आर. बी. भण्डारकर – डायरी 002 : बचपन कितना भोला-भाला 

15-04-2021

आर. बी. भण्डारकर – डायरी 002 : बचपन कितना भोला-भाला 

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

दिनांक 15 नवम्बर 2020

सामने की घड़ी ने टन टन करके अभी अभी नौ बजाए हैं।

प्रतिदिन की भाँति आज भी सवेरे 5.30 बजे ही जागा था। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर छत पर घूमने गया। (मैं लगभग साल भर से यानी कोरोना-काल में घूमने के लिए छत का ही उपयोग कर रहा हूँ।) लौट कर बैठक में बैठ कर इत्मीनान से मोबाइल फोन पर ही आज का ई-अख़बार पढ़ा।

तत्पश्चात स्नान किया, पूजा की। . . . पूजा . . . मन स्थिर करने का उत्तम साधन। . . . स्थिर मन से उस परम् सत्ता को याद करना, जिसने हमें यह देव-दुर्लभ जीवन दिया है।

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बैठक में बैठा ही था कि घड़ी ने सवेरे के नौ बजाए। पत्नी जी ने देखा कि मैं अब बैठक में आ गया हूँ, तो चाय लाईं– छिले हुए ग्यारह बादाम, चार बिस्कुट और मेरी वाली चाय।

चाय-पान खत्म होते-होते मेरे चार वर्षीय दौहित्र जी हाज़िर– "गुड मॉर्निंग नाना जी।"(Good morning Nana ji)

"गुड मॉर्निंग भैया"(Good morning bhaiya)

अब भैया जी के बैठने की बारी। . . . मेरे बग़ल में बिल्कुल मुझसे सटकर बैठते हैं, सो बैठे

एकदम स्मार्ट लग रहे थे। . . . "भैया ब्रश हो गया?"

"हो गया।"

"मिल्क (milk) पिया?"

"पी लिया, स्ट्रांग (strong) भी हो गया।"

"अरे, वाह।"

"नाना जीsss. . . क्या आप भी स्ट्रांग (strong) हो गए?"

"हाँ . . . मैंने चाय पी ली, नट्स (nuts) खा लिए, मैं तो भैया से अधिक स्ट्रांग (strong) हो गया।"

भैया मेरे पास से उठ जाते हैं। पास के दीवान पर पहुँचते हैं।

(एक बात बता दूँ। मेरे सोफ़े के पास ही मेरा ब्रीफ़केस काग़ज़, पेन, पेंसिल, पेंसिल शार्पनर, इरेजर,12 इंची स्केल, कैंची, गोंद-ट्यूब, हाई लाइटनर, सेलो टेप, नेल कटर आदि सामग्रियों को सँजोए सदैव यानी स्थायी रूप से रखा रहता है। तीसरी पीढ़ी– दोनों पोतियों और दौहित्र ओम भैया के सिवाय, और कोई भी मुझसे पूछे बिना इसे नहीं छूता।)

ओम भैया ने ब्रीफ़केस उठाकर दीवान पर रखा, उसके ऊपर आधी दूरी तक चढ़ाकर, दीवान पर पड़ा हुआ एक मसनद रखा। इस मसनद पर आधी दूरी तक चढ़ाकर दूसरा मसनद रखा। पहले वाले पर दोनों ओर पैर डाल कर स्वयं बैठ गए। फिर . . . "नाना जी! आइए, पीछे (दूसरे मसनद पर) बैठिए !"

मेरी निगाह इनकी तरफ़ गयी; देखा कि नवाब साहब दोनों हाथों में टीवी का रिमोट पकड़े हुए कुछ करने तैयार जैसी मुद्रा में बैठे हैं। . . . "यह क्या है भैया?"

"यह फ़ायर ब्रिगेड है, मैं ड्राइवर हूँ, आप फ़ायर मेन हैं, आइए जल्दी बैठिए, फ़ायर(fire) कन्ट्रोल (control) करने जाना है।"

मैं भैया जी का अनुकरण करते हुए उनकी ही तरह दूसरी मसनद पर बैठता हूँ।

अब भैया जी मसनद का सिरा बाँधने वाली डोरी के दोनों छोर मेरे दोनों हाथों में पकड़ा कर– "नाना जी ये पाइप हैं, आपको इनसे फ़ायर (fire) पर वाटर (water) थ्रो (throw) करना है।"

"ओ के भैया।"

अब भैया जी अपने सामने रिमोट इधर-उधर घुमाते हैं, मुँह से बोलते हैं– नीना . . . नीना . . . नीना . . . नीना। (फिर) "नाना जी वाटर (water) थ्रो (throw) करो, . . . उधर . . . उधर . . . वो रेड रेड (red, red) फ़ायर (fire) है, उधर।.....अरे नाना जी!!! उधर नहीं...उधर तो ओनली स्मोक(only smok) है, उधर थ्रो (throw)करो, फ़ायर(fire) के ऊपर।" . . . 

