रक्तानुबंध

19-02-2017

रक्तानुबंध

डॉ. रजनीकान्त शाह

गुजराती कहानी का हिंदी अनुवाद
मूल लेखक: स्वर्गीय ईश्वर पेटलीकर
अनुवादक: डॉ. रजनीकान्त शाह

लोग मंगु को पागलों के अस्पताल में रखने की अमरत काकी को सीख देते थे तब उनकी आँखों में आँसू आ जाते थे। उन सब को उनका एक ही जवाब रहता था कि, "मैं माँ होकर उसकी सेवा नहीं कर सकूँ तो अस्पताल वालों में वह भाव कहाँ से होगा? यह तो अपाहिज पशु को पिंजरापोल में छोड़ आने जैसा कहलायेगा।"

अमरत काकी की यह मान्यता स्पष्ट हो जाने के बाद कोई उनसे ऐसी बात करता नहीं था। जन्मजात पागल और मूक बिटिया का वे जिस तरह पालन-पोषण करती थीं, सेवा करती थीं और प्यार-दुलार करती थीं, इसे प्रत्यक्ष देख कर लोग उनकी प्रशंसा भी करते थे कि ऐसी पागल बिटिया का लालन-पालन तो अमरत काकी ही कर सकती हैं। किसी और के घर में होती तो कब की भूखी-प्यासी मर गई होती और यदि ज़िन्दा होती तो ऐसी हृष्ट-पुष्ट शरीर तो कभी नहीं होती।

मंगु के उपरांत अमरत काकी के तीन संतानें थीं। दो लड़के और एक लड़की। बेटे पढ़-लिखकर शहर में अपना काम-काज देख रहे थे। बिटिया शादी करके ससुराल को सम्हाल रही थी। अमरत काकी उन तीनों संतानों को विस्मृत कर गई हों, ऐसे उनकी समग्र ममता मंगु पर बरसती रहती थी। छुट्टियों में उनके बेटों के कभी-कभार घर आने पर उनका घर पोते-पोतियों की मुक्त हँसी से गूँजता रहता था। फिर भी दादी के रूप में अमरत काकी कभी अतिउत्साहित होती नहीं थी। शायद ही वह बच्चों को गोद में लेतीं या खेलती और प्यार करतीं।

माँ के इस व्यवहार को बेटे मन के ऊपर नहीं लेते थे पर बहुएँ मन ही मन जल उठती थीं। दोनों बहुओं की पति के समक्ष एक ही फ़रियाद रहती थी कि बेटों के बच्चे उन्हें ज़रा भी सुहाते नहीं हैं और पागल हीरे को अंक से जुदा नहीं कर पा रहीं हैं!

मातृत्व की भावुकता में बहकर बहुएँ अमरत काकी के साथ अन्याय कर बैठती थीं। उतना ही बिटिया के बच्चों (नाते-नातियों) के प्रति भी उनका व्यवहार ऐसा ही था। इसलिए बहुएँ कभी-कभार पति के समक्ष बड़बड़ाकर चुप रह जातीं तब बेटी ही माँ को सुना देती थी कि "मंगु को अनावश्यक लाड़ लडाकर तुमने ही पागल कर रखा है। यदि आदत डाली जाये तो पशु भी समझ जायें कि कहाँ पाखाना-पेशाब आदि करना है, तो क्या बारह वर्ष की लड़की, चाहे कितनी ही पागल क्यों न हो, पर यदि उसमें आदत डाली जाये तो क्या इतना भी उसकी समझ में न आये? वह मूक है पर बहरी तो नहीं है कि वह हमारी बात को कान पर न ले। यदि भूल करे तो दो चाँटे भी लगा दिए जायें तो दुसरी बार होश में रहे।"

बेटी कुछ आगे कहे, उससे पहले अमरत काकी की आँखें बरसने लगती हैं। बेटी भी भावार्द्र हो उठती लेकिन मन को मार कर वह अपने मन की व्यग्रता को निकाल देती थी, "तुम तो जानती-समझती हो ना कि बेटी को लाड़-प्यार देकर सुखी कर रही हूँ पर याद रखना कि तुम ही उसकी असली बैरन हो। तुम हमेशा नहीं बैठी रहोगी। जब वह भाभियों के हवाले हो जाएगी तब रोज़ उसका पाखाना धोने जितनी दरकार भी नहीं करेंगी और वह दुःखी हो जाएगी।" तनिक रुककर वह धीरे से कहती कि यह कहावत ग़लत नहीं है कि "परायी माँ ही कान बींधती है। अस्पताल में रखने से यदि वह स्वस्थ नहीं होगी तो कोई बात नहीं पर पाखाना और कपड़ों का तो होश आये तो भी पर्याप्त होगा। भाइयों के घर तो भरे-पुरे हैं और भाभियाँ वक़्त पर खाना न खिलाएँ ऐसी नीच भी नहीं हैं।"

अमरत काकी लोगों के समक्ष दवाखाने की जो उपमा देती थीं तब पराये लोग भी जो नहीं कह पाते थे, वह बात बेटी कह देती थी, "दवाखाना पिंजरापोल जैसा होगा और यदि मंगु मर गई तो उसका और परिवार का भी छुटकारा होगा!"

