सलाम अमेरिका : माधव हाड़ा (समीक्षक)

31-05-2008

सलाम अमेरिका : माधव हाड़ा (समीक्षक)

डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

लेखक: ‘आँखन देखी’ : दुर्गाप्रसाद अग्रवाल,
प्रकाशक: विवेक पब्लिशिंग हाउस, धामाणी मार्केट, चौड़ा रास्ता, जयपुर,
प्रथम संस्करण: 2006,
मूल्य 150रु.
पृष्ठ: 136

भूमण्डलीकरण से होने वाली व्यापक सांस्कृतिक उथल-पुथल के बावजूद हिन्दी में अभी भी साहित्यिक विधाओं के दायरे बहुत संकीर्ण हैं। उनमें अंतर्क्रिया और रद्दोबदल में वह तेज़ी नहीं आई है, जो अंग्रेज़ी आदि भाषाओं के साहित्य में इधर दिखाई पड़ रही है। सुपरिचित साहित्यकार डॉ. दुर्गापसाद अग्रवाल की किताब ‘आँखन देखी’  इस लिहाज से अलग किस्म की है। यह विधाओं के बीच अंतर्क्रिया और उठापटक का जीवंत दस्तावेज है। इसमें लेखक अनायास यात्रा वृत्तांत को बीच में छोड़कर संस्मरण पर आ जाता है। यही नहीं वह संस्मरण को भी बीच में छोड़कर जब-तब सभ्यता या संस्कृति की समीक्षा में जुट जाता है। इस तरह जो चीज़ बनती है, ज़ाहिर है, वह हिन्दी की पारम्परिक साहित्यिक विधाओं के संकीर्ण दायरे से बाहर की ठहरती है। यह किताब इस अर्थ में खास है कि हिन्दी की पारम्परिक साहित्यिक विधाओं के अभ्यस्त पाठकों को इसमें एकाधिक विधाओं के मिले जुले, अलग और नए स्वाद को आज़माने का मौका मिलेगा।

लेखक इस किताब में विश्व के सबसे उन्नत और वैभवशाली देश अमरीका की यात्रा और प्रवास पर है। अमरीका को देखने-समझने के दौरान जाने-अनजाने वह दो अलग भूमिकाओं में बँट गया है। एक भूमिका में वह एक अपेक्षाकृत पिछड़े, विकासशील देश का नागरिक है, जो अमरीकी वैभव, सुव्यवस्था और वहाँ के नागरिक समाज के मूल्यनिष्ठ और शालीन आचरण से अभिभूत है और साथ ही चिंतित भी है कि उसके अपने देश में ऐसा क्यों नहीं है। दूसरी भूमिका में वह प्रतिबद्ध सोच और संस्कार वाला लेखक है, जो अमरीकी नागरिक समाज पर तो मुग्ध है, लेकिन राष्ट्र के रूप में अमरीका के साम्राज्यवादी, बर्बर और क्रूर रूप से भी सुपरिचित है। यों लेखक इन भूमिकाओं में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है, यह करने में वह तर्क को कहीं-कहीं दूर तक भी खींचता है लेकिन सही बात तो यह है कि अमरीका पर अभिभूत उसका नागरिक मन उसके प्रतिबद्ध लेखक पर हर बार भारी पड़ता है और ऐसे ही क्षणों में उसके भीतर से सलाम अमरीका जैसी अभिव्यक्ति फूट पड़ती है।

