रूप की गाज

31-10-2008

रूप की गाज

वीणा विज ’उदित’

सन् सैंतालिस के दंगों से बनारस भी अछूता नहीं रहा| करीमन बीबी रोती पीटती अपने खाविंद का ग़म मनाती उसकी अमानत..  उसकी दोनो बेटियों को लेकर आगरा में रहते रिश्तेदारों के पास जाने को निकल पड़ी। जिनकी आस में वह आगरा पहुँची...  वो लोग पाकिस्तान के लिए रवाना हो चुके थे। बेचारी मज़बूर बेवा अपनी बच्चियों के साथ उन्हीं के खाली पड़े घर में बस गई। अब और जाती भी कहाँ.. ?

धीरे धीरे परिस्थितियाँ सामान्य होती गईं। बीबी लोगों के घरों में काम करने लग गई। उसी घर के एक कोने में उसे सिलाई मशीन मिल गई। अब वह लोगों के कपड़े भी सीने लग गई। दोनों बच्चियों को पढ़ने भेजा। बड़ी बेटी जीनत का दीमाग मोटा था लेकिन छोटी शमा पढ़ाई में अव्वल आती थी। देखने में भी दोनो में कोई मेल नहीं था। जीनत आम साधारण दिखती थी जबकि शमा को खुदा ने फुर्सत में बैठकर गढ़ा था। उसकी मोटी मोटी मदभरी कजरारी आँखें... कि देखने वाले के भीतर गहराती ही जाएँ और ढेरों अनकहे अफ़साने सुना जाएँ। लम्बे घने काले काले बाल.. जिनकी दो चोटियाँ बनाते समय उसकी अम्मी उससे तंग आ जाती थी। परन्तु देखने वाले उससे रश्क करते थे। भीतर ही भीतर उसकी अम्मी भी उसे ज़माने की नज़रों से बचाकर रखने का यत्न करती थी।

अब दोनो बहनें जवान थीं.. आठवीं पास करके घर बैठकर माँ का हाथ बँटाती थीं। एक दिन अम्मी के साथ शमा भी किसी अमीरन बीबी के घर सिले हुए कपड़े देने गई वहाँ उन बीबी का भाई मियाँ इरफान ग्वालियर से आए हुए थे। उनकी नज़रें जो शमा पर पड़ीँ तो वहीं ठहर गईं। उसी पल में शमा को लेकर उन्होंने अपनी ज़िदंगी के ढेरों ख्वाब देख डाले। कपड़े देकर जैसे ही ये दोनों वापिस घर पहुँचीं तो क्या देखती हैं कि उस बीबी का भाई उनके पीछे पीछे चलते हुए उनके घर तक आ पहुँचे थे। वे दोनो सकपका गईं। शशोपंज में पड़ी करीमन ने पूछ ही लिया ‘क्या कपड़ोँ में कुछ गड़बड़ हो गई है मियाँ।" वह जैसे सोये से जागा हो। गड़बड़ा कर बोल उठा, “गड़बड़ तो मुझ में हो गई है बीबी  तुम्हारी लख्ते जिगर को देखकर। क्या कहने..। माशा अल्लाह खुदा का क्या करिश्मा है। क्या मैं तुमसे इसका हाथ माँग सकता हूँ।” करीमन बीबी से उसकी हालत छिपी न रह सकी। वह इतने बड़े रईस के रिश्ते की बात सुनकर भीतर ही भीतर फूली नहीं समा रही थी। हालाँकि शमा अभी सोल्हवें साल में थी और अल्हड़ व मस्त थी परन्तु करीमन के मुँह में पानी आ गया। वैसे भी उसका कोई सगा संबंधी भी तो नहीं था वह जिसका मुँह तकती। बेहद समझदारी से उसने उन मियाँ से कहा कि उसे यह रिश्ता मंजूर है लेकिन उसकी एक शर्त्त है। पहले वे उसकी बड़ी बेटी जीनत का निकाह किसी अच्छी जगह करवा दें, तभी शमा का निकाह उनसे पढ़वाया जाएगा।

