समकालीन कविता की ज़मीन

25-04-2015

समकालीन कविता की ज़मीन

अखिलेश गुप्‍ता

"स्क्रीनिंग करो... मिस्टर गुप्ता,
क्रास एग्जामिन हिम थॉरोली !!" -मुक्तिबोध

समकालीन कविता कालबोधी होने के बावजूद मूलत: वह मूल्यबोधी ही है, जिसमें नये मूल्यबोध और वैचारिक दृष्टि विकसित करने का काम मुक्तिबोध के साहित्य ने किया। समकालीन गतिकी को पहचानकर उसे सार्थक पहल की दिशा में ले जाने में उत्पन्न अवरोधक कारक (जड़ीभूत-सौन्दर्याभिरुचि) की तह तक जाकर उसे स्वयं समूल नष्ट करने के लिये प्रतिबद्ध रहे। बकौल मुक्तिबोध स्वयं घोषणा करते हैं-

"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।"1 (अंधेरे में : मुक्तिबोध)

यह महज संयोग नहीं है अपितु उस समय की माँग रही है कि जिस समय मुक्तिबोध जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि के ख़तरे को पहचान कर उससे बचने की बात कर रहे होते हैं ठीक उसी समय पुराने शब्दकोषीय मानक प्रतिमानों को त्याग कर नागार्जुन ठेठ देशज बतकही शब्दों में ‘घिन तो नहीं आती’ जैसी कविता रच रहे होते हैं :

"पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पे दचका
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है
जी तो नहीं कुढ़ता है?"2 (घिन तो नहीं आती है : नागार्जुन)

अब इन वाक्यों जैसे ‘दचके पे दचका’, ‘बेतरतीब मूँछों की थिरकन’ को लेकर नागार्जुन पर यदि कोई आरोप लगाये कि यह कोई मानक वाक्य नहीं है मानक तो ‘दचके पर दचका’ होने चाहिये और ‘दचक’ शब्द को भी लेकर काव्यशास्त्रीय प्रतिमान ‘आब्जेक्शन’ कर सकता है, यह भी कहा जा सकता है कि भला ‘मूँछें भी कभी थिरकती हैं’। लेकिन इन सब से दूर नागार्जुन जनपक्षधरता की वकालत करते हैं और इसी सरल लहज़ों के कारण उसकी कविता चुम्बकीय आकर्षण की तरह आम जन के साथ सघनता से जुड़ जाती है। मुक्तिबोध को ‘ससि मुख’ अब बिल्कुल नहीं सुहाते, उसमें भी विकृति आने लगी है; पूँजीवादी व्यवस्था के कारण कल-कारखानों का अनवरत निकलता धुँआ कैंसर व्याधि की तरह चाँद के मुँह को टेढ़ा कर गया है। कविता तो हमेशा परिधि की वकालत करती है :

“कहते हैं-
आदमी की दर्दभरी गहरी पुकार सुन
जो दौड़ पड़ता है आदमी है वह भी,
जैसे तुम भी आदमी, वैसे मैं भी आदमी।"3 (चांद का मुँह टेढ़ा है : मुक्तिबोध)

कविता आदमी-आदमी में कोई विभेद नहीं रखती। केवल उत्तर-आधुनिकता के कारण कविता में परिधि पर विचार की शुरूआत मानना किस हिसाब से तर्कसंगत हो सकता है?

इस मामले में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी समकालीन कविता के ‘मेन’-नब्ज़ को पकड़कर निदान करने में सफल हैं। ‘कवि कह गया है’ में वह विषय और अर्थ के बीच के अंतर नहीं बल्कि अंतराल से उपजने वाले शिल्प को समझने पर ज़ोर देते हैं। गेटे ने भी कहा था : "एक कलाकृति में कथ्य समझना सबसे आसान है, अर्थ अधिक कठिन है, और शिल्प समझना सबसे कठिन है और बहुत कम उसे ग्रहण कर पाते हैं।"4