अमरीका की छवि आम तौर पर एक साम्राज्यवादी, बर्बर और क्रूर देश की है। अभी गत वर्ष ही ब्रिटिश नाटककार हैरॉल्ड पिण्टर ने इसको हमारे समय और समाज की सबसे बड़ी नौटंकी करार दिया था। लेखक इस किताब में जब-तब इसका उल्लेख भी करता है और इससे सहमत भी होता है, लेकिन वहाँ के नागरिक समाज का उसका अनुभव इतना सकारात्मक है कि वो इसको इस छवि से अलग रखकर पहचानता-परखता है। अमरीकी वैभव, सुव्यवस्था और वहाँ के नैतिक नागरिक जीवन पर लेखक लगभग मुग्ध है, लेकिन यह मुग्धता वैभव से चुँधिया जाने वाली मुग्धता से अलग है। यहाँ लेखक अपने निष्कर्षों को आद्यंत अपनी आपबीती से पुष्ट करता चलता है। आम अमरीकी  मनुष्य जीवन को बहुत गरिमामय और महत्वपूर्ण मानता है। लेखक इस अमरीकी नज़रिये से इतना अभिभूत है कि वह यह कहने पर मजबूर है कि इस मामले में  ‘मैं तो उनका मुरीद हो गया हूँ।’(पृ.32)  अपनी इस मुग्धता की पुष्टि के लिए लेखक बेटी के प्रसव और अपनी बीमारी के उपचार की प्रक्रिया का  आत्मीय वृत्तांत विस्तार से लिखता है। इसी आत्मीय वृत्तांत में से अमरीकी चिकित्सा व्यवस्था का व्यावसायिक रूप से पूरी तरह दक्ष और लगभग निर्दोष चेहरा उभरता है। इसी तरह वह ‘ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना’  अध्याय में अमरीकी यातायात व्यवस्था के चाक-चौबन्द रूप पर रोशनी डालता है। अमरीकी बाज़ार और खरीददारी का लेखक का अनुभव भी सकारात्मक है। लेखक यहाँ भी पूरी तरह अभिभूत है। लूट-खसोट और धोखाधड़ी बाज़ार की अनिवार्य अभिलक्षणाएँ हैं लेकिन लेखक अमरीकी बाज़ार में उनको नहीं पाता। उसके ही शब्दों में, ‘बाजार तो पूँजीवाद का मूर्त रूप है, पर यहाँ का बाज़ार जो अनुभव देता है, वे आम तौर पर मीठे हैं।’(पृ.47)  लेखक का अमरीकी स्कूली शिक्षा का अनुभव भी अच्छा है। उसने अपने एक परिचित के साथ लिए एक अमरीकी स्कूल के जायज़े का वृत्तांत ‘पढ़ोगे लिखोगे तो..’ शीर्षक अध्याय में विस्तार से लिखा है। लेखक स्कूल देखकर अभिभूत है और कहने के लिए मज़बूर है कि यही तो उसके सपनों का स्कूल है। उसके अनुसार स्कूल ऐसा है जिसमें ‘खेल में पढ़ाई है और पढ़ाई में ही खेल है।’ (पृ.110)

जुए का नाम लेते ही हिकारत का भाव मन में पैदा होता है और जुए के लिए विख्यात अमरीकी शहर लास वेगस जाने के प्रस्ताव पर लेखक के भारतीय मन में पहली प्रतिक्रिया भी ऐसी ही होती है, लेकिन यहाँ भी उसकी आपबीती उसे अलग निष्कर्ष निकालने के  लिए मज़बूर करती है। वह लिखता है कि लास वेगस ने ‘मुझे ज़िन्दगी को देखने का नया नज़रिया दिया है।’   उसके अनुसार लास वेगस ने न केवल जुए को एक कला का दर्ज़ा दिया है, इसे पर्यटन से जोड़कर नगर, राज्य व देश की अर्थव्यवस्था को भी बेपनाह मज़बूती दी है। (पृ.91) लेखक आम अमरीकियों के शालीन और शिष्ट आचरण की भी जमकर तारीफ़ करता है। एक क्षण के लिए लेखक के मन में यह विचार आता है कि यह महज़ मुलम्मा यानि मेक अप है (पृ.102) लेकिन उसके अनुभव उसे इस विचार पर कायम नहीं रहने देते। वह लिखता है कि इस मामले में अमरीकी समाज ‘निश्चय ही बेहतर है।’ (पृ.103)

