राजभाषा हिन्दी: दशा एवं दिशा

21-10-2014

राजभाषा हिन्दी: दशा एवं दिशा

प्रो. महावीर सरन जैन

राजकाज के प्रशासनिक कार्यों में हिन्दी का प्रयोग होता रहा है। राम बाबू शर्मा के अनुसार यह प्रयोग बारहवीं सदी से होता रहा है।
(बारहवीं सदी से राजकाज में हिन्दी, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, (1980))

 

राजभाषा हिन्दी में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की जिस खड़ीबोली को भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्रता के बाद प्रशासनिक महत्त्व मिला है, उसे लगभग प्रायः छह सौ वर्ष पूर्व दक्षिण में यह महत्त्व प्राप्त हो चुका था।

प्रशासनिक हिन्दी के सम्बंध में मेरे निर्देशन में मोतीलाल चतुर्वेदी ने “रेलवे विभाग में प्रयुक्त प्रशासनिक हिन्दी का शब्दकोशीय एवं व्याकरणिक अध्ययन” विषय पर जबलपुर के विश्वविद्यालय की पी-एच. डी. उपाधि के लिए शोध कार्य किया। उनके शोध-प्रबंध के एक अध्याय का शीर्षक है - ´स्वतंत्रतापूर्व भारत में प्रशासनिक हिन्दी'।

डॉ. रामविलास शर्मा ने ´भारत की भाषा समस्या' शीर्षक अपनी पुस्तक की भूमिका में इस विषय पर धारदार टिप्पणी की है। उनके शब्द हैं -

–“राजा बलवंत सिंह कालेज के हिन्दी अध्यापक डॉ. श्री मोहन द्विवेदी की देखरेख में महेश चन्द्र गुप्त ´राजस्थान के प्रशासनिक कार्यों में हिन्दी का प्रयोग' विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं। उन्होंने सन् 1857 के पहले के और उसके बाद के भी काफी दस्तावेज़ इकट्ठे किए हैं। इन दस्तावेज़ों में वे पत्र हैं जो अंग्रेजों ने राजाओं को लिखे, राजाओं ने अंग्रेजों को लिखे; साथ ही ऐसे पत्र हैं जो राजाओं ने एक दूसरे को लिखे। यदि राजस्थान में 19वीं सदी में हिन्दी राजभाषा के रूप में काम आती थी और उसका व्यवहार हिन्दुस्तान के लोग हीं नहीं अंग्रेज भी करते थे तो कोई कारण नहीं कि 20वीं सदी के अन्तिम चरण में अंग्रेजी प्रेमी भारतवासी अपना अंग्रेजी मोह त्यागकर हिन्दी का उपयोग न कर सकें´।

(भारत की भाषा समस्या, पृष्ठ 13, तीसरा संस्करण, राजकामल प्रकाशन (2003))

संविधान सभा में राजभाषा हिन्दी का मामला 14 जुलाई, 1947 के पहले ही सुलझ गया था। 14 जुलाई के पहले संविधान सभा में बहस का मुद्दा यह नहीं था कि देश की राजभाषा हिन्दी हो अथवा अंग्रेजी हो। बहस का मुद्दा यह था कि राजषाषा हिन्दी हो अथवा हिन्दुस्तानी हो। इसको विस्तार से समझने की ज़रूरत है। सन् 1928 में भारत को स्वतंत्र कराने वाली पार्टियों (जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग शामिल थीं) का स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए सम्मेलन हुआ। इसमें पंडित मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में तैयार रिपोर्ट में देश की सर्वमान्य भाषा ´हिन्दुस्तानी' मानी गई (रिपोर्ट, पृष्ठ 165-166)। सन् 1937 में प्रांतीय सरकार बनने पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा - ´हर प्रांत की सरकारी भाषा राज्य के कामकाज के लिए उस प्रांत की भाषा होनी चाहिए। परन्तु हर जगह अखिल भारतीय भाषा होने के नाते 'हिन्दुस्तानी' को सरकारी तौर पर माना जाना चाहिए। अखिल भारतीय भाषा कोई हो सकती है तो वह सिर्फ हिन्दी या हिन्दुस्तानी कुछ भी कह लीजिए – ही हो सकती है'।

(पंडित जवाहर लाल नेहरू - राष्ट्रभाषा का सवाल, पृष्ठ 23 एवं पृष्ठ 33, अहमदाबाद (1949)

सन् 1946 में संविधान सभा गठित हुई तथा इसकी पहली बैठक दिनांक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई तथा दिनांक 11 दिसम्बर, 1946 की बैठक में राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष चुने गए। दिनांक 14 जुलाई,1947 की संविधान सभा के सत्र में यह प्रस्ताव आया कि ´हिन्दुस्तानी' के स्थान पर ´हिन्दी´ को देश की सर्वमान्य भाषा माना जाए। इस मुद्दे पर विचार करने के लिए संविधान सभा के कांग्रेस पार्टी के सदस्यों की बैठक बुलाई गई। इस मुद्दे पर विचार विमर्श हुआ। कुछ सदस्यों ने हिन्दी के पक्ष में तथा कुछ सदस्यों ने हिन्दुस्तानी के पक्ष में अपने विचार व्यक्त किए।

हिन्दी के पक्ष में सबसे अकाट्य दलीलें पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविन्द दास, डॉ. रघुवीर तथा दक्षिण भारत के अधिकांश सदस्यों की थीं।

अब्दुल कलाम आज़ाद आदि ने हिन्दुस्तानी के पक्ष में दलीलें दीं। इस मुद्दे पर जब सहमति नहीं बनी तब मतदान का निर्णय लिया गया। मतदान में हिन्दी के पक्ष में 63 मत पड़े तथा हिन्दुस्तानी के पक्ष में 32 मत पड़े।

हिन्दी की लिपि के मुद्दे पर भी बहस हुई। कुछ सदस्यों ने अरबी-फारसी तथा कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि को अपनाने के सम्बंध में दलीलें पेश कीं। इस मुद्दे पर अधिकांश सदस्य देवनागरी लिपि को अपनाने के पक्ष में थे। इस पर भी मतदान कराया गया। मतदान में देवनागरी लिपि के पक्ष में 63 तथा रोमन लिपि के पक्ष में केवल 18 मत पड़े। इस प्रकार भारत के स्वतंत्रता दिवस के पहले ही दिनांक 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा के कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय ले लिया था।