मंगु की यदि कुदरती मौत हो तो उसे अमरत काकी भी मुक्ति समझती थी लेकिन बेपरवाही करके उसे जानबूझ कर मौत की दिशा में ढकेलने का विचार भी असह्य लगता था। स्वार्थवश तो सभी सगे होते हैं पर निःस्वार्थ भाव से जो रिश्ता निर्वाह करे, वही सच्चा सम्बन्धी। बेटे कमाते-धमाते हों, बेटी ससुराल में झूले पर झूलती हो तब मैं माँ मिट जाऊँ यह अर्थहीन होगा। मैं मंगु की सच्ची माँ बनी रहूँ तभी है मेरा सच्चा रक्तानुबंध। अतः चाहे बेटा कहे या बेटी कहे तब भी मंगु को दवाखाने द्वारा मौत की ओर ढकेलने के लिए अमरत काकी तत्पर नहीं थी।

बेटे मन के इस भाव को समझ गए थे। अतः वे कभी भी ऐसी बात करते नहीं थे। वैसे भी उदास होने का भी समय नहीं था क्योंकि तीन गोरे डॉक्टरों ने एकमत होकर यह निदान दिया था कि यह असाध्य है। मात्र बेटों के मन में एक बात का रंज था कि किसी प्रशिक्षित नर्स या डॉक्टर की देखभाल के तहत उसे रखा हो तो आदतन शायद उसे पाखाना और कपड़ों की समझ आ जाये परन्तु ऐसी सुविधा घर के पास की जा सके ऐसा नहीं था। अतः वे मौन रहे थे।

फिर भी अमरत काकी ने अपने विश्वास के अनुसार उपचार जारी रखे थे। अनेक अनामंत्रित दवाई करने वाले घर पहुँच जाते थे। शिलाजित बेचने वाले या हींग बेचने वालों को मंगु के पागल होने का अहसास होते ही वे इस बीमारी की दवाई जानते हैं, ऐसा दावा करते थे। अमरत काकी मानती थी कि एक हज़ार उपचार करें तो एक टेकनी लग जाती है। अतः अन्य के लिए पागलपंथी की बातें वे गंभीरतापूर्वक सुनतीं और श्रद्धापूर्वक उनका अमल भी करती थीं। ओझा-गुणी और ज्योतिषी भी कभी-कभार सहायता के लिए तत्पर रहते थे। एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि आगामी अगहन में उसकी दशा में बदलाव आ रहा है। अतः सब ठीक हो जायेगा। तब से अगहन महिना अमरत काकी के लिए आराध्य देव हो गया था।

अगहन महीने में संयोग से मंगु चौदह वर्ष पूरे कर रही थी। अतः कोई सयाना व्यक्ति जिस तरंग से प्रभावित न हो जाये ऐसी तरंगों के हवाले अमरत काकी हो जाती थीं। चौदहवां साल उतरते ही कमू के हाथ पीले कर दिए गए थे। मंगु यदि सयानी होती तो आज उसके विवाह की भी बात चल जाती। यदि वह अगहन में स्वस्थ हो जाये तो... उस कमनसीब का रूप ही ऐसा है कि कोई भी लड़का उसे देखते ही स्वीकृति दे दे!

और मानों वह ठीक हो गई, हो ऐसे वह विवाह की योजना के बारे में सोचने लगतीं थी। कमू के वक़्त घर के हालात आज जैसे अच्छे नहीं थे। अब तो दोनों भाई शहर में बहुत कमाते हैं। पानी की तरह पैसा खर्च करते हैं तो फिर मैं मंगु की शादी में क्यों कोई कसर छोड़ूँ!

एक बार मंगु सामान्य व्यक्ति की तरह मोरी में पेशाब करने के लिए बैठी। इससे हर्षित अमरत काकी कई दिनों तक सबके आगे यही पारायण चलाती रहीं। "जोषी की बात सच होगी। मंगु पहले कभी नहीं और आज पहली बार खुद जाकर मोरीदार चौके में पेशाब करने के लिए बैठी!"

सुनने वाले के हलक से नीचे यह बात उतरना मुश्किल था क्योंकि यह सुनते वक़्त मंगु पेशाब से गीली हुई मिट्टी में अपनी ऊँगली से कुरेदती नज़र आती थी! अमरत काकी की नज़र उस ओर जाते ही वह अपनी सयानी बेटी को सीख दे रही हो ऐसे धीमी आवाज़ में कहती थीं कि "मंगु ऐसे गन्दा नहीं करते बेटा!" मंगु को कोई धुन चढ़ते ही खड़ी हो जाती थी और उनको एक नयी बात मिल जाती थी। "मैंने उसे कहा और वह सयानी लड़की की भाँति खड़ी हो गई!"

इस तरह अमरत काकी का उम्मीदों वाला अगहन आया फिर भी मंगु ठीक तो नहीं हुई पर शहर के एक कन्या विद्यालय में पढ़ रही गाँव की लड़की कुसुम पागल हो गई। मंगु की भाँति उसे भी पाखाने अदि का होश नहीं रहा था। अमरत काकी को इस बात से दुःख भी हुआ पर साथ ही साथ इस बात का संतोष भी हुआ कि समझदार लड़की यदि पगला कर ऐसा होश गँवा दे तो आजन्म पागल मंगु को ऐसा होश न रहे तो इसमें किस बात का अचरज?

कुसुम को दवाखाने में रखने का फ़ैसला हुआ। यह बात जानकर अमरत काकी को इस बात का दुःख हुआ कि यदि उसकी माँ ज़िन्दा होती तो वह उसे दवाखाने में रखने नहीं देती। माँ बिना सारा संसार सूना है –यह कहावत ग़लत नहीं है। साथ ही साथ अपनी आँख बंद हो जाने के बाद मंगु को भी उसके भाई दवाखाने रख आये हों, ऐसा दृश्य उन्हें कम्पित कर गया।

पहले महीने के अंत में कुसुम को वहाँ के इलाज से काफ़ी लाभ हुआ है, ऐसी ख़बर आई। उसे बाँधे रखना पड़ता था, वह अब मुक्त घूम रही है और उपद्रव नहीं करती। पाखाने की पूरी समझ आ गई है। पागलपन थोड़ा बहुत रहा हो तो वह दिन भर मात्र गाती रहती है, उतना ही। वह भी अगले महीने ठीक हो जायेगा। डॉक्टरों ने ऐसा कहा था।

दूसरे महीने कुसुम ठीक हो गई। तथापि यदि एकाध महीना और रह ले तो बेहतर, डॉक्टर की ऐसी सलाह से उसे तीसरे महीने भी दवाखाने में रखा गया। जब वह घर लौटी तब सारा गाँव उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा था। सबसे आगे अमरत काकी थीं।

कुसुम को पूर्णतया स्वस्थ हुई देख कर अमरत काकी को सब यह सलाह देने लगे कि, "काकी! आप मंगु को एक बार दवाखाने में रखकर देखिए। वह अवश्य ठीक-ठाक हो जाएगी।"

अमरत काकी ने ज़िंदगी में पहली बार दवाखाने का विरोध नहीं किया। मूकभाव से वे सबकी सलाह सुनती रहीं। दूसरे दिन उन्होंने कुसुम को अपने घर बुलाया। उसे अपने पास बिठाकर दवाखाने से जुड़ी सारी हक़ीक़त पूछने लगीं। माँ दया भाव रखकर सेवा न कर सके तो डॉक्टर या नर्स भी नहीं कर सकते। ऐसी ग्रंथि अमरत काकी के मन में बैठ गई थी, वह कुसुम से हुई बातचीत से सुलझ गई। नर्स या डॉक्टर को यदि कोई पागल चाँटा मार भी जाये तो भी वे उन लोगों से ग़ुस्सा नहीं करते या उसे मारते-पिटते नहीं हैं। यह जानकर दवाखाने के प्रति उनके मन में विश्वास जगा। नयी आशा का जन्म हुआ कि मंगु के भाग्य में दवाखाने में जाने से ठीक होना लिखा होगा – इस बात की किसे ख़बर? इतने उपचार करके देख लिया है तो एक उपचार और सही। यदि वह नहीं भी ठीक हुई तो उसे वापस भी तो लाया जा सकता है!

आख़िरकार अमरत काकी ने मंगु को दवाखाने में भर्ती कराने का निर्णय किया। इस आशय से उन्होंने बड़े बेटे को घर आने के लिए पत्र भी लिखवाया लेकिन जब से यह निर्णय लिया गया तब से उनकी नींद उचट गई थी। मानों वह हार कर यह काम करने लगी हैं, ऐसा तनाव उनके मन पर सवार हुआ हो ऐसा लगता था। दवाखाने के प्रति विश्वास जगना तो एक निमित्त मात्र था। अन्यथा एक और कारण भी गहरे से झाँक रहा उन्हें दिखाई दे रहा था।

मंगु बड़ी होती जा रही थी। अपना बुढ़ापा भी बढ़ रहा था, उसे समझ में आ गया था कि बहुएँ उसकी सेवा-चाकरी नहीं करेंगी क्योंकि अब तक एक भी बहू ने अभी तक साथ रहने के लिए अमरत काकी को आने के लिए आमंत्रित नहीं किया था। आजकल के बेटे भी बहू से दबे हुए हर घर में देखती थीं। अतः उन्हें अपने बेटों में भी कोई ज़्यादा उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। इस दशा में मंगु का भगवान हो और वह ठीक हो जाये या नहीं भी ठीक हो तब भी उसका दवाखाने में मन लग जाये तो मरते वक़्त एक प्रकार का आश्वासन बना रहे कि दुनिया में उसकी सेवा करने वाला कोई ग़ैर भी है।

इस विचार प्रवाह के साथ अमरत काकी की आँखों से इतना ज़्यादा पानी बह जाता था कि बिछौना भी भीग उठता था। दिल चीख उठता था। चाहे कोई भी बहाना बना लो लेकिन मूल बात तो यही कि आप भी बेटी से ऊबी हुई है। अमरत काकी नींद से चौंक उठती थीं। बोल भी लेती थीं कि क्या मैं थक गई हूँ? दिल दुहरी ताक़त से चिल्ला उठता था- एक बार नहीं, हज़ार बार!

अमरत काकी के मन में विचार आया कि मैंने बेटे को पत्र लिखकर ग़लत किया। ऐसी भी क्या जल्दी थी कि जाड़े के मौसम में उसे दवाखाने ढकेल देना पड़े? रात में मैं कई बार उसे ओढ़ाती हूँ, दवाखाने में इस प्रकार कौन बार-बार ओढ़ायेगा? गर्मियों में रखने का फ़ैसला किया होता तो अच्छा रहता।

पत्र मिलते ही बड़का बेटा पहुँच गया। दवाखाने में भर्ती करने के लिए मेजिस्ट्रेट का हुक्म भी ले लिया। एक हफ़्ते में ही मंगु को पहुँचा देने का समय आ गया। अमरत काकी को पूरा विश्वास हो गया कि बेटा पागल बहन को दवाखाने में रखवा कर अपना काम ख़त्म करना चाहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो पत्र मिलते ही वह क्यों आ धमकता? अपनी पहुँच का उपयोग करके फ़ौरन मेजिस्ट्रेट और डॉक्टर के प्रमाण-पत्र क्यों निकलवाता? उसके मन में यह विचार चल रहा था कि अभी दवाखाने रखवाना मुलतवी करते हैं और गर्मियों में रख आयेंगे लेकिन बेटे को ऐसा कहने के लिये ज़बान खुल नहीं रही थी। वह मुश्किल से छुट्टी लेकर आया है, प्रमाण-पात्र भी बनवा लिए हैं,अब मैं ना कर दूँ तो वह सोचेगा कि माँ को और कोई काम है नहीं!

मंगु को रखने जाना था, उस रात अमरत काकी को ज़रा भी नींद नहीं आयी थी। सबेरे एक विचार यह भी आया कि वह साथ न जाए तो अच्छा। दवाखाने वाले बेटी को अपने से अलग करेंगे तो वह नहीं सहा जायेगा लेकिन दवाखाने में कैसी सुविधाएँ हैं– यह वह स्वयं न देखे, तब तक चैन नहीं आना था। अतः विवशतावश जाने के लिए तैयार तो हुई पर मंगु को लेकर घर से बहार निकलना हुआ, तब उन पर समस्त ब्रह्माण्ड का भार छा गया। आँख से सावन-भादों बरसना शुरू हुआ। मंगु पर जमी हुई नज़र तनिक भी हटती नहीं थी। मंगु उसे पहनाये गए नए कपड़ों के रंग को टकटकी बाँधे देख रही थी। मौज में आ गई हो, ऐसे अमरत काकी के सामने देखकर हँस पड़ती थी। अमरत काकी का दिल चिर गया। पशु भी एक खूँटे से छूट कर दूसरे मालिक के घर जाने से आनाकानी करता है। मंगु को तो इतना भी होश नहीं था- इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव करके अमरत काकी घर की दहलीज़ पर ही पछाड़ खाकर गिर पड़ीं। दिल रोने लगा-अबोध बिटिया का क्या इस दुनिया में कोई नहीं है? सगी माँ भी उसकी नहीं हुई।

बेटा भी भावार्द्र हो गया। माँ से नज़रें मिला सके ऐसी हिम्मत भी उसमें नहीं थी। जितना विलम्ब हो रहा था उतना गाड़ी पकड़ने का वक़्त कम होता जा रहा था। मोहल्ले के बाहर बैल गाड़ी से जुते बैल बढ़ने के लिए उतावले हो रहे थे। बेटे ने माँ की और देखे बिना लड़खड़ा कर पैर बढ़ाते हुए कहा, "देर हो रही है। अब चलना चाहिए।"और गली से बाहर निकलते वक़्त उसने धोती के कोर से आँखें पोंछ लीं।

पड़ोसन ने मंगु का हाथ पकड़ कर आगे बढाया और अन्य स्त्रियों ने अमरत काकी को सहारा दिया। आख़िरकार कडुआ घूँट पीकर घुटने पर हाथ रखकर वे खड़ी हुईं। दो लोगों ने पकड़ कर चढ़ाया तब कहीं वह बैलगाड़ी पर चढ़ सकीं।

मंगु पागल है, जानते ही गाड़ी में मुसाफ़िरों को मज़ेदार खुराक मिल गई।

"ऐसी खाती-पीती लड़की को दवाखाने में रखेंगे तो महीने भर में वह सूखकर काँटा हो जाएगी। वहाँ तो पशु को खिलाते हैं इसी प्रकार खिला दिया और कर्तव्य की इतिश्री हुई!"

"हमारे गाँव से एक बुढ़िया को उसके बेटे पाँच वर्ष से रख आये हैं पर कोई सुधार नज़र नहीं आया। गाँव का यदि कोई मिलने के लिए जाता है तो वह रोने लगती है। पाँव में गिरकर कहती है कि- मुझे यहाँ से ले जाओ। पर आजकल के बेटे वापस लाते ही नहीं है!"

"ऐसे बेटों को क्या देखने मात्र के लिए ही रखना है?"

"वैसे तो बेटे अच्छे हैं, पर आजकल की बहुएँ जानते हो ना, पहन-ओढ़कर ठाट से यहाँ-वहाँ टहलते रहना होता है। इसलिए अतिरिक्त व्यक्ति घर में ना-गवारा हो जाता है।"

"क्या इस लड़की की माँ नहीं है?"

अमरत काकी के लिए यह घाव असह्य हो गया। आँखों में आँसू उमड़ आये। गला अवरुद्ध हो गया। मारे शर्म के गरदन झुक गई। माथा झुकते ही माँ के रूप में उनका अधिकार स्वत, व्यक्त हो गया।

"बाप रे! आप माँ होकर उसे भेज रही हैं? तो दवाखाने वाले का क्या दोष?"

अमरत काकी यदि अकेली होतीं या बेटे को बुरा लगने का डर न होता तो पलट गाड़ी में वे मंगु को लेकर घर वापस लौटी होतीं परन्तु और कोई चारा नहीं था। अतः भारी मन से भारी क़दमों से दवाखाने में प्रवेश किया।

मुलाक़ात का वक़्त था। इसलिए बीचवाले कमरे में मरीज़ और उनके रिश्तेदार अलग-अलग बैठे हुए थे। कई स्वजन घर से लाया हुआ खाना खा रहे थे। कोई तो फल भी खा रहा था। एक पागल पति के साथ पत्नी घर और बच्चों के बारे में बतिया रही थी। एक पगली पत्नी, जब उसका पति उससे मिलने आया तब उससे लिपट गई थी। अरे, बगल में खड़ी वॉर्ड की परिचारिकाओं की ओर देखकर वह फ़रियाद कर रही थी कि – ये भूतनियाँ मुझे अच्छे कपड़े पहनने के लिए नहीं दे रही हैं,अच्छा खाना-पीना नहीं दे रही हैं, सिर में डालने के लिए तेल भी नहीं दे रहीं।

अमरत काकी उस वक़्त परिचारिकाओं की ओर देख रही थीं। उस औरत की जो परिचारिका थी उसने हँसते हुए कहा, "अब मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी। तुम्हारे पति तुम्हारे लिए अच्छा खाना लाये हैं, एक बार खा लो।"

उस पगली ने ग़ुस्से में भरकर कहा- "मैंने अभी दातुन नहीं किया है, मैंने मुँह नहीं धोया है।"

अमरत काकी ने देखा कि उसका मुख तो धोया हुआ था फिर भी तनिक भी रुष्ट हुए बिना परिचारिका ने पानी से भरा लोटा लाकर मुँह धुलवाया और नेपकिन से मुँह पोंछ दिया। अमरत काकी को इस बात का आश्वासन हुआ कि काम करने वाले ये लोग स्नेहिल हैं।

डॉक्टर और स्त्री वॉर्ड की मेट्रन आये। अमरत काकी के बेटे ने मेजिस्ट्रेट का हुकुमनामा दिया। माँ को संतोष हो इस लिए वह सुने ऐसे अच्छी सुश्रूषा करने के लिए आग्रह किया। मेट्रन ने जवाब देते हुए कहा कि "इस विषय में आप तनिक भी चिंता न करें…।"

बीच में ही अमरत काकी ने कहा, "बहन! चिंता इस लिए करनी है कि वह निहायत पागल है। कोई जब तक पास बैठ कर खिलाये नहीं तब तक खाती नहीं है...," इतना कहते-कहते तो उसका कंठ भर आया और वाक्य अधूरा रह गया।

दूर खड़ी परिचारिकाएँ पास दौड़ी चली आयीं। एक ने कहा, "बा, आप! तनिक भी चिंता नहीं करें। हम उसके मुँह में कौर डाल कर खिलाएँगी।"

आर्द्र स्वरों में अमरत काकी ने कहा, "मुझे यही कहना है। उसे पेशाब-पाखाने का होश भी नहीं है। अतः यदि वह कपड़े ख़राब कर दे तो देखना। अन्यथा वह गीले में सोयी रहेगी तो उसे बादी हो जाएगी।"

दूसरी परिचारिका ने कहा, "रात में चार-पाँच बार जाँच की जाती है।"

अमरत काकी, "उसे रात में बत्ती के उजाले में नींद नहीं आती।"

"जिसे नींद नहीं आती उसे नींद की दवाई देते हैं।"

"उसे अन्य उपद्रवी मारे-पीटे नहीं, यह भी देखना।"

"उपद्रवियों को अलग रखा जाता है। रात में सबको अलग-अलग कमरों में सुलाया जाता है।"

मिलने के लिए आये मुलाक़ातियों के विदा होने पर मरीज़ को अन्दर ले जाने तक के लिए थोड़ा सा दरवाज़ा खुलता था। अतः मौक़ा पाकर अमरत काकी दो-एक बार भीतर देख लेती थी। उन्होंने तीन-चार स्त्रियों को उलझे हुए बालों के साथ अस्त-व्यस्त कपड़ों में अन्दर घूमते हुए देखा। एक ने उनकी ओर देखकर छाती पीट ली और ग़ुस्से में ऐसा देखा कि वे डर गई। इससे उन्होंने अन्दर की रहने की व्यवस्था को देखना चाहा और कहा कि "मंगु जिस कमरे में रहेगी उस कमरे को मुझे देखने दीजिये।"

मेट्रन ने कहा कि "अन्दर किसी को देखने के लिए जाने देने की आज्ञा नहीं है।"

आकुल-व्याकुल आँखों से इस नयी दुनिया को देख रही मंगु अमरत काकी के पास छिप गई; माथे पर हाथ रख कर,अमरत काकी नित्यप्रति का प्यारा सा शब्द "बेटा" बोलने ही वाली थी कि उनकी आवाज़ फट गई... अति तीव्र रुदन सी लम्बी चीख निकल गई। समग्र चिकित्सालय आक्रंद में डूब गया। बेटे की आँखों से रुके हुए आँसू बहने लगे। ऐसे रुदन से अभ्यस्त डॉक्टर, मेट्रन और परिचारिकाएँ भी भावार्द्र हो गई। दीवारें भी काँप उठीं कि किसी पागल का ऐसा भावनाशील स्वजन आज से पहले कभी आया हो, ऐसा हमने जाना नहीं है!

एक परिचारिका ने हाथ में पकड़े रुमाल को लहरा कर मंगु का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करते हुए कहा, "लो, क्या यह तुम्हें चाहिए?"

उस रूमाल को पकड़ने के लिए माँ से हटकर मंगु तुरंत खड़ी हो गई। रुमाल को थोड़ा सा पकड़ने देकर उसके हाथ को सहलाकर मीठे शब्दों में कहा, "बहना! तुम मेरे साथ रहोगी ना। मैं तुम्हें अच्छा खाना दूँगी, नए नए कपड़े पहनाऊँगी" मंगु उसकी ओर तक रही थी। अतः उस क्षण का उपयोग करते हुए "आ, दे दूँ" कहकर उसका हाथ पकड़कर उसे आगे किया। वह दरवाज़ा अधखुला सा होकर मंगु को निगल गया।

"मंगु। मंगु।" कलेजा फट जाये ऐसे अमरत काकी ने पुनः चीखा।

डॉक्टर ने आश्वस्त करते हुए कहा, "बा!" और बगल में खड़े बेटे की ओर अंगुली निर्देश करते हुए कहा, "अपने इस बेटे की तरह मुझे भी अपना बेटा समझना। बिटिया को दवाखाने में नहीं पर बेटे के घर छोड़े जा रही हैं ऐसा समझें।"

अधेड़ अवस्था की, बाल्यावस्था में विधवा होने के कारण, इस क्षेत्र को समर्पित मेट्रन ने आश्वस्त करते हुए कहा, "आज तक आप अकेली ही उसकी माँ थीं अब आज से मैं उसकी माँ हुई हूँ।"

अमरत काकी ने सिसकते हुए कहा, "उसे तो मूक जानवर सा भी होश नहीं है। मैंने आज तक उसे अपने से अलग किया नहीं है। आपके दवाखाने में कुसुम ठीक हो गई, इसलिए मैंने हिम्मत करके…"और उनका कंठ अवरुद्ध हो गया।

मेट्रन बोली, "वह भी कुसुम की भाँति कुछ ही समय में स्वस्थ हो जाएगी।"

अमरत काकी की सिसकियाँ समाप्त हुईं फिर भी उनकी नज़र तो उस बंद दरवाज़े को चीर कर मंगु पर ही जमी हुई थी। मानों मंगु ने उन्हें कुछ याद दिलाया हो, उन्होंने कहा, "वह रुखी रोटी (टिक्कड़) नहीं खाती है। शाम के खाने में उसे दूध या दाल में में टिक्कड़ (रोटी) घोलकर देना।"

अमरत काकी की करुणार्द्र आँखों की ओर देखने की मेट्रन की मानो शक्ति ही लुप्त हो गई हो ऐसे नज़रें झुकाए कहा , "ठीक है।"

अमरत काकी बोलीं, "उसे दही बहुत प्रिय है। रोज़ देना तो संभव नहीं होगा पर दूसरे-तीसरे दिन देना। इसके लिए जो भी अतिरिक्त खर्च होगा, वह हम देंगे। जो उसकी सेवा में रहेगा उसे भी हम ख़ुश करेंगे।"

अमरत काकी और उनका बेटा जब मंगु को भर्ती करा कर दवाखाने से बाहर निकले तब दोनों के मुख पर शोक के बादल मंडराये हुए थे। दोनों मूक भाव से बाहर खड़ी घोड़ागाड़ी पर बैठ कर विदा हुए। गाड़ी के डिब्बे में पैर धरते ही अमरत काकी को स्मरण हो आया कि- दवाखाने में सोने के लिए चारपाई देते भी होंगे या नहीं? मंगु कभी नीचे सोयी नहीं है। अतः यदि उसे चारपाई नहीं मिली तो उसे रास नहीं आएगा। मन में तो विचार आया कि यदि उसे अन्दर जाने दिया होता तो इसकी सिफारिश करना छूट नहीं जाता। कमरे में चारपाई नज़र न आते ही उसे तुरंत याद हो आता।

दवाखाने में काम करनेवाले लोग भी स्नेहिल प्रकृति के हैं,भले हैं, ऐसी प्रतीति अमरत काकी को हुई थी परन्तु उन्हें अंदर जाने नहीं दिया गया था। इसलिए अफ़सोस रह गया था कि हमें पसंद नहीं आये ऐसा होगा तभी तो अंदर नहीं जाने देने का कानून बनाया होगा ना? उसे समर्थन दे रहा था वह अधखुला दरवाज़ा। भूतनी की तरह व्यर्थ भटकती गन्दी,अस्त-व्यस्त और भूख से मरी जा रही हो ऐसी डरावनी पागल स्त्रियाँ, उसके साथ मंगु ख़ुद को नहीं देखने से रोती हो, ऐसी आवाज़ अमरत काकी को सुनाई दी। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। बगल में बैठी हुई किसी स्त्री ने पूछा- "बा! क्यों रो रही हो? किसी की मौत हुई है क्या?

रात्रि के पौने ग्यारह बजे घर लौटे तब उनका इंतज़ार कर रही पड़ोसन,जो रिश्ते में चचेरी थी, जग रही थी। उसने उनके लिए खाना बना रखा था लेकिन दोनों ने खाना खाने से इनकार किया। स्वजन की मृत्यु का ज़ख़्म ताज़ा हो तब जिस प्रकार आग्रह करने वाले की ज़बान नहीं खुले ऐसे पड़ोसन भी अत्याग्रह नहीं कर सकी।

अमरत काकी के अंतरतम में एक ही तम्बूरा बज रहा था- मंगू अभी क्या कर रही होगी? हर पल यही विचार उनके दिल को बेध रहा था। कितनी सर्दी है? किसी ने उसे ओढ़ाया भी होगा या नहीं? पेशाब करने से भीगा उसका घाघरा और बिछौना किसी ने बदला भी होगा या नहीं?

मानों मंगु उनकी बात सुनने वाली हो ऐसे बड़ब्ड़ायीं, "बेटा! पेशाब नहीं करना। ओढ़ा हुआ हटा नहीं देना।"ये शब्द सोते वक़्त वे हमेशा बोलती रहती थीं फिर भी मंगु उन शब्दों का अमल करती नहीं थी। रात में यदि उसने पेशाब किया हो तो उसका घाघरा और बिछौना दोनों बदल देती थीं। मंगु के बड़ी हो जाने पर भी वे उसे अपने साथ सुलाती थीं, जिससे कि वह पेशाब करे तब उन्हें पता चले, जग जाये और उसे भीगे बिछौने में सोना नहीं पड़े।

अमरत काकी ख़ुद को भी उसके बिना बिछौना सूना सूना लगता था। मन में विचार आया- मेरे साथ सोने के लिए आदी उसे नींद आई भी होगी? उसके साथ ही व्याकुल हुई आँखें और उनको खोज रही हों ऐसा उन्होंने देखा। उन्होंने अपना माथा पीट लिया। "मैं माँ होकर भी उसे दवाखाने में छोड़ कर आ गई? उन्होंने एक सिसकी भर ली।

बाहर कमरे में सोये बेटे को भी नींद नहीं आ रही थी। उसे माँ की मंगु के प्रति माँ की ममता का सौवाँ हिस्सा भी ममता नहीं थी तथापि उसकी छाती पर वेदना से भरी निष्ठुर शिला मानों लद गई थी। माँ की सिसकियों के साथ उसकी आँख से भी आँसू बहने लगे। जब ख़ुद को इतनी वेदना हो रही है तो माँ का क्या हाल होगा? वेदना मातृहृदय को कितनी बेरहमी से चीथ रही थी, उसका अहसास जीवन में पहली बार बेटे को हुआ। उसका हृदय आक्रंद कर उठा। माँ का दुःख तो येन केन प्रकारेण टालना ही होगा। बेटा होकर यदि मैं इतना भी न कर सकूँ तो मेरा जीना व्यर्थ है। उसी के साथ उसके दिल ने प्रतिज्ञा की कि- मैं जब तक ज़िन्दा रहूँगा, मंगु का अच्छी तरह से पालन-पोषण करूँगा। यदि बहू उसके मल-मूत्र धोने के लिए तैयार नहीं होगी तो मैं स्वयं धोऊँगा! उसीके साथ वेदना का वह निष्ठुर पत्थर उसकी छाती पर से हट गया।

अमरत काकी ने दूसरी सिसकी ली होती तो बेटे ने तत्काल अपनी प्रतिज्ञा सुनाकर शांत किया होता लेकिन उसे लगा कि वह शांत हो गयी हैं। अतः अब मैं कल सुबह बात करूँगा। ऐसा सोचकर बेटे ने सोने के लिए आँख मुँदी और कुछ ही देर में वह गहरी नींद सो गया।

मुँह अँधेरे, चक्की और मथनी की मधुर आवाज़ गाँव में जब गूँज रही थी, तब सारे गाँव को चीर डाले ऐसे अमरत काकी ने चीखा- "दौड़ो, दौड़ो मेरी मंगु को मार डाला रे।"

बेटा चारपाई से उछल पड़ा। पड़ोसी भी दौड़े चले आये। चक्कियाँ और मथनियाँ काम करते रुक गईं। जिसने भी सुना दौड़ पड़ा और आते ही चौंक गए। अमरत काकी ने मंगु के हाल को अपना लिया था।

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