ बड़ा गहरा है। पाठकों के मन में तुरंत यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि, यह ऊपर वाला कौन है? इसमें भारत सरकार के गृह मंत्रालय के एक नए आदेश का उल्लेख किया गया है, जिसमें इस बात का संकेत है कि इंटेलिजेंस ब्यूरो और दिल्ली के पुलिस कमिश्नर समेत 10 सरकारी एजेंसियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे बिना किसी अतिरिक्त आदेश के किसी भी नागरिक के कंप्यूटर पर हो रही सब प्रकार की गतिविधियों पर निगरानी रख सकते हैं। एकबारगी यह सुनकर थोड़ा डर भी लगता है और मन में यह प्रश्न भी उठता है कि इससे उनकी निजता में हस्तक्षेप हो रहा है और उन्हें लगातार ऐसा लगता रहता है की ‘ऊपरवाला देख रहा है’। कई बार ऐसा भी हो सकता है कि इसका गलत फ़ायदा भी उठाया जाए, किंतु माननीय उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है, ऐसा लगता है। लेखक भी इसी बात पर सहमत हैं कि इस पर पुनर्विचार होना चाहिए जिससे किसी भी नागरिक की ‘निजता’ का हनन न हो।

 खंड 5: 'व्यवस्था का सच' में 5 संपादकीय हैं और खंड 6: 'हमारी बेड़ियाँ' में सात। ये संपादकीय जहाँ एक ओर राज्य स्तरीय और केंद्र स्तरीय व्यवस्थाओं का सच हमारे सामने उजागर करते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक बेड़ियों से उत्पन्न हिंसा और हताशा की ओर भी संकेत करते हैं।भारत सुंदर देश है। यहाँ छह ऋतुओं का अपना-अपना सौंदर्य है। धीरे-धीरे स्थितियाँ पैदा हो रही हैं कि यहाँ थोड़ी सी भी बारिश हो, तो हर जगह जलभराव की समस्या के साथ अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं- ‘समझ नहीं आता कि कैसे यह ‘राहत’ कुछ ही घंटों के भीतर ‘आफ़त’ में बदल जाती है। हाईटेक सिटी का एक दृश्य-  ‘पिछले दिनों हाईटेक सिटी के एक इलाके में आईटी कर्मियों ने बैलगाड़ी के ऊपर पोस्टर प्रदर्शनी लगाई! पर व्यवस्था को क्या कभी शर्म आती है?’(‘इंतज़ाम की पोल खोलती पहली बारिश’)। हम सभी जानते हैं कि अब पेयजल की समस्या बड़ी विकट है। आगामी वर्षों में भारत में पीने के पानी की सबसे बड़ी समस्या पैदा होगी और शायद इसके लिए बड़े पैमाने पर लड़ाई झगड़े भी होंगे। वैसे तो आज भी होते हैं। ‘बिन पानी सब सून’ में भविष्य की कल्पना की गई है, जब पानी के लिए मारा-मारी होगी। पानी को मात्र प्रदूषण से ही नहीं बचाना है, अपितु बारिश का जो पानी व्यर्थ ही बह जाता है, उसे भी बहने से रोककर संरक्षित करना होगा। तभी हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए जल बच पाएगा - ‘देश में 2030 तक पानी की माँग उसकी उपलब्धता से दुगनी हो जाएगी। यानी केवल 12 वर्ष के बाद देश की जनता एक-एक बूँद पानी को तरस सकती है। इसलिए जल- संसाधन के तेज गति से विकास की ज़रूरत है। जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए व्यापकजल-चेतना का जागरण ज़रूरी है। साथ ही जल-संरक्षण के लिए जन-जन को प्रशिक्षित करना होगा। वरना जल्दी ही अपनी असावधानी से हम प्रकृति की इस नेमत से पूरी तरह वंचित भी हो सकते हैं |’ यही स्थिति टूटी-फूटी सड़कों की है। जैसे ही बारिश होती है, सड़कें इतनी टूट जाती हैं कि उन पर चलना दूभर हो जाता है। मेनहोल खुल जाते हैं और ‘ये मौत की सड़कें…..’ बन जाती हैं- ‘देश में इतने लोग सीमा पर या आतंकी हमलों में नहीं मरते, जितने सड़क पर गड्ढों की वजह से मर जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि लोगों का इस तरह मरना दुर्भाग्यपूर्ण है और इस मामले में केंद्र सरकार से जवाब माँगा। नागरिकों के सामान्य दैनिक जीवन को आसान और सुरक्षित बनाए रखने के लिए ज़रूरी मूलभूत सुविधाएँ मुहैया कराना किसी भी कल्याणकारी व्यवस्था की पहली जिम्मेदारी है। ’दुनिया अब कहाँ से कहाँ पहुँच रही है, किंतु भारत में आज भी सेप्टिक टैंक साफ करने वाले लोग अपनी जान को हथेली पर रखकर टैंक में उतरते हैं और कई बार ऑक्सीजन की कमी के कारण मरने की स्थिति तक पहुँच जाते हैं। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में पंदरीपानी गाँव में सेप्टिक टैंक में जो चार सफाईकर्मी उतरे, उनकी दम घुटने से वहीं मौत हो गई। ऐसी अनेक घटनाएँ होती हैं, किंतु कभी-कभी ही मीडिया के कारण यह सच्चाई सामने आ पाती हैं। यह कैसी संवेदनहीनता की स्थिति है- ‘सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करने वाले इन सफाई कर्मियों की जान की कीमत समझने को अभी भी हमारा समाज तैयार नहीं है। उन्हें चंद पैसों की खातिर गर्दन पकड़कर गंदगी के नर्क में धकेल दिया जाता है।’ (ये सेप्टिक टैंक साफ करने वाले...)। ‘हिंसा के महिमामंडन का दुष्परिणाम’ बड़ा भयानक होता है। यह एक अन्य संपादकीय को पढ़कर हमें समझ आता है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एपल के एक अधिकारी को पुलिस ने ही आधी रात में सरे राह सिर में गोली मारकर क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी और लगातार बड़े-बड़े अधिकारियों द्वारा तक इसे दुर्घटना सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा; यह कैसी विडंबना है? जब समाज के बड़े-बड़े तथाकथित महारथी, अधिकारी घटित होने वाली हिंसाओं का महिमामंडन करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं कि उनके साथ भी ऐसी ही कोई हिंसाकी घटना घटित हो- ‘हमारी पुलिस ‘मानव’ होना कब सीखेगी, अथवा राज्य से अपराध का ‘सफाया’ करने के नाम पर सदा ‘राक्षस’ बनी रहेगी?रक्षक का राक्षस बन जाना लोकतंत्र की दृष्टि से न तो स्वीकार्य है और न श्रेयस्कर। पुलिस का सर्वाधिकार संपन्न शिकारियों के झुंड में बदल जाना तो जंगल राज्य की ही सूचना देता है। चुनी हुई सरकारें ही अगर जंगलराज को बढ़ावा देंगी, तो लोकतांत्रिक मूल्य कैसे बच पाएँगे? यह किसी के लिए भी भय और चिंता का विषय हो सकता है; होना ही चाहिए।’ भले ही विज्ञान तेजी से अपने क़दम आगे बढ़ाता जा रहा हूं किंतु इसके चक्रव्यूह में फंसा व्यक्ति हताशा और कुंठा की ओर बढ़ता जा रहा है।  आज हम जिस समाज में जी रहे हैं, उसके द्वारा लगाई जाने वाली कई बेड़ियाँ भले हमें न दिखाई देती हों, किंतु हैं अवश्य। ‘हिंसा और हताशा’ तथा ‘आधुनिक गुलामी और हम’ में ऐसी ही अनेकानेक समस्याओं को उठाया गया है। जरा-जरा सी बात पर क्रोधित होकर अपनों की हत्या कर देना, पत्थर मारना, स्वयं को फाँसी पर लटका लेना, शंका होने पर पत्नी को चाकुओं से गोद-गोद कर मार डालना, ऐसी तमाम घटनाएँ घटित होते हुए हम रोज़ अपने चारों ओर देख सकते हैं। क्या कभी सोचा है, ऐसी मन:स्थिति के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? हर वक़्त खीझना, हताशा, कुंठा, आक्रामकता जैसे भाव आज मनुष्य के स्थायी भाव बन गए हैं- ‘हमारे नेताओं में जो अधीरता और आक्रामकता दिखाई देती है, उसकी जड़ में भी खीझ और ग़ुस्सा ही तो हैं। ऐसे नेता लोग हर दम आक्रमण की मुद्रा में रहते हैं। मौक़ा मिल जाए तो प्रतिपक्षी को पत्थरों से कूच-कूच कर या चाकू से गोद-गोद कर मार ही डालें! इस तरह के दुष्कृत्य की प्रेरणा नफ़रत से मिलती है |’ इस संपादकीय में ऐसे अनेक प्रश्न निहित हैं जो पाठकों के मन में हलचल पैदा करते हैं और उन्हें यह सोचने पर विवश करते हैं कि आख़िर हम किस ओर जा रहे हैं? आधुनिक गुलामी की तर्कसंगत व्याख्या करते हुए ऋषभ जी कहते हैं- ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ की मानें, तो दुनिया भर के 167 देशों में और भारत में ऐसे लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है जो ‘आधुनिक गुलाम’ हैं।’ अधिकांश सभ्य समाज में गुलामी या दास प्रथा प्रतिबंधित है, फिर भी नए रूप में मौजूद है। इसी नए रूप को  लेखक आधुनिक गुलामी कहते हैं। मात्र क़ानून बना देने भर से समस्याएँ खत्म नहीं होतीं, इसके लिए एकजुट होकर संघर्ष की ज़रूरत होती है- ‘व्यापक सामाजिक-आर्थिक सुधारों औरगरीबी- बेरोजगारी के उन्मूलन के अलावा आधुनिक गुलामी से मुक्ति का कोई दूसरा रास्ता नहीं |’ घटित होने वाली भीषण घटनाओं के पीछे का सच हम ‘क्यों होती हैं बुराड़ी जैसी भीषण घटनाएँ’ में देख सकते हैं। इस संपादकीय में एक ऐसा मानव-मनोविज्ञान देखने को मिलता है जो अंधविश्वास से प्रेरित दिखाई देता है। इस युग में भी ऐसे लोग हैं, जो कई प्रकार के अंधविश्वासों में फंस कर अपना ही अहित करते हैं। बुराड़ी का ग्यारह सदस्यों का हँसता खेलता परिवार इसी अंधविश्वास की भेंट चढ़ गया। ‘तो शब्दकोश में नहीं रहेगा- दलित?’ में दलित शब्द के प्रयोग पर उठाई गई आपत्ति पर एक नए ढंग से विचारों की प्रस्तुति दिखाई देती है। पहले भी कई ऐसे शब्दों पर आपत्ति उठाने के बाद उन्हें शब्दकोश से हटा दिया गया- ‘कालांतर में ‘हरिजन’ से लोगों को वैसे अर्थ की गंध आने लगी जैसी अब पंकज मेश्राम को ‘दलित’ से आ रही है और इतना सुंदर शब्द प्रयोग से बाहर हो गया। कांशीराम के जमाने में ‘बहुजन’ शब्द ख़ूब स्वीकार्य था, लेकिन ‘दलित’ ने उसे अपदस्थ करदिया। तब भला ‘दलित’ से ही इतना मोह क्यों? यदि दलित शब्द पर किसी को आपत्ति होती है तो उसे भी हटाने से क्या फर्क पड़ता है?' सामाजिक भेदभाव से संबंधित दो संपादकीय हैं- ‘प्रणय की हत्या, प्रतिष्ठा के नाम पर!' और ‘तुम्हारी जाति क्या है, डॉक्टर?’ दोनों संपादकीयों को पढ़कर मन में अनेक प्रश्न फन फैलाकर उठ खड़े होते हैं और ह्रदय उनका उत्तर खोजने में लग जाता है। पर उत्तर मिलता नहीं है। यह कैसी विसंगति है? जहाँ एक ओर तेलंगाना के नलगोंडा जिले में परिवार और जाति की झूठी प्रतिष्ठा को बचाने के नाम पर एक युवक प्रणय की दिन दहाड़े कुल्हाड़ी मारकर उसके ससुर द्वारा क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी जाती है, क्योंकि वह नीची जाति का था और उसने ऊंची जाति की लड़की से विवाह करने की जुर्रत की थी। भला लड़की के पिता को यह कैसे गवारा होता? ऐसी घटनाएँ हमारे समाज का बदसूरत चेहरा बेनकाब करती हैं। क्या झूठी शान इंसान की जान से ज़्यादा बड़ी होती है? डॉक्टरों को मसीहा, फरिश्ता और न जाने क्या-क्या उपमाएँ दी जाती हैं। आज जब विश्व में कोरोना महामारी फैली हुई है, तब डॉक्टरों की सेवाओं से सभी वाकिफ हैं। क्या कभी डॉक्टरों की भी जाति और धर्म पूछा जाता है? इसका उत्तर है- हाँ! भारत जैसा देश आज भी इस भेदभाव की बीमारी से पीड़ित है। भारतीय समाज में बसने वाले ऐसे लोग अजीब पागल मन:स्थिति के होते हैं, जो दुर्घटना ग्रस्त होने के बावजूद अपना इलाज कराने के स्थान पर डॉक्टरों की जाति पूछते हैं- ‘दर्जनभर लोगों की भीड़ ने कॉलर खींचकर डॉक्टर के साथ मारपीट की और गालियाँ बरसाईं। इसके बाद अस्पताल से किसी भी प्रकार की अनुमति लिए बिना वे दोनों घायल महिलाओं को जबरदस्ती लेकर चले गए, क्योंकि उन्हें किसी अनुसूचित जनजाति के डॉक्टर की अपेक्षा इलाज न करवाना बेहतर लगा।’ केरल के सबरीमला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हीं के पक्ष में निर्णय तो सुना दिया, किंतु इसमें दो प्रश्न खड़े होते हैं- एक तो यह कि न्यायालय ने स्त्री अधिकारों की सुनवाई तो की, किंतु समुदाय विशेष की परंपराओं और मान्यताओं की रक्षा का ध्यान नहीं रखा। चुपचाप रात में कुछ स्त्रियों को मंदिरों में प्रवेश करा देना उचित नहीं है। इससे कहीं ज़्यादा अच्छा यह होता कि मंदिर प्रशासन को विश्वास में लेकर समस्या का समाधान खोजा जाता। ऋषभ जी अंत में यह संकेत देते हैं कि ‘जहाँ आपका स्वागत नहीं होता, वह चाहे पिता का घर भी क्यों न हो, वहाँ नहीं जाना चाहिए!' समझदार को इशारा काफ़ी है। आख़िर ऐसी भी क्या महत्वाकांक्षा है कि कुछ ऐसी पुरानी मान्यताओं और परंपराओं को बाधा पहुँचाई जाए, जिनसे किसी को कोई नुकसान नहीं होता। हर घटना पर राजनीति करने के बजाय यदि समाज सुधार की ओर ध्यान दिया जाए तो यह सब के लिए हितकारी होगा।
खंड 7: 'अस्तित्व के सवाल' में आठ तथा खंड 8: 'वैश्विक संदर्भ' में सात संपादकीय हैं। कहते हैं आज का बालक कल का नागरिक है। ‘ये बच्चे भारत के नागरिक नहीं?'  तथा ‘सुरक्षित नहीं हैं हमारे बच्चे’ में बच्चों को केंद्र में रखते हुए समाज का सूक्ष्म अवलोकन किया गया है। आज अपने अस्तित्व के लिए वृद्ध और स्त्रियाँ ही नहीं, बल्कि बच्चे भी जूझ रहे हैं। लड़के-लड़कियों के यौन शोषण और दुष्कर्म की घिनौनी आपराधिक गतिविधियों का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करता यह संपादकीय पाठकीय मन को झकझोरने के साथ-साथ वेदना से भर देता है। जब ऐसे कांड घटित होते हैं, तब मीडिया ख़ूब सक्रिय हो जाता है, बहसें चलती हैं, कई आयोग सामने आने लगते हैं। किंतु न्यायालय तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे केस दम तोड़ जाते हैं, क्योंकि पर्याप्त सबूत ही नहीं मिलते और न्यायालय तो सबूत पर चलते हैं। कई बार न्याय मिल भी जाता है, तो भी उसके रास्ते में कई प्रकार के रोड़े अटकाते हुए केस को आगे बढ़ाते रहते हैं। जैसे अभी हाल ही में ‘निर्भया कांड’ में देखने को मिला। आख़िर क्यों भारत के किसी अतिसंवेदनशील नागरिक को यह कहने पर मजबूर होना पड़े कि ये बच्चे भारत के नागरिक नहीं है क्या? आज हमारे बच्चे सुरक्षित कहाँ हैं? पग-पग पर ऐसे शैतान छिपे बैठे हैं, जो बच्चों को उठा लेते हैं और उनसे भीख मँगवाना, उनका यौन शोषण करना, मजदूरी करवाना और न जाने कितनी तरह के कार्य करवाते हैं। क्या यह तथ्य दिल दहलाने वाला नहीं है कि भारत से एक साल में पचपन हज़ार बच्चों का अपहरण किया गया। 'बच्चा चुराने की ये घटनाएँ एक साल में तीस फ़ीसदी बढ़ी हैं। इस प्रकार ये आंकड़े गवाह हैं कि भारत में बचपन कितना असुरक्षित है। बच्चे किसी भी समाज या देश का भविष्य होते हैं। इसलिए असुरक्षित और अपराध की ओर जाते हुए बच्चों वाले देश के भविष्य को भी सुरक्षित नहीं कहा जा सकता।’ क्या बच्चों को सुरक्षित रखना और उन्हें स्वस्थ वातावरण देना हम सब की सामूहिक और सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है? पिछले कुछ वर्षों से भारत में बुढ़ापा मानो बीमारी बन गया है। ‘असहाय और असुरक्षित बुढ़ापा’ अतिसंवेदनशील संपादकीय है, जो गर्त की ओर गिरते परिवार और समाज का वीभत्स चेहरा हमारे सामने लाता है। यह कैसी विडंबना है कि माता-पिता अपने कई बच्चों को बड़े स्नेह और प्यार से पालते तथा बड़ा करते हैं, किंतु जब वे बुजुर्ग हो जाते हैं, तो कई बच्चे मिलकर भी अपने माता-पिता को नहीं रख पाते। वे उन्हें भार समझते हैं। स्वयं को आधुनिक कहने वाले लोग अपने बुजुर्गों को ‘ओल्ड होम’ छोड़ आते हैं। मैंने जानबूझकर ‘ओल्ड होम’ कहा वृद्ध-आश्रम नहीं, क्योंकि यह पाश्चात्य सभ्यता है, भारतीय सभ्यता नहीं! किंतु अब यह सभ्यता भारत के तथाकथित आधुनिक परिवारों में जड़ जमाने लगी है। पश्चिमी देशों में वृद्धावस्था के लिए कई सुविधाएँ उपलब्ध हैं, किंतु भारत में अभी इस ओर किसी का ज़्यादा ध्यान नहीं गया है। सरकारें भी इस ओर से उदासीन ही दिखाई देती हैं।