15 अगस्त,1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद तथा पाकिस्तान बनने के कारण मुस्लिम लीग के सदस्य संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे।

14 जुलाई, 1947 से लेकर 14 सितम्बर, 1949 तक बहस इस मुद्दे पर होती रही कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो।

14 सितम्बर, 1949 को जब संविधान सभा की बैठक हुई तब सभापति के सम्बोधन के वक्तव्य को मूल अंग्रेजी में प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे मेरे मत की पुष्टि हो सके तथा किसी प्रकार के संदेह या भ्रम की स्थिति न रहे –

Constituent Assembly Debates

Constituent Assembly Debates on 14 September, 1949 PART II

CONSTITUENT ASSEMBLY OF INDIA - VOLUME IX

Wednesday, the 14th September, 1949
“May I ask how long has this idea about the numerals been before the Country? No member could have the courage of coming before this Assembly, with a proposition about the acceptance of the Hindi language if that language had not already been more or less accepted by the people for years and years. It is on that basis that that clause in the Draft Constitution relating to language has been framed. But how long have people been discussing about these numerals?”

हम पहले कह चुके हैं कि 14 जुलाई, 1947 से लेकर 14 सितम्बर, 1949 तक बहस इस मुद्दे पर होती रही कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो। ये देवनागरी लिपि में प्रयुक्त होने वाले अंक हों अथवा अन्तरराष्ट्रीय अंक हों।

कुछ सदस्यों का मत था कि जब हमने यह निर्णय ले लिया है कि संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी होगी तो हमें अंकों के मामले में भी देवनागरी लिपि के अंकों को स्वीकार कर लेना चाहिए। कुछ सदस्यों का मत था कि वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय अंक अंग्रेजी की तरह विदेशी नहीं हैं अपितु ये भारत से ही पहले अरब तथा अरब से यूरोप पहुँचे हैं। इस कारण हमें अंकों के मामले में, भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप को स्वीकार कर लेना चाहिए। दक्षिण भारत के कुछ सदस्यों ने जिन्होंने हिन्दुस्तानी की अपेक्षा देवनारी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की राजभाषा बनाने के पक्ष में मतदान किया था उनमें से कुछ सदस्यों का मत था कि दक्षिण में हम हिन्दी के प्रचार में अन्तरराष्ट्रीय अंकों का ही प्रयोग करते हैं। इस मुद्दे पर अन्तरराष्ट्रीय अंकों के पक्ष में सबसे जोरदार बहस अब्दुल कलाम आज़ाद की रही । उनके शब्द थे –

“These Indian numerals first reached Arabia, and then from Arabia they reached Europe. This is the reason why in Europe they were known as Arabic numerals, though they originated from India. This style of the numerals is the greatest scientific invention of India, which she is rightly entitled to be proud of, and today the whole world recognizes it, the story of how these numerals had reached Arabia has been preserved in the pages of history. In the eighth century A.D. during the reign of the second Abbasside Caliph, Al Mansoor a party of the Indian Vedic physicians had reached Baghdad and bad got admittance at the court of Al Mansoor. A certain physician of this party was a specialist in astronomy and lie had Brahmaguptas' book "Siddhanta" with him, Al Mansoor, having learnt this, ordered an Arab philosopher, Ibraheem Algazari, to translate the "Siddhanta" into Arabic with the help of the Indian scholar. It is said that the Arabs learnt about the Indian numerals in connection With this translation, and having seen its overwhelming advantage, they At once adopted it in Arabic. Like Latin, in Arabic also there were no Specific symbols for counting figures. Every number and figure was expressed in words. In cases of abbreviations various letters were made use of, which were given certain numerals values. At that time Indian numerals put before them a very easy way of counting. They became famous as Arabic numerals. And after reaching Europe they took that form in which we find them in International numerals at present. I have emphasized that these numerals are India's own It. is not a foreign thing”.

दक्षिण भारत के श्री संतानम ने भी अन्तरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग का समर्थन करते हुए सभा के सदस्यों को अवगत कराया -

“I may inform the honourable Member that this question came up before us in the South in connection with the Hindi Prachar Sabha at least fifteen years ago and we decided that Hindi Prachar in the South should be conducted with international numerals”.

इस मुद्दे पर बहस होती रही। देवनागरी के अंकों को अपनाने के सम्बंध में सबसे अधिक दलीलें पुरुषोत्त्म दास टंडन की थी। इस मुद्दे पर अनेक बैठकों में जोरदार बहस होती रहीं। भाषा सम्बंधी अनुच्छेदों पर संविधान सभा के सभापति को लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन मिले। मैं इस बात को दुबारा तिबारा दोहराना चाहता हूँ कि 14 जुलाई, 1947 से लेकर 14 सितम्बर, 1949 तक बहस इस मुद्दे पर होती रही कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो। ये देवनागरी लिपि में प्रयुक्त होने वाले अंक हों अथवा अन्तरराष्ट्रीय अंक हों।

