रामनारायण रमण कृत ‘जोर लगाके हइया’

15-09-2021

रामनारायण रमण कृत ‘जोर लगाके हइया’

डॉ. अवनीश सिंह चौहान (अंक: 189, सितम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

समीक्ष्य पुस्तक: जोर लगाके हइया
लेखक: रामनारायण रमण
प्रकाशक: जयपुर : बोधि प्रकाशन
संस्करण: 2021
मूल्य: रु. 150/-
पृ. संख्या: 116
ISBN: 978-93-90827-71-8


अनादिकाल से भारतीय वाङ्मय में मंगल-मन्त्रों की महत्ता का वर्णन मिलता है। इसका मुख्य कारण यह है कि स्वाध्याय, सहकार, सहयोग एवं सह-अस्तित्व के मूल्यों पर केंद्रित यह मांत्रिक भावधारा व्यक्ति और वस्तु में भेद किये बिना सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए सतत प्रवहमान है— "लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु।" लोकहित की भावना से समृद्ध इस प्रकार के तमाम लोकप्रिय मन्त्र/ श्लोक/ पदावलियाँ याचनाएँ-भर नहीं हैं, बल्कि जीवंत प्रार्थनाएँ हैं, जिनसे सार्थक एवं सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। प्रार्थनाएँ, जो निरापवाद रूप से आस्था एवं विश्वास पर अवलम्बित होती हैं, वैयक्तिक हो सकती हैं और सामूहिक भी और इन दोनों ही स्थितियों में इनके अपने नाम, रूप, गुण, प्रभाव आदि तो होते ही हैं, उनकी अपनी सीमाएँ भी होती हैं। इन्हीं सीमाओं के चलते जब समाज निर्माण में प्रार्थनाएँ शिथिल पड़ती हैं, तब प्रतिरोध की आवश्यकता होती है। शायद इसीलिये साहचर्य, सहयोग, समायोजन, संघर्ष एवं प्रतियोगिता जैसी स्वस्थ सामाजिक प्रक्रियाओं के साथ प्रतिरोध की संस्कृति के प्रबल पक्षधर वरिष्ठ साहित्यकार रामनारायण रमण अपने नवगीत संग्रह— ‘जोर लगाके हइया’ में वर्तमान समय की अभिशप्त स्थितियों से जूझ रहे मनुष्य को उकसाते-जगाते प्रतीत होते हैं।

रमण जी कृत उक्त नवगीत-संग्रह का शीर्षक 1952 में रिलीज़ हुई फ़िल्म "जाल" के एक गीत की याद दिलाता है, गीत के बोल हैं— "हैया जोर लगाके हैया/ पेअर जमाके हैया/ जान लड़ाके हैया/ अरे जोर लगाके पेअर जमाके/ जान लड़ाके हैया है" (गीतकार- साहिर लुधयानवी)। यानी कि ज़ोर लगाने के लिए अड़ना पड़ता है, पैर जमाने पड़ते हैं, जान लड़ानी पड़ती है और तब कहीं जाकर किसी संघर्षरत आदमी की जीवन नैया पार लगती है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष शोषण से मुक्ति के लिए ज़रूरी संवेदना एवं संघर्ष की सनातन संस्कृति के पैरोकार रमण जी यह सब जानते-समझते ही नहीं, मानते भी हैं। शायद इसीलिये सकारात्मक बदलाव के लिए वह दुनियाभर के शोषितों, पीड़ितों एवं वंचितों का आह्वान करते हुए कहते हैं— "जानकारियों के/ चलते अब/ संघर्षों के दिन/ अड़े हुए हैं/ खून-पसीने की/ बूँदें गिन-गिन/ 'जोर लगाके हइया'/ पूरा जोर लगा/ बाहों में तेरी/ फौलादी लच्छा है" (‘जोर लगाके हइया’, 46)। बाँहों के फ़ौलादी लच्छों की शक्ति और सामर्थ्य पर पूरा भरोसा करते हुए कभी गजानन माधव मुक्तिबोध ने भी कुछ इसी प्रकार से कहा था— 

आँधी के झूले पर झूलो/ आग बबूला बन कर फूलो
कुरबानी करने को झूमो/ लाल सबेरे का मूँह चूमो
ऐ इन्सानों, ओस न चाटो/ अपने हाथों पर्वत काटो। (ऐ इन्सानों)
 

