रिश्तों की राख
निखिल विक्रम सिंहरिश्तों की कुछ राख बची थी जो -
फाड़ डाली कल डायरी से वो,
उस धुएँ को भी उड़ा डाला,
जो टपक गई थी उस रोज़ -
नब्ज़ काटने से वो तुम्हारे;
धोना चाहता था वो खुशबु, जो -
बना गई नादिम तुम्हें वो,
पर बह जाता साथ में गुरूर भी मेरा,
जो बैठा है दुबक के उस दरख्त में -
जिनमें गूँज है सिसकारियों की आज भी तुम्हारे;
मेरे चश्में से दिखता नहीं अब, जो -
उसकी ज़रूरत ही क्या है?
बरसों बीत गए फिर से फूल उगाने में -
हाँ सुखा दी नमी सारी मैंने, ज़रूर वो -
ग़मगीन थी रंगीन वादों से जो तुम्हारे;
रिश्तों की कुछ राख बची थी जो -
हाँ, फाड़ डाली कल डायरी से वो!!!!