गुजराती कहानी का हिन्दी अनुवाद
मूल लेखक : गोरधन भेसानिया
अनुवादक : डॉ. रजनीकान्त शाह

 

आकाश में घनघोर बादल घिरे हुए थे। सूरज नज़र नहीं आ रहा था परंतु दिन के अस्तित्व का अहसास कराने वाला प्रकाश बिखेर रहा था और साथ ही साथ कान फट जाए ऐसी मेघगर्जना कुछ उलट-फेर करने का संकेत दे रही थी। अभी बारिश होगी ऐसा तो शाम से ही लग रहा था पर कथनी को सही ठहराना हो ऐसे "गरजने वाले मेघ बरस नहीं रहे थे।"

"यह बारिश तो देखो!" मालु ने आकाश की ओर देखकर कहा। "चारोंओर पानी ही पानी हो जाएगा, ऐसा लगता तो है पर जमकर बरसता नहीं है।"

"लगता है कि बिना बरसे रहेगा नहीं। हम सावधानीपूर्वक परती ज़मीन में बिनौले बो दें ताकि बरसात की झड़ी आ जाए तो उगने लगें। पता नहीं, इस साल भी ये खेत ऐसे ही पड़े रहें," रुखड़ ने जवाब दिया और पछांही और दक्षिण दिशा में अत्यंत गाढ़े बादल देखता रहा।

"यदि बारिश नहीं हुई तो दो प्रहर तक इन खेतों में बुआई देंगे," मालु ने नज़र ऊपर उठाकर कहा, "लगता तो नहीं कि दोपहर भी होने दे।"

"तुम बार-बार ऐसे सांड की भाँति गरदन ऊपर उठाए वक्त बरबाद मत करो। देखो बच्चे चास में बुआई करके उस मेड़ तक पहुँचने वाले हैं।"

मालु और रुखड़ मुश्किल से सामने वाले मेड़ पर पहुँचे ही थे कि शेत्रुंजी में बाढ़ आई। बाढ़ की गर्जना सुनाई दी। मालु और रुखड़ तो हैरत में पड़ गए। बच्चे भी बुआई भूल कर नदी की बाढ़ को देखते रहे।

"अभी जब हम यहाँ आए तब शेत्रुंजी में कंकड़ पत्थर दिखते थे और अब पता नहीं बाढ़ कहाँ से आ गई!" मालु बोले बिना नहीं रह पायी।

"यह तो चौमासा है और शेत्रुंजी तो गीर से निकलती है। उपरांत यहाँ से ऊँचाई पर बगसरा की ओर से आ रही सातलड़ी भी मिलती है। धारी और बगसरा दोनों दिशाओं में बारिश होगी, इस तरफ देख, वहाँ आकाश काजल सा काला नजर आता है। बिजली भी दम नहीं लेती।"

रुखड़ की बात सुनकर मालु धारी और बगसरा की दिशा में देखती रही। दिन दहाड़े भी वहाँ अंधेरा दिखाई देता था। उस अंधेरे को चीरने के लिए बिजली आकाश में मानो ऊछल रही थी और बिजली को मानो शाबाशी दे रहा हो ऐसे प्रहर्षित करने वाला गर्जन-तर्जन सब को उस दिशा में देखने के लिए मजबूर कर देता था। शेत्रुंजी नदी में यदि पानी न हो तब भी रुखड़ के खेत से दिखाई देती थी। बाढ़ में मटमैला जल आया तब मानों खेत के पड़ोस का दूसरा खेत चला जा रहा हो ऐसा लगने लगा। पछांही दिशा मानो नज़दीक आने लगी हो ऐसे बादल और ज़्यादा गहराए और बारिश की हल्की सी बौछारें शुरू हुईं। मालु के मुख पर चिंता सवार हो गई पर वह कुछ कहे उससे पहले रुखड़ ने कहा, "चलो, मैं गाड़ी जोत रहा हूँ। सब लोग गाड़ी में बैठो। बारिश बढ़ने लगी है।" खेतोंवाला रास्ता छोड़ मुश्किल से गाड़ी रोड पर आई होगी कि मानो समुंदर घहरा रहा हो

