(ट्रांसजेंडर विमर्श का पहला दस्तावेज़)
समीक्ष्य पुस्तक : पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन
लेखक : झिलमिल मुखर्जी पांडे
संस्करण : 2018
मूल्य : 225
पृष्ठ संख्या : 160
ISBN : 9386534525
समकालीन हिंदी कथा साहित्य में किन्नर विमर्श महत्वपूर्ण स्थान बना चुका है। किन्नर समुदाय जो हिजड़ा समुदाय के नाम से जाना जाता है, भारतीय समाज का उपेक्षित, अपमानित, लांछित, घृणित और तिरस्कृत समुदाय है। साहित्य में इस समुदाय के लोगों पर बहुत कम लिखा गया है। पुराणों में कहीं-कहीं कुछ उल्लेख अवश्य हुआ है जैसे रामायण और महाभारत में शिखंडी और बृहन्नला के कथा प्रसंग दिखाई दे जाते हैं। आधुनिक साहित्य में इस अभिशप्त समुदाय के लोगों के जीवन संघर्ष और विसंगतियों पर अभी वृहत शोध की आवश्यकता है। हिंदी कथा साहित्य में किन्नर कथा साहित्य का प्रारम्भ नई शताब्दी में ही संभव हो सका। किन्नरों के जीवन में व्याप्त असंतोष और वितृष्णा का चित्रण हिंदी के कुछ उपन्यासकारों ने किया है जैसे नीरजा माधव (यमदीप), महेंद्र भीष्म (किन्नर कथा, मैं पायल), प्रदीप सौरभ (तीसरी ताली), निर्मला भुराडिया (गुलाम मंडी), चित्रा मुद्गल (पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा), अनुसूइया त्यागी (मैं भी औरत हूँ) आदि। ये उपन्यास भारतीय किन्नर समुदायों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का चित्रण करते हैं। किन्नरों की लैंगिक पहचान अन्य लिंगी के रूप में की जाती है। अँग्रेज़ी में इन्हें Eunuch और Third Gender (थर्ड जेंडर) कहा जाता है अर्थात इनकी गणना पुल्लिंग और स्त्रीलिंग श्रेणी में नहीं होती बल्कि इनके लिए एक भिन्न श्रेणी ‘थर्ड जेंडर या अन्य लिंगी‘ वर्ग में की जाती है। यह समुदाय स्वयं को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग श्रेणी में शामिल होने के लिए अधिकार चाहता है। थर्ड जेंडर श्रेणी के अतिरिक्त एक अन्य श्रेणी भी इस समुदाय के बीच मौजूद है जिन्हें ट्रांस जेंडर (विपरीतलिंगकामी) कहा जाता है। जब कोई किन्नर शारीरिक और मानसिक प्रवृत्तियों से विपरीत लिंगी की भावानुभूति और शारीरिक प्रवृत्तियों का अनुभव करता हो और तदनुरूप यदि वह अपना लिंग (gender) परिवर्तन करा ले तो वह ट्रांसजेंडर कहलाता है। पुरुष के रूप में जन्म लेकर स्त्री प्रवृत्तियों से यदि वह ग्रस्त हो और यदि वह लिंग परिवर्तन की जटिल शल्य प्रक्रिया के माध्यम से वह अपना लिंग परिवर्तन कर ले तो वह व्यक्ति ट्रांसजेंडर कहलाएगा। इसके विपरीत स्त्री के रूप में जन्म लेकर पुरुष सुलभ प्रवृत्तियों से ग्रस्त होकर स्वयं को पुरुष के रूप में भी रूपान्तरण संभव है। अत्याधुनिक प्लास्टिक सर्जरी की विधियों और हॉरमोन उपचार से यह परिवर्तन संभव हुआ है। कुछ किन्नर लोग जिनके जननांग शिथिल अथवा निष्क्रिय होकर विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण की मानसिक और शारीरिक स्थितियों में क़ैद हो जाते हैं उनके लिए अपने मनोनुकूल लैंगिक स्वरूप प्राप्त करने के लिए यह परिवर्तन कारगर सिद्ध हुआ है। ऐसे कई लोग समाज में दिखाई देते हैं जो पुरुष शरीर में स्त्रैण और स्त्री शरीर में पुरुष प्रवृत्तियों के साथ आचरण करते हैं। ये अक्सर विपरीतलिंगकामी होते हैं। पुरुष के रूप में अपने भीतर छिपी स्त्री प्रवृत्ति के कारण वे पुरुषों की ओर आकर्षित होते हैं, तदनुरूप उनकी यौनिकता भी सक्रिय होती है।
मानोबी बंद्योपाध्याय एक ऐसी ही ट्रांसजेंडर स्त्री है जो सोमनाथ बद्योपाध्याय के रूप में जन्म लेकर बाल्यावस्था से ही अपने भीतर क़ैद स्त्री की आत्मा से संचालित होकर पुरुषोचित व्यवहार के विपरीत पुरुषों के प्रति आसक्त होकर वासना के जाल में फँसती जाती है। वह अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए जीवन भर स्वयं से और समाज से लड़कर अंत में अपना लिंग परिवर्तन करा लेती है। वह सोमनाथ से मानोबी नामक एक सुंदर स्त्री में रूपांतरित होकर अपना जीवन बिता रही है। ऐसी ही ट्रांसजेडर स्त्री ‘मानोबी बद्योपाध्याय’ की आत्मकथा है – ‘पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन‘। प्रस्तुत आत्मकथा मूल बांग्ला में रचित है जो हिंदी और अँग्रेज़ी में अनूदित हुई।