संविधान सभा में भाषा विषयक बहस 278 पृष्ठों में मुद्रित है जिसका अधिकांश भाग अंकों के स्वरूप को लेकर हुई बहस से हैं। राजभाषा सम्बंधी विधेयक एकमतेन पास हो इसके लिए डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी तथा श्री गोपाल स्वामी आयंगार की भूमिका महत्वपूर्ण रही। अंकों के मुद्दे पर उन्होंने देवनागरी के अंकों के प्रयोग का मोह त्यागने तथा अन्तरराष्ट्रीय अंकों को स्वीकार करने के लिए वातावरण बनाने की कोशिश की। संविधान सभा के सदस्यों में से दो माननीय सदस्यों (श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी तथा मोटूरि सत्यनारायण) ने मुझे इस बात से अवगत कराया कि उनका तर्क था कि देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी को राजभाषा बनाने की बात उन सदस्यों ने स्वीकार कर ली है जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। इस कारण हिन्दी भाषा सदस्यों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे अन्तरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग की बात मान लें जिससे राजभाषा सम्बंधी विधेयक सर्वसम्मति से पास हो सके। उनकी भूमिका के कारण यह सहमति बनी थी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के प्रश्न पर अधिकांश सदस्यों में कोई मतभेद नहीं था। अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। अंत में अंको के स्वरूप पर 2 सितम्बर, 1949 ईस्वी की बैठक में मतदान कराया गया। मतदान में दोनों पक्षो को बराबर अर्थात् 77- 77 मत प्राप्त हुए। अंत में संविधान सभा के सभापति श्री राजेन्द्र प्रसाद ने दक्षिण भारत के हिन्दी प्रेमी सदस्यों की भावना तथा डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी एवं श्री गोपाल स्वामी आयंगार की इस भावना को ध्यान में रखकर कि राजभाषा सम्बंधी विधेयक का प्रारूप ऐसा हो जिस पर सभा के सदस्यों की आम सहमति हो तथा जब दक्षिण भारत के अधिकांश सदस्यों ने देश के हित को ध्यान में रखकर देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की राजभाषा बनाना स्वीकार कर लिया है तो अंकों के मुद्दे पर लचीला रुख अपनाया जा सकता है, अपना निर्णायक मत (कास्टिंग वोट) अन्तरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग के पक्ष में दिया तथा एक मत के अधिक होने को कारण (एक मत से) अन्तरराष्ट्रीय अंको के प्रयोग का प्रस्ताव पास हो गया। देवनागरी के अंक बनाम अन्तरराष्ट्रीय अंक के प्रयोग के मुद्दे को अंग्रेजी के विद्वानों ने हिन्दी बनाम अंग्रेजी नाम दे दिया। उनके वक्तव्य को प्रमाण मानकर तथा उसका संदर्भ देकर अंग्रेजी में लिखे हुए भारत विषयक संदर्भ ग्रंथों में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक मत अधिक होने के कारण अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बना दिया गया। यह भ्रांति उन सभी लोगों को है जिनका ज्ञान अंग्रेजी के भारत विषयक संदर्भ ग्रंथों पर आधारित है। उदाहरण के लिए मनोरमा ईयर बुक से सम्बंधित अंश पेश है –

“With independence, the question of a common language naturally came up. The Constituent Assembly could not arrive at a consensus in the matter. The question was put to vote and Hindi won on a single vote – the casting vote of the President.”
(Manorama Year Book 2004, Page 509 (2004))

अंग्रेजी में लिखे हुए भारत विषयक संदर्भ ग्रंथों के आधार पर संघ की राजभाषा के सम्बंध में भ्रामक धारणा बनाने वालों से मेरा यह विनम्र निवेदन एवं आग्रह है कि वे “India, Constituent Assembly Debates” के सभी भागों का अध्ययन करें जिससे अंग्रेजी के ग्रंथों द्वारा गढ़ा गया मिथक टूट सके तथा उनको वास्तविकता का पता चल सके।

14 सितम्बर, 1949 को पूरे दिन की बहस के समापन के बाद शाम को भारी तालियों की गड़गड़ाहट में ‘ मुंशी - आयंगर’ फार्मूला स्वीकार करते हुए राजभाषा सम्बंधी भाग पारित हो गया।

(देखें - Constituent Assembly Debates on 14 September, 1949 PART III

PART XIV-A CHAPTER I-LANGUAGE OF THE UNION/ 301A. Official language of the Union. (1) The official language of the Union shall be Hindi in Devanagari script.The form of numerals to be used for the official purposes of the Union
shall be the international form of Indian numerals.)

सभा में राजभाषा सम्बंधी भाग के पारित होने के बाद सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने जो उद्गार व्यक्त किए वे तत्कालीन सभा के सदस्यों के मनोभावों को आत्मसात करने का लिखित दस्तावेज है-

“अब आज की कार्यवाही समाप्त होती है, किंतु सदन को स्थगित करने से पूर्व मैं बधाई के रुप में कुछ शब्द कहना चाहता हूँ । मेरे विचार में हमने अपने संविधान में एक अध्याय स्वीकार किया है जिसका देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। हमारे इतिहास में अब तक कभी भी एक भाषा को शासन और प्रशासन की भाषा के रुप में मान्यता नहीं मिली थी। हमारा धार्मिक साहित्य और प्रकाशन संस्कृत में सन्निहित था। निस्संदेह उसका समस्त देश में अध्ययन किया जाता था, किंतु वह भाषा भी कभी समूचे देश के प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त नहीं होती थी। आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा लिखी है जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी और उस भाषा का विकास समय की परिस्थितियों के अनुसार ही करना होगा ।

मैं हिन्दी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता । मेरा यह भी दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंशदान है, किंतु सामान्य व्यक्ति के नाते मैं उस भाषा के स्वरूप के बारे में विचार करना चाहता हूँ जिसे हमने आज संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार किया है। हिन्दी में विगत में कई कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियाँ हैं, पहले हमारा बहुत सा साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया था। अब हिंदी में खडी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिन्दी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति ही होगी, अवनति नहीं होगी।

हमने अब देश का राजनैतिक एकीकरण कर लिया है। अब हम एक दूसरा जोड़ लगा रहे हैं जिससे हम सब एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक हो जाएँगे। मुझे आशा है कि सब सदस्य संतोष की भावना लेकर घर जाएँगे और जो मतदान में हार भी गए हैं, वे भी इस पर बुरा नहीं मानेंगे तथा उस कार्य में सहायता देंगे जो संविधान के कारण संघ को भाषा के विषय में अब करना पड़ेगा ।

मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हूँ । 1917 में जब महात्मा गाँधी चम्पारन में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिन्दी प्रचार का कार्य आरम्भ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्यदेव और गाँधी जी के प्रिय पुत्र देवदास गाँधी ने वहाँ जाकर यह कार्य आरम्भ किया। बाद में 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य स्वीकार किया गया और वहाँ कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षो में इस कार्य से सम्बद्ध रहा हूँ, यद्यपि मैं इसे घनिष्ट सम्बंध का दावा नहीं कर सकता । मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे को गया और मेरे हदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के सम्बंध में महात्मा गाँधी के अनुरोध के अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है। मैं जानता हूँ कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किंतु उनमें इस मामले में जो जोश था वह बहुत सराहनीय था। मैंने कई बार पारितोषिक वितरण भी किया है और सदस्यों को यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि मैंने एक ही समय पर दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं, शायद तीन को दिए हों – अर्थात दादा, पिता और पुत्र हिन्दी पढ़कर, परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाणपत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया है। आज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिन्दी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को उन्हें बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए।

