रण-नाद

दीपक शर्मा (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

प्रधानाध्यापिका की अपनी पहली नियुक्ति के अन्तर्गत जब मुझे दूर का कस्बापुर मिला तो मैं घबरा गयी।

अभी तक के अपने छत्तीस वर्ष मैंने अपने मार्गदर्शक, वकील पिता और स्नेही, एहतियाती माँ की शरण में बिताये थे। बचपन में छत से गिर जाने के कारण पैर में लगी एक चोट ने मुझे पंगु कर दिया था और अपने पाँच बहन-भाइयों में मैं अकेली ही अविवाहित रह जाने से उन्हीं के साथ बनी रही थी जब कि दूसरे वे सभी अपने अपने परिवारों के संग अलग रचे-बसे थे।

“लखनऊ से तुम्हारे साथ हमारी ‘तेजबुद्धि’ चली जाएगी और तुम्हें पता भी न चलेगा तुम घर से दूर हो,” माँ ने मुझे भरोसा दिलाया था– बाबूजी को अकेले छोड़ना, उनके लिए असम्भव था और ‘तेजबुद्धि’ हमारी पुरानी पचास-वर्षीया नौकरानी थी जिसे रसोईदारी के साथ-साथ व्यवहारिकता की भी पूरी समझ थी।

“फिर तुम स्वयं बुद्धिमति हो, चतुर हो। जाते ही अपनी अनुशासन प्रियता की धाक जमा ही लोगी,” बाबूजी ने भी मेरा ढाढ़स बँधाया था। ”घबराने की तो कोई बात है ही नहीं। तुम अपने अधिकार-पत्र के साथ वहाँ सत्तारूढ़ होने जा रही हो। घबराना तो उन्हें चाहिए जिन्हें तुम्हारी दरबारदारी करनी है . . .”

कस्बापुर के उस इन्टर कालेज में सह-शिक्षा थी। शहर का वह एकल स्कूल/कॉलेज जो ठहरा!

स्टाफ़ के नाम पर वहाँ छप्पन अध्यापक थे, ३० पुरुष एवं २६ महिलाएँ। विद्यार्थीगण, १३९६। जिनमें से स्टाफ़ रजिस्टर में उस दिन पाँच अध्यापकों के हस्ताक्षर वहाँ दर्ज नहीं थे। बल्कि, जवाहर जुनेजा नाम के अध्यापक ने तो अपनी हाज़िरी पिछले पाँच दिन से नहीं लगायी थी।

“इन लोग की छुट्टी की अर्ज़ियाँ लाइए," मैंने हैडक्लर्क से जवाब की माँग की।

“इस मामले में यहाँ का स्टाफ़ कोई नियम नहीं मानता, मैडम,“ हैडक्लर्क ने असावधानी से उत्तर दिया, “कुछ स्टाफ़ तो ऐसा है जो एक-एक सप्ताह इधर से ग़ायब रहता है और अपनी अर्ज़ी बाद में पेश करता है।"

“अब यह नहीं होगा,” मैंने स्वर कड़ा कर लिया, “कल से मेरे दफ़्तर के दरवाज़े की बग़ल में एक नोटिस बोर्ड रहेगा जिस पर पहली घंटी तक न पहुँचने वाले अध्यापकों के नाम लिखे जाएँगे, और अगर वे, बाद में आएँ भी तो उन्हें उस दिन की छुट्टी लेनी होगी . . .” 

“जी मैडम . . .”

