साम्प्रदायिकता और साहित्य

08-10-2017

साम्प्रदायिकता और साहित्य

बृजेश कुमार

औपनिवेशिक काल में ही भारत में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का स्वरूप स्पष्ट हुआ। यह एक नकारात्मक, प्रतिक्रियावादी, विस्तृत और बहुमुखी अवधारणा, है, जो विभिन्न अवधारणाओं से मिलकर बनी हैं। भारतीय परिवेश को इसने नकारात्मक अर्थ में प्रभावित किया। आज भी यह अपने बर्बर रूप में मौजूद है। भारतीय परिदृश्य में साहित्य और इस अवधारणा के अंतर्सबंध भी जटिल हैं। इस समय प्रचलित साहित्य रूपों में इसकी अभिव्यक्ति मिलती है। सीधे-सीधे भी और अंतर्विरोधात्मक भी।

साहित्य को मानवता का पक्षधर बताने वाली परिभाषाओं के बावजूद यह बात सच है कि इस मानवता के दायरे सीमित हो सकते हैं - समुदाय, क्षेत्र, भाषा आदि के संदर्भ में। और ‘कला कला के लिए’ कहने वाले सौंदर्य प्रेमियों से तो इस तरह कोई उम्मीद ही बेजा है। इन पर मैरिनेती के हवाले से वाल्टर बेंजामिन ने सटीक टिप्पणी की है। उनके अनुसार ‘कला कला के लिए’ का अंतिम निष्कर्ष यही है कि उससे बने इन्द्रियबोध को तुष्ट करने के लिए उन्मादी परिस्थितियाँ पैदा की जाएँ। मतलब यह है कि सौंदर्यवादी साहित्य से ज़्यादा ख़तरा हो सकता है और जो साहित्य सामाजिक सरोकारों से लिखा जा रहा है, उसमें भी प्रतिक्रियावादी संदर्भ आ सकते हैं। इस स्थिति में साहित्य जाने-अनजाने प्रतिक्रियावाद और यथास्थितिवाद को बढ़ावा देता है। साम्प्रदायिकता के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है।

साहित्य के स्वरूप के स्तर पर धर्म की उल्लेखनीय भूमिका है। साहित्य का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक साहित्य के रूप में मिलता है। यह धार्मिक साहित्य अलग-अलग समुदायों से सम्बन्धित होता है। जिनमें उन धार्मिक समुदायों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ उपस्थित होती हैं। उस समुदाय के मिथक, बिम्ब आदि के संदर्भ भी साहित्य में रहते हैं। मिथक उस सम्प्रदाय के धार्मिक स्वरूप से सम्बन्धित भी होते है लेकिन साथ ही अन्य धर्मों और समुदायों के बारे में प्रचलित भ्रामक धारणाएँ भी होती हैं। ये भ्रामक धारणाएँ उस समुदाय के चेतना पर आधारित होती हैं, जिनमें अपनी श्रेष्ठता और ‘अन्य’ के प्रति विद्वेष आदि भाव रहते हैं। अगर साहित्यकार उस चेतना से अछूता नहीं है, तो साहित्य में इन भावों का आना आश्चर्यजनक नहीं। साहित्य धार्मिक हो या ग़ैर धार्मिक, रचनाकार जब अपनी अस्मिता को उस समुदाय से जोड़ लेता है, तब इस तरह की प्रवृत्तियाँ उसके साहित्य में आ जाती हैं और ये भाव सहज रूप से स्थान पा जाते हैं।

