रेवतीसरन शर्मा रचित ‘चिराग़ की लौ’ नाटक में व्यवस्था का प्रश्न
पूनमसाठोत्तरी नाटकों में नाटककारों ने मनुष्य के जीवन की विभिन्न समस्याओं, उसके संघर्षों, विघटित हो रहे जीवन मूल्यों को प्रमुख विषय बनाया है। इन नाटकों में व्यक्ति की कुण्ठा, त्रासदी, निराशा, घुटन और आकांक्षाओं का यथार्थ वर्णन किया है। व्यवस्था में निहित भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, स्वार्थपूर्ण राजनीति, शोषण आदि से साक्षात्कार कराते हुए समूची व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाकर समस्याओं को सकारण प्रस्तुत करते हुए नाटककारो ने स्पष्ट दृष्टि अपनाई है।
जीवन यथार्थ को गहरे धरातल पर प्रस्तुत करने वाले नाटककारों में रेवतीसरन शर्मा का योगदान भी कम सराहनीय नहीं है। रेडियो नाटककार के रूप में विख्यात रेवतीसरन शर्मा की रंगनाटक के क्षेत्र में पाँच कृतियाँ उपलब्ध हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में विचारप्रधानता तथा उद्देश्य को सर्वोपरि रखा है।
‘चिराग़ की लौ’ १९६२ में लिखा गया उनका प्रथम नाटक है। जिसे उन्होंने विचारप्रधान सामाजिक ट्रेजडी की संज्ञा दी है। यह नाटक सामाजिक स्थिति की वो काली तस्वीर प्रस्तुत करता है, जिसके दृश्य भ्रष्टाचार और अनैतिकता की स्याही से रँगे हुए हैं। नाटक का नायक अपने आदर्शों पर चलने वाला ईमानदार अधिकारी है जो भौतिकता के प्रलोभनों से ऊपर उठकर आत्मा के स्वरों के अनुरूप आचरण करता है।
नाटक का नायक किशोर आयकर अधिकारी है। वह अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण ईमानदार है, जो किसी भी हालात में अपने आदर्शों से समझौता नहीं करना चाहता। वहीं मि. मेहता भी आयकर अधिकारी हैं जो अपने महकमे में रिश्वत लेने के लिए जाना जाता है “जब कोई बुरा अफसर आ जाता, इसकी चाँदी हो जाती। ख़ुद लेता और हिस्सा अफसर को देता”। ऊँचे पदों पर आसीन अधिकारियों से लेकर नीचे तक सब रिश्वत लेने में लिप्त हैं। किशोर अनुसार “जब लेने वाला चालाक हो और देने वाले को गिला न हो तो आदमी मुश्किल से पकड़ा जाता है”। ऐसे में लेने और देने वालों के ख़िलाफ़ उचित कार्यवाही कैसे हो सकती है। आयकर अधिकारी जिन पर ऐसे व्यक्तियों के चेहरे से नक़ाब हटाने की ज़िम्मेदारी है जो स्वार्थ के कारण आयकर इत्यादि का हिसाब छिपा जाते हैं, वही अधिकारी रिश्वतखोरी में शामिल होकर देश के साथ दगा करते हैं।
किशोर और मि. मेहता दोनों ही २५०रु. मासिक वेतन पाते हैं। किशोर का घर साधारण है वहीं मेहता का मकान भव्य है जिसे उसने रिश्वत की कमाई से ८०,००० रु. में बनवाया है। मेहता की पत्नी दिखावे की दुनिया में जीने वाली औरत है। वह किसी के घर में दाखिल होते ही आदमी से पहले फर्नीचर, पर्दों और कपड़ों को आंकना शुरू कर देती है। किशोर के घर ईमानदारी के पैसों से लाए गए सामान में वह हज़ारों कमियाँ निकालकर अपने घर में आए महंगे सामान से उसकी तुलना करती है। ईमानदारी और रिश्वत की इस तरह तुलना करने में उसे तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती। किशोर की ईमानदारी पर वह यह कहकर तमाचा मारती है कि ‘मैं तो ऐसे मकान में एक दिन न रहूँ’। मिसेज मेहता जैसे लोगों के तीक्ष्ण एवम् कटु व्यंग्यों से भी विवशता और निर्धनता का अनुभव कर कुछ लोग रिश्वत लेने की ओर अग्रसर होते हैं।