समकालीन कविता के सामने यह सवाल उपस्थित होता रहा है कि क्या उसे मापने के लिये आज कोई निश्चित पैमाना है। इस संदर्भ में जैसा कि साही ने कहा है, "समूची नई कविता को ठीक-ठीक देखने के लिए नई कविता के प्रतिमान की ज़रूरत नहीं है, बल्कि कविता के नये प्रतिमान की ज़रूरत है।"5 निश्‍चित ही समकालीन कविता में सारे लादे गये प्रतिमानों को ‘मुक्तिबोध अपने बौद्धिक औज़ारों के साथ’ हटा कर उसे नये अर्थबोध से प्राणवान्‌ कर देते हैं। अशोक वाजपेयी ‘कवि कह गया है’ में मुक्तिबोध की कविता के नये प्रतिमानों को चिन्हित करते हुए उसमें ‘राजनीति और राजनैतिक तथ्य, हमारे ज़माने की राजनैतिक जलवायु’ को उसका मूल्यवान्‌ हथियार मानते हैं। जैसा कि टॉमस मान ने समकालीन दुनिया के संदर्भ में कहा, “एक (वर्तमान समय) ऐसी दुनिया है जिसमें मनुष्य की नियति अपने को राजनैतिक शब्दावली में व्यक्त करती है।"6

कविता के नए प्रतिमान में नामवर सिंह छठे दशक के अंत की परिस्थितियों में सन् तरेपन की सत्ता के गंजे चाँद सरीखे सिर में भरे "गुप्त स्वार्थों और चालाक बेईमानियों की इस सभ्य तानाशाही"7 के दबाव के सामने बिक चुके बौद्धिक वर्गों के एक दमघोंट वातावरण से मुक्ति की छटपटाहट को मुक्तिबोध की कविता का उत्स मानते हैं। डॉ. पंकज चतुर्वेदी भी कविता के क्रांतिकारी तत्वों को निस्तेज बनाने में सक्रिय ‘विरोध, विकृति और समाहार’ की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध मुक्तिबोध के ‘मनुष्य-सत्य’ की घोषणा का समर्थन करते हैं। भक्तिकाल में चण्डीदास द्वारा की गई घोषणा : "शुणह मानुष भाई;/ शबार ऊपरे मानुष शत्तो/ ताहार ऊपरे नाई।"8 आज भी समकालीन सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया को सही ढंग से व्याख्यायित करती है। इसी से मुक्तिबोध भी कहते हैं :

"समस्या एक
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी सुन्दर व शोषण मुक्त
कब होंगे।"9

"उसका मूल उद्देश्य वर्गहीन शोषण समाज की स्थापना करना है। इसे सिद्ध करने के लिए उसके पास वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टि है"। "सामाजिक व्यवस्था में एक ओर पूँजीवादी व्यवस्था, साम्राज्यवाद, ब्यूरोक्रैट, अवसरवादी बुद्धिजीवी आदि हैं तो दूसरी ओर ‘संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर’ है यानी गुरिल्ला, क्रांतिकारी, संकल्पित सर्वहारा। लेकिन यह भी सच है कि आमूल परिवर्तन का नेतृत्व मध्यवर्ग ही करेगा। किन्तु यह वर्ग अवसरवादी होता है। अद्भुत बहुरूपिया होता है, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होता है। इस अवसरवाद से मुक्त होना मुश्किल है। पर इसके बिना बदलाव भी संभव नहीं है।"10 और इस मध्यवर्ग की अपनी कुछ कमज़ोरियाँ तो होती ही हैं लेकिन इस मध्यवर्ग में जो बुद्धिजीवी वर्ग होता है वह बहुत अधिक ख़तरनाक और प्रापंचिक होता है। हमेशा ही वह पूँजीपति बनने का सपने देखा करता है, अपने निजी तुच्छ स्वार्थ पूर्ति हेतु समाज से वह कटा रहता है। समकालीन कविता ‘ऐसी नीच ट्रेजेडी’ से मध्यवर्ग को बाहर निकालने का प्रयत्न करता है ताकि वह सर्वहारा की मुक्ति के लिये वकालत कर सके और समाज की गतिकी को सही दिशा में परिचालित करने में अपने उत्तरदायित्व का पालन करे। यह मुक्तिबोध का साहस ही है कि अपने जीवन के तमाम निर्मम पहलुओं की अभिव्यक्ति के दौरान भी वे विचलित नहीं होते। इसलिये आत्ममंथन करते हुये सोचते हैं :

"...ओ मेरे आदर्शवादी मन,
और मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरंभरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर"11

मुक्तिबोध की कविता केवल कोरा मार्मिक व्याख्यान नहीं है अपितु वह अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाते हुए भी राजनीति के कुचक्रों की सच्चाई का बखान करते हुए आम जनता को गुरु गंभीर शब्दों में इससे अवगत कराते हैं :

"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुर्गा
यदि बाँग दे उठे ज़ोरदार
बन जाए मसीहा"12

