रब्ब ने मिलाइयाँ जोड़ियाँ...!

31-03-2015

रब्ब ने मिलाइयाँ जोड़ियाँ...!

अशोक परुथी 'मतवाला'

उस रोज़ मैं अभी एक लेख लिखने बैठा ही था कि न जाने कहाँ से रामलाल जी आ टपके! आते ही उन्होंने मुझसे अपना गिला-शिकवा शुरू कर दिया, “यार, सारा दिन अपने लेखों में ही खोये रहते हो, अपने दुनीचंद का भी ख़्याल है कि नहीं...एक ही तो काम तुम्हारे ज़िम्मे लगाया था...,” बिना मुझे जवाब देने का मौका दिये पुन: कहने लगे, “तुम्हारी तो अच्छी ख़ासी जान-पहचान है...मैं चाहता तो दुनीचंद की शादी का विज्ञापन भी अखबार में दे सकता था… लेकिन, न जाने क्यूँ मेरा मन नहीं मानता...वैसे तो उसके लिए कई रिश्ते आए हैं लेकिन बात सारी सयोंगों की है...और मैं यह मानता हूँ कि ईश्वर ने सबके लिए बनाई है एक जोड़ी - जैसे घोड़े के लिए घोड़ी, चिड़े के लिए चिड़ी...'अनहे के लिए कोढ़ी' वगैरह-वगैरह। उसके घर में देर है लेकिन अँधेर नहीं...!”

“मैं आपसे 100 प्रतिशत सहमत हूँ, रामलाल जी!... मैं ‘अपने’ दुनीचंद के बारे में भूला नहीं हूँ, एक दो ‘बंदो’ से बात-चीत भी कर रखी है, लेकिन अभी कोई जवाब नहीं मिला। बस, थोड़ा सब्र करो...जब समय आया, पता ही नहीं लगना कि उसकी कब मंगनी हुई और कब विवाह!” मैंने रामलाल जी का मन रखने के लिए ऐसा कहा, हालाँकि, मैं भली-भांति जानता था कि वास्तविकता क्या थी!

एक लंबी साँस खींच कर रामलाल जी फिर कहने लगे, “लड़की चाहे विधवा हो या तलाक़शुदा... मंजूर है, लेकिन मैं यह चाहता हूँ कि उसकी शादी शीघ्र अतिशीघ्र हो...!”

“भगवान पर भरोसा रखो, मैंने मुरलीधर जी को भी बुलाया है...बस आते ही होंगे...देखते हैं, उन्होंने इस रिश्ते के बारे में अपना क्या मन बनाया है और क्या कहते हैं...!”

मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि दरवाजे पर दस्तक हुईं ...”लो देखो, वे आ तो नहीं गये...मुरलीधर जी ही होंगे, समय के बड़े पाबंध हैं!” दरवाजे की और बढ़ते हुये मैंने रामलाल जी को बैठक में सोफ़े पर बैठने का अनुरोध किया। द्वार खोलकर मैंने मुरलीधर जी को अंदर आने के लिए आग्रह किया। उनका अभिनंदन करते हुये मैंने कहा, “आईये, मुरलीधर जी, आईये, आपकी उम्र बहुत लंबी है...!”

“वह कैसे?” प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्होंने पूछा।

“अभी – अभी मैं और रामलाल जी आपको याद कर ही रहे थे कि... आपका आना हुआ… रामलाल जी भी अभी-अभी, थोड़ी देर पहले ही मेरे यहाँ तशरीफ़ लाये हैं,” मैंने स्पष्ट करते हुये कहा।

बैठक में पहुँचकर मैंने उनकी रामलाल जी से भेंट कराई और और उनके सामने रखे सोफ़े की कुर्सी में विराजमान होने को कहा। दोनों अब आमने-सामने बैठे थे...बस मैं ही उनके बीच में फँसा था।

नौकर रामू को आवाज़ लगाकर मैंने बिस्कुटों के साथ चाय लाने को कहा और तब तक मैं दोनों के साथ रहा जब तक कि चाय बैठक में नहीं आ गई। इस ‘मीटिंग’ का मक़सद दोनों पहले से ही जानते थे। दोनों की ज़रूरत अथवा यूँ कहें समस्या एक जैसी थी...रामलाल जी को अपने ‘लाल’ दुनीचंद के लिए वधु चाहिए थी और मुरलीधर जी को अपनी बिटिया के लिये वर की तलाश थी। मुझे यह तो पता था कि रामलाल जी ने दुनीचंद की शादी के लिये अख़बार में विज्ञापन दिया था (लेकिन मैं यह नहीं जानता कि उन्होंने अपने लड़के का क्या विवरण दिया था...विज्ञापन पढ़कर...जवाब में लोगों के ... एक नहीं, दो नहीं, सेंकड़ों ख़त आए थे। उनमें से कईयों ने तो यह लिखा था, “बेगम चाहिए तो आ...मेरी लेजा...मेरी लेजा...!” कुछ परिवार वालों ने अपनी लड़की के गुणों आदि का विवरण कम और अपनी निजी संपति का ब्योरा अधिक दिया था कि उनकी अपनी कितनी ज़मीन और जायदाद थी।