अपनी आत्मकथा ‘पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन‘ को पाठकों को समर्पित करते हुए मानोबी लिखती हैं – “उन सबके नाम, जिन्होंने मुझे अपमानित किया और अवमानव कह कर जीवन के हाशिये पर धकेल दिया। उन्हीं के कारण मुझे लड़ने की ताकत मिली और मैं जीवन में आगे बढ़ पाई। आशा करती हूँ कि पुस्तक मुझ जैसों के लिए प्रेरणात्मक सिद्ध होगी और वे भी जीवन में सफल हो पाएँगे।
कितनी बार ऐसा हुआ है कि आपकी गाड़ी लाल बत्ती पर रुकी है और आपने कार की खिड़की के बाहर से, भीख मांगते हिजड़े को देख कर अपना मुंह मोड़ लिया है? क्या आपको बहुत घृणा महसूस हुई? क्या यह स्थिति उस अनुभूति से बदतर नहीं लगी जो आप गोद में बच्चा लिए किसी भिखारिन को भीख मांगते देख कर महसूस करते हैं? क्यों? मैं आपको बताती हूँ कि ऐसा क्यों है। आप हिजड़े से घृणा करते हैं क्योंकि आप उसके लिंग के साथ कोई पहचान नहीं जोड़ पाते। आप उसे एक विचित्र घृणित जीव, संभवत: एक अपराधी और निश्चित तौर पर एक अवमानव समझते हैं।
मैं भी उनमें से एक हूँ। मुझे सारा जीवन लोगों के मुख से हिजड़ा, बृहन्नला, नपुंसक, खोजा, लौंडा .... जैसे शब्द सुनने पड़े हैं और मैंने जीवन के इतने वर्ष यह जानते हुए बिताए हैं कि एक जातिच्युत व परित्यक्त हूँ। क्या इससे मुझे पीड़ा का अनुभव हुआ? हुआ और इसने मुझे बुरी तरह से आहत किया है। परंतु चलन से बाहर हो चुके मुहावरे का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि समय बड़े बड़े घाव भर देता है। मेरे मामले में इस कहावत ने थोड़ा सा अलग तरह से अपना प्रभाव दिखाया है। कष्ट तो अब भी है पर समय के साथ-साथ दर्द घट गया है। यह मेरे जीवन के एकांत क्षणों में मुझे आ घेरता है, जब मैं अपने अस्तित्व संबंधी यथार्थ से जूझ रही होती हूँ। मैं कौन हूँ और मैं एक पुरुष की देह में कैद स्त्री के रूप में क्यों जन्मी? मेरी नियति क्या है? मेरे इस रंग-बिरंगे बाहरी आवरण के नीचे, शर्मसार व चोटिल वैयक्तिकता छिपी है जो आज़ाद होने के लिए तरस रही है – अपनी शर्तों पर जीवन जीने की आज़ादी और जो मैं हूँ, उसी रूप में रहने की आज़ादी ! मैं अपने लिए यही आज़ादी और स्वीकृति चाहती हूँ। मेरा बाहरी कठोर रूप तथा उदासीनता ऐसा कवच है जिसे मैंने अपनी संवेदनशीलता को जीवित रखने के लिए पहनना सीखा है। आज, अपने सौभाग्य के बल पर, मैंने ऐसी अद्भुत सफलता अर्जित कर ली है जो प्राय: मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं होती। लेकिन यदि मेरा सफर कुछ और हुआ होता? मैं अपने आप से बारंबार कहती हूँ कि अब मेरे लिए समय आ गया है कि मैं इस ख्याति के बीच प्रसन्न रहूँ परंतु भीतर ही भीतर कोई चेतावनी देता है। मेरी अंतरात्मा मुझसे कहती है कि मुझे अपने आसपास जो शोहरत और उत्सव दिखाई देता है, वह सब ‘माया’ है और मुझे एक संन्यासी के वीतराग की तरह ही इस प्रशंसा को ग्रहण करना चाहिए।
मीडिया का कहना है कि कोई ट्रांसजेंडर पहली बार कॉलेज के प्रिंसिपल पद पर नियुक्त हुई, जो अपने-आप में एक उल्लेखनीय कदम है। तब से मेरे फोन लगातार घनघनाते हैं, मेरी डेस्क पर अलग-अलग स्थानों पर होने वाले बधाई कार्यक्रमों के न्यौतों के अंबार लगे रहते हैं। मुझे यह मान कर बहुत खुशी होती है कि जो लोग मेरा अभिनंदन कराते हैं, उन्होंने मुझे उसी रूप में स्वीकार किया है, जो मैं हूँ, परंतु मैं उन खी-खी करते सुरों, तिरस्कार और दबी हंसी को कैसे अनसुना कर सकती हूँ, जो छिपाने की कोशिश करने पर भी नहीं छिपती? उनके लिए मैं एक ‘तमाशा ‘ भर हूँ और बिना पैसों का कोई तमाशा देखने को मिल रहा हो तो कौन नहीं देखना चाहेगा?
