राग-विराग – 009

15-04-2021

राग-विराग – 009

डॉ. प्रतिभा सक्सेना (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

वापसी में रत्ना बहुत चुप-चुप थी।

नन्ददास बात करने का प्रयत्न करते, तो हाँ, हूँ में उत्तर दे देती।

वे उसकी मनस्थिति समझ रहे थे..

कुछ देर चुप रह कर उन्होंने नया विषय छेड़ा –

“क्यों भौजी, तुम्हारे पिता ने तुम्हारी शिक्षा पर ख़ूब ध्यान दिया?”

रत्नावली उनकी ओर देखने लगी।

"वैसे तो लोग लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं देते, जानते हैं पढ़-लिख कर क्या करेगी, अंततः गिरस्थी करना है सो थोड़ा-बहुत पढ़ा कर छुट्टी करते हैं। पर भौजी, तुम्हारे पिता ने तो तुम्हें कितना आगे बढ़ा दिया, पूरी विदुषी बना दिया . . ."

रत्ना के मुख पर चमक आ गई थी।

"हाँ, देवर जी, मेरे पिता का विचार था लड़की की रुचि है तो उसको पूरी शिक्षा मिलनी चाहिये . . ." कुछ रुक कर बोली, "माँ कहती भी थी उसे गृहस्थी ही तो करनी है कौन शास्त्रार्थ करना है। उनका उत्तर होता, क्यों शास्त्रार्थ नहीं कर सकती क्या? भारती का नाम नहीं सुना? मण्डन मिश्र से कम थी क्या! उसका चाव भी देखो, उसकी बुद्धि देखो . . ."

"तो तुम शुरू से तीव्र बुद्धि रहीं . . ."

"मेरा बचपन कुछ अलग-सा रहा। गुड़ियों के खेल मेरा मन नहीं बाँध पाते थे। घर में ग्रंथों पर विवेचन होता मैं, खेलना छोड़ कर वहाँ जा बैठती थी। देवर जी, बचपन का जीवन में बहुत महत्व होता है . . . संस्कारों की नींव पड़ती है, सबंधों को पहचानना आता है . . . मुझे तुम्हारे दद्दा के लिए बहुत लगता है – उन्हें तब भटकना पड़ा। अपनापन पाने को कितना तरसे हैं। वे दुःखद यादें अब भी उनके मन को विचलित करती हैं. . ."

नन्ददास को सब याद है, यह भी याद है कि दीनबंधु पाठक अपनी पुत्री को तुलसी से ब्याह कर परम संतुष्ट थे। बोले थे – जैसे मण्डन मिश्र और भारती, ऐसे ही ये युगल– तुलसी और रत्ना। हाँ, कितने अनुरूप, रूप-गुण, विद्या-बुद्धि में सब प्रकार समतुल्य।

कैसी फबती है जोड़ी!

नज़र लगी थी लोगों की उस पर।

रत्ना से संवाद का तारतम्य जोड़ते हुए बोले–

"हाँ भौजी, लेकिन फिर भी उनने बहुत कर लिया।"

"बहुत अध्यवसायी हैं वे, क्या स्मरणशक्ति पाई है, और बुद्धि कितनी तीक्ष्ण। पर कुछ संस्कार बचपन से मिलते हैं. . . परिवारजनों के साथ रह कर और भी बहुत कुछ . . ." कहते-कहते रत्ना चुप हो गई।

कुछ देर दोनों चुप रहे . . . नन्ददास ने फिर उनके पीहर की बातें छेड़ दीं।

रत्ना को याद है, पिता ने कहा था, "अपनी दीप्तिमती कन्या के लिये तुलसी जैसा वर पाकर मैं संतुष्ट हूँ।"

उसके गौना होने तक उसकी शिक्षा में कोई कसर नहीं रहने दी।

रत्ना भी पूरे मनोयोग से पढ़ती और ग्रहण कर लेती, माँ कहतीं ’उसे गृहस्थी के काम सीखने दो।'

पिता का उत्तर था, "सब सीख लेगी। कौन सास-ननद बैठी हैं उसका कौशल देखने को? जमाई के साथ रहना है उन्हीं के अनुरूप बन कर रहे।"