किताब में अमरीकी समाचार पत्रों, पुस्तकालयों और वहाँ तकनीक के बहुविध उपयोग से जीवन में आई सुगमता पर विस्तार से विचार किया गया है। यहाँ भी निष्कर्ष निकालने में आपबीती को ही आधार बनाया गया है। लेखक के अनुसार अमरीकी समाचार पत्र भारतीय समाचार पत्रों की तुलना में बहुत बेहतर स्थिति में हैं। सिएटल टाइम्स  जिसका वह पाठक रहा है, को केंद्र में रखकर लेखक अमरीका में समाचार पत्रों की हालत का जायज़ा लेता है। उसके अनुसार एक तो इनमें पर्याप्त वैविध्य है, दूसरे ये नकारात्मक और असाधारण को तरजीह नहीं देते और तीसरे, इनकी कथाएँ संतुलित और विश्लेषणात्मक होती हैं। लेखक ने अमरीकी समाचार पत्रों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रेखांकित की है कि इनमें पाठकीय भागीदारी को खूब तरजीह और जगह दी जाती है।(पृ.55) अमरीकी पुस्तकालयों की सुव्यवस्था और जन साधारण में इनकी लोकप्रियता पर भी लेखक रेडमण्ड रीजनल लाइब्रेरी के अपने अनुभव के आधार पर विस्तार से रोशनी डालता है। यहाँ वह अपने अनुभव से इस धारणा को भी निर्मूल सिद्ध करता है कि कम्प्यूटर और इण्टरनेट पुस्तकालय के दुश्मन हैं। उसके अनुसार ‘इन्होंने पुस्तकालय सेवा का विस्तार किया है।’(पृ.71) अमरीकी सुव्यवस्था और वहाँ नागरिक जीवन के सुगम होने में तकनीक का महत्वपूर्ण योगदान है। इस किताब के ‘जोड़ने वाला पुल’  नामक अध्याय में लेखक इस पहलू पर गहराई से विचार करता है। उसके अनुसार आम अमरीकी तकनीक का भरपूर इस्तेमाल करता है और इस कारण उसका जीवन बहुत सुगम हो गया है।

किताब का एक बहुत अच्छा और जरूरी आलेख ‘सोन मछली’ अमरीका में बसे भारतीयों पर है। लेखक बहुत सहानुभूति के साथ अमरीकी और भारतीय संस्कृतियों के बीच इनकी ‘न इधर न उधर’ वाली हाल का जायज़ा लेता है। उसके अनुसार अमरीकी सुव्यवस्था और वैभव अब इनकी आदत में है  जबकि इनकी जड़ें अभी भी भारत में हैं जहाँ यह सब नहीं है। हालत ऐसी है कि अब लेखक के अनुसार अमरीका  ‘इनसे न उगलते बनता है और न निगलते बनता है।’(पृ.121) प्रवासी भारतीयों की इस व्यथा और असमंजस को उसने अज्ञेय की विख्यात कविता ‘नहीं यूलिसिस’  के उद्धरण से बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है। इस लेख का तो शीर्षक भी अज्ञेय ही की अति प्रसिद्ध कविता के लिया गया है।

सराहना और लगभग अभिभूत भाव से लिखी गई इस किताब की खास बात यह है कि इसमें लेखक का नज़रिया आद्यंत तुलनात्मक रहा है। लेखक अमरीका को खास भारतीय दृष्टिकोण से, भारतीय परिपेक्ष्य में समझता-परखता है। वहाँ की सुव्यवस्था, वहाँ के नागरिक समाज की नैतिकता और ईमानदारी की सराहना करते हुए वह हमारे यहाँ के हालात को भी सामने रखता है। यही कारण है कि इस किताब के अधिकांश सराहना प्रधान आलेखों का समापन ‘क्या हमारे देश में ऐसे पुस्तकालय नहीं हो सकते’,  ‘अगर भारत के अखबार भी ऐसा करें तो...’ और  ‘भारत में मुझे ऐसा अनुभव हो इसके लिए कितने साल प्रतीक्षा करनी पड़ेगी’ जैसी पंक्तियों से होता है।