तब इतने में उस ‘प्रोसेशन’ में सचाई से जनता को परिचित कराने के एवज़ में भ्रष्ट-राजनेता ने अपने कुछ गुण्डों को उसकी हत्या के लिये दौड़ा दिया। आलम यहीं समाप्त नहीं हो जाता। उसे पकड़ने के पश्‍चात्‌ विरोधी सुर के कारणों को खंगालते हुए मिस्टर गुप्ता उसका स्क्रीनिंग कर क्रॉस एक्ज़ामिन में उस तंतु को खोजने में जुड़ जाता है, जिसके कारण वह सचाई का ईमानदारी का कुतुबमीनार पर चढ़कर बैठना चाहता है। इतना सब घटित होने के बावजूद वह जनपक्षधरता नहीं त्यागता। कवि को अपने उत्तरदायित्व का एहसास है :

"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज चल नहीं सकता।"13 (अंधेरे में : मुक्तिबोध)

अपने जन-पक्षधरता के इस तीव्र एहसास के कारण वे पूँजीवादी समाज को द्रुतगति से समाजवादी व्यवस्था में बदलने को उद्यत होते हैं। निश्‍चित्‌ ही मार्क्सवाद में दृढ़ आस्था से उनकी ऐसी दृष्टि संभव है। मुक्तिबोध को इस आधार पर ‘समकालीन कविता के प्रणेता’ कहना समीचीन है। समकालीन कविता के उसी पायदान में हम नागार्जुन को पाते हैं इन्हें भी सामाजिक हलचलों के ‘बेहद गंभीर और शायद ख़तरनाक’ प्रश्नों से होकर गुज़रना पड़ता है लेकिन ‘जनपक्षधरता’ ही वह धुरी है जिसके कारण सच बोलने से वे बिल्कुल नहीं घबराते, ‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यों हकलाऊँ।’ इसी से वे बेबाक सामाजिक कुरूपता, राजनीतिक अव्यवस्था और धार्मिक अंधविश्वासों पर बढ़िया, चुभता हुआ व्यंग्य करते हैं। डॉ. पंकज चतुर्वेदी का मानना है : "नागार्जुन व्यंग्य से ही अपने विरोध को एक अनोखी धार दे देते हैं।" इसके साथ ही नागार्जुन की काव्य रचनाधर्मिता "आधुनिकता बनाम मध्यकालीनता की गहरी समझ भी रखती है इसीलिए उनकी कविता परंपरा और आधुनिकता का एक विविध और प्रामाणिक ‘कंट्रास्ट’ बन जाती है"14

“घुन खाये शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बांचे,
कटी भीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइयां नाचे,
बरसा कर बेबस बच्‍चों पर मिनिट-मिनिट में पाँच तमाचे,
दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम के साँचे"15

यह ‘कण्ट्रास्ट’ ही तो है, स्कूल में जिसकी भीत फट चुकी है और छत भी चूने लगी है तथा दीवार पर बने आले में छिपकली घूम रही है। यह बिंब प्रस्तुत होते ही हमारा ध्यान प्रकारांतर से मध्यकालीन मुक्ताकाशी अध्ययन की ओर भी चला जाता है साथ ही स्कूल की छत को टिकाने के लिये लगाये गये शहतीरों पर घुन मगन होकर घर बना रहे हैं किसी भी अन्य बातों से उनका वास्ता नही है, न उधो का लेना है न माधो को देना फिर भी अनजाने में ही बारहखड़ी (घुणाक्षर-न्याय से) बनता जा रहा है। फिर तुरंत बाद कविता ‘फोकस’ होती है असहाय बच्‍चों पर, जिन्हें पढ़ाते समय मास्टर मिनट-मिनट पर उनके गालों पर तमाचे लगाकर मानवीयता का पाठ पढ़ा रहा है। बाघ के घर मिरग का नाच हो तब कैसा दृश्यांकन होगा? दुखरन मास्टर, नाम के विपरीत काम करना ही जनमानस में आज फैलता जा रहा है अमरबेल की तरह। घुन खाये शहतीरों पर स्वयं ब्रह्मा द्वारा बारहखड़ी पढ़ाये जाने के साथ ‘दुखहरन’ मास्टर के हर मिनट तमाचों के बीच बच्‍चों को पढ़ाये जाने की तुलना कर यदि कोई रघुवीर सहाय की कविता के लहजे में कहना चाहे तो कह सकता है : "और प्रभु यह तुम्हारी दया नहीं तो और क्या है/ कि इनमें आपस में कोई संबंध नहीं।"16 यहाँ ‘कंट्रास्ट’ भी ऐसा कि विरोधी प्रतीत होते हुये भी कैसी अविरोधी है! सरकार की नीतियाँ ही ऐसी हैं। घुणाक्षर न्याय की तरह आज सरकारी स्कूलों में बिना गुरु ज्ञान के भी बच्‍चे शिक्षित हो रहे हैं। जिसे बकौल नामवर सिंह की तर्ज़ पर कहें तो नागार्जुन ‘गम की कहानी मजा ले-लेकर’ व्यंग्य के साथ व्यंजित करते हैं। नागार्जुन जब आम जनता की हालात देखते हैं : "स्वर्ग था ऊपर, नीचे था पाताल/ अपच के मारे बुरा था हाल/ दिल-दिमाग भुस के, खद्दर की थी खाल"17 तब जनता के दिल-दिमाग में भरे भुस की खाल को निकालकर ‘उचितानुचित विवेक’ जागृत करने के लिये स्वयं नुक्कड़ नाटक की शैली में बकायदा अभिनय की मुद्रा में खुलकर कहते हैं :