नाटककार ने अपने समय की जिस व्यवस्था का नग्न चित्रण प्रस्तुत किया है वह वर्तमान व्यवस्था से भिन्न नहीं है। दूसरों के आयकर का हिसाब रखने वाले ये अधिकारी स्वयं गैरकानूनी कार्यों की अपनी कमाई का हिसाब छुपाते हैं। मि. मेहता जैसे लोग व्यवस्था में मौजूद वो दीमक हैं, जो उस व्यवस्था को ही भीतर ही भीतर खोखला बनाए जा रहे हैं।
भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, दिखावटीपन पारिवारिक व्यवस्था को भी प्रभावित करता है। धनाड्य परिवार की युवती तारा माता-पिता से विद्रोह कर आयकर अधिकारी किशोर से प्रेम-विवाह करती है। यह नाटक प्रेम के उस खोखले आदर्श को भी प्रस्तुत करता है जो यथार्थता के निर्मम थपेड़े खाकर कच्चे शीशे की भाँति चूर-चूर हो जाता है। यह जानते हुए भी कि मिसेज मेहता जिन वस्तुओं का इतना दिखावा करती हैं वह रिश्वत में आया हुआ है या रिश्वत के पैसों से ख़रीदा गया है तब भी तारा कहती है ‘एक औरत आकर मेरे मुँह पर जूते मार गई है ‘’’ मुझे इतनी लज्जा दिला गई है कि अगर मैं शर्मदार होती तो इसी समय ज़मीन में गड़ गई होती, मर गई होती’। तारा को इस बात का गर्व नहीं है कि उसका पति ईमानदार है बल्कि उसे साधारण सा जीवन जीने में शर्म आती है। सामाजिक भ्रष्टाचार से व्यक्ति स्वयं को धनी-निर्धन के वर्ग साँचो में विभक्त करके दुखी होता रहता है। तारा बार-बार किशोर को रिश्वत लेने के लिए उकसाती है, कुतर्क करती है "ईमान, ईमान, ईमान। मेरे तो कान पक गए हैं। तुम्हारे ईमान, तुम्हारे आदर्श को, तुम्हारे सन्यासीपन को सुनकर, जिसने मुझे इस दुनिया की हर चीज़ से वंचित कर दिया है। खातों में क्यों अपना दिमाग खपाते हो‘; "कुछ लेकर केस छोड़ दिया करो‘; "रिश्वत तो दुनिया लेती है"; "हम दुनिया से अलग नहीं रह सकते"। जब की ईमानदार किशोर इसके विपरीत सोचता है "रिश्वत लेकर केस छोड़ देने से क्या होगा? लोग और बेधड़क होकर ब्लैक करेंगे। जीवन और कठिन हो जायेगा। रिश्वत लेकर हम उल्टे अपने आप से दुश्मनी करेंगे"।
आज के भौतिकतावादी इस युग में नैतिक पतन के कारण ईमानदारी से आदर्श मूल्यों को लेकर जीना कठिन कार्य हो गया है, और विशेष कठिनाई उस समय होती है जब कोई पत्नी ही अपने पति को अनैतिक कर्म करने को प्रेरित करे।
व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार लोगों को इतनी तेज़ी से अपनी ओर आकर्षित कर रहा है कि तारा भी चाहती है कि उसका पति इस भ्रष्टाचार रूपी सागर में डूबकी लगाकर ईमानदारी रूपी बीमारी से मुक्त हो जाए।
इस नाटक के अन्य पात्र गिरीश, तारा, जयन्त, सेठजी, मि. मेहता, मिसेज़ मेहता, रानी ईमानदारी को खूबी नहीं, बीमारी ही मानते हैं जो इंसान को न जीने देती है और न मरने। जिनका मानना है कि इससे जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए अच्छा है।