यदि आज उन्होंने किसी विशेष बात पर हठ किया है तो हमें याद रखना चाहिए कि आखिर यदि हिन्दी को उन्हें स्वीकार करना है तो वे ही करेंगे, उनकी ओर से हम तो नहीं करेंगे, और आखिर यह क्या बात है जिस पर इतना वाद विवाद हो गया है? मैं आश्चर्य कर रहा था कि हमें छोटे से मामले पर इतनी बहस करने की, इतना समय बर्बाद करने की क्या आवयकता है? आखिर अंक हैं क्या ? दस ही तो हैं। इन दस में, मुझे याद पड़ता है कि तीन तो ऐसे हैं जो अंग्रेजी में और हिंदी में एक से हैं। 2,3 और 0 । मेरे खयाल में चार और हैं जो रुप में एक से हैं किंतु उनसे अलग अलग कार्य निकलते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी का चार अंग्रेजी के आठ से बहुत मिलता जुलता है, यद्यपि एक चार के लिए आता है और दूसरा आठ के लिए । अंग्रेजी का छह हिन्दी के सात से बहुत मिलता है, यद्यपि उन दोनों के भिन्न भिन्न अर्थ हैं। हिन्दी का नौ जिस रूप में लिखा जाता है, मराठी से लिया गया है और अंग्रेजी के 9 से बहुत मिलता है। अब केवल दो तीन अंक बच गए जिनके दोनों प्रकार के अंकों में भिन्न भिन्न रूप हैं और भिन्न भिन्न अर्थ हैं। मुद्राणालय की सुविधा या असुविधा का प्रश्न नहीं है जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है। मेरे विचार में मुद्रणालय की दृष्टि से हिन्दी और अंग्रेजी अंकों में कोई अन्तर नहीं है।

किन्तु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते हैं, और मैं अपने सब हिन्दी मित्रों से कहूँगा कि वे इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिए स्वीकार करें कि हम उनसे हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते हैं और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्यधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर यह बहुत बड़ी रियायत नहीं है। हम उनसे हिन्दी स्वीकार करवाना चाहते थे और उन्होंने स्वीकार कर लिया, और हम उनसे देवनागरी लिपि को स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली। वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे, उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यों होनी चाहिए? इस पर मैं छोटा दृष्टांत देता हूँ जो मनोरंजक होगा। हम चाहते हैं कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते हैं। वे कहते हैं कि आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं और उसके लिए आपका स्वागत है। किन्तु वे कहते हैं कि जब आप हमारे घर आएँ तो कृपया अंग्रेजी चलन के जूते पहनिए, भारतीय चप्पल मत पहनिए जैसा कि आप अपने घर में पहनते हैं। उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिए बुद्धिमत्ता नहीं होगी। मैं भले ही चप्पल पहनना छोड़ना नहीं चाहता, मगर मैं अंग्रेजी जूते पहन लूँगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूँगा। इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएँ हल हो सकती हैं।

हमारे संविधान में बहुत से विवाद उठ खडे हुए हैं और बहुत से प्रश्न उठे हैं जिन पर गम्भीर मतभेद थे किंतु हमने किसी न किसी प्रकार उनका निपटारा कर लिया। यह सबसे बड़ी खाई थी जिससे हम एक दूसरे से अलग हो सकते थे। हमें यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि दक्षिण हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को स्वीकार नहीं करता, तब क्या होता। स्विटजरलैंड जैसे छोटे से, नन्हें से देश में तीन भाषाएँ हैं जो संविधान में मान्य हैं और सब कुछ काम उन तीनों भाषाओं में होता है। क्या हम समझते हैं कि हम केन्द्रीय प्राशसकीय प्रयोजनों के लिए उन भाषाओं को रखने की सोचते जो भारत में प्रचलित हैं तो क्या हम सब प्रान्तों को साथ रख सकते थे, सभी में एकता करा सकते थे? प्रत्येक पृष्ठ को शायद पन्द्रह बीस भाषाओं में मुद्रित करना पड़ता।

यह केवल व्यय का प्रश्न नहीं है। यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा । हम केन्द्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे, उससे हम एक दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आखिर अंग्रेजी से हम निकटतर आए हैं क्योंकि यह एक भाषा थी। अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है, इससे अवश्यमेव हमारे सम्बंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परम्पराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रान्त पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासम्भव बुध्दिमानी का कार्य किया है। मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी सन्तति इसके लिए हमारी सराहना करेगी”।

राजभाषा निमयावली

(1) संविधान के अनुच्छेद 120 में यह प्रावधान है कि संसद का कार्य हिन्दी में अथवा अंग्रेजी में किया जा सकता है परन्तु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं ।

(2) संविधान के अनुच्छेद 343 इस प्रकार है-

अनुच्छेद 343 (1) संघ की राजभाषा

(1) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तरराष्ट्रीय रूप होगा।

(2) खंड (1) में से किसी बात के होते हुए भी इस संविधान के प्रारम्भ से पन्द्रह वर्ष की कालावधि के लिए संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए ऐसे प्रारम्भ के ठीक पहले से प्रयोग किया जाता था। परन्तु राष्ट्रपति उक्त कालावधि में, राजकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ हिन्दी भाषा का तथा भारतीय अंकों के अन्तरराष्ट्रीय रूप के साथ-साथ देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।

(3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी संसद पन्द्रह साल की कालावधि के पश्चात् विधि द्वारा (क) अंग्रेजी भाषा का, अथवा (ख) अंकों के देवनागरी रूप का, ऐसे प्रयोजनों के लिए उपबंधित कर सकेगी जैसे कि ऐसे विधि में उल्लिखित हो।

(3)संविधान का अनुच्छेद 351 हिन्दी भाषा के विकास एवं उसके स्वरूप निर्धारण से सम्बंधित है।

अनुच्छेद 351. हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश

“हिन्दी भाषा की प्रसार वृद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक के सब की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः वैसी उल्लिखित भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा”।

राजभाषा सम्बंधित संवैधानिक उपबंध (Constitutional Provisions)

राजभाषा सम्बंधी संवैधानिक उपबंधों (भारत का संविधान- भाग 3, अनुच्छेद 29 एवं अनुच्छेद 30), (भारत का संविधान- भाग 5, संघ की राजभाषा नीति अनुच्छेद 120), (भारत का संविधान- भाग 17, अनुच्छेद 343, अनुच्छेद 344, अनुच्छेद 350, अनुच्छेद 350 –क, अनुच्छेद 351) के लिए देखें –
http://rajbhasha.gov.in/GOLPContent.aspx?t=enconst

