संकट साहित्य पर
है बड़ा ही घनघोर
धूर्त बना प्रकाशक
लेखक बना है चोर
भूखे हिंदी के सेवक
रचनाएँ हैं प्यासी
जब से बनी है हिंदी
धनवानों की दासी
नक़ल चतुराई से
कर रहा क़लमकार
हतप्रभ और मौन
है सच्चा सृजनकार
प्रकाशन होता पैसों से
मिलता छद्म सम्मान
लेखक ही होते पाठक
करते मिथ्याभिमान