राग-विराग – 014

01-07-2021

राग-विराग – 014

डॉ. प्रतिभा सक्सेना (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

गोस्वामी तुलसीदास कोरे धूनी रमाने वाले संत नहीं थे, जिसे केवल अपनी मुक्ति की चिंता सताती। वे ऐसे संत थे जिसका हृदय लोक-जीवन में संत्रास देख कर व्यथित होता था। उनके आऱाध्य श्रीराम ने स्वयम् अपनी प्रिय प्रजा के हित-संपादन के लिये अपने सुख को बिसार दिया था, वे मात्र राजा नहीं, समस्त लोक में व्याप्त हो, लोक के विश्वास और संवेदना में छा गये थे। श्रीराम का यही रूप तुलसी का आदर्श रहा।

जब नन्ददास ने कहा, "दद्दू, गृहत्यागी साधु हो कर भी असार संसार पर दृष्टि रखते हो?"

तुलसी मुस्कराये, "क्यों नन्दू, संत क्या केवल अपना लाभ देखता है? मेरी दृष्टि में तो वह स्वयम् हानि-लाभ, सुख-दुख, निन्दा-स्तुति से परे है। संत का जीवन समाज से उदासीन रह कर नहीं, समाज को सही राह दिखा कर सार्थक होता है।"

उन्होंने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया था –

"जीने की कला सिखा गये जो, ये जीवन अब उन्हीं प्रभु की धरोहर है, और उन्हीं को समर्पित है।"

"सिया-राममय लोक को असार कैसे कहूँ? इस लोक के जीवन को सँवारना मेरे लिये राम-काज है। जन-जन में प्रभु राम समाए हैं। श्री राम ने, धर्म और नीति के लिये जीवन धारण किया। लोक कल्याण के लिये श्री राम प्रभु आजीवन तपे। उनका महत्व जितना मेरी समझ में आता जा रहा है, उतना ही उद्घाटित होना शेष रह जाता है।"

नन्ददास से वार्तालाप करते समय एक बार उन्होंने कहा था, "मैंने कब कहा कि मैं दूध का धुला हूँ। मैं तो लिख कर स्वीकार करता हूँ कि मैं पुराना पातकी हूँ। पर श्रीराम की शरण में आ गय़ा हूँ . . . अब तक का जीवन नसाया, अब नहीं नसाना चाहता। अपने सारे विगत कर्म मैंने उन्हीं के चरणों में अर्पित कर दिये, अब अपने लिये कुछ नहीं करूँगा, सब कुछ उन्हीं के निमित्त होगा।

"मैं, दुर्बल प्राणी, उन्हीं से संचालित हो रहा हूँ। वापस लौटना संभव नहीं। लौटने का मतलब दुर्बलताओं के आगे समर्पण, उसी मोह-माया में लौट जाना। वहाँ से बहुत दूर निकल आया हूँ, अब दिशा परिवर्तन संभव नहीं। मैं नहीं कहता कि मैंने सब ठीक किया। लेकिन अब मैंने श्रीराम को हृदय में धारण कर लिया है – सांसारिक कामनाएँ मेरे लिये त्याज्य हैं।"

नन्ददास ने यह भी पूछा, "काहे दद्दा, राम जी और कन्हैया जी में काहे भेद करते हो?"

उन्होंने तुरन्त प्रतिप्रश्न किया, "कौन से कृष्ण जी, नन्दू?

"पीन पयोधर मर्दनकर्ता कृष्ण? वस्त्र-हरण कर अभिसार करते कृष्ण? यह कैसा लम्पट नायक बना डाला? किस रूप में याद कर मगन होते हो, चीर-हरण, रास-लीला, अभिसार या व्यभिचार?"

"इसमें कन्हैया जी का क्या दोष? ये तो लोगों ने अपनी रुचि से ढाल लिया है।"

"व्यवहार में जो स्वरूप बन गया है वही तो असली समस्या है। लोक में वही प्रत्यक्ष है, आँखों के सामने ऐसा व्यक्तित्व क्यों रहे कि कोई अपने अनुसार ढाल ले? लोक-रुचि को क्या कहें? पर जीवन में इतनी विभीषिकाएँ हैं, उनसे छुटकारा दिला सके, ऐसा महानायक पूज्य है। कहाँ गीता का ज्ञान, अनासक्ति और कर्मयोग, और कहाँ रास-रंग, छप्पन-भोग, दान-मान लीला और अभिसार प्रसंग।"

नन्ददास के साथ अनेक बार उनका वार्तालाप होता था, जिससे उनका दृष्टिकोण स्पष्ट होता था। उनका कहना था –

"कर्मयोगी कृष्ण का स्वरूप ही विकृत कर डाला गया। जन्मभूमि पर गाये जानेवाले अश्लील गीत कैसे सबके मुँह पर चढ़ जाते हैं! उनकी निम्नवृत्तियों का पोषण करते हैं और लोग आनन्द नहीं, मज़ा लेते है। स्वकीया त्याज्य हो गई और परकीया-प्रेम की महिमा गाई जा रही है। समाज में व्यभिचार को पोषण मिल रहा है . . . हम अकेले नहीं, और क्योंकि परिवार बृहत्तर समाज का ही एक घटक है। देखो न, सनातन परंपराओं को भंग कर हमारा समाज पतन की ओर जा रहा है और हम आँखें मूँदे बैठे हैं। क्या कवि का कोई दायित्व नहीं?"