‘चिराग़ की लौ’ में नाटककार ने यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि जिस समाज में ईमानदारी एक अवगुण है क्या वह समाज कभी भ्रष्टाचार मुक्त हो सकता है या उस समाज, देश का सही विकास हो सकता है? प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्ट आचरण का ही विस्तार मिलता है। सिफ़ारिश और रिश्वत जैसे भयंकर रोग अब लोगों को चौंकाते नहीं है क्यों कि कुछ प्राप्त करने के लिए ये स्वाभाविक से प्रतीत होने लगे हैं। वहीं किशोर के शायर मित्र नसीम का परिवार है जहाँ उसके आदर्शों की सन्तुष्टि के लिए नसीम की पत्नी स्वयं ही उसे आयकर अधिकारी की २५०रु. की नौकरी त्यागकर स्वतंत्र रूप से पत्रकार बनने के लिए प्रोत्साहित करती है। जहाँ वह २००रु. मासिक पाता है। फिर भी वह ख़ुश है क्यों की वह नहीं चाहती की उसका पति ऐसी नौकरी करे जहाँ वह ख़ुद को बेईमानों के हिसाबों के अँधेरे जंगलों में घिरा पाए। जहाँ लोग कदम-कदम पर रिश्वत की गठरी लेकर खड़े हों तथा शायरी जो नसीम को बेहद पसंद है वह उसे ही भूल जाए। दो वक़्त की रोटी और एक दूसरे का साथ प्राप्त हो तो वह ज़िन्दगी ख़ुशी ख़ुशी बिताने वाला दम्पति है। वहीं तारा के लिए ख़ुशी पैसा है इसलिए किशोर कहता है कि तारा ने मुझे चाहा मेरे आदर्शों को नहीं।
आज़ादी के बाद देश में उभर रहे शोषण, रिश्वत की दुर्भावना ने मूल्य संकट की स्थिति उत्पन्न कर दी है। आर्थिक विभिन्नता से भारतीय जीवन अस्त व्यस्त हो गया। नसीम डरता है की किसी घड़ी में या किसी मज़बूरी में उसके कदम डगमगा न जाए क्यों कि ‘हर घड़ी लोग कारों, डालियों, सौगातों और सिफ़ारिशों के फंदे डालते रहते हैं’। वहीं किशोर का मानना है कि ईमान, आदर्शों से गिरना इन्सान के हाथ में है। भ्रष्टाचारियों द्वारा अनेक प्रयत्न करने पर भी किशोर द्वारा रिश्वत न लेने का उल्लेख करके लेखक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मानसिक संस्कारों और आदर्शों के बल पर भ्रष्ट व्यवस्था से टक्कर लेना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। महादेवी वर्मा के शब्दों में “हमारे आधुनिक युग की प्रेरणा दोहरी है- एक वह जिसने अन्तर की शक्तियों को फिर से नापा- तोला, जीवन के विषम खण्डों में व्याप्त एकता को पहचाना तथा मानसिक संस्कार को प्रधानता दी और दूसरा वह जिसने यथार्थ जीवन के पुनर्निर्माण की दिशा की खोज की, उसमें नवीन प्रयोग किए और अन्तर की शक्तियों को कर्म में साकारता दी”। ‘चिराग़ की लौ’ नाटक में किशोर और नसीम मानों इन्हीं दो प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक आदर्श के लिए यथार्थ को छोड़ देता है, दूसरा आदर्श को ही यथार्थ बना लेता है।
‘चिराग़ की लौ’ नाटक में नाटककार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले अधिकारियों के लिए काम करना दूभर हो गया है। भ्रष्टाचारी सीधे-सीधे अधिकारी को रिश्वत देने की कोशिश करते हैं पर जब वह अपने आदर्शों से बिलकुल भी न हिले तो गिरीश जैसे लोगों को कमीशन देकर अपना काम कराना चाहते हैं। कमीशन लेकर काम कराने का धंधा भी तेज़ी से फैल रहा है। गिरीश हर शनिवार को पार्टियों में बड़े लोगों को बुलाता है। उच्च पद पर आसीन उन अधिकारियों से काम कराने हेतु स्त्रियों को नौकरी पर रखता है। इन्हीं पार्टियों में गिरीश अधिकारियों से उनका परिचय कराता है। कमीशन लेकर गिरीश स्त्रियों को अधिकारियों के दफ्तर भेजता है जहाँ वो तीन-चार घंटे हँस बोलकर अपना काम करा लाती हैं। नाटककार ने उच्च पदों पर आसीन उन अधिकारियों पर अंगुली उठाई है जो नैतिक एवं चारित्रिक पतन की ओर अग्रसर है तथा भ्रष्टता से स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं। तब सम्पूर्ण राष्ट्र किस सीमा तक आंतरिक रूप से खोखला हो सकता है, इसे सरलता से समझा जा सकता है।
नाटककार ने यह कटु यथार्थ भी उजागर कर दिया है कि यहाँ आयकर अधिकारियों की इज़्ज़त वो दुकानदार करते हैं जिनका काम है बेईमानी से कमाना, रिश्वत देकर आयकर से बचना। इस भ्रष्ट व्यवस्था में व्यक्ति की इज़्ज़त उसके आदर्श, उसकी मेहनत, ईमानदारी, काम के प्रति निष्ठा देखकर नहीं की जाती बल्कि उसका घर, उसके घर में मौजूद सामान, उसकी जेब के पैसे को देखकर की जाती है। मि. मेहता, गिरीश, जयन्त यही ध्यान में रखकर मित्रता करते हैं कि कौन सा व्यक्ति उनके किस काम आ सकता है।
भ्रष्टाचार का फैलाव राजनीतिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन में पूरी तरह हो चुका है। व्यवस्था इतनी चरमरा गई है कि किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। किशोर कहता है ‘सम्बन्ध बनाने से पहले उसके जीवन के बहरी रूप को ही न देखो, असली रूप को भी देखो’। जयन्त के संदर्भ में किशोर कहता है ‘वे चोर, लुटेरे और खूनी हैं, क्यों कि आजकल इसके लिए नक़ाब चढ़ाकर पिस्तौल चलाने या छुरा घोंपने की ज़रूरत नहीं। एक ज़रा भाव बढ़ाने से लोगों के लाखों सिक्के इनकी तिजोरियों में सिमटे चले आते हैं’। जयन्त, सेठ, गिरीश आदि स्वयं तो भ्रष्टाचारी हैं ही, अपने स्वार्थ के लिए वे दूसरो को भी ईमानदारी छोड़ने का उपदेश देते हैं और उन्हें कुमार्ग पर चलाना चाहते हैं। सेठजी किशोर को सोफा, रेडियो, कालीन की रिश्वत देना चाहते हैं वहीं गिरीश कार देकर किशोर की ईमानदारी को खरीदना चाहता है। किशोर इस भ्रष्टाचार रूपी अंधकार में चिराग़ की वो लौ है जो किसी भी भौतिक प्रलोभन में न फँसकर अपनी ईमानदारी को नहीं बेचता। वह कहता है ‘एक ईमान बेचता हो तो क्या हर आदमी के लिए ज़रूरी है कि वह भी अपने ईमान को बाज़ार में ला रखे?’। दूसरों को लूटकर अपना घर भरने वाले, गैरकानूनी काम करने वाले भ्रष्टाचारी, कर से बचने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते हैं। तारा किशोर के घूस न लेने के कारण उससे असंतुष्ट है कहती है ‘मन के इस सौदे में मैं बुरी तरह लुट गई हूँ’। तारा में धन, ठाट-बाट और वैभव की प्यास है। इसी का फायदा जयन्त, गिरीश उठाने की कोशिश करते हैं। अगर तारा में धन की इच्छा इतनी प्रबल नहीं होती तो तारा का इस्तेमाल उसके पति के खिलाफ़ नहीं हो पाता। तारा इनके चंगुल में फँसकर घर का सुख चैन नष्ट कर लेती है।
नाटककार ने इस नाटक में कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। हमारा समाज किस दिशा में अग्रसर है जहाँ रिश्ते इतने कमज़ोर हो गए हैं की पैसे नाम की आँधी उन्हें सूखे पत्ते की तरह उड़ा ले जाती है। अपने जीवन से असंतुष्ट व्यक्ति इच्छा पूर्ति हेतु किसी भी हद तक गिर जाता है। तारा किशोर से पूछे बिना अपनी आकांक्षाओ की पूर्ति हेतु गिरीश के यहाँ नौकरी कर लेती है। किशोर नहीं चाहता कि उसकी पत्नी पाँच सौ रु. के लिए अपनी निगाहों, अपनी मुस्कुराहटों, अपने कपड़ों से झाँकते बदन को दिखाकर तथा रिश्वत देकर लोगों से कानून के विपरित काम करने को बाध्य करे। अपना औरतपन बेचकर औरों के ईमान को खरीदना किशोर की दृष्टि में हेय कार्य है। सिद्धांतवादी, आदर्शवादी विचारों का व्यक्ति किशोर कटुता और अकेलापन भोगने को बाध्य होता है। वह परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ कभी भी अपने आपको पराजित अनुभव नहीं करता।
नाटककार ने इस नाटक के माध्यम से यह सोचने को बाध्य कर दिया है कि क्या दिखावटी जीवन जीने के लिए हम अपने नैतिक मूल्यों और मर्यादाओं को ही भूल गए हैं। इस भ्रष्ट व्यवस्था ने सबसे अधिक ईमानदार आदमी को लूटा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण देश भ्रष्टाचार रूपी दलदल में गिर पड़ा है। पक्षपात, तिकड़मबाजी, रिश्वतखोरी इत्यादि प्रवृत्तियाँ समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। देश की चिंता की अपेक्षा स्वार्थपूर्ति की चिंता सर्वोपरि हो गई है। हर गैरकानूनी काम करके भी जयन्त, मेहता, गिरीश अपनी पैसे की भूख की पूर्ति नहीं कर पा रहे। यह वो भूख है जो कभी समाप्त नहीं होती बल्कि बढ़ती जाती है।
इस भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदार व्यक्ति के कार्यों में रुकावट डालने वालों की कमी नहीं है। ईमानदार व्यक्ति के जीवन का अनिवार्य सत्य बन गया है- संघर्ष। कभी यह संघर्ष अपने अस्तित्व की, कभी ईमानदारी की रक्षा हेतु और कभी परिवारजनों की स्वार्थनिहित आकांक्षाओं से करना पड़ता है।
नसीम जिस रिश्वतखोरी, चापलूसी से छुटकारा पाने हेतु अपनी आयकर विभाग की नौकरी छोड़कर पत्रकार बना वहाँ भी इस रिश्वत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। हर तरफ भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। जयन्त नसीम को ५००० रु. रिश्वत की पेशकश करता है ताकि वह अपने अख़बार में यह न लिखे कि जयन्त ने मिल के स्टील के कोटे को ब्लैक में बेचकर पचास हज़ार रु. हड़प किये हैं। नसीम के रिश्वत न लेने पर जयन्त उसे यह प्रलोभन देता है कि "मैं अपनी मिल के मजदूरों के लिए एक मैगज़ीन निकालना चाहता हूँ। क्या आप मेरी मदद कर सकेंगें?"; "मैं पाँच सौ दूँगा। आप अब से अच्छी हालत में रह सकेंगे"। नसीम किसी भी कीमत में अपनी ईमानदारी, अपनी आवाज़, अपनी आज़ादी और अपनी कलम को नहीं बेचता।
इस भ्रष्ट व्यवस्था में जयन्त जैसे भ्रष्टाचारी कानून से बचने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। जब रिश्वत से काम न बने तो वह उस सबूत को ही नष्ट कर डालते हैं जो उनके लिए खतरा बने। जिस दफ्तर में जयन्त के खिलाफ़ कागज थे वह उस दफ्तर में ही आग लगवा देता है। कानून व्यवस्था का खोखलापन यहाँ स्पष्ट दिखाई देता है। कानून का डर होता तो इतने धड़ल्ले से गैरकानूनी कार्य नहीं होते और न ही ईमानदार किशोर व नसीम इन भ्रष्टाचारियों से चारों तरफ से घिरे होकर इनसे जूझ रहे होते। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए किये जा रहे प्रयास यहाँ पर्याप्त नज़र नहीं आते।
‘चिराग़ की लौ’ नाटक में नाटककार ने सफेदपोश अपराधियों के चेहरे से नक़ाब उठाते हुए कहा है ‘हमारी ज़िंदगी की तंगी और तबाही के ज़िम्मेदार कौन है, हमें अक्सर पता नहीं चलता। हम जिन चेहरों को बेहद खूबसूरत, बेहद काबिले-इज़्ज़त समझते हैं, वही हमारे सबसे बड़े दुश्मन होते हैं’। इन सफेदपोश अपराधियों ने तो ‘जियो और जीने दो’ ‘का अर्थ ही बदल दिया है ‘यह भी क्या कि न ख़ुद जीते हो, न दूसरों को जीने देते हो। अरे, घाट पर बैठे हो तो अपना किराया लो। लोगों की किश्तियाँ क्यों रोकते हो?’।
आज इस भ्रष्ट व्यव्स्था में स्वार्थों धुँआ मानवता की साँसो को अवरुद्ध कर रहा है। किशोर समाज में पनप रहे अत्याचार, भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता को दूर करने की हर संभव कोशिश करता है इसलिए स्वयं किसी भी प्रलोभन में नहीं फँसता। भौतिक प्रलोभनों को स्वीकार करने वालों में चाहे उसकी पत्नी तारा ही क्यों न हो, निर्भीक होकर फटकारता है ‘तुम्हारी आँखों में दूसरों के नक्शे हैं और तुम्हारी देह आत्मा भटकती फिर रही है- रानी के बंगलों में, जयन्त की कार में, गिरीश की पार्टियों में’। वह अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण ईमानदार है। जो भी काला धन और चोरबाज़ारी करते हुए पकड़े जाते हैं, उनके बही खातों को अपने नियन्त्रण में रख कर कड़ी कार्यवाही करता है। लेकिन किशोर को दुख तो तब होता है जब उसकी पत्नी ही भ्रष्टाचार के रंग में रँग जाने के बाद पकड़े गए बही खातों को पाँच हज़ार रु. में बेच डालती है। नायक किशोर का भीतरी दुःख इन शब्दों में व्यक्त हुआ है ‘मेरी ही बीवी ने मेरे ही घर में मेरे ही ईमान को पाँच हज़ार में बेच डाला’। अपने सिद्धांतों को ज्वलंत रखने के लिए किशोर को तारा से पृथक रहने का निश्चय करना पड़ता है क्योंकि वह व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के अंधकार को दीपक की लौ की भाँति चीरना चाहता है। ईमानदार व्यक्ति के लिए यह भ्रष्ट समाज इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता कि या तो उसे पारिवारिक विघटन के तूफान में बहा ले जाए अथवा उसे अपना युद्ध स्वयं लड़ने के लिए एकाकी छोड़ दे। इस प्रकार नायक पत्नी से दूर हटता हुआ अपने आदर्श विचारानुसार मानवतावादी भूमिका निभाते हुए अपने कर्मक्षेत्र में सफल होता है।
‘चिराग़ की लौ’ नाटक में व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, स्वार्थभावना, नैतिक पतन, रिश्वतखोरी की भयानक लेकिन सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की गई है। इस तस्वीर के माध्यम से नाटककार ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं जिसका समाधान सरलता से होने वाला नहीं है। नाटक में प्रस्तुत व्यवस्था की यह तस्वीर हृदय को झकझोर देती है। यदि देश की यह तस्वीर नहीं बदली तो आने वाले समय में देश का भविष्य बहुत भयानक होने वाला है। नाटककार रेवतीसरन शर्मा ने व्यवस्था की कमज़ोरियों को उघाड़ कर रख दिया है। इसी भ्रष्ट व्यवस्था के कारण इस नाटक में किशोर और तारा के सुख एवं खुशियों से भरे रिश्ते का दुःख भरा अंत हो जाता है।
सन्दर्भ:
१. चिराग़ की लौ – रेवतीसरन शर्मा
२. प्रसादोत्तर नाटक में राष्ट्रीय चेतना - डॉ. मंजुला दास
३. साठोत्तर नाटक में त्रासद तत्व – डॉ. मंजुला दास
४. साठोत्तरी हिंदी नाटक – दुबे
५. शंकर शेष के नाटकों में संघर्ष चेतना –हेमंत कुकरेती
शोधार्थी
पूनम
एम.फिल, प्रथम वर्ष
दिल्ली विश्वविद्यालय