"ज़हरीले साँपों पर दया नहीं करना
दुष्टों पर हमदर्दी के ऊसाँस नहीं भरना
कटखने कुत्तों पर रहमदिल न होना
भलमनसाहत में जान से हाथ मत धोना..."18 (लु-शून : नागार्जुन)

कविता का यह खुलापन थोड़ा आगे जाकर सपाटबयानी का रूप धारण कर लेता है जब "तथाकथित ‘स्वतंत्रता’ के चालीस वर्षों बाद भी भारत सरकार ने 68 से आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था कानून, जैसे दमनकारी कानूनों द्वारा देश के बंगाल, आंध्र, पंजाब, बिहार, केरल जैसे राज्यों में आतंक और दमन का चक्र कायम किया" और जब वह देखता है कि ‘आपात्काल’ के कारण "पूँजीवादी प्रेस पनप और फूल रहे थे और नागार्जुन, रेणु, सव्यसाची, स्नेहलता रेड्डी, सुब्बाराव पाणिग्राही, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, निर्मला कृष्ण मूर्ति, निर्मल शर्मा सत्यम जैसे सैकड़ों रचनाकारों को जेल नसीब हुई थी।"19 इसलिये सपाटबयानी को ही धूमिल ‘कविता का खुलापन’ मानते हैं :

“छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते थे,
प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोलकर रखते थे,
नयी कविता के कवि शब्दों को गोलकर रखते थे,
सन्‍ साठ के बाद के कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं,”20 (भाषा की रात में : धूमिल की भूमिका)

यह सपाटबयानी आपात्कालीन परिस्थितियों की उपज है क्योंकि जब इतने सारे रचनाकारों के साथ बेवज़ह घोर अन्याय हो रहा हो और अनथक प्रयास के बावजूद वह कुछ भी नहीं कर पा रहा हो तब आजादी से मोह-भंग होना स्वभाविक है...'क्या आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है। जिन्हें एक पहिया ढोता है। या इसका कोई ख़ास मतलब होता है।’ सातवें दशक की इन कविताओं को मोह-भंग और सपाटबयानी के कारण निचोड़ के रूप में यह कहा गया : "कवियों के उगाए हुये सूरज में रोशनी नहीं आई- सूर्य का स्वागत व्यर्थ चला गया। अहं के विसर्जन की जगह कवि अहं में ही विसर्जित होते गए और फिलिस्टीनी मुद्रा के कारण कविता दीक्षा गम्य हो गई। राजनीतिज्ञों के वादों की तरह कवियों की आस्थाएँ भी झूठी सिद्ध हुई। इसलिए सातवें दशक के पहले दौर से अस्वीकार और नकार का स्वर अधिक मुखर होकर आया पर आगे चलकर आठवें दशक में एक व्यवस्था आई।"21 अस्वीकार और नकार के स्वर को मुखरित होते देखकर सातवें दशक की कविताओं को ‘मोह-भंग और सपाटबयानी’ जैसे शब्दों में सपाट बयान कर देने से क्या इसका उचित मूल्यांकन समझकर आलोचना का इतिश्री मान लिया जाना चाहिये? क्योंकि जब धूमिल समाज की हक़ीक़त बयान करते हुए कहते हैं :

"क्या मैंने गलत कहा? आखिरकार
इस खाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन-सी सुरक्षित
जगह है, जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाथ की
साज़िश के ख़िलाफ़ लड़ोगे ?"22 (नक्सलबाड़ी : संसद से सड़क तक)