उसी दिन मैंने एक स्टाफ़ मीटिंग भी की, जिसमें एक नया रजिस्टर उनके सामने रखा गया, जिसकी हर तारीख़ के नीचे दो कॉलम बने थे। 

“कल से हर अध्यापकगण को स्कूल पहुँचने पर अपना एक हस्ताक्षर करना पड़ेगा, पहले कॉलम में तथा स्कूल छोड़ने पर दूसरा हस्ताक्षर करना होगा, दूसरे कॉलम में।”

जवाहर जुनेजा का नाम अगले चार दिन तक लगातार गैर-हाज़िरी वाले नोटिस बोर्ड पर दर्ज होता रहा किंतु न तो उसकी छुट्टी ही की कोई अर्ज़ी आयी और न ही वह स्वयं आया।

“जवाहर जुनेजा यहाँ के स्थानीय अध्यापक-संघ का सचिव है और वह कम ही स्कूल आता जाता है। और जब आता भी है तो पढ़ाता नहीं। प्रिंसिपल के पास बैठ कर गप लगाता है, चाय पीता है और चल देता है,” मेरे चिन्ता व्यक्त करने पर मुझे बताया गया।

उसी चौथे दिन फिर मैंने चपरासी के हाथ उसके घर के पते पर अपनी चेतावनी भेजी, उसे अपनी अनुपस्थिति का कारण बताना होगा।

चपरासी ने लौट कर बताया जवाहर जुनेजा प्रदेशीय यूनियन की एक सभा में भाग लेने लखनऊ गए हुए हैं और तीन दिन बाद लौटेंगे।

“मैं जवाहर जुनेजा हूँ,” आठवें दिन वह मेरे दफ़्तर में आन प्रकट हुआ, “सुना है मेरे बाहर जाने पर आपको आपत्ति रही . . .”

नाटे क़द के साथ वज़नी कंधे लिए जवाहर जुनेजा के हाव-भाव में विरोध था, आक्रमण था। उसकी उम्र पचास और पचपन के बीच थी किन्तु उस की इठलाहट एवं उच्छृंखलता किसी अप्रौढ़ युवक के अविवेचित उतावलेपन को भी मात करती थी।

“आपत्ति इसलिए रही, क्योंकि आप ने अपनी अनुपस्थिति की कोई भी सूचना हमारे दफ़्तर में नहीं पहुँचायी थी,” मैंने निश्चित स्वर में उत्तर दिया।

“आप ऐसे नियम बनाएँगी तो हमें आपत्ति हो जाएगी . . .”

“किस अधिकार से?”

मैंने उसे ललकारा।

“आप क्या जानती नहीं हम कौन हैं?”

“कौन हैं?” मैं डरी नहीं।

“हम चाहें तो आपकी आज ही ट्रांसफ़र करवा दें . . .”

“आप भूल रहे हैं मैं सरकारी नौकरी में हूँ और सरकार के अलावा मुझे कोई नहीं हिला सकता . . .”

“फिर यह जान लीजिए आप की सरकार मेरी जेब में है . . .और सरकार की नियमावली मेरे हाथ में . . .”

“देखते हैं, नियमावली में ज़्यादा ताक़त है या मेरी पहुँच में।”

उसके जाते ही मैंने एक स्टाफ़ मीटिंग बुलायी और कॉलेज के अध्यापकगण को जवाहर जुनेजा से हुई अपनी बहस से अवगत कराया।

मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे दो दलों में बँटे हुए थे। एक दल जवाहर जुनेजा का पक्षधर था तथा दूसरा उसका प्रतिरोधी। कारण, पहले दल के कुछ सदस्यों के उस ने स्थानांतरण रुकवाए थे और कुछ को समय-कुसमय पर सरकार से रियायती छुट्टी की अनुज्ञा दिलवायी थी। प्रतिरोधी वे थे जो सीधी लीक पर चलने में विश्वास रखते थे, अपने अध्यापन-कार्य को परम धर्म मानते थे और अनर्जित सुविधाओं के पीछे नहीं दौड़ते थे।

अपना पक्ष प्रस्तुत करने हेतु मेरा निश्चय अपना कथन अभी तैयार ही कर रहा था कि जवाहर जुनेजा सभा-कक्ष में आन पहुँचा। दनदनाता हुआ। एकचारी हठी की भाँति।

“हाज़िरी रजिस्टर कहाँ है?” मेरी ओर न देखकर वह सामने बैठे अध्यापकों की ओर देख रहा था।

“क्या आप नहीं सोचते इस समय अंदर आने से पहले आपको मेरी आज्ञा लेनी चाहिए थी?” मैंने उस पर लगाम चढ़ानी चाही।

“भूल गए, आप महिला हैं। तिस पर विकलांग। आप का लिहाज़ तो हमें रखना ही चाहिए था . . .”

