साहित्य में मानव वेदना की चुनौतियाँ 

01-06-2020

साहित्य में मानव वेदना की चुनौतियाँ 

मयंक (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

प्रासंगिकता की दृष्टि से अगर इस जगत-जहान को परखा जाए तो इसके आभ्यंतर होंगे- वेदना, दुःख, कष्ट। यह एक चिर-स्थायी तत्व है, जो पूरे लोक में व्याप्त है। यह पूरा विश्व वेदना के चुम्बकीय आकर्षण से आबद्ध है। तथापि मनुष्य इसी वेदना में तपकर मनुष्त्व की प्राप्ति करता है। सृष्टि की सर्जना के मूल में वेदना ही तो है! प्रकृति के हर कण में वेदना अभिव्याप्त है। जहाँ भी अपनी सूक्ष्म दृष्टि को फिराएँ, वहीं वेदना से साक्षात्कार होगा।

भौरें कलियों का रस चूसते हैं, कलि वेदना से आपूरित हो उठती है। किन्तु उस पीड़ा से ही कलियों में ही एक स्फूर्ति और उर्जा का संचार होता है। इसी दर्द से टकराकर कलियाँ आने वाले वर्षों में एक सुन्दर फूल में परिणत हो उठती हैं। एक ऐसा मनभावन फूल जिसे देख आँखें तृप्त हो जाती हैं, आत्मा आनंदित हो उठती है और हमारे भीतर स्वतः ही माधुर्य रस का संचार होने लगता है। इस तरह प्रकृति के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करता यह फूल न जाने कितने ही लोगों, कवियों और साहित्यकारों के रूपक एवं उपमाओं में शुमार हो उठता है। 

हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की एक बड़ी प्रसिद्ध उक्ति है- “आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है,...”1 शैली विज्ञान की दृष्टि से उपर्युक्त कथन को देखा जाए तो इसे दो खंड में विभाजित कर देख सकते हैं। पहला आत्मा की मुक्तावस्था, तत्पश्चात जिस फलागम की प्राप्ति होती है, वह ज्ञानदशा। आत्मा की मुक्तावस्था क्या है? आत्मा की मुक्ति कब होती है? जब व्यक्ति कई प्रतिकूल स्थितियों से संघर्ष कर अग्रसर होता है, आतंरिक शक्तियों का जब उसे अहसास होता है; यही अवस्था आत्मा की मुक्तावस्था है। इस शक्ति को धारण कर जब वह कुछ ऐसा विस्मयकारी और अकल्पनीय कार्य कर जाता है, जो ज्ञान का परिचायक होता है, वह ज्ञान की स्थिति ज्ञानदशा कहलाती है। इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत प्रतिकूलता से होती है, जहाँ वेदना ही तो है! निःसंदेह वेदना जीवन के भौतिक तत्वों को चुनौती देती हुई मुक्ति की राह सशक्त करती है। 

विश्व में जितने भी बड़े कार्य, आविष्कार, काव्य-सर्जन हुए हैं, सभी के मूल में वेदना सन्निहित है।

भारतीय साहित्य के आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण महाकाव्य का प्रणयन तो किया किन्तु इसके पीछे कौन सी प्रेरणा छिपी थी? रामायण की रचना से पूर्व वाल्मीकि क्या थे?

सर्वज्ञात है कि वाल्मीकि रामायण की रचना करने से पूर्व एक दुराचारी थे, जो जंगल से गुज़रने वाले राहगीरों को लूटते थे, किन्तु एक दिन उसी जंगल में शिकारी द्वारा एक क्रोंच पक्षी की हत्या से उनका हृदय वेदना से भर उठा और उनके मुख से सहसा ही यह श्लोक निःसृत हुआ- “मा निषाद प्रतिष्ठामं त्वमगमः शास्वती समा। यत्क्रोंचमिथुनादेकमवधिः काममोहितम्।।”2 इसके बाद जो हुआ वह हमारे भारत के अमूल्य धरोहर के रूप में विख्यात है। जी हाँ! रामायण की रचना का आतंरिक एवं वाह्य संघर्ष क्रोंच वध है, इसलिए सुमित्रानंदन पन्त कहते है- 

