प्यासा कौआ प्यारा सा

01-08-2020

प्यासा कौआ प्यारा सा

राजेश ’ललित’ (अंक: 161, अगस्त प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

ओ मेरे छोटे भइया
नीम के पेड़ पर
रहता था काला कौआ
जेठ का महीना था
बड़ी थी गर्मी
धूप ने दिखाई न
ज़रा भी नरमी


कौआ उड़ा 
सूख रहा गला
प्यासा कौआ
कभी इधर 
तो कभी उधर उड़ा
न कहीं जल था
न कहीं घड़ा


लू के थपेड़े
आँख पर था 
कौए के
एक काला चश्मा!
गले में मोती थे बड़े बड़े;
एक माला में जड़े;
पर सूखे कंठ का क्या करे?


दूर से दिखा एक होटल
लोगों का था मजमा
लगा के काला चश्मा
वह भी कुर्सी पर जा जमा
लाओ ठंडी कोक जी
बड़े ठाठ से उसने पी


अब कहीं जाकर 
पेट  भरा
गला भी थोड़ा
तर हुआ
पहले था जो मरा मरा
कोक पी कर  काला कौआ
सोने को ठंडी नीम हवा 
 ये उड़ा: वो उड़ा

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