पन्द्रह वर्ष की कालावधि के बाद अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग समाप्त होना चाहिए था। पन्द्रह वर्ष की अवधि सन् 1965 में समाप्त होने वाली थी। उससे पूर्व ही संसद में उस अवधि को अनिश्चित काल तक बढ़ाने का प्रस्ताव पेश हुआ और वह पारित हो गया।अब संविधानिक स्थिति यह है कि नाम के वास्ते तो संघ की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेज़ी सह भाषा है, जबकि वास्तव में अंग्रेज़ी राजभाषा है और हिंदी केवल सह भाषा।

1976 में राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 8(1) के प्रावधानों के तहत राजभाषा के नियम बनाए गए थे। इसके नियम तथा इन नियमों के अनुपालन के लिए समय समय पर बनाई गई नीतियाँ, समितियों के कार्यों का विवरण, पुरस्कार योजना के अन्तर्गत किए गए प्रावधानों, प्रशिक्षण योजना की गतिविधियों, यांत्रिक और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणें की सहायता से राजभाषा के उपयोग की सुविधाएँ तथा राजभाषा विभाग के तकनीकी प्रकोष्ठ के कार्य कलापों का विवरण राजभाषा विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध है। राजभाषा हिन्दी पर बाजार में उपलब्ध अधिकांश पुस्तकों में भी यह विवरण मौजूद है। इस वेबसाइट पर निम्न सूचनाएँ उपलब्ध हैं-

राजभाषा नीति का क्रमिक विकास - Evolution of Official Language Policy
देखें -

http://rajbhasha.gov.in/

  1. संवैधानिक प्रावधान

  2. राजभाषा अधिनियम 1963

  3. राष्ट्रपति का आदेश-1960

  4. षा संकल्प 1968

  5. राजभाषा नियम, 1976

  6. संघ की राजभाषा नीति

  7. संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिशों पर जारी राष्ट्रपति आदेश

  8. भाषायी क्षेत्र

  9. राजभाषा हिंदी के प्रयोग संबंधी आदेशों का संकलन

हिन्दी के प्रयोग के बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रावधान किए गए हैं और जब केन्द्र के किसी मंत्रालय की राजभाषा सलाहकार समिति की बैठक होती है तो मंत्रालय की रिपोर्ट उस मंत्रालय के हिन्दी अधिकारी से बनवाकर समिति के सदस्यों को वितरित कर दी जाती है किन्तु यथार्थ में फाइलों पर अधिकांश कार्रवाई अंग्रेजी में होती है। इस निराशा में आशा की कुछ किरणें भी हैं। मेरा अनुभव यह है कि अधिकांश सरकारी अफसरों की हिन्दी के प्रति उदासीनता तथा मंत्रालयों के अवर सचिव स्तर के अधिकारियों की अंग्रेजी के पूर्वलिखित टिप्पणों के आधार पर फाइलों में टिप्पण लिखने की प्रवृत्ति के बावजूद राजभाषा विभाग के कार्य की प्रगति उसके संयुक्त सचिव की हिन्दी के प्रति मनोभाव पर निर्भर करती है। मैं जानता हूँ कि बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में राजभाषा विभाग के संयुक्त सचिव देव स्वरूप एवं मदन लाल गुप्त ने निष्ठा पूर्वक हिन्दी की प्रगति के लिए कार्य किया तथा इनके प्रयासों के कारण इसी का परिणाम यह हुआ कि प्रबोध, प्रवीण तथा प्राज्ञ स्तर की परीक्षाओं के लिए कम्प्यूटर की सहायता से मल्टी मीडिया पद्धति से प्रशिक्षण सामग्री तैयार करवाने की दिशा में पुणें की सी-डेक के सहयोग से काम होना आरम्भ हुआ। इसका परिणाम सन् 2003 में सबके सामने आया। प्रशिक्षण सामग्री का नाम लीला हिन्दी प्रबोध, लीला हिन्दी प्रवीण, लीला हिन्दी प्राज्ञ रखा गया। यह सामग्री विभाग की वेबसाइट पर सर्व साधारण के उपयोग के लिए उपलब्ध हो गया। इस समय वेबसाइट पर जाकर विभिन्न स्तरों का हिन्दी प्रशिक्षण निम्न भाषाओं के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता हैं –

1. अंग्रेजी 2. असमिया 3. बांग्ला 4. बोडो 5. गुजराती 6. कन्नड़ 7. काश्मीरी 8. मलयालम 9. मणिपुरी 10. मराठी 11. नेपाली 12. ओड़िया 13. पंजाबी 14. तेलुगु 15. तमिल।

यह कार्य प्रसंसनीय है। अब उपर्युक्त भाषाओं के माध्यम से हिन्दी का प्रशिक्षण विभिन्न स्तरों पर मल्टी मीडिया पद्धति से निशुल्क घर बैठे कम्प्यूटर पर प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार सन् 2005 से हिंदी फोंट, फोंट कोड कनवर्टर, अंग्रेजी - हिंदी शब्दकोश, हिंदी स्पेल चेकर को निशुल्क प्रयोग के लिए वेब साइट पर उपलब्ध करा दिया गया है । इन्हें http://ildc.in <http://ildc.gov.in/> से डाउनलोड किया जा सकता है ।

हमने विभिन्न मंत्रालयों की राजभाषा सलाहकार समितियों के सदस्य के रूप में राजभाषा हिन्दी के भाषिक स्वरूप के सम्बंध में अपने विचार प्रस्तुत किए। लिखित सुझाव भी दिए। यह बात सन् 2001 से सन् 2006 के मध्य की है। हमने यह कहा कि जैसी राजभाषा हिन्दी देखने को मिल रही है वह हम जैसे व्यक्ति को भी क्लिष्ट लगती है। सहज नहीं लगती। एक बार में बोधगम्य नहीं होती। समझने के लिए प्राणायाम करना पड़ता है। भाषा को सरल एवं सहज बनाने की जरूरत है। हमने मुख्य रूप से निम्न तथ्यों का उल्लेख किया –

1.जनतंत्र में राजभाषा राजाओं और उनके दरबारियों के लिए नहीं अपितु जनता के द्वारा निर्वाचित सरकार के शासन और जनता के बीच संवाद की भाषा होनी चाहिए।

