पुस्तक

दिविक रमेश

मुझको तो पुस्तक तुम सच्ची
अपनी नानी/दादी लगती
ये दोनों तो अलग शहर में
पर तुम तो घर में ही रहती

जैसे नानी दुम दुम वाली
लम्बी एक कहानी कहती
जैसे चलती अगले भी दिन
दादी एक कहानी कहती
मेरी पुस्तक भी तो वैसी
ढेरों रोज कहानी कहती

पर मेरी पुस्तक तो भैया
पढ़ी लिखी भी सबसे ज्यादा
जो भी चाहूँ झट बतलाती
नया पुराना ज्यादा ज्यादा

एक पते की बात बताऊँ
पुस्तक पूरा साथ निभाती
छूटें अगर अकेले तो यह
झटपट उसको मार भगाती

मैं तो कहता हर मौके पर
ढेर पुस्तकें हमको मिलती
सच कहता हूँ मेरी ही क्या
हर बच्चे की बाँछे खिलती

नदिया के जल सी ये कोमल
पर्वत के पत्थर सी कड़यल
चिकने फर्श से ज्यादा चिकनी
खूब खुरदरी जैसे दाढ़ी

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