इरफान मियाँ को तो मानो मुँह माँगी मुराद मिल गई। कुछ ही दिनो बाद जीनत का निकाह अफज़ल मिर्ज़ा से पढ़वा दिया गया। ये इरफान के अज़ीज़ थे। ये बात और है कि सारी ज़िन्दगी उनका खर्चा इरफान मियाँ के खाते से चलता रहा और अम्मी की जिम्मेवारी भी उन्होंने उठाई। कहने को वे बदायूँ के बाग देखते थे पर सेहत से वे कमजोर थे व बीमार रहते थे। मुकद्दर अपना अपना.. । ऊपर वाले की रज़ा के आगे सिर नवाया जाता है।

बंदा हालात के आगे मजबूर हो जाता है। इरफान मियाँ अच्छी खासी शादी शुदा ज़िन्दगी बिता रहे थे। उनकी बेगम ग्वालियर में भरे पूरे घर में रहतीं थीं। इस्लाम में दूसरा निकाह कुबूल है तो उन्होंने शमा से दूसरा निकाह पढ़वा लिया। शमा के रूप के समक्ष उन्हें सब कुछ फीका लगने लगा था। अल्हड़ खूबसूरत मस्त आँखों वाली मधुर टेढ़ी मुस्कान वाली शमा का रूप दुल्हन बनने पर देखते ही बनता था। इस रूप पर तो स्वयं कामदेव भी ईर्ष्या कर उठें। इरफान मियाँ व बाकि सब लोगों ने भी सुर्ख जोड़े में ऐसा बला का हुस्न न पहले कभी देखा न कभी सुना था। मियाँ अपने मुकद्दर पर जितना इतराते उतना ही कम था। निकाह के बाद शमा बेगम का घर आगरे में ही रहा। वह असल घर ग्वालियर कभी भी नहीं जा पाईं। इरफान बेहद रईसी मिज़ाज़ के थे। हर दिन दोस्तों को घर बुलाते शराबें उड़ाते शेरों शायरी की महफिलें सजतीं  गहमा गहमी बनी रहती। हाँ  शमा घर से बाहर नहीं निकल सकती थी। वैसे भी भरपूर जवानी में शादी होने व ऐशो आराम की ज़न्दगी होने से शमा मस्ती के आलम में डूब गई थी। इरफान मियाँ का विछोह वह सह नहीं पाती थी। मियाँ भी कौन सा दूर जाना चाहते थे परन्तु कम्बख्त काम के सिलसिले में कभी कभार तो जाना ही होता था। उधर ग्वालियर से बेगम साहिबा भी गुहार करती थीं। दो किश्तियों में सवार इरफान मियाँ के पाँव डगमगाते ही रहते थे। फिर भी शमा का संग पाकर उनके पाँव खुशी की शिद्दत से जमीं पर नहीं पड़ते थे। तन्हाई के आलम में उसे अपने पहलू में पाकर वे सातवें आसमान पर पहुँच जाते थे। कई बार शमा देखती कि सुबह होने पर इरफान मियाँ बिस्तर पर नहीं होते थे। अकेली वह घबरा उठती थी। पूछने पर पता चलता कि काम से जाना होता था। यह आधी रात का कैसा काम होता था वह समझ नहीं पाती थी। कभी कभी तो कई कई दिनो के लिए गायब हो जाते थे। उन दिनों जुबैदा बी शमा की ख्वाबगाह में सोती थी। शमा के सभी काम वही करती थीं।

एक शाम इरफान मियाँ के साथ एक बेहद सजीले व खूबसूरत नौजवान जनानखाने में तशरीफ़ लाए। शमा बेगम का बीमा करवाने की खातिर उनके दस्तखत अपने सामने करवाना जरूरी थे। तभी मि. पलाश जो बीमा कम्पनी के ए डी एम थे,  उनके पास आए थे। बीमे की रकम भी मोटी थी। शमा ने चाय का पूछा तो इरफान मियाँ ने व्हिस्की खुलवा दी। वहीं बैठे बैठे शराब का दौर चल पड़ा।