रत्ना बताये जा रही थी, "मेरे पिता! हाँ, मेरे पिता ने मुझ पर बहुत ध्यान दिया। कहते थे मेरी बेटी किसी से कम नहीं है। मेरी रुचि भी थी, ईश्वर कृपा से याद भी जल्दी हो जाता था . . . बड़े प्रसन्न होते थे जब मैं धड़ाधड़ उनके सामने पाठ सुनाती थी।

"वे कहते थे ’प्रारंभ से बीज पड़ा है तो फलेगा ज़रूर’, और मनचाहे पात्र के रूप में अनुकूल परिस्थितियाँ उन्होंने खोज भी लीं।"

रत्ना ही बोलती रही, "पति, लाखों में एक मिले। उनके सान्निध्य में, उनकी विद्वत्ता और ज्ञान का अंश मैं भी पाना चहती थी। पर उन्हें इतना अवकाश कहाँ रहा!" एक गहरी साँस निकल गई।

नन्ददास ने कहा, "मुझे तुम्हारे ब्याह की याद है –

"कुँवर-कलेवा पर तुम्हारी सखियाँ छेड़ रहीं थीं, जमाई राजा, गुमान मत करना हमारी रतन भी कम नहीं है। कविताई करती है, छंद-पिंगल जानती है।

"वो भूरी आँखोंवाली लड़की थी न, ख़ूब बोल रही थी।"

"अच्छा, गौरी। हाँ, उसे भी पढ़ने-लिखने का चाव था . . ."

"अब कहाँ है वह?"

"बड़ी दूर ब्याह गई। एक बार मिली थी। बहुत मन करता था मिलने का पर, मै मायके जा ही कहाँ पाती थी।"

नन्ददास ने टूटती कड़ी जोड़ी, "कह रही थी, 'दायज में अपने साथ पुस्तकें भी ले कर आयेगी हमारी रतन तुम्हारे घर . . .

"इस पर कोई बोला – अच्छा है दोनों पढ़ते-पढ़ाते रहेंगे।"

"अरे, इतने साल हो गये ब्याह को। तुम तो इतने छोटे थे, अभी तक याद है?"

"इतना भी छोटा नहीं था और तुम्हारी शादी तो मेरे लिए ख़ास थी।"

"तुम्हें पता है भौजी, किस ने टोका था – कोहबर के खेल में सावधान रहना दोनों वहीं शास्त्रार्थ न करने लगें!

"सब लोग खूब हँसे थे।"

"सखियाँ मेरे भाग्य पर सिहाती थीं। कहतीं रतन, तुझे तो खुला आकाश मिल गया।"

रत्नावली का ध्यान अपने विवाहित जीवन पर चला गया –

दस बरस से अधिक पति के साथ अंतरंग रही थी, सोचती थी, बचपन से तरसा हुआ मन संतुष्ट हो जाये, अन्य सारे सम्बन्धों की कमी पूरी करना चाहते हैं। विद्वद्चर्चाएँ करने का अवकाश कहाँ है उनके पास? मैं चाहती थी प्रसन्न रहें वे। सुस्वादु भोजन और प्रेम भरा व्यवहार उन्हें तुष्ट रखे, तन-मन को तृप्त हो लेने दो, कहाँ भागे जा रहे हैं?

पर मन तृप्त हुआ है कभी?

प्रतीक्षा ही करती रही रत्ना और समय हाथ से निकल गया।

"क्या सोच रही हो?"

"देवर जी, थोड़ा-सा अवकाश चाहा था मैंने जिसमें मन के हाथ-पाँव फैला सकूँ।"

समझने के प्रयत्न में नन्ददास ने अपना सिर झटका। पल भर में कौंध गया, दद्दू भौजी से दूर बिलकुल नहीं रह सकते थे।

"थोड़ा अवकाश चाहती थी, लेकिन पूरी छुट्टी हो गई, वे चले गये। यह तो कल्पना भी नहीं की थी कभी।"

नन्ददास क्या कहें? 