यदि बुजुर्गों के लिए छोटी-मोटी पेंशन के अलावा और अधिक सुविधाएँ उपलब्ध हो पाएँ, तो उनका जीवन न तो असहाय रहेगा और न ही असुरक्षित। भुखमरी पर दो संपादकीय हैं- ‘भुखमरी: सब पर अभिशाप!’ और ‘विकास बनाम भुखमरी’।देश को आजाद हुए एक लंबा समय हो गया। फिर भी भुखमरी की समस्या एक अभिशाप की तरह भारत के आगोश में बैठी हुई है- ‘आज भी भूख, गरीबी, अभाव और कुपोषण से भारत की संतानें दम तोड़ रही हैं, तो यह केवल शोक प्रकट करने और शर्मिंदा होने की बात नहीं। यह चेतावनी है कि यदि व्यवस्था ने अपनी प्राथमिकताएँ नहीं बदलीं, तो आजादी और डेमोक्रेसी- सारी चीजें व्यर्थ हो जाएँगी।’ यह समस्या मात्र भारत की ही नहीं, अपितु कई देशों की है। कहीं-कहीं आम नागरिक की कुंठा और क्षुब्धता भी लेखक के शब्दों में अभिव्यक्ति पाती है- ‘राजनीति के खेल से फुर्सत हो तो भूख और गरीबी दिखाई भी दें! इसीलिए अब कोई आँगनवाड़ी योजना की दुहाई दे रहा है, तो कोई पीड़ित परिवार के पास जाकर कुछ हजार रुपए देने का पुण्य कमा रहा है। किसी अन्य को मनरेगा और खाद्य सुरक्षा क़ानून याद आ रहे हैं।’ भुखमरी वास्तव में एक अभिशाप ही है- ‘सात-आठ दिन से जिन बच्चों को खाना न मिला हो, उनका ढांचा बंदर के बच्चे जैसा ही तो रह जाएगा! कहना ही पड़ेगा कि उनके लिए तो ‘गरीबी हटाओ’ से लेकर ‘बेटी बचाओ’ तक की सारी कवायद निरर्थक है। ‘बेटी पढ़ाओ’ की बात रहने ही दीजिए। पहले ज़रूरी है कि बच्चों की और उनके बचपन की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। अगर भूखे बच्चे इसी तरह मौत के मुँह में जाते रहेंगे, तो यह समाज के अस्तित्व के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे लोकतंत्र के कर्णधार भी भूख और हिंसा के इस भयानक रिश्ते को समझेंगे।’ किसी भी देश के विकास को यदि भुखमरी से जोड़ा जाए, तो इससे बढ़कर शोचनीय स्थिति और क्या होगी? ऋषभ जी अपनी वेदना इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘दुनिया भर में भूख से पीड़ित और भुखमरी से मरने वाले लोगों के बारे में आई वैश्विक रिपोर्ट का यह खुलासा चौकाने वाला ही नहीं,बड़ी हद तक शर्मनाक भी है कि 119 देशों की सूची में भोजन और पोषण की उपलब्धता की दृष्टि से भारत 103वें स्थान पर है। श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश हमसे बेहतर हालत में हैं, तो इसे चिंताजनक ही माना जाना चाहिए।’ झारखंड में 50 प्रतिशत से अधिक परिवार ऐसे हैं, जिन्हें ज़रूरत के मुताबिक खाना नहीं मिल पाता। यह संपादकीय मन में यह आशा पैदा करता है कि एक न एक दिन ऐसा अवश्य होगा जब भुखमरी की समस्या कम होगी। एक आशावादी दृष्टिकोण इन संपादकीयों में दिखाई देता है, जो इन्हें मोटिवेशनल और मननीय बनाता है। धरती माँ हमारे लिए निर्जीव नहीं, बल्कि सजीव माँ के समान है। जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे को गर्भ में नौ महीने अपनी रक्त-मज्जा से सींचती है, वैसे ही धरती माँ अपनी सभी संतानों के प्रति एक समान उदार है। यह जीवित है तो प्राणीमात्र जीवित हैं। इस विचार से प्रेरित हैं ग्लोबल वार्मिंग पर दो लेख- ‘धरती का बढ़ता बुखार’ और ‘ तो क्या समुद्र में समा जाएँगे तटीय शहर?’ इन दोनों समस्याओं के पीछे ग्लोबल वार्मिंग की स्थितियाँ ही जिम्मेदार ठहरती हैं। यह संपादकीय मानवीकरण का सुंदर उदाहरण है, जिसमें ऋषभ जी ने धरती की सेहत को ध्यान में रखते हुए गंभीर विचार-विमर्श किया है। हम आज जहाँ भी दृश्य दौर आते हैं तो यह देखते हैं कि अंधाधुंध विकास की दौड़ में पड़कर मनुष्य ने- ‘प्रकृति को तमाम तरह के कूड़ेदान में बदलकर बहुत बड़ा अपराध किया है। जलवायु परिवर्तन के प्रलयकारी परिणामों को देखने के बाद यह कहना ही पड़ता है कि धरती के बढ़ते बुखार के कारण पूरे परिवेश सहित मनुष्य के विनाश का नगाड़ा बज चुका है।’ जब हमारे वातावरण से कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसी बहुत सी गैसें कम होंगी, तो ही धरती का तापमान कम होगा। अब चाहे चारों ओर मचे हाहाकार के बीच सम्मेलन किए जाएँ या रूल बुक तैयार की जाएँ, इसका लाभ तभी मिलेगा जब दुनिया को अपनी गलती समझ में आएगी और वह अपनी गलतियों पर रोक लगाएगी। अभी कोरोना महामारी के कारण जो बंद की स्थितियाँ हैं, वे भले ही पूरी दुनिया को आर्थिक दृष्टि से पीछे ले जा रही हों, किंतु धरती का जल, वातावरण आदि शुद्ध हो रहे हैं और प्रदूषण में भारी कमी आ रही है, क्योंकि अब कार्बन डाइ ऑक्साइड जैसी गैसों का उत्सर्जन न के बराबर है। यह संपादकीय 2018 में छपा है और इसमें इस बात की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया था कि- ‘जलवायु परिवर्तन के प्रति जो बड़े देश अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं, उन्हें इस चेतावनी की ओर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि धरती के बुखार को बढ़ने से अगर न रोका गया तो प्लेग जैसी महामारी का बैक्टीरिया कभी भी सक्रिय हो सकता है तथा गिल्टी और मलेरिया जैसी बीमारियाँ भी विश्व भर में फैल सकती हैं।’और आज 2020 में हम लेखक की उस चिंता को सच होता हुआ कोरोना वायरस द्वारा फैलाई गई महामारी के रूप में देख रहे हैं! ग्लोबल वार्मिंग की वजह से प्रकृति का मूड बड़ी तेजी से बदल रहा है- ‘तुनकमिजाज प्रकृति के बदलते मूड को पहचान कर अगर आदमी ने खुद को जल्दी नहीं बदला तो जो स्थितियाँ सामने आ सकती हैं, शायद उन्हें ही प्रलय कहा जाता है। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग का सामना करने के व्यापक इंतजाम आज बेहद ज़रूरी हो गए हैं।’ लेखक की यह चिंता वाजिब है, क्योंकि हम यह महसूस कर रहे हैं कि विश्व के जो तटीय इलाके हैं, वे धीरे धीरे समुद्र में समाने की स्थिति में आते जा रहे हैं। विश्व में अब कहीं बेमौसम की बारिश हो रही है, कहीं बाढ़ आ रही है, कहीं सूखा पड़ रहा है, तो कहीं बर्फबारी हो रहीहै। यह धरती के बढ़ते तापमान का ही नतीजा है। अब वह समय आ गया है, जब इंसान को सँभल जाना चाहिए। अन्यथा उसका भविष्य कैसा होगा, इसका अंदाजा वह स्वयं लगा सकता है। भारत त्योहारों का देश है। यहाँ हर दिन कोई न कोई त्योहार अवश्य मनाया जाता है। वास्तव में त्योहार भाईचारा बढ़ाने और उत्सव मनाने का नाम है, किंतु धीरे-धीरे इन त्योहारों को मनाने के तरीके बदल रहे हैं। पहले दीवाली पर लोग खील-बताशे प्रसाद के रूप में अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों में बांटते थे, मिट्टी के दीए जलाते थे। किंतु अब तो लोगों में दिखावेबाजी की होड़-सी लगी रहती है। ऐसी स्थितियों में जो संवेदनशील हैं, उनका चिंतित होना लाज़मी है- ‘अमर्यादित पटाखेबाजी और आतिशबाजी के बुरे नतीजों को हर जनसंचार माध्यम और सोशल मीडिया द्वारा बड़े स्तर पर प्रचारित किया जाना चाहिए, ताकि लोगों में यह समझ विकसित हो कि पर्यावरण को प्रदूषित करना अपने जीवन को स्वयं नष्ट करने जैसा है।’ वैश्विक संदर्भों को केंद्र में रखते हुए कई संपादकीय पाठक के मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं। व्यावसायिक कूटनीतियाँ पूरे विश्व को अपने लपेटे में ले रही हैं। कोलकाता में होने वाला दुर्गा पूजा उत्सव एक सांस्कृतिक त्योहार है, जिसमें विशेष रुप से विदेशी दूतावास अपनी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इन विदेशियों को भारतीय संस्कृति से अचानक प्यार हो गया है। बल्कि उनकी मंशा लोगों को अवश्य समझ में आ जानी चाहिए कि विश्व के लिए भारत एक बहुत बड़ा बाज़ार है,  जिसका फ़ायदा पूरा विश्व अपने तरीके से उठाना चाहता है। अमेरिका, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश आगे बढ़कर जनता के बीच पहुँचकर अपना मतलब साधना चाहते हैं। इसे ही बाज़ार का मनोविज्ञान कहा जाता है- ‘सारी कवायद ‘वाणिज्य’ के वास्ते है, ‘संस्कृति’ तो बहाना है। असल में तो किसी को यहाँ से मुनाफा कमाने की चिंता है और किसी को अपने लोगों के लिए रोजगार पैदा करने या अपने माल के निर्यात के लिए बाजार खोजने की।’ संपादकीय में एक अच्छी सलाह है जो पाठकों का ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है और इस बात की ओर भी संकेत करती है कि समझने वालों को इतने में ही बहुत कुछ समझ जाना चाहिए- ‘भारत को इस जाल में फंसने से बचना होगा। बेहतर हो अगर भारत सरकार ऐसे सब विदेशी राजनयिकों को यह परामर्श दे कि वे भारत की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में इस तरह दखलंदाजी से बाज आएँ और हमारे धार्मिक- सांस्कृतिक जीवन में ज़्यादा भीतर तक घुसने की कोशिश ना करें।’(दुर्गा पूजा में विदेशी रुचि का अर्थ)।

लेखक ने जहाँ ‘लद गए वैश्वीकरण के दिन?’ में अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक युद्ध को केंद्र में रखा है,  वहीं ‘आतंक बनाम सभ्य रिश्तों का पाखंड’ में पाकिस्तान की दादागिरी को शब्दों के द्वारा अभिव्यक्ति मिली है। अमेरिका और चीन की लड़ाई जगजाहिर है। आज जब कोरोना महामारी विश्व को अपने लपेटे में लिए हुए है, तब भी ये दोनों राष्ट्र एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए अपने दंभ से बाज नहींआते। भारत तो अति प्राचीन काल से ही विश्व बंधुत्व की बात करता चला आ रहा है, किंतु आधुनिक संदर्भों में जिस वैश्वीकरण की बातें हो रही हैं उसका भयानक चेहरा सबके सामने आ रहा है। व्यंग्य करते हुए ऋषभ जी कहते हैं- ‘ये दोनों आर्थिक पहलवान राष्ट्र वैश्विक अर्थव्यवस्था में नई हलचल पैदा कर रहे हैं।’ यह तो सच है कि वैश्वीकरण के बहाने सदस्य देश पेटेंट क़ानून के अंतर्गत आ जाते हैं, ऐसी स्थिति में अमेरिका जैसे देशों का बहाने बनाकर इनसे अलग हट जाना इस बात की ओर संकेत करता है कि वे बड़े चालाक खिलाड़ीहैं- ‘उदारवादी बाजार व्यवस्था के कारण विकासशील देशों में बना सस्ता माल विकसित देशों को सस्ते में मिलता था, जबकि वे अपनी पेटेंट तकनीक महँगे में बेचते रहे।’ यही उनकी चालबाजी है। पाकिस्तान पाखंडी है और जहाँ मौका मिलता है, अपनी झूठी दादागिरी दिखाने से बाज नहीं आता। उसकी यह हेकड़ी भारत के सामने नहीं चलती और उसे मुँह चुराकर पीछे हट जाना पड़ता है। पाकिस्तान को जहाँ मौका मिलता है, वह सभ्य रिश्तों का पाखंड दिखा देता है। न जाने प्रशासक इतने महत्वाकांक्षी क्यों हो जाते हैं कि वे अपने आगे हर किसी को घुटने पर बैठा देखना चाहते हैं। चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग की महत्वाकांक्षा कुछ ऐसी ही दिखाई पड़ती है।‘ हथियार चमका रहा है ड्रैगन’ एक ऐसा संपादकीय है जिसमें इस बात की ओर संकेत किया गया है कि जब 2012 में शी जिन पिंग चीन के राष्ट्रपति और सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के चेयरमैन बने थे, तभी से चीन वैश्विक राजनीति में अधिक मुखर हुआ है तथा वहाँ सत्तावादी युग की शुरुआत हुई है- ‘वे चीन को विश्व शक्ति के रूप में आगे बढ़ाना चाहते हैं। इसके लिए अमेरिका के विस्तार को रोकना ज़रूरी है।’ कुछ देशों की मित्रता भी चीन को बर्दाश्त नहीं होती- ‘चीन को यह भी बर्दाश्त नहीं कि ताइवान को अमेरिका का समर्थन प्राप्त है। इसलिए भड़के हुए चीन ने मौका मिलते ही ताइवान को घुड़क दिया कि, इस सच्चाई को कोई बदल नहीं सकता कि ताइवान चीन का अभिन्न हिस्सा है। ताइवान को नियंत्रण में लाने के लिए बल प्रयोग किया जा सकता है लेकिन हम शांतिपूर्ण एकीकरण चाहते हैं |’ अब धीरे-धीरे संयुक्त राष्ट्र की स्थिति बंधक जैसी होती जा रही है।