साम्प्रदायिकता की संरचना में ‘अन्य’ के व्यापक भेद के साथ दूसरे स्तरों पर महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के प्रति भेद भावयुक्त नज़रिया है। ब्राह्मणवाद और पुरूषवाद साम्प्रदायिकता की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। वह नजरिया साहित्य में अभिव्यक्त होता है। इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में तमाम लिखें उपन्यासों में मिलतें है जैसे विभाजन और साम्प्रदायिकता पर चर्चित और बड़े कैनवास पर यशपाल ने ‘झूठा-सच’ लिखा। यशपाल ने दो भागों में विभाजन की त्रासदी और साम्प्रदायिक कारनामों की पोल खोली है। साथ ही यह रचना उस समय के भारत की सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य का एक दस्तावेज प्रस्तुत करती है। 
भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ में साम्प्रदायिक समस्या का सीधा चित्रण है। राही मासूम रजा के ‘आधा गॉव’ का गंगोली गॉव विभाजन के समय विभाजन की परिस्थितियों से बेखबर रहता है। लेकिन विभाजन का दंश वहॉ तक पहुॅच ही जाता है।

इधर के उपन्यासों में भगवान सिंह का उपन्यास ‘उन्माद’ साम्प्रदायिकता और फासीवाद को मनोविकार एवं दमित व्यक्तित्व की विकृत परिणितियों के रूप में प्रस्तुत करता है। गीतांजली श्री’ का उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ में हमारी अकादमी दुनिया की संकटग्रस्तता और अप्रत्याशित रूप से प्रकट होने वाले यथार्थ की कथा है। एक साधारण परंपरागत जीवन जीने वाले व्यक्ति की हिंदूवाद की तरफ़ झुकने की प्रक्रिया को उदय प्रकाश ने अपनी कहानी ‘और अंत में प्रार्थना’ में अभिव्यक्त किया है। इलाहाबाद शहर को आधार बनाकर विभूती नारायण राय ने ‘शहर में कर्फ्यू’ लिखी है जिसमें दिखाया है दंगों के समय किस प्रकार पुलिस अपनी धार्मिक भावना का प्रयोग करती है और उकसाती भी है।

साम्प्रदायिकता के संरचना में जो सवर्णवाद और पुरुषवाद की भूमिका है, उसके प्रति दलित, आदिवासी और महिला स्वरों की शिद्दत से उपस्थिति है। दलित साहित्य में आत्मकथात्मक रूप में इनका स्वर मुख्यतया मुखरित हुआ है। झूठन (ओम प्रकाश बाल्मिकी) अपने-अपने पिंजरे (मोहनदास नैमिषराय) तिरस्कृत (सूरज पाल सिंह चौहान) अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ ए भंगी वाईस चाँसलर (श्यामलाल) आदि आत्मकथाओं में इन लेखकों ने अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। इसके साथ ही कथा साहित्य में भी ये स्वर उपस्थित हैं तथा उनमें साम्प्रदायिकता के अभिन्न अंग सवर्णवाद के ख़िलाफ़ दलित स्वर मुखरित किया है।

इस प्रकार साहित्य का विचारधारा से अनिवार्य सम्बन्ध होता है। विचारधारा की अभिव्यक्ति और साहित्य के बारे में मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है- “किसी समाज की विशेष ऐतिहासिक अवस्था के सम्पूर्ण सामाजिक यथार्थ के अंतविरोधों और जटिलताओं की अभिव्यक्ति विचारधाराओं में होती है। विचारधाराओं में विभिन्न वर्गों के जीवन की वास्तविकताएँ और आकांक्षाएँ भी व्यक्त होती हैं।

विभिन्न विचारधारात्मक रूपों में इन सबकी अभिव्यक्ति एक जैसी नहीं होती।

इनकी अभिव्यक्ति राजनीति, धर्म और दर्शन में जिस तरह होती है, उसी तरह कला और साहित्य में नहीं होती।“ मतलब यह कि साहित्य में विचारधारा उसी रूप में अभिव्यक्ति नहीं होती है जिस रूप में किसी अन्य अनुशासन में होती है।