उदास-सी चुप्पी छा गई।

घर पहुँच कर रत्ना ने कहा था, "देवर जी, बड़ी बेर हो गई, भोजन कर के जाना, और हाँ, चन्दू को भी बुला लो।"

मर्यादा का कितना ध्यान रखती हैं– नन्ददास ने सोचा था।

उन्हें याद आया रत्ना ने काशी में रहने की इच्छा प्रकट की थी, कहा था, "अपनी रिक्तता भरने के लिए, मन करता है काशी में निवास करूँ, जीवन सार्थक कर लूँ। परिवार के दायित्व होते तो अपना ध्यान भी न आता। अब यहाँ रहूँ कि काशी में, किसे अंतर पड़ेगा? . . . और मैं तर जाऊँगी।"

लेकिन दद्दू को यह उचित नहीं लगा। उन्हें लगा यहाँ सब जाना-पहचाना है, पुराने सम्बन्ध हैं। नई जगह पता नहीं कैसा क्या हो? रत्ना घर में ही रही है बाहर की दुनिया में कैसे क्या करेगी? और काशी में रह कर करेगी क्या? नहीं-नहीं, वहीं ठीक है वह। व्यर्थ की बातें सोचती है।

फिर कह उठे, "और मेरी तो सारी निश्चिंती समाप्त समझो! नहीं नन्दू, मना कर देना, समझा देना उसे!"

नन्ददास के मन में पछतावा जागा, ’ओह, भौजी के मन में काशी-सेवन की लालसा मैंने ही जगाई थी।

’जब जाता था, सुना आता था, दद्दू की कैसे लोगों में पहुँच है, कैसे-कैसे विद्वान, पण्डित, शास्त्र के ज्ञाता हैं जिनकी बातों से मन को समाधान मिलता है। उनसे कहता था– भौजी, मैंने भी काशी में रह कर विद्याध्ययन किया है। दद्दू की तो बात ही क्या! गुरु नरहर्यानन्द और शेष सनातन जैसे, जिसे मिल जायँ वह तो लोहा भी कंचन बन जाये, फिर दद्दू तो सजग-सचेत तीव्र बुद्धि-संपन्न हैं, समर्थ हैं। सच में जो ऐसे महापुरुषों के संसर्ग में आये, उसका कल्याण हो जाये!

’कभी गंगा, कभी माँ अन्नपूर्णा और बाबा विश्वनाथ और भी बहुत कुछ सुना-सुना कर पुण्यपुरी काशी का माहात्म्य सुनाता रहता था। और अब, जब कामना जाग गई तो सारी राहें बन्द पड़ी हैं। ज्ञान की पिपासा है उनमें, गृहस्थी में रमी होतीं, संतान होती तो ध्यान उधर बँट जाता।

’दद्दा कुछ सोचते क्यों नहीं? 

'बुद्धिमती पत्नी भाती है, पर उसका भी अपना व्यक्तित्व अपनी वाँछाएँ हो सकती हैं यह भान क्यों नहीं होता?'

वे सोच में पड़े थे।

रत्नावली रसोई समेटने का उपक्रम कर रही थी।

रात्रि की अँधियारी घिर आई थी।

नन्ददास उठते-उठते बोले, "ये चन्दू कहाँ ग़ायब हो गया?"

उसे आवाज़ लगा दी। जाने को खड़े हो गए। जैसे एकदम कुछ याद आया हो, रत्ना की ओर उन्मुख हो पूछा, "अरे हो भौजी, विश्वनाथ बाबा से क्या माँगा तुमने?"

"मुझे कुछ अधिक नहीं चाहिये।"

"फिर भी कुछ प्रार्थना तो की होगी। सच्ची-सच्ची बताना। देखो, भगवान की बात पर झूठ मत बोलना.."

"मेरी प्रार्थना? सुनोगे – हर बार एक ही प्रार्थना करती हूँ।"

"बताओ ना।"

"तो सुनो, मैं अपने ईश्वर से माँगती हूँ – अनायासेन मरणम्, विना दैन्येन जीवनम्, देहान्ते तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्!"

— (क्रमशः)
 

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