ऐसे शेत्रुंजी में पानी की ऊँची लहरें ऊछलने लगीं जैसे शेत्रुंजी तटबंध छोड़-तोड़ कर सामने आ रही हो, ऐसा लगने लगा। रुखड़ ने पीछे मुड़कर देखा और मन ही मन बोल उठा, "अब जाऊँ तो कहाँ?" मानो पानी रूपी कगार वेगपूर्वक आगे बढ़ रही थी। रुखड़ का दिमाग सन्न रह गया था। काल अपना विकराल मुँह फाड़े वेगपूर्वक आगे बढ़ रहा हो ऐसा लगा। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? और कुछ किया जा सके ऐसी स्थिति भी नहीं रही थी। अति वेगपूर्वक आये पानी के कगार ने तिनके की तरह गाड़ी को उठाया और उलट दिया। रुखड़ की नज़रों के सामने गाड़ी पर सवार उसके बच्चे और घर वाली पानी में बह गए। बैल भी गाड़ी से जुते हुए होने के कारण तैर नहीं पाये। वह ख़ुद तैराक था इसलिए वह पानी के तेज़ बहाव में खींचा जाने लगा पर डूबा नहीं। खींचे जाने की अवस्था में पेड़ की एक डाल उसकी पकड़ में आ गई। डाल पकड़ लेने के बाद उसने उस डाल से अपने पैर की अंटी मारकर काल से टक्कर लेने की हिम्मत इकट्ठा कर ली। तैरने की मेहनत से छुटकारा मिलने पर वह चारों ओर देखने लगा। जहाँ तक नज़र गई वहाँ तक प्रचंड वेग से बह रहे पानी को वह देखता रहा। पानी में काग़ज़ की नाव तैरे ऐसे भारी-भरकम पेड़ खींचे चले जा रहे थे। गाय, भैंस और बैल निस्सहाय बहे जा रहे थे। नीलगाय, सूअर और जंगली पशु भी जी बचाने के लिए निष्फल प्रयास कर रहे थे। रुखड़ की बगल में ही दो साँप डाली से लिपटे हुए थे लेकिन सभी अपना स्वभाव भूल कर कैसे बचा जाये, इसी चिंता में थे। पानी के साथ बहे चले आते झाड़-झंखाड़ रुखड़ से आ टकराते थे पर उसके काँटे क्यों गड़ नही रहे थे - बात का रुखड़ को बड़ा ताज्जुब था। काँटों में उलझने के कारण रुखड़ के कपड़े फटने लगे थे और एक के बाद एक कपड़ा शरीर का साथ छोड़कर काँटे के साथ बहने लगा। अब इस दुनिया में कुछ भी बचा नहीं है। महाकाल के प्रलय में सब कुछ ख़त्म हो गया है। ख़ुद ज़िंदा है या उसकी आत्मा यह सब देख रही है – सब कुछ समझ से परे हो गया हो ऐसे रुखड़ धीरे-धीरे चेतना गँवाने लगा। निरंतर पानी की मार और ठंडी पवन से, रुखड़ का शरीर अकड़ गया था पर उसने एक डाली के साथ मारी हुई पैर की अंटी और हाथ से पकड़ी हुई डाली को नहीं छोड़ा, मानो लाख खोलने पर भी नहीं खुले ऐसी यह जकड़ हो गई।

रुखड़ जब होश में आया तब उसके आसपास लोग खड़े थे। बगल में ही उसकी ठंडी देह को गरमाने के लिए अलाव जलाया था। उसमें लिहाफ़ तपा-तपाकर बारी बारी से उसे ओढ़ाकर बदलते रहते थे। उसने जब आँख खोली तो सब के चेहरे पर मुस्कान की एक रेखा फैल गई। रुखड़ ने याद करने की बहुत कोशिश की पर वह उनमें से किसी को जानता नहीं था। कुछ देर बाद उस लोकसमूह से और लोग जुड़े। उनमें से किसी ने उसे देखकर कहा, "अरे! यह तो रुखड़ भगत है।" हालाँकि रुखड़ तो उसे भी जानता नहीं था। वह तो बस आँखें फाड़े सबको देखता रहा और बाद में उसने अपने होंठ फड़फड़ाए," पा...नी...!"

वह पानी पी रहा था तब उसे जानने वाले से किसी ने पूछा, "तुम इसे पहचानते हो?"

"और तो कोई पहचान नहीं है पर यह रुखड़ भगत भजन बहुत अच्छा गाता है। एक जगह पर मैंने उसे भजनवाणी में सुना था। वहाँ बात हो रही थी कि यह रुखड़भगत गावडका का बाशिंदा है। बस, मुझे इतना ही मालूम है।"

रुखड़ को भी अपनी पहचान मिली हो ऐसा लगा। उसने अपनी आँखें बंद कीं तो धीरे-धीरे सब कुछ उसकी नज़र के सामने आने लगा। पहाड़ के पत्थर भेद कर पानी का झरना फूटे ऐसे अखियों के झरोखे से आँसू बहने लगे।

"रोओ मत भगत! भाग्यवान हैं कि आप बच गए!" किसीने आश्वस्त किया। वह कुछ बोला नहीं पर मूक रुदन को वाणी मिली। वह उठ-बैठा और ऐसे ही वह ज़ोर-जोर से रोने लगा। लोग उसके ऐसे रुदन को सुनकर उसकी और अचंभे से देखने लगे। बुज़ुर्ग-जन आश्वस्त करने लगे।