किताब में एक सम्पूर्ण आलेख ‘यात्रा के बाद’  ऐसा भी है, जो अमरीकी व्यवस्था और नागरिक समाज के परिपेक्ष्य में भारतीय व्यवस्था और नागरिक जीवन की समीक्षा करता है। लेखक अमरीकी नागरिक जीवन और व्यवस्था के अपने सकारात्मक अनुभव के बाद यह निष्कर्ष निकालता है कि हमारी पहली और सर्वोपरि समस्या जनाधिक्य है। उसके अनुसार ‘वहाँ सब कुछ सुव्यवस्थित रूप से संचालित होता है - यह इसलिए सम्भव है, क्योंकि वहाँ जनसंख्या कम है।’(पृ.129)  फिर लेखक यह भी अनुभव करता है कि हमारी मुश्किलें व्यवस्थागत भी हैं। उसके अनुसार हमारे यहाँ सभी दायित्व तो सरकार ने ओढ़ लिए हैं लेकिन वह जरूरी संसाधन उपलब्ध कराने के मामले में विफल रही है। लेखक यह भी देखता है कि हमारे यहाँ कोई कार्य संस्कृति नहीं है, जबकि आम अमरीकियों में यह भरपूर है। लेखक के ही शब्दों में ‘मुझे तो वहाँ हर आदमी भरपूर निष्ठा से काम करता मिला। लगा कि वह जो भी काम कर रहा है, मन से कर रहा है, उसका आनन्द ले रहा है।’(पृ.133)  इसी तरह लेखक अमरीकी नागरिक समुदाय में व्यवस्था के प्रति सम्मान भाव का भी उल्लेख करता है, जो उसके अनुसार भारतीयों में नहीं है। ईमानदारी और नैतिकता भी, उसके हिसाब से, भारतीयों की तुलना में अमरीकियों में बहुत ज्यादा है। इसी आलेख में लेखक बहुत संक्षेप में अमरीकी नागरिक समाज की कुछ नकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर भी संकेत करता है। उसके अनुसार अमरीकी घोर व्यक्तिवादी होने के साथ पारस्परिक व्यवहार के मामले में एकदम ठण्डे हैं। यहीं पहली बार लेखक यह भी महसूस करता है कि यह पूंजीवादी समाज है और यहाँ हर आदमी आपाधापी में फँसा नज़र आता है। उसी के शब्दों में ‘यहाँ हर आदमी पैसा कमाने की धुन में, और ज़्यादा अमीर हो जाने की धुन में कुछ इस तरह डूबा हुआ है कि उसे अपने आसपास का भी कोई भान नहीं।’(पृ.135)   यहीं लेखक अमरीकी उपभोक्ता उत्पादों में वैविध्य की कमी और एक रूपी मास प्रोडक्शन से होने वाली ऊब की भी शिकायत करता है।

ऐसे समय में जब हिन्दी की साहित्यिक किताबों में पठनीयता का घोर अकाल है, यह किताब असाधारण रूप से पठनीय है। पाठक यहाँ अनुपस्थित नहीं है, लेखक आद्यंत उसके साथ सम्वाद की स्थिति में रहा है। निजी पारिवारिक सम्बंध और उनकी ऊष्मा ने इस किताब को नीरस होने से बचाया है। लेखक का यात्रा से संस्मरण में और संस्मरण से समीक्षा में आवागमन भी पाठक को ऊबने नहीं देता। सबसे अहम  बात यह है कि यहाँ कोई भाषाई अमूर्तन और जार्गन नहीं है - लेखक सीधी बात को सरल ढंग से कहता चलता है।

माहौल भूमण्डलीकरण का है। दूरियाँ मिट रही हैं, सभ्यतों और संस्कृतियाँ पास आ रही हैं और इनमें ज़बर्दस्त अंतर्क्रिया और उठापटक चल रही है। यह किताब इसी अंतर्क्रिया और उठापटक का जीवंत दस्तावेज़ है। इस किताब की खास बात यह है कि इसमें लेखकीय ईमानदारी का स्तर बहुत ऊँचा है। यह इस हद तक है कि लेखक अपने वर्षों के पढ़े-सुने पर अपने देखे, समझे और परखे को भारी पड़ने देता है।

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