समझती ख़ूब है लेकिन!

15-04-2021

समझती ख़ूब है लेकिन!

सुनिल यादव 'शाश्वत’ (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

ये जो नरमी तेरे होंठो पे ठहरी है,
तेरी बाँहे किसी चंदन की टहनी है,
मेरे अरमां की काग़ज़ी कश्ती,
किसी सागर पे तैरी है।
 
ये जो गर्मी तेरे साँसों में बहकी है,
वही ख़ुशबू मेरी नींदों में महकी है,
तू जो बोले तो लगता है,
कोई चिड़िया मेरे कानों में चहकी है।
 
तू ग़ुस्साए तो गर्मी है,
तू शरमाये तो सर्दी है,
तेरी पलकें जो उठती हैं,
मानो बिन मौसम की बदली है।
 
तेरी कदमों की आहट पर,
कई भँवरों का मरना है,
तेरे पायल की छन-छन पर,
कई दिलों का धड़कना है।
 
ये मैं जो तुमसे मिलता हूँ,
मेरी चाहत का मिलना है,
तेरी तारीफ़ करता हूँ,
जैसे कली का खिलना है।
 
ये मैं जो ख़्वाब बुनता हूँ,
तू जिसकी नींद बनती है,
ये मैं जो गीत लिखता हूँ,
तू जिसका राग बनती है।
 
हम दोनों अकेले हैं,
तो क्या ऐसे ही रहना है,
समझती ख़ूब है लेकिन,
तेरा इस पर क्या कहना है?

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