हाथ में शराब और सामने शबाब हो तो नशा दुगुना हो जाता है। पलाश का आज यही हाल था। शमा की मोटी मोटी मदहोश आँखों की मस्ती वह झेल नहीं पा रहा था। उसे मस्ती चढ़ रही थी। गोश्त चाँपेँ कलेजी.. तरह तरह के व्यंजन साथ परोसे जा रहे थे सो खाना खाने का अब सवाल ही नहीं उठता था। आधी रात हो चली थी। शेरो शायरी भी साथ चल रही थी। पलाश की कार वहीं रखी रही उसे ड्राइवर के साथ इरफान मियाँ ने घर भेजा। इस मदमस्त माहौल में आज शमा को भी नशा आ गया था.. पलाश की जवानी और खूबसूरती का। इरफान मियाँ में वो बात कहाँ थी जो पलाश में थी। बीच बीच में कई बार शमा और पलाश की नज़रें टकराईं व ढेरों अफ़साने सुना गईं इक दूजे को। शमा को आज कुछ नया एहसास हो रहा था।

जवानी की दहलीज़ पर पाँव रखते ही शरीर का खेल तनों का मेल उसे लुभाता रहा। परन्तु आज... आज... उसकी रूह उसके जिस्म से अलग खिंची जा रही थी। वह उस रात करवटें ही बदलती रही, सोचती रही। उसे मोहब्बत का एहसास हो रहा था। वो पलाश को दिल दे बैठी थी। वह मोहब्बत के दर्द से कराह उठी। या खुदा ये उसे क्या हो गया है। उसे लगने लगा यही इश्क की इब्तदा है।

अभी सुबह की सुर्खी फैली भी न थी कि एक फोन आया और इरफान मियाँ शमा को सोया जानकर दबे पाँव कहीं चले गए। बिस्तर से उठकर शमा ने खिड़की से बाहर देखा कि एक सफेद एम्बेसेडर कार खड़ी है। बदरू नौकर को आवाज देकर उसने पूछा तो पता चला कि वो रात वाले साहब की कार खड़ी थी। शमा ने अचानक ही बदरू से कहा कि उस कार को लेने जब भी वो साहब आएँ उन्हें कहना वो बेगम साहिबा से मिलकर जाएँ। अपनी कही बात पर वह खुद हैरान रह गई। शमा में आज बला की फुर्ती आ गई थी। वह नहा धोकर तैयार होकर नीचे बैठक में आकर पलाश का इंतजार करने लगी थी। दस बजे के बाद पलाश आया तो बदरू उसे बैठक में लिवा लाया।

भीतर आते ही पलाश ने सामने शमा का जो रूप उस वक्त देखा.. वह उसे खिलती धूप सी सुन्दर लगी। पलकें उठाकर शमा ने मुस्कुराते हुए जो पलाश को देखा तो पलाश को लगा हज़ारों बिजलियाँ एक साथ कौंध गई हो जिनकी चमक को वह झेल नहीं पा रहा था। वह यूँ ही ठगा सा खडा रह गया था। खनखनाती सी आवाज ने तभी उसे चौंका दिया ‘तशरीफ रखिए न’। वह बैठ गया। दोनों एक दूसरे के सामने बैठकर इक दूजे को आँखों से पीने लगे। दोनो की ज़ुबां ख़ामोश थी पर जैसे ढेरों अफ़साने सुनाए जा रहे थे। तभी बदरू ने आकर चाय नाश्ते की ट्रे रखी और वे दोनो ही संभलकर बैठ गए। इरफान मियाँ के बारे में पूछने पर बदरू ने बताया कि वे ज़रूरी काम से बाहर गए हैं। चार पाँच दिनों में लौटेंगे बताने को कह गए थे और यह बताकर वह चला गया।

उसके जाते ही दोनो ने चैन की साँस ली। उन्हें इक दूजे का संग भा रहा था। यह बात दोनों ही समझ गए थे। शमा ने पलाश को कल शाम की चाय साथ साथ पीने की इल्तज़ा की। झिझकते हुए किसी फाईल में दस्तखत कराने का बहाना बनाने को कहा। पलाश गहरी मुस्कुराहट से इस इल्तज़ा को मान गया। ऑफिस जाकर उसका किसी काम में दिल नहीं लग रहा था। वह आज से ही कल शाम के आने की राह देखने लगा था। शमा उसकी आँखों से परे नहीं हट रही थी। उसकी घनी  काली ज़ुल्फें जो उसके शानों पर बेपरवाह उड़ रही थीं.. काली गहरी झील सी आँखों में पतली काजल की धार जो किसी का भी कत्ल कर दे उससे भी ऊपर शमा का कातिलाना तिरछी मुस्कान जो उसके दिल को घायल कर गई थी...  यह सब उसे परेशान किए जा रही थीं। बेपनाह हुस्न की मलिका थी शमा। शादी के उन चंद सालों में इरफान मियाँ ने भी उस पर बेहद लाड़ व प्यार लुटाया था जिससे वह दिनों दिन और खूबसूरत हो गई थी। लेकिन इश्क की तड़प जो अब जन्मी थी शमा ने इससे पहले कभी महसूस नहीं की थी।

