राही मासूम रज़ा के ‘आधा गाँव’ उपन्यास में मुस्लिम परिवेश का चित्रण

01-09-2020

राही मासूम रज़ा के ‘आधा गाँव’ उपन्यास में मुस्लिम परिवेश का चित्रण

डॉ. गोविन्दराज.एम (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

भारत सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता आया है। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, कलात्मक आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति के साथ मुस्लिम संस्कृति के समन्वय की प्रक्रिया इस्लाम के आगमन से आज तक उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी है। मुस्लिम परिवेश की झाँकी हमारे देश के हर नगर, क़स्बे, गाँव और गली में विद्यमान है। भारत के उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम भागों में विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश को लेकर मुस्लिम जनता ने भारत की विभिन्नता में अपना रंग भरा है। 

भारत का इतिहास विचित्रताओं से भरपूर है। आकार के बड़प्पन के साथ-साथ यहाँ के निवासियों की बहुरंगी प्रतिभा सारे संसार में प्रचलित है। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में भारत की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक गति-विधियों का चित्रण यत्र-तत्र हुए हैं। अतः मैं स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में मशहूर उपन्यासकार राही मासूम रज़ा के आधा गाँव उपन्यास में चित्रित मुस्लिम सामुदायिक जीवन का समाज संबन्धी चित्रण करने का प्रयास यहाँ कर रहा हूँ। 

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास साहित्य में कई निराली प्रवृत्तियाँ हुई हैं। उनमें एक नयी प्रवृत्ति मुस्लिम परिवेश और जीवन मूल्यों का विश्लेषण है। यहाँ राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ का तथ्यपरक विवेचन किया गया है। उनके उपन्यास में चित्रित मुस्लिम पात्रों का गठन, वे किस प्रकार भारतीय समाज से मिल-जुलकर रहते थे, वे अपने धार्मिक संस्कृति से जिस प्रकार तालमेल रखते थे, आदि की एक झाँकी प्रस्तुत की गयी है। 

 

हिंदी उपन्यासों में मुस्लिम परिवेश 

स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी उपन्यासों में मुस्लिम परिवेश का चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है। ऐतिहासिक उपन्यास ही ज़्यादा लिखे गए, जिनमें कुछ मुस्लिम पात्रों के वर्णन के अलावा मुस्लिम परिवेश का चित्रण अन्यत्र नहीं मिलता है। बालकृष्ण भट्ट कृत ‘सौ अजान एक सुजान’ में कुसंगति में पड़े नायक की उद्धार का चित्रण है। इसमें हकीम और उसकी बहन हुमा बेगम नामक दो मुस्लिम पात्रों का ही चित्रण है।

किशोरी लाल गोस्वामी के कुछ उपन्यासों में भी मुस्लिम पात्र कहीं-कहीं नज़र आते हैं। ‘राजकुमारी’, ‘गुलाबहार व आदर्श भ्रातृ-स्नेह’, ‘तारा व क्षत्र-कुल-कमलिनी’, ‘सुलताना रज़िया बेगम व रंगमहल में हलाहल’ और ‘कनक कुसुम व मस्तानी’ उपन्यासों में दर्जन भर मुस्लिम पात्रों का चित्रण करके मुस्लिम समाज का, एवं हिंदु-मुस्लिम एकता का हल्का सा चित्रण करने का प्रयास किया गया है। 

देवकीनंदन खत्री के चंद्रकांता’ उपन्यास में मुसलमान ऐय्यारी का अल्प मात्र बयान है। मथुरा प्रसाद शर्मा ने जहाँगीर एवं बेगम नूरजहाँ की प्रेम कहानी का वर्णन ‘नूरजहाँ बेगम व जहाँगीर’ नामक उपन्यास में किया है। जयरामदास गुप्त ने अपने उपन्यास ‘काला चाँद या सौतेली माँ’ में मुस्लिम जासूसी कथा का चमत्कार प्रदर्शित किया है। पर 1900 ई.से पहले मुस्लिम संस्कृति को लेकर उपन्यास रचना करनेवालों में प्रमुख राधाकृष्णदास था। उनके उपन्यास ‘निस्सहाय हिंदु’ में पहली बार मुस्लिम समाज का चित्रण हुआ है।