आदमी-आदमी में वर्ण और जाति को लेकर आज कितना विभेद है। वंचित तबके की पहली चिंता है- पेट भरने की। जब पेट ही खाली हो तब उच्‍च वर्ग की साज़िश का विरोध वह कैसे कर सकता है? उत्तर-आधुनिकता को ही आज स्त्री, दलित और आदिवासी विमर्श (विमर्शत्रयी) का उत्स मान लिया गया है और भारतीय जन-जीवन में बद्धमूल उसके ‘प्लॉट’ की अवहेलना की जाती रही है। सातवें दशक में नकार का स्वर अधिक मुखर रूप से रघुवीर सहाय की कविता ‘अधिनायक’ में मुखरित होती है :

"राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।"23

इसी नकार बोध के स्वर के कारण जनता का ध्यान आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के विषमताओं की ओर मुड़ती है। आज़ादी के वर्षों बाद भी हरचरना की हालात जस की तस है। ऐसी काव्य-रचना समाज का गहन अध्ययन किये बगैर संभव नहीं हो सकता जो कि आलोच्य युग की कविता का आधार है।

- अखिलेश गुप्‍ता
शोधार्थी
हिंदी-विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर वि.वि. सागर
(म.प्र.) 470003
Mobile No : 8085913848
E-mail:
akhilesh.src@gmail.com

संदर्भ ग्रंथ सूची :

1. गजानन मा. मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. : अशोक वाजपेयी/ राजकमल पेपरबैक्स नई दिल्ली/ चौथा संस्करण : 1991 /पृ. 161
2. नागार्जुन : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. नामवर सिंह/ तीसरा संस्करण : 1988/ पृ. 36
3. गजानन मा. मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. : अशोक वाजपेयी/ राजकमल पेपरबैक्स नई दिल्ली/ चौथा संस्करण 1991/ पृ. 110
4. कवि कह गया है/ अशोक वाजपेयी/ भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली/ दूसरा संस्करण : 2000/ पृ. 9
5. कविता के नये प्रतिमान/ नामवर सिंह/ राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली/ चतुर्थ संस्करण : 1990/ पृ. 27
6. कवि कह गया है/ अशोक वाजपेयी/ भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली/ दूसरा संस्करण : 2000/ पृ. 188
7. कविता के नये प्रतिमान/ नामवर सिंह/ राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली/ चतुर्थ संस्करण : 1990/ पृ. 234
8. निराशा में भी सामर्थ्य/ पंकज चतुर्वेदी/ आधार प्रकाशन पंचकूला/ प्रथम संस्करण : 2013/ पृ. 71
9. समकालीन कविता और सौंदर्य-बोध/ रोहिताश्‍व/ वाणी प्रकाशन नई दिल्ली/ प्रथम संस्करण : 1996/ पृ. 91
10. आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास/ बच्चन सिंह/ लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद/ संस्करण : 2010/ पृ. 279
11. गजानन मा. मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. : अशोक वाजपेयी/ राजकमल पेपरबैक्स नई दिल्ली/ चौथा संस्करण : 1991/ पृ. 141
12. वही/ पृ. 151
13. वही/ पृ. 164-65
14. निराशा में भी सामर्थ्य/ पंकज चतुर्वेदी/ आधार प्रकाशन पंचकूला/ प्रथम संस्करण : 2013/ पृ. 154
15. नागार्जुन : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. नामवर सिंह/ राजकमल पेपरबैक्स नई दिल्ली/ तीसरा संस्करण : 1988/ पृ. 9
16. कविता के नये प्रतिमान/ नामवर सिंह/ राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली/ चतुर्थ संस्करण : 1990/ पृ. 157
17. नागार्जुन : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. नामवर सिंह/ राजकमल पेपरबैक्स नई दिल्ली/तीसरा संस्करण : 1988/ पृ. 62
18. वही/ पृ. 62
19. समकालीन कविता और सौंदर्यबोध/ रोहिताश्‍व/ वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली/ प्रथम संस्करण : 1996/ पृ. 96-97
20. कल सुनना मुझे/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम संस्करण : 1977/ पृ. 1
21. आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास/बच्चन सिंह / लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद/ संस्करण : 2010/ पृ. 296
22. संसद से सड़क तक/ धूमिल/ राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली/ प्रथम संस्करण :1972/ पृ. 72-73
23. आत्महत्या के विरुद्ध/ रघुवीर सहाय/ राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली/ तृतीय संस्करण : 1985/ पृ. 20

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