"बड़ा अनर्थ हुआ श्रीकृष्ण के साथ। उनके जीवन के अर्थ ही बदल दिये गए। जब कवि की यह प्रवृत्ति होगी तो लोक में भी वही सन्देश जाएगा। जाएगा क्या, बल्कि जा ही रहा है।

"नहीं नन्दू, मुझसे नहीं होगा। मुझे धनुर्धारी राघव में ही सारी समस्याओं का समाधान दिखाई देता है। मैंने अपने सारे बोध श्री राम को अर्पित कर दिये हैं। और अपनी सारी वृत्तियाँ राममय कर लेना चाहता हूँ।
मैंने अपनी निजता उन्हें सौंप दी, कि भला या बुरा जैसा हूँ वे ही सँभालें। अब मेरा अपना कुछ नहीं। जो बीत चुका वह भी उन्हीं चरणों में अर्पित कर चुका हूँ।"

मन ही मन कहते हैं तुलसी – हे प्रभु, मुझे संसार का नहीं, तुम्हारा रुख़ देखना है . . .

तुलसी समझ गए हैं कि दुर्बलताओं को मौक़ा मिलते ही वे प्रबल होने लगती हैं। और मन बहाने गढ़ने में बहुत कुशल है।

नन्ददास को समझाने का प्रयत्न करते हैं, "मन ऐसा उपद्रवी है कि इन्द्रिय सुखों की ओर ले जाता है। लगाम दिये बिना बस में नहीं आता। ज़रा छूट मिली कि भाग चलता है और सारे भान भुला देता है। सचमुच नन्दू, मैं अपने ऊपर विश्वास नहीं करता बहुत धोखा खा चुका हूँ। अवसाद की छाया छोड़, वह रात्रि बीत गई। अब जाग गया तो आँखें कैसे बन्द कर लूँ?"
" . . . और जो लोग तुम्हारे साथ जुड़े हैं उनका कभी सोचा?"

"नदी-नाव संयोग, और कर्मों का लेखा, वह सब अब रामजी को अर्पण कर चुका। जिनके सान्निध्य से मति निर्मल हुई, उनका ऋणी हूँ। हर ऋण इसी जन्म में चुका सके इतना समर्थ कोई नहीं। श्री राम भी कहाँ उऋण हो कर गये। इस धरती से प्रस्थान के समय भी माँ सीता की त्यागमय अनुपम प्रीति को मन में धारे गये होंगे।"

*

संत तुलसीदास जी को "रामचरित मानस" रचने की प्रेरणा "सरयू नदी" के किनारे मिली थी। बहुत समय तक सरयू के उस घाट पर समाधिस्थ-से घण्टों उस प्रवाह को देखते रहते थे, जिसमें श्रीराम ने जल-समाधि ली थी।

प्रभु को, धरती से प्रस्थान करते समय, माता जानकी की याद आई होगी। मन में विचारणा चलती रहती। सघन भावों में डूबे नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगते, रात-दिन की सुध नहीं रहती।

"सरयू" का एक नाम "मानसी" भी है। नेपाल के ऊपरी भाग में इसे मानसी कहा जाता है क्योंकि यह नदी "मानसरोवर" से निकलती हैं, इसीलिए गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ को "रामचरित मानस" नाम दिया।

तत्कालीन शाहंशाह अकबर की ख़्वाहिश थी जन-भाषा का कोई कुशल कवि की उसकी प्रशंसा में क़सीदे कहे, जिससे उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगे। मानसिंह ने उसे सलाह दी कि बनारस शहर का आत्माराम का लड़का अवधी भाषा में खूब लिखता है और लोक में उसकी मान्यता है, लेकिन वह किसी के कहने नहीं लिखता।

राजा मानसिंह का जलवा जग-विदित था। अकबर ने तुरंत अपने दरबार के नवरत्नों में सम्मिलित करने हेतु तुलसीदास का नाम प्रस्तावित कर, उन्हें निमंत्रित करने हाथी की अंबारी सजा कर, बनारस रवाना कर दिया।

तुलसी दास समझ रहे थे, अकबर की अनायास मिली कृपा उनके कार्य में बाधा डालेगी। पद या धन के प्रति यों भी उन्हें अनासक्ति थी। उन्होंने अकबर का प्रस्ताव स्वीकार न कर उसकी बेरुख़ी मोल ले ली।उनका उत्तर था –

"हम चाकर रघुवीर के पटो लिखो दरबार,
तुलसी अब का होहिंगे नर के मनसबदार।"

उस विषम स्थिति में, परम मित्र टोडरमल ने उनका मनोबल बनाए रखने का पूरा प्रयत्न किया था। पहले भी जब पंडितों ने तुलसी पर जानलेवा हमला किया तो उन्होंने उनकी प्राण-रक्षा की थी। इतना ही नहीं बनारस के अस्सी घाट पर अपना एक भवन तुलसी के नाम कर दिया।

तुलसी और उनके ग्रंथ रामचरित-मानस को टोडरमल ने ही पण्डितों के षड्यंत्रों से बचाया और पूरा संरक्षण दिया था।

काशी के पण्डितों ने क्या कम बैर निभाया था? कैसे-कैसे कुचक्र रचे पर तुलसी का कुछ बिगाड़ न कर सके।

1659 में टोडरमल का स्वर्गवास हो गया। वे तुलसीदास के आत्मीयवत् रहे थे। अति सरलमना, उदार-हृदय, टोडर ने विषम स्थितियों से कितनी बार तुलसी को उबारा था। उनकी सन्तानों में भी तुलसी का बहुत मान रहा था। टोडरमल की मृत्यु ने उन्हें बहुत अकेला कर दिया। अनायास ही एक दोहा तुलसी के मुख ले निकल पड़ा –

"रामधाम टोडर गए, तुलसी भए असोच,
जियबो मीत पुनीत बिनु, यहै जानि संकोच।

*

– क्रमशः 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
बाल साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
ललित निबन्ध
साहित्यिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में