आज के युग में ‘सबूते’ लड़के-लड़कियों के रिश्ते कराने की बात आती है तो कितनी मुश्किल पेश आती है, इससे हम अच्छी तरह वाकिफ़ हैं। लेकिन, यह केस अन्य रिश्तों से बहुत अधिक पेचीदा था - रामलाल जी के दुनीचंद को कोई लेता नहीं था और मुरलीधर जी की बिटिया को कोई शादी के लिये अपना लड़का देता नहीं था। मुझे भी ज़रा सा कोई संदेह नहीं था कि अगरचे दोनों के रिश्ते पर ईश्वर राज़ी हो भी गया तो लोग बस यही कहेंगे, “रब्ब ने मिलाई जोड़ी, इक अनाह (अंधा) ते इक कोढ़ी!” लेकिन मैंने यह भी सुन रखा था कि ‘मियाँ बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी?’

ईश्वर के कर्म से इस काम के लिये दोनों ने मेरा ज़िम्मा लगाया हुआ था। मैं भी इस कार्य के लिये पिछले कई वर्षों से प्रयास कर रहा था लेकिन अभी तक सफल नहीं हुआ था, लेकिन न जाने क्यूँ मेरा ‘आत्माराम’ मुझसे आज कह रहा था कि दुनीचंद एक दिन घोड़ी ज़रूर चढ़ेगा! लेकिन मेरे कई क़रीबी दोस्त जो इस शुभ काम के लिये किए जा रहे मेरे प्रयासों के बारे में थोड़ा-बहुत जो कुछ भी जानते थे, यह कहते कभी नहीं हिचकिचाते थे कि ‘ओ दिन डुब्बा, जिस दिन घोड़ी चढ़या कुब्बा...!’

फिर भी आप मेरे होंसले और उम्मीद की दाद दीजिये कि मैं समय–समय पर रामलाल जी को यह सांत्वना देता रहता था कि वे नाहक कोई चिंता न करें...ऊपर वाले के घर थोड़ी देर हो सकती है मगर उसके घर अँधेर नहीं है...और उनके जीते-जी उनका सपुत्र बैंड-बाजे के साथ एक दिन घोड़ी ज़रूर चढ़ेगा।

मैं यहाँ इस बात का भी ज़िक्र करता चलूँ कि रामलाल जी सारे मामले की गंभीरता जानते थे लेकिन इसको लेकर कभी हताश या परेशान नहीं हुए थे और मैं उनकी बात को सुनकर अक्सर कितना गदगद हो उठता था, जब वे मुझसे कहते थे, “अशोक जी, आपके मुँह में घी-शक्कर!” हालाँकि, मैं जानता था कि घी-शक्कर मेरे लिये हानिकारक है क्योंकि मैं मधुमेह (‘शुगर’) का मरीज़ था। मुझे अपनी इस बीमारी का इतना डर नहीं था जितना मुझे नज़दीकी भविष्य में दोनों परिवारों या नए दंपती के बीच किसी प्रकार की अनबन या मनमुटाव हो जाने के परिणाम स्वरूप यह बात साकार होने का भय था - “विचोले दा मुँह काला...!”

इस कारण मैं ‘विचोला’ नहीं बनना चाहता था क्योंकि मैं जानता था (दुनीचंद के केस में) मेरे लिये ऐसा करना ‘कोयले की दलाली’ करने वाली बात की तरह था... अगर मैं बीच में पड़ा तो मेरा मुँह तो काला होगा ही...और समाज में रही-गई बाकी की इज़्ज़त भी जाती रहेगी... आज नहीं तो कल...इसीलिये मैं रिश्ता कराने आदि के लफड़े से बिलकुल बाहर रहना चाहता था! मैं चाहता था कि आपस में जुडने वाले दोनों परिवार, जीवन-साथी बनने वाली जोड़ी, दोनों ही ख़ुश हों… समय रहते और अपनी ‘हाँ’ करने से पहले अपने मामे-चाचियों और फूफा-फूफियों आदि, सब की राय ले लें और सबको ख़ुश कर लें...बाद में ‘विचोले’ (मुझे), अपने विधाता और कर्मों को दोष न दें...बल्कि ज़ुर्रत भी न करें। एक दूसरे की कोई ‘डिमाण्ड’ हो तो अपने कानों ख़ुद एक-दूसरे से सुन लें। दहेज में गाय-बकरी चाहिये या फिर ‘मरसेडीज़’ कार मिले या फिर बी.एम.डब्ल्यू. (ब्लैक, मैक्सिकन, व्हाइट) भी चलेगी या नहीं आदि का स्पष्टीकरण ले लें!