डॉ. राही मासूम रज़ा – एक झाँकी

डॉ. राही मासूम रज़ा प्रेमचंदोत्तर युग के सशक्त उपन्यासकारों में एक हैं। उन्होंने अपने युग की अधिकांश समस्याओं पर दृष्टिपात करने का प्रयास किया है। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का विस्तारपूर्वक चित्रण उनके उपन्यासों में यत्र-तत्र दिखते हैं। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यंत लोकप्रिय हो गए। दूरदर्शन धारावाहिक ‘महाभारत’ की पटकथा उनके हाथों से संपन्न हुए थे। 

उनका जन्म उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर में सन् 1927 सितंबर 1 को एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। वे कवि और कथाकार के रूप में हिंदी साहित्य जगत में शोभित थे।

‘आधा गाँव’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘नीम का पेड़’, ‘ओस की बूँद’, ‘हिम्मत जौनपुरी’, ‘दिल एक सादा कागज़’, ‘असंतोष के दिन’, ‘कटरा बी आर्ज़ू’ आदि हिंदी उपन्यास, ‘मैं एक फेरीवाला’ नामक कविता संग्रह, ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ जीवनी , ‘अट्ठारह सौ सत्तावन’ नामक हिंदी-उर्दू महाकाव्य आदि लिखकर हिंदी साहित्य जगत में वे तारे के समान चमकने लगे। 

 ‘आधा गाँव’ में मुस्लिम परिवेश

‘आधा गाँव’ हिंदी का सबसे पहला महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें पूरी सच्चाई के साथ मुसलमानों की विविध मानसिक स्थितियों और हिंदुओं के साथ उनके सहज आत्मीय संबन्धों का और उनके बीच के द्वन्द्वों का अविस्मरणीय चित्रण हुआ है। सन् 1966 में प्रकाशित इस उपन्यास का काल परिप्रेक्ष्य सन् 1947 या स्वाधीनता के समय होनेवाला देश का विभाजन है। 

इस उपन्यास में उत्तरप्रदेश के ज़िला गाज़ीपुर के एक गाँव गंगौली का आंचलिक चित्रण है। लेखक ने प्रस्तुत उपन्यास का प्लोट गंगौली चुना है जहाँ मुस्लिम ज़्यादा रहते हैं। लेखक इसका बयान यूँ किया है – “गंगौली मुस्लिम बहुल गाँव है और यह उपन्यास है इस गाँव के मुसलमानों का बिना किसी पर्दे का जीवन यथार्थ।”1 

राही मासूम रज़ा ने इस उपन्यास को दस अध्यायों में विभाजित किया है। ये ऊँघता शहर, मेरा गाँव मेरे लोग, उद्गम, मियाँ लोग, ताना-बाना, नमक, गाथा, प्यास, तनहाई, नई पुरानी रेखाएँ आदि हैं। लेखक की अपनी विशेषता है कि कथा के अंत होने से पहले उन्होंने एक भूमिका लिखी है। उत्तरप्रदेश के सुंदर एवं बड़ा गाँव गंगौली हिंदुओं और मुसलमानों के अनेक जातियों का निवास स्थान है। उन्होंने शिआ मुसलमानों के जीवन को यथा-विधि चित्रित किया है।  

भारतीय समाज में मुसलमानों की संख्या कम है। इनमें शियाओं की संख्या बहुत कम है। गंगौली एक अविकसित गाँव था तथा यहाँ के शिया मुसलमानों को अन्य धर्मवालों के समान अनेक सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इन समस्याओं का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण करने में लेखक इसलिए इतना सफल हुआ है कि वे स्वयं एक शिया रहे हैं। ‘आधा गाँव’ की रचना द्वारा “हिंदी उपन्यास जगत में शायद पहली बार मुस्लिम जन-जीवन की भीतर-बाहरी सच्चाइयाँ अपने विविध रंगों में अच्छी-बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुई हैं,जिनसे निश्चय ही भारतीय ज़िंदगी का एक और कोना उजागर हुआ है।”2 

धार्मिक मान्यताएँ

‘आधा गाँव’ के अधिकांश पात्र मुस्लिम ज़मींदार हैं। इनके द्वारा किये जानेवाले कुकर्मों का ज़िक्र लेखक ने सविस्तार किया है। क़ुरआन और इसकी आयतों का प्रयोग भी राही ने उपन्यास में किया है। जब हकीम साहब और रहीम दोनों मिलकर फुन्नन मियाँ की लड़की को देखने जाते हैं तो पता चलता है कि उसका इंतिकाल हो गयी है,तब वे 'इन्नालिल्लाह' पढ़कर लौटते हैं। क़ुरआन की एक आयत है इन्नालिल्लाह जिसका अर्थ है “हर चीज़ अल्लाह से है और अल्लाह की तरफ लौट जाएगी।”3 