"ओ के।"

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परेशानी हो रही है पर मैं मसनद पर यानी भैया जी की फ़ायर ब्रिगेड पर बैठा हूँ। . . . क्यों?

"आपको खेलना अच्छा लग रहा है। कहा भी गया है कि वृद्धावस्था बचपन का पुनरागमन होती है।"

आपकी बात सही हो सकती है; मन बहलाने, खेलने के लिए वृद्धों को बच्चे ही तो मिल पाते हैं, बाक़ी सब तो अपने अपने ढंग से "नून, तेल, लकड़ियों" के चक्रव्यूह में ही फँसे रहते हैं।

"बच्चे के प्रति प्यार है।" . . . आपका भी कहना सही है। ऐसा होना सम्भव है क्योंकि कहा जाता है कि "मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता है।"

लेकिन सच्ची बात कुछ अलग है। . . . हर मनुष्य में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असुरक्षा की भावना अंतर्निहित होती है; शारीरिक असुरक्षा, आर्थिकअसुरक्षा आदि आदि। बुढ़ापे की कल्पना के साथ यह असुरक्षा और भी घनीभूत हो जाती है। . . . तो वास्तविकता यह है कि ऐसा करके वह बच्चों के माध्यम से अपनी तब की सुरक्षा मुकम्मल कर लेना चाहता है।

'और उमर' हो जाने पर पैरों में पीड़ा होने की संभावना रहेगी ही। तब बड़ा हो जाने पर यह मेरे पैर दबाएगा।

हूँ . . . यह भी तो संभव है कि तब पैर दबाने की कहने पर ओम भैया अंदर जाएँ, एक हाथ में पानी का गिलास और दूसरे हाथ में एक गोली (Tablet) लेकर आएँ और कहें कि "लो यह पेन किलर खा लो और सो जाओ।"

 . . . मित्र को पुस्तक भेजनी है बहुत दिनों से कह रहा है भेजो, भेजो; पढ़नी है। अब अपना तो बूता नहीं, डाकघर तक जाने का। तो यह ही डाकघर जाकर पुस्तक पोस्ट कर आएगा।

लेकिन? . . . लेकिन यह भी तो हो सकता है कि वह कहे "नाना जी! डिस्टर्ब न करो, आपको पता है, मुझे कल (tomorrow) का असाइनमेंट पूरा करना है। . . . फिर किसी दिन चला जाऊँगा आज नहीं,जा सकता।"

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"भैया थक गया हूँ। . . . अब कोई और खेल खेलते हैं।"

"ओ के।"

भैया जी अपने ब्लॉक्स का बॉक्स उठा लाये हैं। कुछ बनाने लगे हैं। "नाना जी आप ब्लॉक्स देते जायें।"

"क्या बना रहे हैं भैया ?"

"रोबोट।"

अरे अरे यह क्या . . . ओम भैया की दादी (यह साहब अपनी नानी जी को दादी कहते हैं।) आती हैं, उन्हें पकड़ती हैं। . . .  "चलो भैया, दाल-चपाती खा लो।"

"नहीं खाऊँगा। हंग्री (hungry) नहीं हूँ।"

"अच्छा तो . . . दाल-चावल खा लो।"

"नो, पोटेटो (potato) का परांठा खाऊँगा।"

ओ हो . . . अभी यह महाशय हंग्री ही नहीं थे। अब पोटेटो (potato) का पराठा . . .  वाह, भैया वाह . . . बहाना तो लम्बा मारा भैया जी ने, पर फँस गए।

दादी ने कहा – "ठीक है, चलो बुआ (ओम भैया अपनी मौसी को बुआ कहते हैं) के टिफिन के लिए पोटैटो (potato) के परांठे  बने थे, उनमें से कुछ भैया के लिए भी रखे हैं; चलो पोटैटो के परांठे खाने।"

अब भैया फँस गए, बेचारे को जाना ही पड़ा।

 

एक बात निश्चित हुई . . . अब भैया एक घण्टे बाद ही इधर आ पाएँगे। अस्तु, मैं अपनी आज की डायरी लिखने में व्यस्त हो गया हूँ।

2 टिप्पणियाँ

  • सूचित करने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद। टिप्पणी के लिए देवी नागरानी जी का आभार व्यक्त करता हूँ।नमन।

  • adarneey Dr. saheb बहुत ही उम्दा मनोभाव है. उम्र के इस पड़ाव में यही बचपना अपने बचपन को जीने का एक मौका देता है..किसी ने सच कहा है.....IF I KNEW BEING A GRANDPARENT IS SO MUCH FUN, I WOULD HAVE BECOME LONG AGO.....HILLARIOUS. enjoy the bliss sadar Devi Nangrani

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