“वियोगी होगा पहला कवि 
आह से उपजा होगा ज्ञान”3

विश्व में जितने भी प्रसिद्ध साहित्य हैं, जितने भी सफल व्यक्ति हैं, सभी वेदना से गुज़रकर, उसमें तपकर आगे बढ़े हैं।

हिंदी साहित्य के आदिकाल से ले कर आधुनिक काल तक जितने भी क्लासिकल साहित्य रचे गए हैं, सभी वेदना- सम्बद्ध हैं। आदिकाल के स्वयंभू का ‘पउमचरिउ’ हो या फिर मध्यकाल के जायसी का ‘पद्मावत’। तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’हो या फिर रीतिकाल के घनानन्द का ‘सुजान-चरित’। द्विवेदी युग का साकेत हो या फिर छायावादी युग का ‘आँसू’, ‘कामायनी’ और ‘सरोज-स्मृति’।

‘पउमचरिउ’ जैन साहित्य की रामकथा का आख्यान प्रस्तुत करते हुए राम के चरित्र को उभारता है, किन्तु इसका सबसे अनुभूतिपरक पक्ष है सीता का दुःख। पउमचरिउ इस रूप में भी उल्लेखनीय है कि सीता की वेदना को मानवीय धरातल पर लाने का सर्वप्रथम प्रयास स्वयंभू ने ही किया। पद्मावत यूँ तो ऐतिहासिकता और कल्पना के सेतु का अद्भुत संगम है, किन्तु इसका सबसे मार्मिक और हृदयस्पर्शी पक्ष ‘नागमती का वियोग-खंड’ है। इसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है- “नागमती का विरह वर्णन भारतीय साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है।”4

ध्यातव्य हो कि जायसी एक व्यक्ति के रूप में बहुत ही साधारण एवं निर्मल थे, परन्तु रूप से कुरूप। इसी कारण उन्हें समाज से कई प्रकार की यातनाएँ झेलनी पड़ीं। इसी वेदनानुभूति के फलागम के रूप में ‘पद्मावत’ की सृष्टि हुई, जो हिंदी साहित्य की जलधि का बेशक़ीमती रत्न बनकर उभरा। जायसी की कुरूपता को देख कर जब शेरशाह उस पर हँसता है, तो जायसी कहते हैं- “मोहि का हंसेस, के हंसेसि कोहरहि है”।5 जायसी का यह कथन उनके समग्र साहित्य-चिंतन को रेखांकित करता है।

रामचरितमानस का सृजन एक संयोग मात्र नहीं था। इसके पीछे एक बहुत बड़ी शक्ति थी और वह शक्ति थी- तुलसीदास के जीवन में व्याप्त कष्ट और वेदना। संसार के द्वारा और पत्नी के द्वारा ठुकराया जाना ही मानस की सृष्टि में सहायक सिद्ध हुआ।

घनानन्द का पूरा साहित्य वेदना की महोदधि से ओत-प्रोत है। सुजान के विरह ने उस व्यक्तित्व को गहरी वेदना के रत्नाकर में डुबो दिया। फलस्वरूप घनानन्द ने उस समुद्र में गहरे पैठ ‘सुजान-चरित’ नामक रत्न को ढूँढ़ निकाला, जो रीतिकालीन साहित्य का रचना-कलश है। इन पंक्तियों में विरहाग्नि की वेदना पर ग़ौर फ़रमाइए- “लिखी राख्यो चित्र यों प्रबाहरुपी नैननि पै लही न परत गति उलट अनेरे की।”6

‘साकेत’ महाकाव्य तो उर्मिला की वेदना का जीता-जागता दस्तावेज़ है। यह रचना उर्मिला की वेदना से ऊपर उठकर उन तमाम लोगों की वेदना से सम्बद्ध हुई, जो पहली बार स्त्री-मन की उस स्थिति को महसूस कर रहे थे, जिस स्थिति से उर्मिला के जीवन पर वेदना की छाया पड़ी। यह पहला ऐसा आधुनिक काल का महाकाव्य है, जिसमें स्त्रियों की पीड़ा पूरे लोक में व्याप्त हो गयी है। यह पीड़ा व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होती है और भारतीय साहित्य में नारी वेदना का प्रबलतम रूप द्रष्टव्य होता है- “हर्ष डूबा हो रोदन में/ यही आता है इस मन में।”7

‘आँसू’ काव्य का लक्षित रस उसके नाम से ही परिपूर्ण हो जाता है। प्रसाद के आँसू से इस तथ्य को अग्रगति मिलती है कि वेदना से नयी सृष्टि होती है। इसकी उर्जा इतनी प्रबल होती है कि व्यक्ति की अन्तःशक्ति का स्वतः ही निर्माण होने लगता है। इसलिए आँसू में प्रसाद उद्घोषणा करते हैं- “सबका निचोड़ ले कर तुम/ सुख के सूखे जीवन में/ बरसो प्रभात हिमकण सा/ आँसू इस विश्व-सदन में।”8

कामायनी में वेदना का नया स्वरूप देखने को मिलता है, जो श्रद्धा के रूप में रूपायित हुआ है। इस तत्व को समझने के लिए कामायनी की कथा को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। एक जलप्रलय के बाद मनु की स्थिति और दूसरा मनु का इड़ा पर अधिकार करने के प्रयत्न में प्रजा के साथ भिड़ंत वाली स्थिति। जलप्रलय के पश्चात मनु दुःख और संताप से आप्लावित रहता है। श्रद्धा के माध्यम से मनु में नव-सजीवता उपन्न होती है और मनु सृष्टि को सुन्दर बनाने का संकल्प लेता है। यहाँ वेदना की शक्ति से उद्भूत मनु में कुछ करने का जज़्बा पैदा होता है, जिसमें श्रद्धा का भी योग होता है। इड़ा पर अधिकार जमाते हुए जब मनु प्रजा से लड़ाई करता है और परास्त हो जाता है, तब वहाँ मनु को अपनी करनी का पश्चाताप होता है। वहाँ फिर वेदना की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है, साथ में श्रद्धा का साथ भी होता है। परिणाम यह होता है कि मनु इस बार दृढ-संकल्प के साथ, नयी उर्जा से लैस हो कर, कैलाश-मानसरोवर की ओर बढ़ जाता है, जहाँ आनंद ही आनंद है। यहाँ वेदना की अंतिम परिणति आनंद दर्शाया गया है, जो दार्शनिक धरातल पर सत्य को परिभाषित करता है। कामायनी की अंतिम पंक्तियाँ वेदना और आनन्द ही तो द्योतित करती है, जहाँ दोनों एकाकार हो चुके हैं- “समरस थे जड़ या चेतन/ सुन्दर साकार बना था/ चेतनता एक विलसती/आनंद अखंड घना था।”9

‘सरोज-स्मृति’ वेदना से प्रसूत हिंदी काव्यधारा का एक प्रांजल सितारा है, जो भारतीय साहित्य के इतिहास में पुत्री-वियोग पर लिखा गया पहला शोक-काव्य है। निराला ने इस काव्य के माध्यम से जो मार्मिक अभिव्यक्ति की है, वह अपने आप में ‘निराला’ है। किन्तु इस शोक गीत का अक्ष (axis) इन पंक्तियों में समाहित है, जो जीवन का सार है- “दुःख ही जीवन की कथा रही/ क्या कहूँ आज जो नहीं कही!”10 ये पंक्तियाँ वेदना से आपूरित हो जीवन को नयी गति देने के लिए संकल्पबद्ध हैं। निराशा, वेदना, कष्ट, यंत्रणा- सभी इस जीवन के शाश्वत सत्य हैं और यह भी सत्य है कि इन्ही तत्वों के स्पर्श से जीवन का नया मार्ग प्रशस्त होता है। वह जीवन जिसमें पहले से अधिक आत्मविश्वास, सूक्ष्म दृष्टि का उन्मीलन और नव-संकल्प समाये होते हैं। 

वाल्मीकि, कालीदास से ले कर जायसी, सूर, तुलसी आदि महाकवियों तक सबने इस दशा का सन्निवेश विप्रलंभ के रूप में किया है, जिसका मुख्य स्रोत वेदना है। वाल्मीकि के राम सीता हरण होने पर वन-वन पूछते फिरते हैं- “हे कदम्ब! तुम्हारे फूलों से अधिक प्रतीति रखने वाली मेरी प्रिय को यदि जानते हो तो बताओ। हे! बिल्बवृक्ष! यदि तुमने उस पीतवस्त्रधारिणी को देखा हो तो बताओ। हे मृग! उस मृगनयनी को तुम जानते हो?”11

इसी प्रकार तुलसी के राम भी वन के पशु-पक्षियों से पूछते हैं- “हे खग, मृग, हे मधुकर स्रेनी/ तुम देखी सीता मृगनयनी।”12 कालीदस का यक्ष भी चेतनाचेतन भेद इसी दशा के ही भीतर भूला है।

पाश्चात्य साहित्य में भी वेदना की सत्ता मुखर रूप में गवाही देती है। अरस्तु ने काव्य में त्रासदी को प्रमुख माना है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह साफ़-साफ़ परिलक्षित होता है कि त्रासदी से ही विरेचन द्वारा व्यक्ति का हृदय परिष्कृत होता है और उसमें नयी उर्जा और शक्ति का संचरण होता है। पाश्चात्य कवि शेली की युगों से प्रसिद्ध पंक्ति दे देखिए –“ Our sweetest songs are those that tell of saddest thought”13 यानी कि सबसे मधुर गीत वे होते हैं, जो सबसे दुखद ख़याल बयां करते हैं। गीतों की श्रेणी में शेली ने शोकगीत को शीर्षस्थ स्थान प्रदान किया है। क्यों? क्योंकि शोकगीत उस नोस्टेलजिया से जुड़ा होता है, जो अतीत के बादल में छुपा होता है। उसे स्मरण कर व्यक्ति में न जाने कैसी उच्छ्वास पैदा होती है जो कि हमारे चैतन्य को बड़े सुसंगत तरीक़े से प्रभावित करती है। आज के दौर से एक छोटा सा उदाहरण पेश करना चाहूँगा। हाल ही में बॉलीवुड के लब्धप्रतिष्ठ गायक अरिजीत सिंह के गानों पर एक सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण यह था कि अरिजीत सिंह का कौन सा गाना सबसे लोकप्रिय है। ‘चन्ना मेरेया’ गाने को सबसे अधिक सहमति मिली। क्या यह मात्र एक सुखद सुयोग है कि इतने गानों में से ‘चन्ना मेरेया’ (शोक-गीत) को सबसे अधिक मत मिले? नहीं! बिलकुल नहीं! इंसान की मासिकता अतीत में भ्रमण करने की आदि होती है। वह माज़ी (बीता हुआ कल) में उन सुखद स्मृतिओं को हमेशा क़ैद कर अवचेतन मष्तिष्क के किसी एक कोने में सँजो कर रखना चाहता है। वेदना इसी शक्ति को प्रबल से प्रबलतम बनाने का नाम है।

भारत की संस्कृति में वेदना का स्वर दिग्दिगंत गुंजायमान है। यहाँ का इतिहास, इसकी परम्परा वेदना से सम्बद्ध हो कर इसे गौरवशाली बनाती है। पौराणिक मिथकों का सहारा लें तो समुद्र-मंथन से जब विष निःसृत हुआ था तो सारा जगत घोर शोक और वेदना से घिर गया था। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे, परन्तु स्वयं शिव ने आकर विषपान किया और नीलकंठ कहलाए। तमाम मिथकों पर दृष्टिपात किया जाए तो यह ज्ञात होता है कि त्रास, दुःख और वेदना के आलोक में ही एक महाशक्ति का आविर्भाव होता है। यह शक्ति मनुष्य को अन्यतम बल और साहस देता है, जिसके द्वारा वह विकट से विकट स्थिति में भी अभूतपूर्व कार्य को अंजाम देने में सफल होता है।

परन्तु वेदना के प्रादुर्भाव होने से ले कर उसकी निहित क्षमता को जानने-समझने के बीच हमें कई प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है। इसका विश्लेषण सहज ही किया जा सकता है। इसे हम संवाद शैली से समझने की कोशिश करते हैं- 

 • जब दुःख, दर्द, वेदना होती है तो पहले कैसा महसूस होता है? 
    – टूटन और विरक्ति का भाव जागृत होता है।
• अच्छा! फिर क्या होता है?
    – फिर आँखों से अश्रु की अजस्र धारा तीव्र गति से उमड़ पड़ती है।
• उसके बाद?
    – फिर धीरे-धीरे उस घटना-परिघटना को भुलाने की कोशिश की जाती है, लेकिन यह कोशिश पहले   प्रयास में असफल होती है
• फिर इससे उबरने में समय लगता है?
    – हाँ 
• तब क्या होता है?
    – उबर जाने के बाद नए जोश और संकल्प के साथ जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। सोच और विचार में मज़बूती आती है। हम अन्दर से पहले की अपेक्षा और परिपक्कव और मज़बूत बनते हैं। जीवन को देखने और समझने की एक गहरी दृष्टि उभरती है। दर्शन की एक किरण प्रस्फुटित होती है, जो जीवन में आनेवाली सभी बाधाओं और दुखों को समझने और उसे परे धकेलने में सहायक सिद्ध होती है। व्यक्ति आत्म-विश्लेषण कर अपने अंदर समाहित सारी उर्जा के स्रोतों को एकत्र कर सामर्थ्यवान बन उठता है और कुछ ऐसा कर जाता है जो सचमुच अकल्पनीय और असाधारण-सा होता है। 

पाश्चात्य साहित्यकारों के साहित्य में भी वेदना की सहभागिता अक्षुण्ण रूप में विद्यमान है। शेक्सपीयर पाश्चात्य साहित्य के उज्ज्वल नभ का दैदीप्य ध्रुवतारा है। इनका लेखन श्रेष्ठ साहित्य का प्रतिमान है। इनके साहित्य की अक्ष रेखा वेदना से आबद्ध है। 

ध्यातव्य हो कि शेक्सपीयर का जन १५६४ ई. में हुआ था और १५८७ ई. में इन्हें लंदन जाना पड़ा। इसका कारण था कि किसी ज़मींदार के उद्यान से हिरन की चोरी में उन्हें ग़लत तरीक़े से फंसाया गया। उसी वर्ष इनके पिता की कंपनी नीलाम हो गयी और पूरा परिवार वेदना की नदी में डूबता चला गया। इसी दुःख से उर्जा संगृहीत कर शेक्सपीयर ने १५८९ से १६१३ ई. के बीच ऐसी रचनाओं का प्रणयन किया, जो विश्व की अमूल्य निधि में समाहित है। इस अवधि में ‘हैमलेट’ और ‘आथेलो’, ‘किंगलीयर’, ‘जुलियस सीज़र’ और ‘मैकबेथ’ जैसी क्लासिक कृतियों का सृजन हुआ। शेक्सपीयर के वेदना संपृक्तता ने इन्हें असल में ‘शेक्सपीयर’ बनाया।

थामस एल्वा एडीसन एक ऐसा नाम है जो वास्तव में ‘तिमिर-नाशक’ है। विद्युत् बल्ब का अविष्कार कर इन्होंने अखिल विश्व को प्रकाशित किया। बाल्यावस्था में इन्होंने भी आम बच्चों की तरह स्कूल में पढ़ाई की, किन्तु कुछ महीनों बाद ही इन्हें स्कूल से बर्ख़ास्त कर दिया गया। कारण यह था कि स्कूल के अध्यापक को ये मंद-बुद्धि प्रतीत हुए। बाद में इनकी माँ ने ख़ुद से इन्हें पढ़ाना शुरू किया। यहाँ वेदना का मनोवैज्ञानिक पक्ष उभरकर सामने आता है।

यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि बचपन में हुई घटनाएँ मानव-मष्तिष्क के उस भाग में अवस्थित हो जाती हैं, जिसे हम अवचेतन कहते हैं। इसी अवचेतन मन से मनुष्य की अधिकांश क्रियाएँ अनुप्रेरित होती है। निश्चय ही थामस एडीसन की स्कूल वाली घटना ने इनके दिलो-दिमाग़ पर एक गहरी छाप छोड़ी होगी। बच्चों का मन सबसे अधिक क्रियाशील और संवेदनशील होता है। उस वाक़ये के बाद उन्हें काफ़ी कष्ट और पीड़ा हुई। वेदना के इस चक्रव्यूह को तोड़ कर अवचेतन की शक्ति से अनुप्राणित हो कर एडिसन ने वह कर दिखाया, जो अकल्पनीयता की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाता है। इस चमत्कृत अविष्कार के पीछे वेदना की सहकारिता ही है। 