"अब शांत हो जाइए भगत, भगवान का शुक्र मनाओ कि जान बच गई। अन्यथा बाढ़ के इस जल से कोई जीवित लौट सकता है भला! एक तो बारिश और ऊपर से तुफानी शीत बयार! उसमें भी आप के तन पर तो कसम खाने के लिए एक चींथड़ा तक नहीं था। यह तो आप हमारे गाँव के निकट एक पेड़ पर थे। इसलिए लोगों ने देखा अन्यथा अभी तो अमरेली जाने का रास्ता भी बंद है। शेत्रुंजी पर बड़ा पुल है, वह भी बह चुका है और नदी अभी भी किनारे तोड़कर बह रही है। दवाखाने तक जाना भी मुश्किल है।"

रुखड़ को आश्वस्त करने वाले भी थक-हार गये और वह भी रो-रोकर थका तब उसका रुदन सिसकियों में परिवर्तित हुआ और धीरे-धीरे उसका रोना ख़त्म हुआ तब उसके लिए खाना आया। साग-रोटी(टिक्कड़) और दूध देख कर उसकी आँखें पुन: भर आयीं। उसने थाली को हाथ जोड़े। सबने उसे समझाया कि "कुछ खा लो भगत! आप तो बच गए हैं फिर नासमझ की तरह आप क्यों रो रहे हो? वैसे भी अन्न का तिरस्कार तो करना ही नहीं चाहिए और फिर पेट को भाड़ा तो चुकाना ही पड़ता है। सामने आए अन्नदेवता का अनादर करेंगे तो अपशगुन होगा और ज्यादा परेशान होंगे।"

"अब इससे ज्यादा मैं क्या परेशान होने वाला था?" - रुखड़ को कहना तो था पर वह कह नहीं पाया। उसने ऐसे ही रोटी का छोटा सा टुकड़ा तोड़ा। दो कौर खाकर उसने पानी माँगा।

"थोड़ा सा दूध पी लीजिये भगत, जिससे कि शरीर में कुछ जाने से रात में आपको अच्छी सी नींद आ जाए। वैसे भी अब तो शाम ढल चुकी है। आपका गाँव भी यहाँ से खास दूर नहीं है लेकिन रास्ते बंद हैं। इसलिए अभी तो आप जा नहीं पाओगे। दूध पी लो और फिर सो जाओ।"

"किस खुशी में दूध पीऊँ?" पुन: रुखड़ रोने लगा पर इस बार उसे शांत नहीं करना पड़ा। कुछ देर बाद उसने ख़ुद पर क़ाबू पा लिया। उसने गाँव वालों की ओर देखकर कहा, "मैं लंबी दाढ़ी और लंबे बाल रखकर, गले में दो-तीन मालाएँ पहनूँ और भजन गाऊँ –इसलिए सारे लोग मुझे भगत कहते हैं पर आज पापों ने मुझे घेर ही लिया।"

"इसमें कौन पापी और कौन पुण्यवान भगत? धारी-बगसरा के माथे पर बादल फटा और कहर के रूप में इतना पानी बरसा कि शेत्रुंजी नदी के तटीय प्रदेश के सारे के सारे गाँव बह गए। लोगों के घर में खाने के लिए अनाज और पीने के लिए पानी नहीं है। इनमें क्या कोई पुण्यवान नहीं होगा? खोडियार डैम के दरवाज़े क्या खुले कि अपार जलराशि ने सब कुछ लील लिया।"