उपयुक्त समय पर मैंने यह कहकर अपनी जान छुड़ायी, “मुरलीधर जी, आप लड़की वाले हैं और आप हैं... रामलाल जी… लड़के के पिता...आपको अपनी लड़की के लिये लड़का चाहिये और इन्हें अपने लड़के के लिये लड़की। शुभ काम में फिर देरी क्यों?

“यह आपका अपना घर है। पूरा समय लेकर लड़के-लड़की और एक-दूसरे के परिवार के बारे में जो भी आपके साँझे सवाल हैं, बिना किसी झिझक के एक दूसरे से पूछिये...,” और जनाब, यह कह कर मैं दोनों के बीच वाली अपनी ‘पोज़ीशन’ से बाहर निकल गया।

इस तरह दोनों के बीच आपसी सीधे वार्तालाप का ‘श्री गणेश’ हुआ। जब लड़के-लड़की के गुणों की बात आई तो दोनों में पहले आप, पहले आप होने लगी। मुरलीधर जी अपना सिर झुकाते हुए कहने लगे, “हम लड़की वाले हैं, लो अपना सर आपके सामने झुकाते हैं और आपको अपनी ‘गुणवती’ के एक-एक करके सब गुण बताते हैं...और फिर वे शुरू हो गये, “साडी ते कुड़ी दा राम लाल जी, रंग है खरवा...”

“साडा वी दुनीचंद पुट्ठे तवे वरगा..!” जवाब में रामलाल ही ने कहा!

“साडी ते कुड़ी, राम लाल जी, बड़े लाड़ प्यार से पली है, सिनेमा की बड़ी शौकीन ए...!”

“साडा वी दुनीचंद खाँदा अफीम वे ...आप ज़रा भी चिंता न करें...!” मुरलीधर जी जवाब में बोले।

“साडी ते कुड़ी, राम लाल जी, हौली-हौली चल्ले...!”

“साडा वी दुनीचंद ज़रा वी न हल्ले...”

“साडी ते कुड़ी, राम लाल जी, इक अख वेखे...!”

“साडा वी दुनीचंद दोवें न वेखे...!”

“और हाँ, एक बात और कहूँगा…” कहकर मुरलीधर जी फिर बोले, “साडी ते कुड़ी रामलाल जी, रहन्दी बीमार जे...!”

“तुस्सी, बिलकुल वी चिंता न करो ...वाहेगुरु जी की कृपा नाल सब कुझ ठीक हो जाएगा...जी!, कहते हुये वह फिर बोले, “साडा वी दुनीचंद दो-दिन चार वे...!”

इतने में मैं बैठक में प्रवेश हुआ और दोनों की आपसी सहमती को देखते हुए मैंने कहा, “रब्ब ने मिलाइयाँ जोड़ियाँ, दोनों के हाथ मिलवाकर, मैंने रिश्ता पक्का करवा दिया और दोनों को गले लग कर बधाई दी!

ईश्वर का शुक्र...और अल्हा के कर्म से...आज दुनीचंद की शादी थी। दुनीचंद जी, घोड़ी पर सवार वधु के घर के सम्मुख अपनी बारात के साथ खड़े थे। इतने में कहीं से रामलाल जी दौड़े-दौड़े आए, मुरलीधर जी के क़रीब आकर बोले, “दुल्हे को वरमाला पहनाने के लिये लड़की को ज़रा जल्दी इधर लाइये ताकि उसके बाद ‘डिनर’ समय पर शुरू किया जा सके...!”

जवाब में मुरलीधर जी थोड़ा घबराये और हिम्मत जुटाकर फिर कहने लगे, “आप शायद भूल गये हैं...मैंने आपको पहले बताया था कि लड़की एक टाँग से...वो क्या है कि के...अब आप से क्या छुपाना ...मैंने जैसा कि पहले आपको बताया भी था कि लड़की एक टाँग से लंगड़ी है...!”

“आप चिंता न कीजिये राम लाल जी...अपने ‘लाल’ को भी पकड़ कर घोड़े से नीचे उतारना पड़ेगा...बेचारे, दुनीचंद के नसीब में तो खुदा ने...दोनों टाँगें ही नहीं लिखी...अब आप से भी क्या छुपाना...!"

आखिरकार, इधर लड़का-लड़की दोनों ने एक दूसरे को वरमाला पहनाई और उधर यह धुन बज उठी, “अपने न आगे-पीछे, न कोई ऊपर नीचे, रोने वाला, न कोई रोने वाली, जनाबे आली...आपका क्या क्या होगा?"

क्या आपने कभी दुनिचंद और रामदुलारी के बारे में कुछ सुना है?

मैंने भी कुछ नहीं सुना, यह अपने आप में एक अच्छी ख़बर है। कहते हैं न – ‘नो न्यूज़ इज़ ए गुड न्यूज़!’ ईश्वर दोनों को दीर्घायु दे, वह दोनों आज जहाँ भी हैं प्रभु हमेशा उन्हें ख़ुश और ख़ुशहाल रखे।

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