पलाश और शमा की छिप छिप कर मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा था। शहर से दूर पीर बाबा की मज़ार पर शमा ने चालिस रोज़ सजदा करने की मन्नत मान ली। इसी बहाने वह हर शाम दरगाह पर सजदा करने जाती तो पलाश को पहले फोन कर देती थी। वह टैक्सी से वहाँ छिप कर पहुँचता और दोनो वहाँ हर दिन मिलने लगे थे। बाबा की दरगाह पर दो आशिकों का इश्क परवान चढ़ने लगा। इरफान की दी हुई ज़न्दगी शमा को अब कैद लगने लगी थी। वह बंद पिंजरे में फड़फड़ाते पंछी सी हो कर रह गई थी वहाँ। जिसको पिंजरे में दाना व पानी हर वक्त मिलता है पर वह खुली हवा में साँस नहीं ले पाता है। उसकी आजादी छिन जाती है। शमा ज़िन्दगी को भरपूर जीना चाहती थी। उसने पलाश के बारे में  भी नहीं पूछा.. बस इसका दामन थाम लिया था। पलाश ने एक रात चुपचाप उसे इलाहाबाद अपने दोस्त कपिल पाण्डे के पास भेज दिया। फोन पर उसे सब समझा दिया। शमा ने ढेर सारा पैसा व गहने संग ले लिए थे। बुर्के में वज्ह वहाँ से खिसक गई थी।

इन दोनो की मुलाकातें इतनी छिपी होती थीं कि कोई भी भाँप नहीं सका कि इसमें पलाश का कहीं हाथ हो सकता था। पलाश वहीं था उसने अपना ट्रांसफर इलाहाबाद करवा लिया था। आठ दस दिनो में उसने चले जाना था वहाँ ड्यूटी ज्वाइन करने। उधर इरफान मियाँ ने खूब हाथ पैर मारे पर शमा का कहीं सुराग तक नहीं मिला। वे हैरान थे कि उसे आसमान निगल गया था कि ज़मीन खा गई थी। आखीर वो गई कहाँ। उन्हें किसी पर शक या शुबहा भी नहीं था।  

उधर शमा जो कि दीपा के नाम से कपिल के घर पहुँच गई थी... अब मुसलमानी लिबास छोड़कर साड़ी ब्लाऊज़ पहनने लग गई थी। कपिल व उसकी पत्नि पूजा ने दीपा को पलाश के वहाँ पहुँचने तक बहुत प्यार से रखा व उसके लिए घर भी देख रखा था। पलाश को पाकर दीपा की जान में जान आई। अब वह अपनी नई गृहस्थी को सजाने सँवारने व इश्क को परवान चढ़ाने में मशगूल हो गए थे। दीपा के पास काफी पैसा था व पलाश भी अच्छा कमाता था । सो वे नए माहौल में मियाँ बीवी बनकर रहने लगे। कहीं आसपास के इलाकों में टूर होता तो पलाश दीपा को साथ ले जाता था वह बेहद खुश थी। शमा का गला भी बहुत सुरीला था। यह भेद एक रात को किसी डाक बंगले में खुशगवार माहौल में गुनगुनाती शमा को चोरी चोरी सुनने के बाद पलाश पर खुला। तभी से पलाश की दीवानगी शमा के लिए और बढ़ गई थी। अब तो हर शाम पलाश के हाथ में व्हीस्की का जाम होता व शमा के लबों पर गज़ल या गीत के सुर होते थे। ऐसा समाँ बँध जाता था कि वह उसकी काली घनेरी ज़ुल्फों में पनाह लेता था। या फिर उसके दामन से लिपट कर उसके पहलू में बैठा रहता था। ऐसे ही मदमस्त समय बीत रहा था और शमा.. दीपा बनकर मुकम्मल ज़िन्दगी का लुत्फ उठा रही थी कि पलाश को आगरा ऑफीस से बुलावा आया। वह कुछ दिनों के लिए शमा को वहीं छोड़ आगरा चला गया।