“आप से न तो मैं एक महिला की हैसियत से बात कर रही हूँ और न ही किसी विकलांग की हैसियत से। यहाँ मैं बात एक प्रिंसिपल की हैसियत से कर रही हूँ . . .”

सभा-कक्ष में सन्नाटा पसर लिया।

“असल में हम लोग को महिला प्रिंसिपल की आदत तो अभी पड़ी नहीं। आप से पहले वाले सभी प्रिंसिपल हमारी तरह पुरुष रहे और हमारा लिहाज़ भी रखते रहे,“ अपनी गुस्ताख़ी को उसने नटखटी की ओट दे दी। मीटिंग में बैठे कुछ ने ठीं-ठीं छोड़ी तो कुछ ने अपना सिर हिला कर अपनी अप्रसन्नता प्रदर्शित की।

“कैसा लिहाज़?” मैं मुक़ाबले पर उतर आयी।

“वे जानते रहे हम अध्यापकों के अधिकारों को महत्ता देते हैं, उन की भलाई के लिए काम करते हैं फिर ऐसी छोटी-मोटी सभाओं में, आएँ, न आएँ, कोई अन्तर नहीं पड़ता . . .”

“यदि वे सभाएँ उसी संस्था से सम्बन्ध रखती हों जो आप की इस शक्ति-राजनीति का स्तम्भ है, स्रोत है तो बहुत बड़ा अन्तर पड़ता है . . .”

“अन्तर तब पड़ता है जब इस संस्था को मैंने कभी लाभ न पहुँचाया हो। इस के अध्यापकों के हित की रक्षा न की हो . . .”

“आप भूल रहे हैं कि यह एक शिक्षण-संस्था है जहाँ विद्यार्थियों का हित सर्वोपरि है और प्रत्येक अध्यापक का पहला कर्त्तव्य उन्हें लाभ पहुँचाना है . . .उन्हें शिक्षित करना है . . .उन्हें अनुशासित करना है . . .”

सभा-कक्ष में आधे से ज़्यादा हाथों ने ताली बजायी।

मुझे लगा बाज़ी बीस होने जा रही थी।

किन्तु उसने नया जौहर दिखा दिया, “यह बहसा-बहसी धरी की धरी रह जाएगी जब आप की बदली के लिए ऊपर शिक्षा निदेशालय में एक पर्चा भेजा जाएगा, सहशिक्षा वाले इस कॉलेज को महिला प्रिंसिपल नहीं चाहिए, पुरुष प्रिंसिपल चाहिए . . .”

“एक आदमी के पर्चे से ट्रान्सफर कर दी जाती है क्या?” मैंने उसे ललकारा।

“वह पर्चा मुझ अकेले के हस्ताक्षर से नहीं जाएगा। यहाँ के पूरे स्टाफ़ के हस्ताक्षर से जाएगा। यहाँ के विद्यार्थियों के हस्ताक्षर से जाएगा . . .”

“और ये लोग आपके कहने पर कुछ भी लिख देंगे?” मैंने अध्यापकगण से समर्थन माँगना चाहा।

सभी चुप्पी साधे रहे।

मैं हतप्रभ रह गयी।

प्रधानाध्यापिका का निवास स्थान कॉलेज के परिसर ही में था।

ख़ाली होकर वहाँ जैसे ही मैं पहुँची ‘तेजबुद्धि’ ने मुझे घेर लिया। जवाहर जुनेजा से हुई मेरी झड़प की सूचना वह पाए बैठी थी।

बोली, “बिटिया, हम बेपढ़ सही मगर इतना ज़रूर जानते हैं दाँत अपने तभी दिखाने चाहिएँ जब आप उनसे काट सको। पहले अपने दाँत तेज़ कर लो, बिटिया। फिर उन्हें किटकिटाना . . .”

“खाने में क्या बनाया है, अम्मा?” मैंने उस का ध्यान ब‘ंटा दिया, “तेज़ भूख लगी है . . .”

अपनी अकुलाहट मैंने माँ और बाबूजी से भी छिपा ली। संध्या समय जब लखनऊ से उन का फोन आया तो मैं ने फिर यही दोहराया, “कस्बापुर बहुत अच्छी जगह है। यहाँ मेरा मन ख़ूब लगेगा . . .लग रहा है।” 

जवाहर जुनेजा से मैं अकेले दम निपटना चाहती थी।

लखनऊ की बैसाखियों के बिना।

आगामी दस दिन घटनापूर्ण रहे।

डॉक्टर के सर्टिफ़िकेट के साथ जवाहर जुनेजा की दस दिन की ‘मेडिकल लीव’ की अर्ज़ी आ चुकी थी और मुझे उसकी अनुपस्थिति का लाभ मिला था।

इन दस दिनों में ज्येष्ठ छात्रों के अभिभावकों के संग मैंने कई बैठकें आयोजित की थीं। और उन्हें अध्यापकगण के मूल कर्तव्यों के प्रति सचेत करते हुए आग्रह किया था कि कर्तव्यत्याग करने वाले दोषी अध्यापकों के विरुद्ध उन्हें मुझे लिखित शिकायतें दे देनी चाहिए।

कहना न होगा शिकायत-पेटी में जवाहर जुनेजा के विरुद्ध अधिकतम शिकायतें जमा हो रही थीं। अध्यापन कार्य के प्रति उसकी बेरुखी को लेकर।

यही नहीं, अपनी इस नयी बलनीति के अन्तर्गत मैंने कॉलेज के विद्यार्थियों की वाद-विवाद प्रतियोगिता एवं उनके सांस्कृतिक कार्यक्रम सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करवाए जिन की अध्यक्षता करने के लिए शहर के ज़िलाधीश, पुलिस-अधीक्षक, मुख्य चिकित्साधिकारी एवं सेशन जज को अलग-अलग समय पर निमंत्रण दिया। और वे कॉलेज में आते तो स्थानीय समाचार-पत्रों के संवाददाता भी विशेष रूप से उन आयोजनों के विवरण अपने अपने प्रकाशनों में देने हेतु चले आते।

परिणाम, कस्बापुर की जनता पर यह स्पष्ट हो गया कि पैर की अपंगता के बावजूद मेरी कार्य-क्षमता में कमी नहीं थी।

ग्यारहवें दिन रविवार था और जवाहर जुनेजा अगले दिन जब कॉलेज लौटा तो उसके हाथ नमस्कार मुद्रा में जुड़े थे, “मैडम, मेरा फ़िटनेस सर्टिफ़िकेट।”

“आप यह हैडक्लर्क को दीजिए। इसे आप की अर्ज़ी के साथ आपकी सर्विस बुक में लगाना उसका काम है, मेरा नहीं,“ अपने दफ़्तर से मैने उसे तत्काल बाहर भेज देना चाहा।

“मेरी सर्विस बुक में वैसी अर्ज़ी और ऐसा सर्टिफिकेट पहली बार जोड़े जाएँगे . . .”

“आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखेंगे तो यह आख़िरी बार भी हो सकता है . . ."

“सच पूछें तो, मैडम, बीमार ही मैं पहली बार हुआ हूँ। वह भी, क्योंकि आप की डाँट-डपट ने मुझे बहुत ही भयभीत कर दिया था . . .”

“वह डाँट-डपट नहीं थी। नियमों का एक विवेचन था। उस पर दोबारा बात न ही की जाए तो अच्छा . . .” निर्णायक, समापक मुद्रा के साथ मैंने उसे बाहर जाने का संकेत दिया।
 

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