रचनाकार का व्यक्तिगत चरित्र ही साहित्य में उसकी विचारधारा या दृष्टिकोण का आधार होता है। साम्प्रदायिकता के संबन्ध में भी ऐसा ही है। संभवतः उसी तरह से जैसे एडवर्ड सईद, इ.एम. फोस्टर, जोसेफ कोनराड और रूडीयार्ड किपलिंग के उपन्यासों के बारे में बताते हैं कि ये लोग ऐसे उपन्यास लिख रहे थे, जो कोई बुनियादी सवाल नहीं उठाते थे। कहीं किसी प्रकार से स्तब्ध नहीं करते थे और इसी तरह वे उपन्यास उपनिवेशवादी सोच को वैधानिक बनाते थे।

सुधीर चन्द्र ने नवजागरण कालीन हिन्दी मराठी, और गुजराती साहित्य का विश्लेषण करते हुए निष्कर्ष दिया कि उस काल की राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों के प्रति इस साहित्य में संश्लिष्टता मिलती है। इस साहित्य के बारे में किसी एकतरफ़ा नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता कि यह साम्प्रदायिक था या नहीं, उपनिवेशवाद विरोधी था या नहीं, सुधारवादी था या नहीं। एक तरफ़ इस साहित्य में उपनिवेशवाद का विरोध साम्प्रदायिक सद्भाव, सुधारवाद आदि दिखाई पड़ते हैं तो साथ ही अँग्रेज़ राज की शक्ति, मुस्लिम विरोध, पुनुरूत्थानवाद आदि भी। ये रचनाकार वैचारिक स्तर पर उपनिवेशवाद का विरोध और साम्प्रदायिक सद्भाव, सुधारवाद आदि का समर्थन करते हैं, लेकिन उनकी चेतना की बनावट में शामिल दूसरी प्रवृत्तियाँ भी उभकर सामने आती थीं, जिनसे उनका अंतरविरोधात्मक चरित्र बना हुआ था। इसी तरह से उनका अंतरविरोधात्मक चरित्र बना हुआ था। इसी तरह से साहित्य साम्प्रदायिकता को वैध या व्यापक बनाने का कार्य करता है।

साहित्य में विभिन्न प्रक्रियाओं के ज़रिए और विभिन्न स्तरों पर साम्प्रदायिकता का संदर्भ आता है। सम्बन्धित रचना की विषय वस्तु उसके पात्र, पात्रों की संरचना आदि इस विचारधारा को व्यक्त करते है।

साहित्य में साम्प्रदायिकता का संदर्भ मूलतः सम्प्रदाय/समुदाय की भावना के तहत प्रकट होता है। रचनाकार अपनी अस्मिता को जाने-अनजाने अपने सम्प्रदाय/समुदाय से जोड़ लेता है। वहीं से यह प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। उसके बाद उस समुदाय के सामुदायिक आधार धर्म, और उस समुदाय की सांस्कृतिक विशेषताओं/पहचानों को स्वर देते हैं। और इसी क्रम में अन्य समुदायों के प्रति उपेक्षा का भाव आ जाता है। यह उपेक्षा भाव धीरे-धीरे ईर्ष्या, वैमनस्य तक पहुँच जाता है। और जब एक समुदाय में अन्य समुदायों के प्रति ईर्ष्या, वैमनस्य आदि भाव उपजते हैं तब अपनी अस्मिता के जुड़ाव के कारण वह रचनाकार उन भावों का वाहक भी बन जाता है।

बृजेश कुमार
शोध छात्र
इ.वि.वि.
इलाहाबाद

संदर्भ:-

1. पार्थ चटर्जी राष्ट्र और उसकी महिलायें निम्नवर्गीय प्रसंग-2, शाहिद अमीन,
2. ज्ञानेन्द्र पाण्डेय ‘हममें से हिंदू कौन’ साम्प्रदायिकता के स्रोत स. अभय कुमार दूबे विनय प्रकाशन दिल्ली, 1992,
3. ‘वीर भारत तलवार बजरंग बली’ गोमांस, और आदिवासी साम्प्रदायिकता के स्रोत।
4. विजय कुमार एडवर्ड सईद एक जन बौद्धिक भूमिका
5. प्रेमचंद साहित्य का उद्देश्य हंस प्रकाशन, इलाहाबाद,

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