आगरा पहुँचने पर उसे खबर मिली कि इरफान मियाँ के विदेशी लोगों से ग़लत ताल्लुकात थे जिससे वे पकड़े गए थे। उनका घर अब बंद पड़ा था। पलाश को अब समझ आई कि क्यों मियाँ ने शमा के गुम होने की रिर्पोट पुलिस में दर्ज नहीं करवाई थी। वहाँ सब नाजायज़ काम ही होते थे। हाँ अलबत्ता ग्वालियर में सब महफूज़ थे। खैर  पलाश ने राहत की साँस ली। अपनी तकदीर पर नाज़ किया कि वक्त रहते ही वो शमा को वहाँ से निकाल कर ले गया था।

अपनी माँ व बीवी बच्चों के रहते पलाश ने यह नाजायज़ संबंध बनाया हुआ था जिसकी उन्हें भनक भी नहीं थी। वैसे वह भीतर ही भीतर घबरा रहा था। न अपने घर में और न ही शमा को उसकी असलियत का पता था। आगरा काम निपटाकर वह अपने पैतृक घर मेरठ गया वहीं उसका परिवार रहता था। उसकी बीवी सुलक्षणा उसकी हमउम्र थी। लेकिन दो बेटियों  नीना, करीना व बेटे नितिन के जन्म के बाद से वह पलाश से देखने में काफी बड़ी लगने लग गई थी। पलाश की शादी बीस वर्ष की आयु में हो गई थी। पैंतीस वर्ष की आयु में भी पलाश अभी कुआँरा ही लगता था। शादीशुदा मर्द की कोई निशानी नहीं होती जबकि औरत ब्याहते ही सिंदूर बिन्दी  चूडयाँ मंगलसूत्र आदि से सज जाती है। यही हुआ था पलाश के साथ भी। सुलक्षणा ने उसके घर को बाखूबी संभाला हुआ था। माँ व बच्चों की देखभाल बहुत अच्छी हो रही थी। लेकिन प्यार व चाहत के नाम पर वह कोरी ही रही। यही कमी पूरी की शमा ने पलाश की ज़िन्दगी में कदम रखकर।

पलाश जब भी मेरठ अपने घर आता घर में बहार आ जाती थी। बच्चे ढेरों फरमाईशें करते थकते नहीं थे। सुलक्षणा भी पति को करीब पाकर खिल उठती थी। रात बिस्तर पर सुलक्षणा को हमबिस्तर कर ख्वाब में पलाश शमा को ढूंढ़ता रहता था। उधर सुलक्षणा पति को पाकर तृप्त हो जाती थी लेकिन अपनी बेबसी पर दुःखी होती थी कि बच्चों की अच्छे स्कूल की पढ़ाई व बूढ़ी माँ की बीमारी के कारण वो पति को सुख नहीं दे पाती थी उसके साथ नहीं जा सकती थी। सदा की तरह इस बार भी पलाश दस दिन परिवार में रहकर सब को खुश करके वापिस चला गया था।

दोहरी ज़िन्दगी जीने का बोझ धीरे धीरे पलाश को भीतर से थका रहा था। भेद खुलने पर तूफान आने का अंदेशा तो दोनो तरफ ही था। सो वह चुपचाप सही वक्त का इंतज़ार करने लगा। ज़िंदगी में जो भी चाहा पा लेने पर अब उसे अपने फ़र्ज़ निभाने याद आने लगे थे। देखते ही देखते बच्चे बड़े हो गए थे। उसका दिल करता कि वो बच्चों को ज्यादा वक्त दे.. इसी कारण जब भी हैड ऑफिस आगरा जाने का मौका हाथ लगता वह वहाँ से मेरठ चला जाता।  

