रूपस्वामिनी
कवि भरत त्रिपाठीश्वास-श्वास पुष्प की सुगंध से सुवासित है
मन मन्दिर तन तेज है हवन का,
नैन द्वय दीपक से पावन निहार रहे
मेघ कुन्तलों को पुण्य स्पर्श है पवन का।
पुष्पक विमान की गति से मन उड़ता है
मंजिल क्षितिज अरु पथ है गगन का,
रति सा आकर्षण चंद्र की कलाएँ सब
मन आतुर अधरों के आचमन का॥
कटि कमनीय करे कामिनी कलोल तेरी
श्वेत दन्त मोती से शृंगार है वदन का,
सिद्धियों की सिद्धी गई योगियों का योग भंग
काम तेरा बस एक ध्यान विचलन का।
मन ये सहज चाहे तुझको प्रसन्न रखूँ
मंत्र हो तो पढ़ लूँ मैं सौंदर्य स्तवन का,
मन में न स्थान चाहूँ तन की न आस करूँ
दास बन जाऊँ रूपस्वामिनी चरण का॥