समझ न सका नियति नटी का यह दावँ-पेंच

11-09-2007

समझ न सका नियति नटी का यह दावँ-पेंच

डॉ. तारा सिंह

मैं हूँ वह अभागा, जिसने देखा न कभी
अपने जीवन पटल पर सुख का सबेरा
हृदय सागर भरा रहा, अपने ही दृग जल से
पाया न किस्मत कुछ, केवल रोना पाया
अरमानों की ज्वाला बनाकर, यौवन का
मधु लोभ में निकला, कुसुक दल में गरल पाया
नियति नटी के इस खेल में, मिट गया जीवन सारा
देखा न कभीअपने जीवन पटल पर सुख का सबेरा

 

सूखी लता, मुरझे सुमन,मरुस्थल बना रहा हृद्देश
रात गई तो रात आई, जीवन रहा निरुद्देश्य
दृग बंदकर बैठा रहा कि एक दिन मेरे प्राणों को
भरने आयेगा सुनहले सपनों से भरा आलोक
सुख का वर पाने जीवन भर, नयन नीर से
अपने तन-मन को मल -मल कर धोता रहा
मगर मिटी न मेरे मुख पर की लगी कालिमा
जान न सका विधु और मेरे तकदीर का दावँ-पेंच

 

कुसुमांजलि करों में लेकर बढता, चलता रहा
शायद कहीं खुला मिला जाये, देवालय का पट
मगर अनन्त गायन की ध्वनि पर पाँव मेरे थिरक उठे
गिर गए सारे कुसुम, बचा न कुछ भी शेष
तब से आज खोज रहा हूँ, मैं उस उदगम को
जहाँ से उठती है, सुख शीतलता की पुलक भरी हिलोर
जिसके लिए दग्ध जीवन का स्वर लहराता पवन में
जिसके लिए सुरभ भरते चन्दन का रस कोष

 

मगर मिला न आज तक सुख विधु की मुसकान
विदा हो चला मैं,कुंज के अर्द्धखिले फूलों के समान
सह न सका मेरा यह जीवन, इतना बड़ा शोक
अनंत दुखों के बीच हँसते रहो, कहता यह लोक

 

कौन कहता है जिसका कोई नहीं
उसके संग होते स्वयं घनश्याम
क्या, यही टीका लगाकर करते हैं
दीन –दुखियों, निर्बलों का कल्याण
अपने प्रिय भक्त धनंजय के लिए
केशव ने क्या-क्या नहीं सहा अपमान
मेरे लिए सत्य ओझल,केवल रहा व्यवधान

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