सुलक्षणा की बुआ के बेटे सतीश के ससुराल इलाहाबाद में थे। वो अपनी बीवी कान्ता को लिवाने जब वहाँ गया तो अचानक उसकी नज़र कार में जाते पलाश पर पड़ी जो किसी हुस्न परी के साथ था। उनका पीछा करने पर उनके हाव भाव देख वो भाँप गया कि दाल में कुछ काला है। घर आकर उसने कान्ता को सब बताया। अब दोनो को सुलक्षणा की चिन्ता होने लगी। उनके आस पड़ौस से उनकी बावत पूछा तो पता चला कि दीपा और उसका पति दो ढाई वर्षों से ट्रांसफर होकर यहाँ आए हैं। इसके बाद सतीश और कान्ता वापिस दिल्ली चले गए। कुछ ही दिनो बाद पलाश की माँ का स्वर्गवास हो गया। पलाश ने शमा को माँ के विषय में बताया। शमा ने भी परिवार के शोक में साथ देना चाहा लेकिन पलाश ने यह कहकर उसे टाल दिया कि अभी सही वक्त नहीं है सबसे मिलने का। शमा खामोश रह गई।

ऐसे मौके पर सतीश व कान्ता भी मेरठ अफ़सोस करने आए। उन्होंने पलाश को टटोला और बीवी बच्चों को अपने साथ ही इलाहाबाद ले जाने का उस पर जोर डाला। पलाश बाखूबी  बड़ी सफाई से सारी बात यह कहकर टाल गया कि अब बीच सैशन में बच्चे स्कूल नहीं छोड़ सकते हैं। बड़ी नीना की दसवीं की आई सी एस सी बोर्ड की परीक्षा सिर पर है। पलाश को वास्तव में उसकी चिन्ता थी। सब रिश्तेदारों को विदा करके पलाश वापिस ड्यूटी पर इलाहाबाद आ गया था। इस बार वो गहरी चिन्ता में डूबा रहने लगा था। शमा ने उसमें फर्क महसूस किया। उसने पूछा कि क्या वह माँ के कारण ऐसा हो गया है। इस पर पलाश ने उसके दोनो हाथों को प्यार से थामकर कहा कि न शमा ने कभी पूछा और न ही वह कभी बता सका कि उसका अपना भी एक जीवन है। और उसने उसे सब कुछ बता दिया। यह सब सुनते ही शमा के हाथों के तोते उड गए। एक बार फिर तकदीर ने उसके नसीब में दोहाजू दिया था। जिनके अपने परिवार पहले से मौजूद थे। वह दो दो बार बीवी बनी और वो भी दूसरी। सही मायने में तो ज़िन्दगी ने हर कदम पर उससे बेवफाई ही की थी। वह तो माँ भी नहीं बन पाई थी क्योंकि उनके पास पहले से अपनी औलादें थीं। पलाश की बेइन्तहा मोहब्बत को समझते हुए उसने इस झूठ को नज़रन्दाज़ करना ही ठीक समझा। असल में उनके पास वक्त ही कहाँ था कि वह उससे कुछ पूछती। इधर पलाश अपना अतीत शमा के सामने खोलकर राहत महसूस कर रहा था।

नीना के दसवीं के बोर्ड की परीक्षा थी सो वह छुट्टी लेकर उसकी मदद करने मेरठ गया। बच्चों की परीक्षा खत्म होते ही बच्चे अपने ननिहाल दिल्ली चले गए और वह वापिस इलाहाबाद। दिल्ली में रिश्तेदारी में कोई शादी थी। मेहमानों की बहुत रौनक थी। नीना अपने पापा जैसी ही बेहद सुन्दर थी। वह कत्थक नृत्य सीखती थी। सबके कहने पर उसने वहाँ नृत्य करके दिखाया। राज जो कि शादी पर पंजाब से आया था नीना पर फिदा हो गया। उसने अपने माता पिता से नीना से शादी करने की इच्छा व्यक्त की। वे दोनो तो स्वयं ही नीना को पसंद करने लग गए थे। उन्होंने तत्काल सुलक्षणा से नीना का रिश्ता माँगा। सुलक्षणा को भी राज और उसका परिवार सब भा गए थे। उसने पलाश को फोन किया तो अगले ही दिन वह बाई एअर आ पहुँचा। रिश्ता पक्का कर दिया गया। अगले महीने की शादी पक्की कर दी गई और पंजाब जाकर शादी कर दी गई। वहाँ सभी रिश्तेदार आए थे। कान्ता और सतीश से पलाश का राज छुपा कर रखने का और सब्र नहीं हो सका। उन्होंने अपने भाई बहनों से यह राज साँझा कर ही लिया। ऐसी बातें तो आग की तरह फैलती हैं।  

उड़ते-उड़ते यह खबर सुलक्षणा के कानों तक भी जा पहुँची थी। उसे लगा वो किसी की नज़र का सामना नहीं कर पा रही थी। बेटी की विदाई करके सुलक्षणा ने अभी पूरी तरह से अपने आँसू भी नहीं पोंछे थे। जुदाई के ग़म का पत्थर अभी उस के दिल पर हावी था कि उस पर यह गाज गिरी। वो किसी भी नज़रिये से इन बातों पर यकीन नहीं कर पा रही थी। पलाश उसका पति था.. उसके तीनों बच्चों का बाप। वो ऐसी हिमाकत क्यूँकर करेगा। जरूर कोई ग़लतफ़हमी है इस में। उसने ढेरों बातें सोची। पर पंजाब से लौटते हुए सारे रास्ते वो रोती ही रही थी। दोनों बच्चे यही अवधारणा लिए रहे कि माँ को दीदी का विछोह कष्ट दे रहा है। जिगर का टुकड़ा दूसरों के सुपुर्द करना जितना दुष्कर कार्य है उससे भी महादुष्कर है अपने सुहाग को किसी और के साथ बाँटना। यह दुःख यह दर्द वही समझ सकते हैं जिन्होंने इस दर्द को झेला है। सुलक्षणा तो पल-पल टूट रही थी। कतरा-कतरा पिघल रही थी भीतर ही भीतर। मेरठ  घर पहुँचकर उसने पलाश को सामने बैठाकर पूछा कि उसके जीवन में यह अन्य स्त्री कौन है। उसने उससे क्यों नाता जोड़ा। उसके जीवन में क्या कमी थी। पलाश कुछ नहीं बोला निर्विकार सा। इस पर सुलक्षणा जोर से चीखी ‘खानदानी घर की रखवाली मैंने सारी उम्र की पर मेरे ही घर में सेंध लगाकर किसी ने मेरा सब कुछ लूट लिया। मैं यह कैसे बर्दाश्त करूँ। अब हम सब को अपने साथ ले चलो फिर मैं देखूँ कैसे रहती है कोई और तुम्हारे साथ।’

पलाश शान्त स्वर में बोला- ‘जो होना था वो तो हो गया है। पर अब यह मुमकिन नहीं है।’ और हमेशा की तरह अल्मारी में पैसे रखकर वहाँ से निकल गया।

सुलक्षणा तो पागलों की तरह विफर रही थी। वह न बोलती थी न हँसती  थी न रोती थी।

नई ब्याही बेटी के ससुराल में सब जानेगें तो उसको ताने देंगे। बच्चों की स्कूल में हॅसी उड़ेगी। सारा अड़ोस-पड़ौस उन पर उँगली उठाएगा  बिरादरी में तो कानाफूसी चल ही रही थी। वे समाज में क्या मुँह दिखाएँगे। यही सब सोच-सोचकर वह ज़मीन पर लोट रही थी। जिस भरोसे के सहारे वह जी रही थी उसी भरोसे को तोड़ा था पलाश ने। वह किसी और स्त्री के साथ अपने सुहाग को क्यूँ बाँटे।  

वह सारा दिन गुमसुम सी रहने लगी। उसके मौन ने भीतर ही भीतर एक अदम्य शक्ति संचित कर ली। उसे अपनी देहायष्टि से घृणा हो चली थी। एक दिन भरी दोपहर को जब बच्चे स्कूल में थे और काम वाली बाई जा चुकी थी, उसने मिट्टी का तेल अपने ऊपर डालकर रसोई में बैठकर स्वयं को आग लगा ली। और पा लिया छुटकारा सारे दर्दों ग़म से।

पलाश सब कुछ खत्म देखकर बदहवास था। उसकी बेवफाई का अच्छा सिला दिया था उसे सुलक्षणा ने। वह हर पल अपने को दोषी मान रहा था और यही एकमात्र सत्य था.... शमा के रूप की ग़ाज से उसका विवेक ढह गया था। जिससे उसके बसे बसाए घोंसले का तिनका-तिनका बिखर गया था और वक्त की आँधी ऐसी चली थी कि चारों ओर तिनके उड़े जा रहे थे... घोंसले का नामों निशां दूर-दूर तक कहीं नहीं था।

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