आज जब चारों ओर आतंकी गतिविधियाँ जोरों पर हैं, तब अपनी जवाबदेही को लेकर संयुक्त राष्ट्र ढुलमुल स्थिति अपना रहा है। उसका यह व्यवहार उसकी कमजोरी को ही दर्शाता है। हम समाचारों में यह देख चुके हैं कि किस प्रकार चीन आतंकी संगठन- ‘जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर को सुरक्षा परिषद की अलकायदा प्रतिबंध समिति के तहत आतंकवादी नामित कराने की भारत की कोशिशों को बार-बार नाकाम करने में कामयाब रहा है |’ चीन यह अपनी वीटो पावर के बल पर कर पाया।

अब मनुष्यों के लिए जमीन रहने को कम पड़ गई है, तो अंतरिक्ष पर कब्जे की तैयारी चल रही है। ‘अंतरिक्ष पर कब्जे की खातिर’ संपादकीय में यह समसामयिक प्रश्न उठाया गया है कि विश्व की बड़ी ताकतों की दौड़ कहाँ जाकर रुकेगी? ’इसमें संदेह नहीं कि अंतरिक्ष में हथियारों के ज़ोर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की यह दौड़ धरती के लिए तो ख़तनाक है ही, पर्यावरण और अंतरिक्ष के लिए भी इसे ‘अच्छी बात’ नहीं कहा जा सकता!’ क्या अंतरिक्ष में धरतीवासियों की दखलअंदाजी बढ़नी चाहिए? यह आप सोचिए और मैं भी सोचती हूँ। जब अमेरिका अपनी दादागीरी दिखाता है तो चीन और रूस का गठबंधन हो जाता है। तृतीय विश्वयुद्ध की कल्पना बहुत पहले की गई थी, किंतु अभी तकयह कल्पना, कल्पना ही है और कल्पना ही रहे तो विश्व के लिए और मानव के लिए ज़्यादा हितकारी होगा। अन्यथा- ‘रूस द्वारा अंतरिक्ष के इस हाइपरसोनिक शस्त्रीकरण का यह परिणाम तो किसी भी प्रकार अब टाला ही नहीं जा सकता कि धरती पर ही नहीं, अब अंतरिक्ष पर कब्जे की खातिर नए सिरे से ‘शीतयुद्ध’ छिड़ना अवश्यंभावी है’ और यह उक्ति मानव मन की संवेदनशीलता को और बढ़ा देती है-  ‘हिंसा की दूकान खोलकर, बैठे ऊंचे देश। आशंका से दबी हवाएँ, आतंकित परिवेश।।' डॉ. ऋषभदेव शर्मा की पुस्तक 'संपादकीय' के अंतिम आलेख ‘युद्ध करना नहीं, शांति लाना है बहादुरी’ में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरियाई शीर्ष नेता किम जोंग के बीच सिंगापुर में संपन्न  शिखर वार्ता पर सकारात्मक टिप्पणी की गई है। जब दोनों नेता मिलते हैं तो वह एक दूसरे को यह यकीन दिलाने में लगे रहते हैं कि जहाँ एक ओर अमेरिका अपना प्रतिबंध हटा लेगा, वहीं कोरिया ने विश्वास दिलाया कि उसने अपने मिसाइल केंद्रों को नष्ट करना शुरू कर दिया है- ‘दोनों नेता एक दूसरे के बारे में इतनी अच्छी-अच्छी बातें कर रहे हैं कि यकीन नहीं होता, कल तक ये साँप-नेवले की तरह घात लगा रहे थे। अगर सच ही केवल हाथ नहीं, दिल मिल गए हैं; तो इस समझौते को सचमुच महान घटना समझा जाएगा|’ दुनिया में किसी भी तानाशाह को युद्ध का उन्माद न हो, इसी में उसकी और दुनिया की भी भलाई है और सबसे भला उस मानवता का होगा जिसकी इस संसार को कामना है। 

इस तरह ये इकसठ संपादकीय समसामयिक विषयों को समेटे हुए आमतौर पर बड़ी ही मखमली, लेकिन कहीं कहीं तल्ख भाषा में, चुनी गई अपनी विषयवस्तु के साथ पूरा न्याय करने में सक्षम हैं। ऋषभ जी मानते हैं कि यह कोई ज़रूरी नहीं कि अपनी बात कहने के लिए आपको चिल्लाना पड़े, आप में ताक़त है तो शब्दों को गुनगुनाइए। ये संपादकीय शब्दों की गुनगुन-आहट हैं। पढ़ने वाले बहुत होंगे, पर तह तक जाकर समझने वाले और सुनने वाले कितने होंगे? पता नहीं! 

संपर्क:
डॉ. निर्मला एस मौर्य
95/1, थर्ड क्रॉस स्ट्रीट,
गिल नगर, चेन्नई- 6 000 94, 
ईमेल
nirmala.s.mourya@gmail.com
मोबाइल- 9884042944
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें