समाचारपत्रों से विलुप्त होता साहित्य

19-05-2012

समाचारपत्रों से विलुप्त होता साहित्य

नवल किशोर कुमार

मेरी प्यारी अर्द्धांगिनी,

तुम्हारे सम्मान में कुछ भी कहना ज्यों भरी ढिबरी में ऊपर से तेल डालने के समान है, अतएव यह जोखिम मैं इस पत्र में नहीं उठा सकता क्योंकि कारण तो तुम्हें पता ही है। सुबह-सुबह तुम्हारे हाथ की बनी चाय मुझे नींद से जगाती थी और वो तुम्हार सुर की कर्कश मधुरता मेरे तन-मन को नये विहान का दुखद अहसास दिलाती थी। यह तो ऊपरवाले की कृपा है कि मुझे तुम्हारे विरह में यह ख़त लिखना पड़ रहा है वर्ना तुम्हें याद कर अपनी स्वर्गवासी नानी को याद करने का शौक मुझे कतई नहीं है।

इससे पहले कि तुम इस ख़ुशी में लाल-पीले होने लगो कि तुम्हें मैंने याद किया है मैं अपनी बात कह लेना चाहता हूँ ताकि ये कागज़ का पुलिंदा सही सलामत रह सके। बात दरअसल यह है कि तुम तो जानती ही हो अब तुमसे क्या छिपाना, अखबारें मेरी कमजोरी बनती जा रही है। अब एक अखबार से मेरा दिल नहीं भरता सो पाँच अख़बार लेने लगा हूँ। पूरा दिन तो आफ़िस में मटरगश्ती में बीत जाता है परंतु रात को कमबख़्त तुम्हारी सौतनों ने जीना हराम कर दिया था। वो तो तुम थी जो वो तुम्हारे लहु का रसास्वादन कर अपना जी हल्का कर लेती थीं। मगर तुम्हारे जाने के बाद तो उन लोगों ने क़यामत ही मचा रखी थी। अब उनसे बचने का मैंने एक नायाब नुस्खा ढूँढ लिया है। पलंग पर अब अखबारों के पन्ने फैला देता हूँ और तुम्हारी सौतनें निर्जीव अखबारों पर प्रतिबिंबित अर्द्धनग्न तस्वीरों पर अपना गुस्सा उतारती रहती हैं और मैं निर्बाद्ध रूप से सोता रहता हूँ।

इन अखबारों में कितना परिवर्तन हो गया है, पहले जब भी कोई कविता या शायरी छपती थी तो तुम मुझे चिढ़ाती थी। कितना याद आता है तुम्हारा वो गुस्सा जब तुमने सुहागरात पर लिखी मेरी कहानी का सत्यानाश कर डाला था। अच्छा है अब तुम यहाँ नहीं हो वर्ना मेरी कितनी मासूम कवितायें वर्जिन ही शहीद हो जातीं। लगता है ऊपरवाले ने भी तुम्हारी सुन ली है और प्रकाशक समाज को नयी सद्‍बुद्धि दे दी है और इन लोगों ने समाचार पत्रों से साहित्य की ही विदाई कर दी। ख़ैर इससे ज्यादा क्या लिखूँ, ऐसे लिखना तो बहुत चाहता हूँ परंतु................

अंत में एक अनुरोध है कि मेरी फ़िक्र मत करना और वहीं रहकर भगवान से प्रार्थना करना कि प्रकाशकों को फिर से बुद्धि न आ जाये ताकि फिर से वैसा कुछ न हो जो पहले हुआ करता था। तुम्हारी सजीव और निर्जीव सौतनें मेरा ख़्याल बख़ूबी रख रही हैं। पढ़ने के बाद इस पत्र को चिता में समर्पित कर देना, ब्रह्मभोज तो कर ही लूँगा तुम्हारी सौतनों के साथ।

तुम्हारा बेचारा पति


 

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