सही ग़लत की दुविधा
अवधेश कुमार मिश्र 'रजत'सही ग़लत की दुविधा में
इक शब्द कभी न बोल सके।
रूठ न जायें कहीं वो हमसे,
लब अपने कभी न खोल सके॥
उनके चेहरे पर मुस्कान रहे,
आँख भले रहे भरी हमारी।
हम उनको ही सुनते रहे,
हर बात रह गई धरी हमारी।
वो छाये रोम रोम पर मेरे,
हम छू उनके न कपोल सके॥
देख उन्हें हम सब कुछ भूले,
सुध ख़ुद की भी रही न हमें।
बातों में उनकी अजब कशिश,
ख़ुद से ही चुरा लें वो न हमें।
लूट गए दिल वो हमारा,
हम बेसुध थे ना टटोल सके॥
वो बदलें रंग संग मौसम के,
हम तो पतझड़ से एक समान।
हम ज़मीन को दुनिया समझें,
वो बाँध रहे कर में आसमान।
वो तोड़ रहे जग के हर बंधन,
हम खिड़की एक न खोल सके॥
सर्दी की वो गर्म धूप सी,
तन मन को हर्षित कर दें।
बनकर गर्मी में पुरवाई वो,
सुखे बाग़ों को पुलकित कर दें।
उनकी अदाओं को तो रजत,
शब्दों में हम न तोल सके॥