प्रस्तुत उपन्यास में जहाँ-तहाँ मुस्लिम परिवेश का चित्रण उभर आता है। उदाहरणार्थ, फुन्नन मियाँ का प्रसंग। स्वतंत्रता के पहले पाकिस्तान के समर्थकों के सामने फुन्नन मियाँ का स्वर था “कहूँ इस्लामु है कि हुकूमत बन जैय हे। ये भाई, बाप-दादा की कुबूर हियाँ हैं,  इमामबाड़ा हियाँ हैं, खेती-बाड़ी हियाँ हैं। हम कौन बुरबक है कि तोरे पाकिस्तान ज़िदाबाद में फँस जाएँ।”4

मुसलमानों के त्योहार मुहर्रम पर इस उपन्यास में लेखक ने इस तरह चर्चा की है कि वह प्रत्येक मुसलमान के जीवन से पृथक नहीं कर सकता –“सच तो यह है कि उन दिनों सारा साल मोहर्रम के इंतज़ार ही में कट जाता था। ईद की ख़ुशी अपनी जगह, मगर मोहर्रम की ख़ुशी भी कम नहीं हुआ करती। बकरीद के बाद ही मोहर्रम की तैयारी शुरू हो जाती।”5 

 मरसिए का रिवाज़

शिया मुसलमानों में मरसिए का प्रचलन है –“गंगौली गाँव में मोहर्रम के चालीस दिनों के मातम के दौरान शोक मनाना और मरसिया पढ़ने की बैठकें करना वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधि है, जो जीवन का अभिन्न अंग हो गई है। मरसिये का मूल प्रेरणा धार्मिक है। उर्दू के अधिकांश मरसिए (शोकगीत) करबला के मैदान में हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके बहत्तर साथियों के, शत्रु से युद्ध और बलिदान की कथा कहते हैं। इसका मुख्य रस है करुणा।”6

मुसलमानों के बीच प्रचलित जाति का भेद राही के इस उपन्यास में देखने को मिलता है। जुलाहे का लड़का मीर साहब के लड़के के साथ कबड्डी खेलता है तब गया अहीर ने उन लड़कों को इधर-उधर फेंकते हुए कहा – “अब तुँह लोगन अइसन लाट साहेब होगइल बाडा की मीर साहेब के लइकन से कबड्डी खेलबा?”7 गाँव के लोग सीधे-सादे ईमानदार थे। मुसलमानों में ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं था – “ मुसलमान-मुसलमान भाई-भाई होता है। इस्लाम ऊँच-नीच को नहीं मानता। क्या आँहज़रत (रसूल) ने सलमान फारसी को अपने अहले बैत में नहीं गिना था”8

गाँव की एक हिंदु छिकुरिया दलित जाति की थी, मुस्लिम विरोधी हिंदुवादी मास्टर साहब की प्रचार को स्वीकार नहीं करती। मास्टर साहब ने इतना तक कह दिया कि इन मुसलमानों ने मंदिर तोड़कर वहाँ मस्जिद बना लिया है। छिकुरिया यह मानने को तैयार नहीं थी कि ऐसी घटना गंगौली में आज तक नहीं हुई थी। 

गंगौली निवासी किसी भी प्रकार के धार्मिक रूढ़ियों पर विश्वास नहीं रखते थे। अलीगढ़ से शिक्षित युवक गंगौली गाँव के लोगों के मन में धार्मिक विद्वेष की बीज बोना चाहते हैं। सैनिक वेशधारी तन्नु इन युवकों से तर्क करते हुए कहता है– “मैं मुसलमान हूँ। लेकिन मुझे इस गाँव से मुहब्बत है, क्योंकि मैं यह गाँव हूँ। मैं नील के इस गोदाम, इस तालाब और इन कच्चे रास्तों को प्यार करता हूँ, क्योंकि ये मेरे ही मुख़्तलिफ़ रूप हैं। मैदाने-जंग में जब मौत बहुत क़रीब आ जाती तो मुझे अल्लाह ज़रूर याद आता था, लेकिन मक्कए-मुअजम्मा या कर्बलाए-मुअल्ला की जगह गंगौली याद आती थी। अल्लाह तो हर जगह है। फिर गंगौली और मक्का, और नील के गोदाम और काबे, और हमारे पोखरे और आबे ज़मज़म में क्या फर्क है? गंगौली मेरा गाँव है। मक्का मेरा शहर नहीं। यह मेरा घर है और काबा अल्लाह मियाँ का।”9

आधा गाँव में मुस्लिम लीग जितने जोश के साथ पाकिस्तान बनाने की बात करते हैं उतने ही जोश वहाँ के हिंदु धार्मिक नेता करते हैं। उपन्यास में कहीं-कहीं अवैध यौन संबंधों की समस्या व्याप्त हैं। अधिकांश स्त्री एवं पुरुष पात्र यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए लालायित हैं। ज़मींदार हम्माद मियाँ का बेटा मिगनाद नाइन की लड़की सैफुनिया के प्यार में फँस जाता है। उसी प्रकार सुलेमान ने बिना विवाह किए ही एक नाइन को अपने घर में रख लिया था। हिंदुओं के समान मुसलमानों के बीच मन्नत का प्रचलन था। इसी प्रकार उपन्यास के पात्र नमाज़ पढ़ने का समय और तरीक़ों पर भी लेखक ने विचार किया है। “इन्हीं बातों में रात की नमाज़ का वक़्त आ गया। अशरफुल्ला खाँ ने सामनेवाली मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ी।”10 

तलाक़ पद्धति 

तलाक़ पद्धति का दर्दनाक उदाहरण उपन्यास में हैं। गुलाम हुसैन के एक संदर्भ में लेखक ने यह व्यक्त किया है। “चार पीढ़ियों से अड़ोस-पड़ोस में उनका कोई रिश्ता नहीं हुआ था। वे लोग ज़िला पार से नाता जोड़ा करते थे। रिश्ता हो जाने के बाद समधियाने वालों को मालूम होता तो वे बेचारे अपनी शराफ़त की मार खाकर चुप हो जाते थे। बस गुलाम हुसैन खाँ की फूफी की ससुरालवालों ने इस बात को पी-पिलाकर ख़त्म नहीं किया। उन्होंने तड़ से तलाक़ दिलवा दी। फूफी बेचारी मायके लौट आयीं। इस तलाक़ के बाद अब तक इस धरती में किसी लड़की के ब्याह का सवाल नहीं उठा था।”11 एक और संदर्भ में गफूरन की बेटी सितारा को जब सतमासा बच्चा का जनम हुआ तो ससुरालवाले शक से देखने लगे। “सितारा के मियाँ ने उसे तलाक़ दे दी। वह गाजडीपुर वापस आ गयी।”12 

शादी का तरीक़ा

मुस्लिम समाज के लोगों को इस्लाम धर्म एक से अधिक शादी करने का अधिकार देता है। इसी विषय को लेकर समीउद्दीन ख़ाँ और ठाकुर साहब के बीच ज़ोरदार संवाद होता है। 

निष्कर्षतः हमें यह मानने में कोई हिचक नहीं हो कि राही मासूम रज़ा ने अपने प्रथम उपन्यास ‘आधा गाँव’ में हिंदु-मुस्लिम समस्या के देशव्यापी प्रभाव को स्पष्ट कर दिया है। इस प्रकार ‘आधा गाँव’ उपन्यास गंगौली गाँव के शिया मुसलमानों की संस्कृति का विशद चित्रण करता है। यहाँ के जीवन में मुहर्रम, ताज़िया और मरसिया गायन का अपना स्थान है। गाज़ीपुर के गंगौली गाँव की आबादी में आधे से ज़्यादा मुसलमान हैं। वह आबादी क्रमशः कम हो जाने की कहानी आधा गाँव में चित्रित है। मुसलमानों की अंदरूनी ज़िंदगी की परतें उघाड़नेवाला यह पहला उपन्यास है। इसमें विभाजन से उत्पन्न मुसलमान मन की एक तीखी कसक है।

संदर्भ संकेत

  1. राही मासूम रज़ा : आधा गाँव भूमिका से 

  2. शशिभूषण सिंहल : भारतीय स्वतंत्रता और हिंदी उपन्यास पृ.सं 123

  3. राही मासूम रज़ा : आधा गाँव,पृ.सं.165

  4. वही : पृ.सं.155

  5. वही : पृ.सं.17

  6. शशिभूषण सिंहल: भारतीय स्वतंत्रता और हिंदी उपन्यास ,189

  7. राही मासूम रज़ा : आधा गाँव, : पृ.सं.34,35

  8. वही : पृ.सं.63

  9. वही : पृ.सं. 250,251    

  10. वही : पृ.सं .99

  11. वही : पृ.सं. 95

  12. वही : पृ.सं .66

                                डॉ.एम.गोविन्दराज
                                वयनाड, केरल – मो.9947773892

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