साझी उड़ान- उग्रनारीवाद नहीं समन्वयकारी सह-अस्तित्व की बात

04-02-2019

साझी उड़ान- उग्रनारीवाद नहीं समन्वयकारी सह-अस्तित्व की बात

प्रदीप श्रीवास्तव

समीक्ष्य पुस्तक: ‘साझी उड़़ान’
लेखिका: डॉ. प्रभा दीक्षित
प्रकाशक: सैनबन पब्लिशर्स, ए-78,
नारायणा इंडस्ट्रियल एरिया, फ़ेज़-1, नई दिल्ली-110028
मूल्य: रु. 150

साहित्यकार जो कुछ समाज में देखता, सुनता, समझता, अनुभव करता है उसे जब वह अपनी रचना में उतार देता है तो वह रचना समाज का दर्पण बन जाती है। पाठक के समक्ष वह समाज की यथार्थ तस्वीर उकेर देती है। मगर प्रश्न यह है कि समाज का यह दर्पण या ऐसी रचना पाठक के साथ क्या कोई रिश्ता बना पाती है। दोनों के बीच क्या कोई ऐसा रिश्ता, तादात्म्य बन पाता है जो उन्हें परस्पर जोड़े रहे। एक दूसरे का पूरक बना दे। और यदि दोनों के बीच कोई रिश्ता पनपा ही न हो तो ऐसे साहित्य की प्रासंगिकता क्या है? ऐसा साहित्य समाज का यथार्थ परोसने वाली एक रिपोर्ट भी तो कही जा सकती है। एक रिपोर्ट के साथ कोई रिश्ता बनने का शायद ही कोई आधार होता हो। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि समाज का दर्पण दिखाने वाले साहित्य की भरमार ने पाठकों को साहित्य से विमुखता के रास्ते पर धकेल रखा है। मगर इन्हीं पाठकों को जब ऐसी रचना मिलती है जिसमें उनकी बात होती है, जनमानस की पक्षधरता होती है, रचना लेखक का मात्र अनुभव, उसके द्वारा समाज के यथार्थ का मात्र प्रस्तुतिकरण न होकर उसके अनुभवों के उदात्तीकरण का चरम रूप लिए होती है। तो वह पाठकों को खुद से जोड़ लेती है। ऐसी रचना लेखक को मनुष्यता या मानवता के पैरोकार के रूप में पाठकों के दिलो दिमाग में स्थापित कर देती है।

टॉलस्टॉय का मानना था कि अनुभवों का उदात्तीकरण ही साहित्यकार को जनमानस से जोड़ता है। इन्हीं बातों के आलोक में समीक्ष्य काव्य संग्रह ‘साझी उड़ान’ की चर्चा की कोशिश की गई है। कवयित्री डॉ. प्रभा दीक्षित ने संग्रह में विभिन्न विषयों को लेकर अलग-अलग उन्न्यासी (79) कविताएँ रची हैं। जो कविताएँ स्त्री विमर्श पर लिखी हैं उनमें कहीं भी ऐसे भाव नहीं हैं कि पुरुष वर्ग को शत्रु वर्ग की तरह निरुपित किया गया हो। उनके ख़िलाफ़ विद्रोह की बात की गई हो। पुरुष वर्ग को नीचा दिखाने की कोशिश में कल्पना लोक में अतार्किक उड़ानें भरी गई हों। जैसा कि आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर एक ट्रेंड सा चल रहा है कि चाहे उपन्यास हो, कहानी हो, या फिर कविता हर जगह स्त्री मुक्ति के नाम पर बगावत का बिगुल बजाने का भयावह आह्वान होता है। रिश्तों की मर्यादा को तार-तार कर कोई भी हद पार कर जाने, वस्त्रों को बेड़ी मान त्याज्य मानने, विवाह परंपरा को स्त्रियों के लिए बेड़ियाँ मानना आदि को ही स्त्री मुक्ति का प्रतीक मान लिया जाता है। लेकिन प्रभा इस मत से असहमति दर्ज कराती हैं। वह इसे उग्र नारीवाद मानती हैं। वह समन्वयकारी सहअस्तित्व की प्रबल हिमायती हैं और एक सार्थक संतुलित सह संबंध की पैरवी करती हैं। उनकी नज़रों में आदर्श परिवार वह है जिसमें पति-पत्नी बच्चों सबके बीच मधुरता की बयार बह रही हो। पति के हिटलरी रौब की छाया न हो। पत्नी का स्नेहमय उलाहना तो हो लेकिन स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंदता के लिए अटूट ज़िद न हो। एक आदर्श परिवार का वह ख़ूबसूरत चित्र बनाती हैं अपनी कविता ‘खुशनुमा परिवार का चित्र’ नामक कविता में। वह स्त्री-पुरुष के बीच सहज इंसानी संबंधों की बात करती हैं। संग्रह की पहली कविता ‘साझी उड़ान’ में अपना मंतव्य प्रभावशाली ढंग से रखती हुई कहती हैं ‘आओ/हम कदम बा कदम/ साथ-साथ चलते हुए/ भविष्य के साझा संबंधों के निर्माण में/ रेतीले सागर के तट पर/ अपने पद चिह्न अंकित करें। यह चंद लाइनें एक तरह से प्रतीक हैं रचनाकार के विचारों, उसके सिद्धांतों की। अपने आत्मकथ्य में वह साफ कहती हैं ‘मैं स्त्री मुक्ति के प्रश्न को स्त्री-पुरुष के सह व सम अस्तित्व में देखने की पक्षधर हूँ।’