वेदना के इस सुनहरे पक्ष के समानांतर एक और पक्ष है, जिसे हिटलर जैसा पैशाचिक व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। प्रकृति के प्रत्येक सजीव और निर्जीव वस्तुओं में आकर्षण-विकर्षण के तत्व विद्यमान हैं। वेदना भी आकर्षण और विकर्षण- दोनों प्रकार की शक्तियों का निष्पादन करती है। व्यक्ति किस प्रकार इन शक्तियों से उर्जस्वित होता है, वह उसके उस क्षण के विवेक, बुद्धि और मानसिकता पर निर्भर करता है। यहाँ हमें यह तय करना होता है कि हमें किस ओर जाना है, बिल्कुल मुक्तिबोध के उद्घोष की तरह- “तय करो किस ओर हो तुम”।14

इस प्रकार वेदना हमारी अन्तर्निहित क्षमताओं को मुखर करती है। वह हमारे ज्ञान-चक्षु के बंद कपाट को खोलती है, जीवन की गहरी परतों से हमें जोड़ती है, नवीन अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। यह हमें विचारशील, चिंतनशील और मननशील बनाती है। अध्यात्म में, योग में, साहित्य में, समाज में और जीवन के सभी क्षेत्रों में वेदना एक अनिवार्य घटक है, जो मनुष्य की आभ्यंतर क्षमताओं को जागृत करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है।
 
आज भूमंडलीकरण के युग में जब बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद और चौथे खम्भे का छद्मवाद वर्चस्व की स्थिति को लाँघ चुका है, तब ज़रूरत है उस दुःख, दर्द, अकेलेपन और वेदना से संघर्ष करने की। विश्व में उन सभी व्यक्तियों के पार्श्व में सन्निहित वेदना की प्रेरक शक्तियों को जानने समझने की ज़रूरत है, जिनके कारण वे समाज में महान हुए। निःसंदेह वेदना की अवस्थिति हर काल और हर युग में अपरिहार्य है।

संदर्भ ग्रन्थ –

1. सिंह,नामवर और त्रिपाठी,आशीष(सम्पादक), (2016), रामचंद्र शुक्ल रचनावली(खंड 2), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-196
2. hi.wikipedia.org/wiki/वाल्मीकि
3.अमरनाथ,(2018), हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृष्ठ-152
4.सिंह,नामवर और त्रिपाठी आशीष(संपादक),(2016), रामचंद्र शुक्ल रचनावली,(खंड 3), राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ-351
5. शुक्ल,रामचंद्र, (संवत २०६७), हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पृष्ठ- 55
6.मिश्र, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद,(2014) हिंदी साहित्य का अतीत, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-328
7.kavitakosh.org/kk/साकेत_/_मैथिलीशरण_गुप्त
8.प्रेमशंकर,(1996), भारतीय स्वछंदतावाद और छायावाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-160
9.सिंह, केदारनाथ,(1996),कल्पना और छायावाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-16
10.प्रेमशंकर, (2002), हिंदी स्वछंदतावादी काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 174
11.सिंह,नामवर और त्रिपाठी,आशीष(सम्पादक), (2016), रामचंद्र शुक्ल रचनावली(खंड 2), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-352
12.वही, पृष्ठ- 352
13.Longxi, Zhang, (2005), Allegoresis : Reading canonical literature East and West, cornell university press, page-42
14.देवताले चंद्रकांत , (2003), मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक, राधाकृष्ण  प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-40

आलेख लेखन –
मयंक
शोधार्थी,
एम.फ़िल(हिंदी)- महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (2018)
परास्नातक(हिंदी)- प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय(स्वर्ण पदक), कोलकाता(2016)
पता-
101, कुसुम विला अपार्टमेंट,
महेश टावर के बगल में,
बलदेव भवन रोड, पुनाईचक,
पटना- 800023
मोब- 8521858613, 9883429728

101, kusum vila apartment,
beside mahesh tower,
baldeo bhawan road,
punaichak, patna – 800023
mob- 8521858613, 9883429728

 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें