रेनकोट
सुनील सक्सेनारात को हल्की बूँदा-बाँदी हुई। सुबह होते ही बारिश तेज़ हो गई। जब भी ऐसी बरसात होती है माया का दिल बैठने लगता है। वो बैचेन हो जाती है। लगता है जैसे प्राण गले में अटके हैं और अभी पखेरू बन उड़ जायेंगे। आज से ठीक दस साल पहले ऐसी ही बरसात थी। चंदन को स्कूल भेजना ज़रूरी था। उसका साइंस ओलम्पियाड का टेस्ट था। राहुल ने मना भी किया था, “कोई ज़रूरत नहीं है चंदन को ऐसी बरसात में स्कूल भेजने की . . . एक टेस्ट छूट गया, तो कौन-सा कैरियर चौपट हो जायेगा . . .” पर माया ने ही ज़िद से चंदन को स्कूल भेजा। आज के ज़माने में सिर्फ़ मार्कशीट से ही योग्यता आकलन नहीं होता है। पढ़ाई के साथ एक्स्ट्रा केरीक्यूलर एक्टिविटी भी ज़रूरी है।
घर से सौ मीटर की दूरी पर ही स्कूल बस आती थी। छोटा-सा छाता। वाटरप्रूफ़ स्कूल बैग। रेनकोट। यानी बरसात से बचने के पुख़्ता इंतज़ाम के साथ चंदन को स्कूल रवाना किया था। राहुल ऑफ़िस चले गये। माया के दो इम्पोर्टेंट लेक्चर थे आज कॉलेज में। शांताबाई भी लंच डायनिंग टेबल पर लगा कर चली गई। माया मेनगेट लॉक कर रही थी, तभी मोबाइल की घंटी बजी। मोबाइल पर्स में था। जब तक पर्स से मोबाइल निकाला, घंटी बंद हो गई। देखा, तो चंदन के स्कूल का नंबर था। माया रिडायल कर ही रही थी कि घंटी फिर बजी।
“हैलो…मैं शारदा विद्यामंदिर से बोल रहा हूँ। राहुल वर्मा हैं।"
“जी नहीं वो नहीं हैं . . .मैं उनकी वाइफ़ बोल रही हूँ।"
“स्कूल बस नंबर 12 का शिवाजी चौक पर एक्सीडेंट हो गया है। आप फ़ौरन चिरायु हॉस्पिटल पहुँचें।”
आकाश में बादल गरजे। तेज़ बिजली चमकी। कहीं आसपास ही गिरी होगी बिजली। माया अस्पताल पहुँची। अस्पताल में अफ़रा-तफ़री मची थी। बच्चों की चीख़ें। माँ-बाप की चीत्कारें गूँज रहीं थीं। कोई बच्चे को गोद में लिए, तो कोई कंधे पर लटकाये, तो कोई पीठ पर लादे बदहवास से अस्पताल में इधर-उधर भाग रहे थे। इमरजेंसी वार्ड में क़दम रखने की जगह नहीं थी।
तेज़ बारिश में कुत्ते को बचाने के चक्कर में ड्राइवर ने संतुलन खो दिया। स्कूल बस सामने से आ रहे डम्पर से भिड़ गई। टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी कि बस का आधा हिस्सा बुरी तरह पिचक गया था। बारह मासूम बच्चे काल के गाल में समा गये। इनमें चंदन भी था। चंदन के शरीर पर कहीं कोई घाव नहीं था, बस सिर पर लगी अंदरूनी चोट जानलेवा बन गई।
पिछले दस बरस से चंदन की यादें माया की ममता के सागर से टकाराती हैं। लौटकर वापस नहीं जातीं। तूफ़ान खड़ा कर देती हैं। घर में एक अजीब-सी मुर्दानगी छायी रहती है। सब कुछ ठहर सा गया लगता है। चंदन की वो हर चीज़ जिसे देख माया विचलित हो जाती थी, राहुल ने एक-एक कर घर से निकाल दी थीं। चंदन की साइकल। उसका क्रिकेट बैट। उसके कपड़े। उसके खिलौने, अब घर में कुछ भी नहीं था, सिवाय एक बॉक्स के जिसमें चंदन की स्कूल की ड्रेस, छाता और रेनकोट था, जिसे अंतिम बार उसने स्कूल जाते वक़्त पहन रखा था।
राहुल ने इन सालों में माया को ख़ूब समझाया कि किसी के चले जाने से जीवन ख़त्म नहीं हो जाता है। जीवन चलने का नाम है। चंदन का और हमारा बस इतना ही साथ था। बीते हुए कल की कालिख से ख़ूबसूरत वर्तमान को बदसूरत मत करो। पर चंदन की यादें माया का पीछा नहीं छोड़तीं। माया ने कॉलेज जाना बंद कर दिया। कॉलेज की नौकरी छूट गई। माया की ज़िंदगी घर की चार दीवारों में सिमट कर रह गई, जहाँ थीं चंदन स्मृतियाँ और माया के कुछ प्रिय उपन्यास, जिन्हें वो न जाने अब तक कितनी बार पढ़ चुकी थी।
आज चंदन को गुज़रे दस बरस हो गये। वैसी ही मूसलाधार बरसात चालू थी जैसी उस मनहूस सुबह को हो रही थी। राहुल ने आज ऑफ़िस से छुट्टी ले रखी थी। राहुल ने रोज़ की तरह माया और अपने लिए “मॉर्निंग टी” बनाई। चंदन की पसंद की डिशेज़ घर में बनना बंद हो गई थीं। राहुल ने सोच लिया था आज वो इस सिलसिले को तोड़ेगा। चंदन को शांताबाई के हाथ का बना रवे का हलुआ अच्छा लगता था। सप्ताह में एक दिन चंदन का लंच बॉक्स शांताबाई तैयार करती थी। राहुल ने आज ब्रेकफ़ास्ट में माया के लिए यही सरप्राइज़ आइटम प्लान किया था। इंतज़ार था तो बस शांताबाई के आने का। वो समय की पाबंद है। आँधी हो तूफ़ान हो, टाइम से आ जाती है।
“सात बज गये। शांता अभी तक नहीं आई। आज लेट हो गई,” माया ने घड़ी की ओर देखा।
“हाँ आज बरसात भी कुछ ज़्यादा ही तेज़ है। तेज़ बारिश में शांता के घर में पानी भर जाता है। हो सकता है इसलिए नहीं आ पाई हो। कोई बात नहीं आज का ब्रेकफ़ास्ट इस ख़ाकसार के हाथ का खाइये,” राहुल ने चाय के ख़ाली कप उठाये और किचन में चला गया।
रवे का हलुआ तैयार था। राहुल ने माया को पुकारा, “माया आज की सरप्राइज़ डिश रेडी है। प्लीज़ कम फ़ास्ट।”
माया चंदन के कमरे थी। चंदन का बक्सा खुला था। वो अवाक बक्से में रखी चीज़ों को निहार रही थी। माया की आँखों की कोरें नम थीं।
“कमऑन माया . . . चंदन की इन चीज़ों को और कब तक इस तरह सँजोकर रखोगी। जब तक ये तुम्हारे पास हैं, चंदन को तुम भुला नहीं सकोगी। तुम्हें इनसे मुक्त होना होगा। जीवन की नौका में जब बीते हुए कल के दर्दनाक पलों का बोझ बढ़ जाये, तो उसे नाव से फेंक देना में ही समझदारी है। वरना नाव डूब जायेगी। चंदन की यादें को तुम्हें तर्पण करना होगा। चंदन की अकाल मौत से हमारे जीवन पर लगे इस ग्रहण को तुम्हें दूर करना होगा। बड़ी लम्बी ज़िंदगी है माया, समझो, ट्राई टू अंडरस्टेंड।” माया ने बॉक्स बंद कर दिया और राहुल से लिपट गई। माया के गर्म आँसुओं से राहुल का सीना भीगने लगा।
अगले दिन शांताबाई जब आई तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वो उदास थी। आते ही ख़ामोशी से अपने काम में लग गई।
“कल क्यों नहीं आई शांता . . .?” माया ने पूछा।
“कुछ नहीं मेम साब छोटे बेटे संजू की तीन दिन से तबियत ठीक नहीं है। कल उसको तेज़ बुखार था। बरसात है न मेमसाब . . . रोज़ भीगता हुआ जाता है स्कूल। घर में एक ही छतरी है, वो “ये” ले जाते हैं। आप कुछ हेल्प करो न मेमसाब।”
“बोल न . . .”
“मुझे कुछ एडवांस दे दो तो मैं संजू के लिए छतरी खरीद लूँगी। आप मेरी पगार में से काट लेना। बहुत पैसा खर्च हो गया संजू के इलाज में।”
माया ने राहुल की ओर देखा। राहुल को जैसे इसी घड़ी का इंतज़ार था। राहुल ने माया को देखा। आँखें कई बार ज़ुबाँ का काम कर देती हैं। माया जान गई थी कि चंदन की यादों को विसर्जित करने का इससे बेहतर अवसर और क्या होगा। माया ने चंदन की अंतिम शेष स्मृतियों का बॉक्स शांताबाई को सौंप दिया जिसमें छतरी के साथ “रेनकोट” भी था।