2.इस कारण उसका भाषिक स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिसे सामान्य आदमी समझ सके। मैं मानता हूँ कि प्रशासन के क्षेत्र में कुछ तकनीकी शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द जिस विषय-क्षेत्र की संकल्पना से जुड़ा होता है उस विषय-क्षेत्र की संकल्पना के संदर्भ में उसका निर्धारित एवं अभीष्ट अर्थ होता है। शब्द के सामान्य अर्थ एवं तकनीकी अर्थ में अन्तर भी हो सकता है। पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द का एक अर्थ में निर्धारण जरूरी है ताकि उस शब्द का विषय-क्षेत्र में कार्य करने वाले सभी प्रयोक्ता समान अर्थ में प्रयोग कर सकें तथा उससे सही अर्थ को ग्रहण कर सकें। हमें भिन्न संकल्पनाओं के लिए भिन्न शब्द भी निर्धारित करने पड़ते हैं। इतना होने पर भी पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों की सार्थकता उसके प्रयोग एवं व्यवहार में निर्भर करती है। प्रयोग ही किसी भी शब्द की कसौटी है। पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का प्रयोग करते हुए भी भाषा सरल एवं सहज होनी चाहिए। मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नए आविष्कार आदि का नामकरण करने अथवा उसके लिए नया शब्द रखने में तथा जन प्रचलित शब्दों के स्थान पर उनके लिए नए शब्द गढ़ने अथवा बनाने में अन्तर है। आयोग के विशेषज्ञों ने इसको अनदेखा कर दिया। जो शब्द जन प्रचलित शब्दों के स्थान पर गढ़े गए, वे अधिकांशतः चल नहीं पाए।

3.भाषा की कठिनाई के दो मुख्य कारण होते हैं-

(क)अप्रचलित शब्दों का प्रयोग

(ख)भाषा की अपनी प्रकृति के अनुरूप एवं सरल वाक्य रचनाओं वाली भाषा का प्रयोग न होना।

4.भारत सरकार को यह सोचना चाहिए कि राजभाषा हिन्दी का प्रयोग लगभग पचास साठ वर्षों से हो रहा है मगर राजभाषा हिन्दी कठिन प्रतीत क्यों होती है। वह बोधगम्य क्यों नहीं है।

इस बारे में, मैंने समितियों की बैठकों के सदस्यों को स्पष्ट किया कि स्वाधीनता के बाद हमारे राजनेताओं ने हिन्दी की घोर उपेक्षा की। पहले यह तर्क दिया गया कि हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। इसके लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना दिया गया। काम सौंप दिया गया कि शब्द बनाओ। आयोग ने तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दों के निर्माण के लिए जिन विशेषज्ञों को काम सौंपा उन्होंने जन प्रचलित शब्दों को अपनाने के स्थान पर संस्कृत का सहारा लेकर शब्द गढ़े। शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं। आयोग ने जिन शब्दों का निर्माण किया उनमें से अधिकांशतः अप्रचलित, जटिल एवं क्लिष्ट हैं। सारा दोष आयोग एवं विशेषज्ञों का भी नहीं है। मैं उनसे ज्यादा दोष मंत्रालय के अधिकारियों का मानता हूँ। प्रशासनिक शब्दावली बनाने के लिए अलिखित आदेश दिए गए कि प्रत्येक शब्द की स्वीकार्यता के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की मंजूरी ली जाए। अधिकारियों की कोशिश रही कि जिन शब्दों का निर्माण हो, वे बाजारू न हो। सरकारी भाषा बाजारू भाषा से अलग दिखनी चाहिए। मैंने अपनी बात को एक उदाहरण से स्पष्ट की। प्रत्येक मंत्रालय में सेक्रेटरी तथा एडिशनल सेक्रेटरी के बाद मंत्रालय के प्रत्येक विभाग में ऊपर से नीचे के क्रम में अंडर सेक्रेटरी का पद होता है। इसके लिए निचला सचिव शब्द बनाकर मंत्रालय के अधिकारियों के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया। अर्थ संगति की दृष्टि से शब्द संगत था। मंत्रालयों के अधिकारियों को आयोग द्वारा निर्मित शब्द पसंद नहीं आया। आदेश दिए गए कि नया शब्द बनाया जाए। आयोग के चेयरमेन ने विशेषज्ञों से अनेक वैकल्पिक शब्द बनाने का अनुरोध किया। अंडर सेक्रेटरी के लिए नए शब्द गढ़ने में विशेषज्ञों ने व्यायाम किया। जो अनेक शब्द बनाकर मंत्रालय के पास भेजे गए उनमें से मंत्रालय के अधिकारियों को “अवर” पसंद आया और वह स्वीकृत हो गया। अंडर सेक्रेटरी के लिए हिन्दी पर्याय अवर सचिव चलने लगा। मंत्रालयों में सैकड़ों अंडर सेक्रेटरी काम करते हैं और सब अवर सचिव सुनकर गर्व का अनुभव करते हैं। शायद ही किसी अंडर सेक्रेटरी को अवर के मूल अर्थ का पता हो। स्वयंबर में अनेक वर विवाह में अपनी किस्मत आजमाने आते थे। जिस वर को वधू माला पहना देती थी वह चुन लिया जाता था। जो वर वधू के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते थे उन्हें अवर कहते थे। चूँकि शब्द गढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि वे सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण आयोग के द्वारा निर्मित कराए गए लगभग 80 प्रतिशत शब्द प्रचलित नहीं हो पाए। वे कोशों की शोभा बनकर रह गए हैं।

भारत सरकार के मंत्रालय के राजभाषा अधिकारी का काम होता है कि वह अंग्रेजी के मैटर का आयोग द्वारा निर्मित शब्दावली में अनुवाद करदे। अधिकांश अनुवादक शब्द की जगह शब्द रखते जाते हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर वाक्य नहीं बनाते। इस कारण जब राजभाषा हिन्दी में अनुवादित सामग्री पढ़ने को मिलती है तो उसे समझने के लिए कसरत करनी पड़ती है। मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि लोकतंत्र में राजभाषा आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। एक बात जोड़ना चाहता हूँ। कोई शब्द जब तक चलन में नहीं आएगा, प्रचलित नहीं होगा तो वह चलेगा नहीं। लोक में जो शब्द प्रचलित हो गए हैं उनके स्थान पर नए शब्द गढ़ना बेवकूफी है। रेलवे स्टेशन का एक कुली कहता है कि ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर खड़ी है। सिग्नल डाउन हो गया है। ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर आ रही है।बाजार में उसी सिक्के का मूल्य होता है जो बाजार में चलता है। हमें वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। “भाखा बहता नीर”। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है।

5.राजभाषा हिन्दी में अधिकारी अंग्रेजी की सामग्री का अनुवाद अधिक करता है। मूल टिप्पण हिन्दी में नहीं लिखा जाता। मूल टिप्पण अंग्रेजी में लिखा जाता है। अनुवादक जो अनुवाद करता है, वह अंग्रेजी की वाक्य रचना के अनुरूप अधिक होता है। हिन्दी भाषा की रचना-प्रकृति अथवा संरचना के अनुरूप कम होता है।

6.मैंने अपने विचार को अनेक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया। एक उदाहरण प्रस्तुत है। हम कोई पत्र मंत्रालय को भेजते हैं तो उसकी पावती की भाषा की रचना निम्न होती है –

´पत्र दिनांक - - - , क्रमांक - - - प्राप्त हुआ'।

सवाल यह है कि क्या प्राप्त हुआ। क्रमांक प्राप्त हुआ अथवा दिनांक प्राप्त हुआ अथवा पत्र प्राप्त हुआ। अंग्रेजी की वाक्य रचना में क्रिया पहले आती है। हिन्दी की वाक्य रचना में क्रिया बाद में आती है। इस कारण जो वाक्य रचना अंग्रेजी के लिए ठीक है उसके अनुरूप रचना हिन्दी के लिए सहज, सरल एवं स्वाभाविक नहीं है। क्रिया (प्राप्त होना अथवा मिलना) का सम्बंध दिनांक से अथवा क्रमांक से नहीं है। पत्र से है। हिन्दी की रचना प्रकृति के हिसाब से वाक्य रचना निम्न प्रकार से होनी चाहिए।

´आपका दिनांक - - - का लिखा पत्र प्राप्त हुआ। उसका क्रमांक है - - - - '

7.हिन्दी की वाक्य रचना भी दो प्रकार की होती है। एक रचना सरल होती है। दूसरी रचना जटिल एवं क्लिष्ट होती है। सरल वाक्य रचना में वाक्य छोटे होते हैं। संयुक्त एवं मिश्र वाक्य बड़े होते हैं। सरल वाक्य रचना वाली भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य होती है। संयुक्त एवं मिश्र वाक्यों की रचना वाले वाक्य होते हैं तो भाषा जटिल हो जाती है, कठिन लगने लगती है, जटिल हो जाती है और इस कारण अबोधगम्य हो जाती है।

मुझे विश्वास है कि यदि प्रशासनिक भाषा को सरल बनाने की दिशा में पहल हुई तो राजभाषा हिन्दी और जनभाषा हिन्दी का अन्तर कम होगा। सरल, सहज, पठनीय, बोधगम्य भाषा-शैली का विकास होगा। ऐसी राजभाषा लोक में प्रिय होगी। लोकप्रचलित होगी। यहाँ इसको रेखांकित करना अप्रसांगिक न होगा कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिन्दीतर भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने जहाँ देश की अखंडता एवं एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की अनिवार्यता की पैरोकारी की वहीं भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं ने एकमतेन सरल एवं सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का प्रयोग करने एवं हिन्दी उर्दू की एकता पर बल दिया था। इसी प्रसंग में एक बात और जोड़ना चाहता हूँ। मैंने अपने एक लेख में लिखा था कि “प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए”। मेरे इस कथन पर कुछ विद्वानों ने प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं। एक विद्वान ने टिप्पण किया : “प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए -लेखक महोदय ने ऐसा लिखा। परन्तु क्या अशुद्ध फारसी-अरबी-अंग्रेजी़ गर्भित-भाषा लिखनी चाहिये- यह कौन सी, कहाँ की और कैसी विचित्र परिभाषा है प्रजातन्त्र की”। एक दूसरे विद्वान का टिप्पण था: “ संस्कृताधारित शब्द अपना पूरा परिवार लेकर भाषामें प्रवेश करता है, अंग्रेज़ी अकेला आता है, उर्दू भी अकेला आता है।नया गढा हुआ, संस्कृत शब्द भी प्रचलित होने पर सरल लगने लगता है।भाषा बदलती है, स्वीकार करता हूँ। पर उसे सुसंस्कृत भी की जा सकती है,और विकृत भी। संस्कृत रचित शब्द सहज स्वीकृत होकर कुछ काल के पश्चात रूढ हो जाएंगे।अंग्रेज़ी के शब्द जब हिंदी में प्रायोजित होते हैं, तो लुढकते लुढकते चलते हैं। उनमें बहाव का अनुभव नहीं होता।और कौनसा स्वीकार करना, कौनसा नहीं, इसका क्या निकष? आज प्रदूषित हिंदी को उसी के प्रदूषित शब्दों द्वारा विचार और प्रयोग करके शुद्ध करना है। जैसे रक्त का क्षयरोग उसी रक्त को शुद्ध कर किया जाता है”। मेरा इन विद्वानों से निवेदन है कि वे संदर्भ को ध्यान में रखकर “शुद्ध” शब्द का अभिधेयार्थ नहीं अपितु व्यंग्यार्थ ग्रहण करने की अनुकंपा करें। 'प्रजातंत्र में' और 'जबरन चलाने' इन दो शब्द-समूहों पर विशेष ध्यान देंगे तो मेरे उपर्युक्त वाक्य प्रयोग का व्यंग्यार्थ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा। इस स्पष्टीकरण के बाद, मैं पुनः जोर देकर कहना चाहता हूँ कि 'प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए'। जनतंत्र में ऐसा करना सम्भव नहीं है। ऐसा फासिस्ट शासन में ही सम्भव है। हमें सामान्य आदमी जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए। मैं हिन्दी के विद्वानों को बता दूँ कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। अपील, अस्पताल, ऑफिसर, इंस्पैक्टर, एक्टर, एजेंट, एडवोकेट, कलर, कमिश्नर, कम्पनी, कॉलिज, कांस्टेबिल, कैम्प, कौंसिल, गजट, गवर्नर, गैलन, गैस, चेयरमेन, चैक, जेल, जेलर, टिकट, डाक्टर, डायरी, डिप्टी, डिपो, डेस्क, ड्राइवर, थियेटर, नोट, पार्क, पिस्तौल, पुलिस, फंड, फिल्म, फैक्टरी, बस, बिस्कुट, बूट, बैंक, बैंच, बैरंग, बोतल, बोर्ड, ब्लाउज, मास्टर, मिनिट, मिल, मेम, मैनेजर, मोटर, रेल, लेडी, सरकस, सिगरेट, सिनेमा, सिमेंट, सुपरिन्टेंडैंट, स्टेशन आदि हजारों शब्द इसके उदाहरण हैं। प्रेमचन्द जैसे हिन्दी के महान साहित्यकार ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में अंग्रेजी के इन शब्दों का प्रयोग करने में कोई झिझक नहीं दिखाई है। शब्दावली आयोग की तरह इनके लिए विशेषज्ञों को बुलाकर यह नहीं कहा कि पहले इन अंग्रेजी के शब्दों के लिए शब्द गढ़ दो ताकि मैं अपना साहित्य सर्जित कर सकूँ। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। पुरानी फिल्मों में प्रयुक्त होनेवाले चुटीले संवादों तथा फिल्मी गानों की पंक्तियाँ जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों की जबान पर चढ़कर बोलती थीं वैसे ही आज की युवा पीढ़ी की जुबान पर आज की फिल्मों में प्रयुक्त संवादों तथा गानों की पंक्तियाँ बोलती हैं। फिल्मों की स्क्रिप्ट के लेखक जनप्रचलित भाषा को परदे पर लाते हैं। उनके इसी प्रयास का परिणाम है कि फिल्मों को देखकर समाज के सबसे निचले स्तर का आम आदमी भी फिल्म का रस ले पाता है। मेरा सवाल यह है कि यदि साहित्यकार, फिल्म के संवादों तथा गीतों का लेखक, समाचार पत्रों के रिपोर्टर जनप्रचलित हिन्दी का प्रयोग कर सकता है तो भारत सरकार का शासन प्रशासन की राजभाषा हिन्दी को जनप्रचलित क्यों नहीं बना सकता। विचारणीय है कि हिंदी फिल्मों की भाषा ने गाँवों और कस्बों की सड़कों एवं बाजारों में आम आदमी के द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में बोली जाने वाली बोलचाल की भाषा को एक नई पहचान दी है। फिल्मों के कारण हिन्दी का जितना प्रचार-प्रसार हुआ है उतना किसी अन्य एक कारण से नहीं हुआ। आम आदमी जिन शब्दों का व्यवहार करता है उनको हिन्दी फिल्मों के संवादों एवं गीतों के लेखकों ने बड़ी खूबसूरती से सहेजा है। भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य शुद्धता से नहीं, निखालिस होने से नहीं, ठेठ होने से नहीं, अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है। राजभाषा के संदर्भ में यह संवैधानिक आदेश है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। भारत सरकार का शासन राजभाषा का तदनुरूप विकास कर सका है अथवा नहीं यह सोचने विचारने की बात है। इस दृष्टि से भी मैं फिल्मों में कार्यरत सभी रचनाकारों एवं कलाकारों का अभिनंदन करता हूँ।हिन्दी सिनेमा ने भारत की सामासिक संस्कृति के माध्यम की निर्मिति में अप्रतिम योगदान दिया है। बंगला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं एवं हिन्दी की विविध उपभाषाओं एवं बोलियों के अंचलों तथा विभिन्न पेशों की बस्तियों के परिवेश को सिनेमा की हिन्दी ने मूर्तमान एवं रूपायित किया है। भाषा तो हिन्दी ही है मगर उसके तेवर में, शब्दों के उच्चारण के लहजे़ में, अनुतान में तथा एकाधिक शब्द-प्रयोग में परिवेश का तड़का मौजूद है। भाषिक प्रयोग की यह विशिष्टता निंदनीय नहीं अपितु प्रशंसनीय है। है। मुझे प्रसन्नता है कि देर आए दुरुस्त आए, राजभाषा विभाग ने प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाने की दिशा में कदम उठाने शुरु कर दिए हैं। मैं इस समाचार का भी स्वागत करता हूँ कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने यह आदेश जारी कर दिया है कि सरकारी कामकाज में हिन्दी का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। जब जनता को समझ में आने वाली सरल हिन्दी में मूल टिप्पण लिखा जाएगा, अंग्रेजी के टिप्पण का हिन्दी में अनुवाद नहीं किया जाएगा तो वह हिन्दी दौड़ेगी। गतिमान होगी। प्रवाहशील होगी। जैसे प्रेमचन्द ने जनप्रचलित अंग्रेजी के शब्दों को अपनाने से परहेज नहीं किया वैसे ही प्रशासनिक हिन्दी में भी प्रशासन से सम्बंधित ऐसे शब्दों को अपना लेना चाहिए जो जन-प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए एडवोकेट, ओवरसियर, एजेंसी, ऍलाट, चैक, अपील, स्टेशन, प्लेटफार्म, एसेम्बली, ऑडिट, केबिनेट, केम्पस, कैरिटर, केस, कैश, बस, सेंसर, बोर्ड, सर्टिफिकेट, चालान, चेम्बर, चार्जशीट, चार्ट, चार्टर, सर्किल, इंस्पेक्टर, सर्किट हाउस, सिविल, क्लेम, क्लास, क्लर्क, क्लिनिक, क्लॉक रूम, मेम्बर, पार्टनर, कॉपी, कॉपीराइट, इन्कम, इन्कम टैक्स, इंक्रीमेंट, स्टोर आदि। भारत सरकार के राजभाषा विभाग को यह सुझाव भी देना चाहता हूँ कि जिन संस्थाओं में सम्पूर्ण प्रशासनिक कार्य हिन्दी में शतकों अथवा दशकों से होता आया है वहाँ की फाइलों में लिखी गई हिन्दी भाषा के आधार पर प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाएँ। जब कोई रोजाना फाइलों में सहज रूप से लिखता है तब उसकी भाषा का रूप अधिक सरल और सहज होता है बनिस्पत जब कोई सजग होकर भाषा को बनाता है। सरल भाषा बनाने से नहीं बनती, सहज प्रयोग करते रहने से बन जाती है, ढल जाती है। ‘भाखा बहता नीर’।


 

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