"खैर! ठीक है! कुदरत जब रूठ जाए तो सबको झेलना ही पड़ता है। वन में आग लगे तब सूखे के साथ हरा भी जलता ही है लेकिन मैं तो महापापी हूँ। यह उसी का फल है कि प्रभु ने मुझे दिखाया है। यह सब दिखाने के लिए ही प्रभु ने मुझे जिंदा रखा है।" बिना पूछे ही रुखड़ जेसल जाडेजा की भाँति अपने पाप कहने लगा, "मेरे पिता नितांत मजदूर थे। शेत्रुंजी के किनारे की बीघा-डेढ़ बीघा जमीन भूदान में मिली थी। इसलिए वे छोटे किसान हुए। उस जमीन में जो कुछ पक जाए उससे और शेष हम से जो हो सके मेहनत करके आराम से रोटी कमा लेते थे। मैंने कुछ सोचा-समझा और मैंने मजदूरी छोड़ कर लोकोपयोगी सामग्री की फेरी शुरू की। शहर से माल-समान लाकर गाँव में बेचता था, इसमें भी बरकत थी! पहले साइकिल बाद में मोटरसाइकिल और बाद में छोटा सा मेटाडोर लेकर समान बेचने के लिए निकल पड़ता था। मेटाडोर लेने के बाद तो हफ्ते-पंद्रह दिन में और कभी तो काफी दिन बीत जाने के बाद घर वापस लौटता था। ऐसे ही 2001 में मैं कच्छ के गाँवों में सामान बेचता था। 26 जनवरी के दिन भूकंप ने कच्छ को मटियामेट कर दिया। मैं तो मेटाडोर में था इसलिए एकदम सलामत था। ईश्वर का उपकार कुबूल करने के बजाय मैं इंसानियत भूला। मेरे लोभ ने मुझे इंसान से राक्षस बनाया। फेरी लगाने वाले को ही मालूम होता है कि किस गाँव में कौन सा घर पैसे वाला है। मुझ से जितना हो सका उतना पैसा तो चोरी कर ही लिया, साथ ही साथ लाशों पर रहे जेवर भी उतार लिए। यहाँ तक तो ठीक था, मैंने तो घायल और दु:ख से कराह रहे लोगों की सहायता करने के बदले उन्हें भी लूट लिया। मैंने काफी माल इकट्ठा कर घर की राह ली। उन्हीं पैसों से और जेवर बेचकर मेरे पासवाले एक खेत को खरीद लिया। अब मैं बड़ा तो नही फिर भी सुख-संपन्न किसान तो हो ही गया। आज वही खेत नदी में बह गया होगा और अब खेत हो तो भी क्या? मेरे बैल, गाड़ी, मेरी पत्नी और बच्चे तो मेरी नजरों के सामने पानी में बह गए। मैंने तो लाश पर से जेवर ही उतारे थे। उसके बदले में मैं तो जीते जी निर्वस्त्र दशा में पेड़ पर लटका रहा। ईश्वर की लाठी की मार गूढ़ है! लहू के पैसों से मैं जिसे खुश रख कर राजी होता था, वही मेरी घरवाली और बच्चे –कोई भी नहीं रहा, मात्र मैं ही बचा रहा जिससे कि मैं जीते जी नर्क भोगता रहूँ।"

मन को हल्का करके रुखड़ पुन: ख़ामोश हो गया। पश्चात्ताप के आँसू उसके भीतर से बहने लगे और वह अकेले ही बड़बड़ाता रहा, "आज दिन तक बहुत खुश रहा पर पंद्रहवें वर्ष मेरे कर्मों ने रोड़े अटकाए।"

दूसरे दिन सुबह मानो बारिश हुई ही न हो ऐसे आभ निरभ्र हो गया और ग्रीष्मकालीन आतप छँटा। रुखड़ अपने गाँव जाने के लिए तैयार हुआ पर गाँव वालों ने उसे अकेले जाने नहीं दिया। दो लोगों को उसके साथ भेज कर उसे उसके गाँव पहुँचाया। बड़ी उदासी के साथ रुखड़ अपने घर गया। उसे ऐसा लगता था कि घर ऊँचाई पर है ,इसलिए सलामत होगा पर उसकी यह आशा भी व्यर्थ रही। नदी की तेज़ लहरों की मार घर के पिछवाड़े के भाग में लगी होगी। अत: सारा घर सारी सामग्री सहित पानी में बह गया था पर आश्चर्य की बात तो यह थी कि दालान अकबंद था। वैसे यह दशा देखकर उसे तनिक भी दु:ख नहीं हुआ। उसके चेहरे पर एक विचित्र हास्य उभरा। दिन भर वह भूत की तरह भटकता रहा। राहत-सामग्री वाले खाना-पीना रख कर गए थे। उसने उस सामग्री से अपनी क्षुधा शांत की। इस प्रकार शाम तो हो गई पर रात मुश्किल लगने लगी। मानो वह खुद श्मशान बीच खड़ा हो ऐसा लगा, "हे ईश्वर!" लोहा भी पिघल जाए ऐसा नि:श्वास छोडकर थका हुआ हो ऐसे बारामदे में सुस्ताने लगा। ऊपर नज़र गई तो हलके से अंधेरे में भी खूँटी पर लटक रहा रामसागर दिखाई पड़ा— कोई तो साथ है! -ऐसा आश्वासन प्राप्त हुआ हो ऐसे वह खड़ा हुआ और किसी नवजात शिशु को माँ अपनी गोद में ले ऐसे वह रामसागर को लेकर बैठा। देर रात रुखड़ की कलेजा चीरकर निकलती आवाज भयंकर दिखते गाँव को आर्द्र करती रही।

"देवा तो पड़े रे....सहुने देवा पड़े....करेला करमना बदला देवा तो पड़े..."+

+देवा=चुकाना, पड़े रे=पड़ता ही है, सहुने=सबको, करेला=कृत (किए हुए), करम=कर्म, बदला=अदा करना।

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