वर्तमान समय में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के नारों से बार-बार छले जा रहे मेहनतकश लोगों (स्त्री-पुरुष) के लिए 'जोर लगाके हइया' किसी सिद्ध मन्त्र से कम नहीं है— एक ऐसा मन्त्र जो उत्साह, उमंग, ऊर्जा और विश्वास की अनुभूति कराने में समर्थ है। शायद इसीलिये इस 'फ्रेज़' का प्रयोग श्रम-केंद्रों के साथ एडवर्टाइज़िंग, मार्केटिंग एवं मीडिया इंडस्ट्रीज़ और बॉलीवुड में ‘जोर लगा के.... हैया!’ (2009) एवं ‘दम लगा के हईशा’ (2015) जैसी औसत बजट की फ़िल्मों के नामकरण में भी ससम्मान किया गया है। इसी प्रकार से कुछ अन्य संचार माध्यमों ने भी इस 'फ्रेज़' के व्यापक स्वरूप को गढ़ने में पर्याप्त योगदान दिया है। इतना सब होने पर भी आज देश-दुनिया के करोड़ों मेहनतकश लोग हाशिये पर हैं। आख़िर क्यों? क्योंकि दुनियाभर के तमाम संगठनों— राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि में अपनी पैठ रखने वाले संवेदनहीन असरदार लोग हाशिये पर विद्यमान असंख्य जनों का शोषण-उत्पीड़न कर ऐसा खेल खेल रहे है, जिसका कोई अम्पायर/ रेफ़री नहीं है। ऐसी विषम स्थिति में यदि इस पीड़ित वर्ग ने कभी अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा के लिए अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश भी की, तो उसे 'येन केन प्रकारेण' दबा दिया जाता रहा है। आज के इस असमान एवं भेदभावपूर्ण सामाजिक, आर्थिक एवं लोकतान्त्रिक ताने-बाने पर कटाक्ष करते हुए रमण जी लिखते हैं—  

कहा हाशिए ने जब भी कुछ-/ हमको जगह मिले 
संविधान को धता बता तब/ उछल पड़े जुमले 

नहीं जरूरत है कोई/ पैबंद हाशिए की 
हर कतार का शब्द/ अर्थ सब सच्चा है। (‘जोर लगाके हइया’, 45)

इस शीर्षक गीत की उपर्युक्त पंक्तियों का एक अर्थ यह भी है कि वैश्विक सभ्यता और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करने वाले श्रम-योगियों को नकारकर वर्चस्ववादी व्यक्तियों एवं समूहों ने हमारे समाज के समग्र विकास की धारा को बाधित कर दिया है; जबकि होना तो यह चाहिए था कि दुनियाभर में श्रम की महत्ता को स्वीकार कर श्रम-योगियों को भरपूर स्नेह, सम्मान, प्रोत्साहन के साथ गरिमापूर्ण स्थान दिया जाता। परिणामस्वरूप आज भी हाशिए के ये लोग अपने ही घर में बेगाने हो बैठे हैं— "अपने घर में भी/ हम बाहर बैठे हैं/ दुनिया की नजरों में/ सब कुछ अच्छा है" (‘जोर लगाके हइया’, 45)। यहाँ पर प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे समय में इस आधिपत्यवादी 'दुनिया' का दायित्व क्या है? क्या 'सब कुछ अच्छा है' मान लेने या कह देने-भर से सब कुछ अच्छा हो जाता है? मेरी दृष्टि में तो क़तई नहीं। सत्य यदि कड़ुवा भी हो तब भी जगत-हित में उसे कह देने में ही भलाई है। शायद इसीलिये यह कवि बेख़ौफ़ होकर यथास्थितिवादी व्यवस्था को परिवर्तित करने का ध्येय लिए सारभौमिक सत्य को उद्घाटित कर देता है— "हम कहते हैं वही/ हमें जो दिखता है" (‘हम कहते हैं’, 25) और दिखता क्या है, ज़रा ग़ौर से देखिये—

दुर्योधन फिर आया/ राजा हुआ व्याभिचारी 

पंचशील के सपने/ बिल्कुल निर्मूल हुए 
फिर वही जबरदस्ती/ फिर वही चला शोषण 
अपने उत्पाती/ समुदायों का संरक्षण 
अपने नंगों, अपने-/ संघों का परिपोषण 

नीतियाँ बनी ऐसीं/ रात-दिन जुआ जारी। (‘अन्याय की खबरदारी’, 60)  

इस कृति के प्रथम गीत— "हम कहते हैं" (25) का प्रथम शब्द- 'हम' (‘मैं का बहुवचन और 'मैं' से श्रेष्ठ) से लेकर अंतिम गीत— "भेदों की भाषा" (115) में प्रयोग किया गया शब्द- 'हम ('पहले से हम') इन गीतों की तरह ही कई अन्य गीतों में भी व्यापक अर्थ में प्रयोग हुआ है, जोकि समतामूलक और शोषणरहित समाज के सशक्त एवं संगठित होने की ज़रूरत को महसूस करता है। कहने का आशय यह भी कि मानव एकता एवं भाईचारे की भावना को अक्षुण्य बनाये रखने के उद्देश्य से कवि 'हम' के माध्यम से अपनी रचनाओं में जो कुछ भी कह रहा है, वह सिर्फ उसका भोगा या अनुभव किया हुआ ही नहीं है; यह सब तो उन असंख्य लोगों ने भी भोगा या अनुभव किया है जो इस अनंत सृष्टि की यात्रा के साथी और सहधर्मी रहे हैं। इसलिए कवि के सामने अब ‘सामूहिक स्व’ के रक्षार्थ बहुत बड़ा सवाल है कि इस आपद घड़ी में "आखिरकार क्या किया जाए?/ सामने पड़ा जीवन/ किस तरह जिया जाए?" (क्या किया जाए?, 51)। इस सवाल का उत्तर खोजते-खोजते वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है—  

कवि ने तो कह दिया/ चौराहे पर जोर से 
चलो एक साथ उठें/ करवट बदलें, जागें, 
अपने हिस्से वाली/ हरियाली छीन लें 
अपने रस्ते, अपना हक/ आखिर क्यों मांगें? 

जोर लगाकर ये/ उद्घोष कर दिया जाए। (‘क्या किया जाए?’, 52) 

इतिहास गवाह है कि जब-जब संसार में जीवन का संतुलन बिगड़ा है, जागरूक, पराक्रमी और दूरदर्शी लोगों ने क्रांतिकारी विचारों को हथियार बनाकर अपने हक़ की लड़ाई लड़ी है। शायद इसीलिये यह क़लमकार अपने नवगीतों के माध्यम से शोषित-पीड़ित-प्रताड़ित जनमानस को उनके मानवोचित अधिकारों की प्राप्ति के लिए साधिकार प्रतिरोध, संघर्ष एवं प्रतिबद्धता का रास्ता दिखा रहा है। इससे एक ऐसे श्रेष्ठ एवं प्रगतिशील समाज के निर्माण का सपना साकार हो सकेगा, जिसमें मानवीय गरिमा के अनुकूल उन्नति के समस्त अवसरों को प्राप्त कर आदमी सुखपूर्वक अपनी ज़िन्दगी जी सके। किन्तु इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए साधन और साधना का केवल एक ही रास्ता हो, ऐसा नहीं है— "साधन और साधना के/ अपने-अपने गलियारे हैं/ फूल चुनें या पौधे रोपें/ श्रम के हाथ तुम्हारे हैं/ पढ़े-लिखे/ झूठों के पीछे/ विमल बुद्धि कब भागी है" (‘विमल बुद्धि’, 32)। संयम और साधना हो, तो विमल बुद्धि की प्राप्ति संभव है, विमल बुद्धि से सन्मार्ग और सन्मार्ग पर चलकर जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। शायद इसीलिये बाबा तुलसीदास ने “रामचरितमानस” के ‘बालकाण्ड’ में लिखा है— "अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥/ भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥" श्रेष्ठ साहित्य का मूल मर्म यही है, जिसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी कुछ इस प्रकार से सूत्रबद्ध किया है— "सारे मानव समाज को सुन्दर बनाने की साधना का नाम ही साहित्य है।"

बाबू गुलाब राय ने कभी कहा था— "राजनीति की अपेक्षा संस्कृति मनुष्य हृदय के अधिक निकट है।" किन्तु यहाँ एक प्रश्न उठ खड़ा होता है कि 'यह संस्कृति' किस प्रकार की हो? यदि किसी 'संस्कृति' से "सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास" चरितार्थ न हो सके, तो संघर्ष स्वाभाविक है, क्योंकि बकौल सुरेश गौतम— "संघर्ष ही जीवन का साहित्य है और मनुष्य की संस्कृति? वह आत्म-संशोधन की, आत्मोद्धार की, अपने आपको मुक्त करने की प्रक्रिया है" (“साहित्य, वर्चस्व और प्रतिरोध”, 21)। यही कारण है कि यह संवेदनशील नवगीतकार इस कृति की कई रचनाओं में वर्चस्व की संस्कृति से टकराने के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाता दिखाई पड़ता है, किन्तु उसके इस टकराव में वह अपनी सद्वृत्ति, सद्भाव और विवेक जैसे जीवन मूल्यों को बचाये रखता है। शायद इसीलिये विषयवस्तु की अभिव्यक्ति में उसकी भाषा प्रहारात्मक, तीक्ष्ण एवं प्रभावक होने के बावजूद भी मर्यादाहीन, अहंकारपूर्ण और विद्वेषपूर्ण नहीं है, बानगी के तौर पर कुछ पंक्तियाँ देखिये— "हाय! मीडिया हिंदुस्तानी/ हाय! हाय! राजा, रानी/ हाय! धर्म, हा!/ जाति-व्यवस्था,/ हाय! हमारी नादानी/ निर्धन और निरीह देश पर/ धनवानों की जीत लिखूँ!" (‘गीत लिखूँ’, 34)। पत्रकारिता सहित लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभों— विधायका,  कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की जर्जर हालत पर आक्रोश प्रकट कर परिवर्तनकामी चेतना, जो आज सुषुप्तावस्था में है, को जागृत करने के लिए इस कवि द्वारा प्रयुक्त भाषा पूरी तरह से समय सापेक्ष, मौलिक, सहज एवं सम्प्रेषणीय है। मनुष्य की सुंदरता, श्रेष्ठता एवं दिव्यता को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाला "साहित्य सम्प्रेषणीय तभी हो पाता है जब वह समय की भाषा में प्रकट हो" (वीरेन्द्र आस्तिक, ‘नवगीत समीक्षा के नये आयाम’, 77)। 

"जोर लगाके हइया" पर की गयी इस संक्षिप्त टिप्पणी को पढ़कर पाठकों के मन में इस नवगीत-संग्रह के रचनाकार को जानने-समझने की जिज्ञासा जागृत हो सकती है। अतः यहाँ पर दो-चार बातें इस साहित्यकार के बारे में भी कर लेना समीचीन लगता है। रायबरेली (उ.प्र.) की उर्वरा धरती पर साहित्य को समृद्ध करने वाले रचनाकार मुल्ला दाऊद, महाप्राण निराला, वाक़िफ़ रायबरेलवी, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, दिनेश सिंह आदि की भाँति ही रामनारायण रमण (जन्म तिथि- 10 मार्च 1949) ने सुदीर्घ साहित्यिक जीवन जिया है और अपनी परवर्ती पीढ़ी— ओमप्रकाश सिंह, विनय भदौरिया, जय चक्रवर्ती, रमाकांत आदि के लिए तपश्चार्य और साधना का पर्याय बने हैं। समावेशी चिंतन प्रस्तुत करने वाले रमण जी की पहली रचना 1972 में 'केरल ज्योति' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, जबकि संसाधनों के अभाव के चलते उनका पहला गीत-संग्रह— ‘मैं तुम्हारे गीत गाऊँगा’ 1989 में प्रकाशित हो सका। तब से लेकर अब तक उनकी काव्य, यात्रा-वृत्तांत, निबंध एवं आत्मकथा की लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं। पिछले दिनों उनकी आत्मकथा— ‘जिंदगी रास्ता है’ (प्रथम खण्ड, 2020) अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है, जिसकी साहित्य-जगत में काफ़ी चर्चा हो रही है। इस स्वाभाविक, भावपूर्ण, हृदय-द्रावक एवं हृदयग्राही आत्मकथा में वह अपनी काव्य-यात्रा को कुछ इस प्रकार से देखते हैं— "कविता आचरण में उतरती है। यह सूक्ष्म से और सूक्ष्म की ओर का संचालन है" (फ्लैप से)। इसी पुस्तक के पन्द्रहवें अध्याय में वे पुनः लिखते हैं— "मेरी प्यासी कविताओं ने जहाँ जीवन की आंतरिक और वाह्य दोनों रूपों की व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं, वहीं कभी संघर्ष और कभी तटस्थ भाव में संतुलन का मार्ग खोल लिया” (150)। संतुलन का यही मार्ग उनकी समस्त काव्य-कृतियों में अपना आकार लेकर हमें स्पंदित तो करता ही है, अपने ढंग से चिंतन-मनन की प्रेरणा भी देता है। इस संदर्भ में नवगीत के उन्नायक दिनेश सिंह की यह टिप्पणी बड़ी महत्वपूर्ण है— "रचनाकार अपने निजत्व और अपने चारों ओर परिव्याप्त परिवेश में अपना रचना-सूत्र और कथन के तत्व तलाशता है, उन्हें अपने राग-बोध से संश्लिष्ट कर भाव-समाधि तक ले जाता है, जहाँ एक जीवन-व्यापी गूँज के सहारे रचना रूप, आकार और शिल्प ग्रहण करती है। यह साधने और सधने की प्रक्रिया है, जिसे 'साधना' का नाम दिया जा सकता है" (संपादकीय, 'नये पुराने', गीत अंक-1, 1997)।

साधना से यहाँ एक और बात याद आयी। डलमऊ-रायबरेली की धरती से जुड़कर जहाँ सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने अपनी विशिष्ट साहित्य सर्जना से हिन्दी संसार को अचरज में डाल दिया, वहीं निर्मलता, शुचिता और पारदर्शिता के प्रतीक रामनारायण रमण ने 'निराला' के जीवन-मूल्यों को अपने जीवन में उतारकर उनकी परम्परा का बख़ूबी निर्वहन किया है। गाँव-देहात में रहना, लेखन करना, उसे प्रकाशित करवाना और पाठकों तक पहुँचाना बहुत कठिन है; कठिन न हो, तो भी आजकल ज़्यादातर रचनाकार किसी दिवंगत रचनाकार पर कार्य कर अपनी 'इनर्जी वेस्ट' करना नहीं चाहते हैं? ऐसी प्रवाहरुद्ध स्थिति में रमण जी ने 'निराला' के मानवीय सरोकारों को जन-मन तक पहुँचाने के लिए जहाँ "निराला और डलमऊ" को केंद्र में रखकर संस्मरणात्मक जीवन-वृत्त की सारगर्भित एवं सराहनीय रचना और निराला के 'कुकुरमुत्ता दर्शन' की आलोकधर्मी मीमांसा की है, वहीं इन्होंने 'निराला' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित कई साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन कर समाज के तमाम लोगों को 'निराला' से जोड़ने का सार्थक प्रयास भी किया है। आज जब कभी भी डलमऊ-रायबरेली में ‘निराला’ की बात होती है, तब रमण जी का नाम लोगों के ज़ेहन में आ ही जाता है। यह अलग बात है कि वे औरों की तरह 'निराला' को 'भुना' नहीं पाये, याकि इन जैसा ख़ुद्दार व्यक्ति कभी किसी को भुनाने के लिए श्रम नहीं करता। गाँव-जंवार में रहकर "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय च" (विनयपिटक) के सूत्र को पकड़कर जीवन जीने वाले इस सहज शब्द-साधक की यह एक साधारण कहानी लग सकती है, किन्तु यह कहानी इतनी भी साधारण नहीं है? इसलिए रामविलास शर्मा के शब्दों में बस इतना ही कहना चाहूँगा— 

यह कवि अपराजेय निराला,/ जिसको मिला गरल का प्याला,
शिथिल त्वचा, ढल-ढल है छाती/ लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाए विजय पताका/ यह कवि है अपनी जनता का! (‘यह कवि अपराजेय निराला’) 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

व्यक्ति चित्र
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बात-चीत
सामाजिक आलेख
गीत-नवगीत
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में