संग्रह की कविताएँ हर उस चीज से असंतोष, विरोध, असहमति जताती हैं जो स्त्री समाज को किसी भी स्तर पर दोयम दर्जे का बनाती हैं, उनके शोषण का रास्ता खोलती हैं, उन्हें गुलाम बनाती हैं। कवयित्री को उन स्त्रियों से भी बहुत शिकायत है जो अपने शोषण के ख़िलाफ़ बोलना ही नहीं चाहतीं। शिकायत उन्हें समाज के उस ढांचे से भी है जो पितृसत्तात्मक होने के कारण स्त्री को इस समझ के लायक ही नहीं रहने देता कि वह अपने शोषण, गुलामी की तकलीफ को समझ कर उसका विरोध कर सके। संग्रह की कविताएँ केवल शब्दों की बाज़ीगरी या शब्द शिल्प मात्र नहीं हैं कि कवयित्री को शब्दों की कारीगर कहा जाए। इन रचनाओं में विचारों की अविरल धारा प्रवाहित होती है। अनुभव की गहराई दिखती है। जनसामान्य के हितों के लिए गहरी तड़प नज़र आती है। अर्थात् अनुभव, विचार और संवेदना का मनभावन संगम-सा हैं यह रचनाएँ। यह कविताएँ आज के दौर की कविताओं में अपना अलग स्थान बनाती उन कविताओं के साथ खड़ी हैं जो एक विचार, आत्माभिव्यक्ति, भाव, अर्थ और संवेदना का उत्कृष्ट स्तर रखती हैं। उन कविताओं की भीड़ में नहीं शामिल हैं जो काव्यगत शिल्प की सारी सीमाओं को परे धकेल कोई भी राह पकड़ बढ़ लेती हैं। ऐसी कविताओं में छंद, लय, अलंकार, बिंब, रस गेयता आदि कुछ भी की अपेक्षा करना मूर्खता ही कही जाएगी। गेयता तो खैर कब की काव्य दुनिया को अलविदा कह कर विलुप्त हो चुकी है। अपवाद स्वरूप ही कहीं-कहीं नज़र आ जाती है। मगर मुख्य बात यह है कि गेयता, लय, छंद, बिंब न सही कम से कम विचार से तो समृद्ध हो, अर्थवान हो, संवेदना, भाव को तो अभिव्यक्ति करती हो। पढ़ने का सुख तो देती हो। उसकी कोई अर्थवत्ता तो हो। वह कम से कम साहित्य को समृद्ध बनाने में तो सक्षम हो। प्रभा दीक्षित की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपनी ज़मीन कल्पनालोक में जाकर नहीं तलाशतीं बल्कि समाज में जो कुछ घटा, घट रहा है जो समाज का यथार्थ है उसे ही अपनी ज़मीन बना लेती हैं। और फिर अपने विचारों, भाव, संवेदना के सहारे अपना अस्तित्व बना लेती हैं जिससे वह दिल को छूने में सक्षम हैं। संग्रह की आदिमनारी की भूल, धुंधलाए सपनों का सच, दास्ता के संस्कार, नई सदी के द्वार पर दस्तक, गुजरात के लिए मेरी चीख सुनो, राष्ट्रीय अस्मिता, साम्राज्यवाद के नए सेल्समैन, गूंगी कलम का दर्द, चाची की मौत, गंगा सतलज का नीर, 21वीं सदी का बहाव, आदि बेहद प्रभावशाली रचनाएँ हैं। कुछ रचनाओं के लिए यह कहना गलत न होगा कि वह अतिभावुकता से प्रभावित हैं। उदाहरणार्थ गुजरात पर केंद्रित कविता को ले सकते हैं। जो उस यथार्थ को रेखांकित करती है जो वास्तव में अफवाह, प्रोपोगंडा मात्र है। ऐसे ही धर्म निरपेक्षता, सांप्रदायिकता पर केंद्रित कविताएँ पक्ष विशेष की ओर झुकी लगती हैं। इस बारे में यही कह सकते हैं कि हर व्यक्ति किसी न किसी पक्ष को लेकर ही आगे बढ़ता है। वह जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है उस ओर उसका झुकाव स्वाभाविक है। यहीं पर रचनाकार जितना निष्पक्ष हो पाता है वह उतना ही बड़ा होता है। अपवाद स्वरूप कुछ रचनाओं को छोड़कर संग्रह की शेष रचनाएँ निष्पक्षता का शिखर छू रही हैं।

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