मानसिक आघात और क्रोध, दो ऐसे भाव हैं जिन्हें मेंने दबाना और नज़र अंदाज करना सीखा है। ये मेरे मानसिक कवच का हिस्सा हैं, जिनसे मैं अपने आप को महफूज रख पाती हूँ। मैंने अंतत: इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि मेरी उपलब्धियों का मेरे आस-पास के लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उन्हें अब भी लगता है कि आज मैं भी नपुंसक हूँ और यही मेरी असली पहचान है। मुझे भावुक होने का अधिकार भी है, यह विचार अधिकतर लोगों को अनचीन्हा लगता है। मैं उन्हें दोष नहीं देती। मैं स्वयं को दोषी मानती हूँ कि मैंने ऐसी पीड़ा को नजरअंदाज क्यों नहीं किया। मुझे तो बहुत पहले उनकी परवाह करनी छोड़ देनी चाहिए थी।ऐसा नहीं जीवन कि जीवन के इक्यावन वर्षों के दौरान, मुझे कभी अपने हिस्से का प्यार नहीं मिला। कई बार मेरा दिल भी टूटा, पर हर बार मुझे एज नया सबक सीखने का अवसर मिलता। मैंने बहुत अच्छी तरह और गहराई से प्यार किया और आशा करती हूँ कि मेरे साथी जहां भी हैं, वे चुपचाप मेरे उस रूप को याद करते होंगे। यह और बात है कि संबंध कभी मेरे लिए कारगर नाही हो सके। जिन्होंने मुझे प्रेम किया, वे सदा मुझे छोड़ कर चले गए और हर बार जैसे मेरा कुछ हिस्सा भी, उनके संग कहीं खो गया।
आज अपनी कहानी लिखने बैठी हूँ तो जैसे यादों का रेला उमड़ आया है। मैंने इस विश्वास के साथ यह सब लिखा है कि इस तरह समाज, हम जैसे लोगों को बेहतर तरीके से समझ सकेगा। हम बाहरी तौर पर दिखने में भले ही थोड़े अलग लगें, पर आपकी तरह ही इंसान हैं और आप सबकी तरह ही – शारीरिक और भावात्मक जरूरतें रखते हैं। “ (आत्मकथा से)
झिमली मुखर्जी पांडे ने मानोबी बद्योपाध्याय के मुख से उसके जीवन की कहानी को सुनकर बांग्ला में लिपिबद्ध किया। जो पुस्तकाकार में पहले बांग्ला और फिर अनूदित होकर हिंदी एवं अँग्रेज़ी में प्रकाशित हुई। हिंदी में इस कृति का अनुवाद रचना भोला यामिनी के द्वारा किया गया जो सन् 2018 में राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुआ। आत्मकथा का शीर्षक ‘पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन‘ प्रतीकात्मक और भाव व्यंजक है जिसके माध्यम से मानोबी जन्म से लेकर वर्तमान तक की अपनी संघर्ष गाथा का विशद वर्णन प्रस्तुत करती है। इस आत्मकथा में सोमनाथ बद्योपाध्याय नामक बालक से मानोबी बंद्योपाध्याय नामक सुंदर स्त्री में रूपांतरित होने तक की संघर्ष, शोषण और यातनाओं के अनुभूत सत्य को उजागर किया गया है। सोमनाथ बंद्योपाध्याय का जन्म 23 सितंबर 1964 को हुगली के चंद्रनगर में नाना के घर में हुआ था। आत्मकथा में सोमनाथ/मानोबा स्वयं के लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग करती है। दो पौत्रियों के बाद चिरप्रतीक्षित पुत्र जन्म पर पिता चित्तरंजन बद्योपाध्याय के गर्व और प्रसन्नता की सीमा न रही। पिता को लगा कि पुत्र का जन्म भगवान शिव के वरदान के फलस्वरूप हुआ था इसलिए उन्होंने पुत्र का नाम ‘सोमनाथ‘ रख दिया। बालक सोमनाथ के दादा और नाना दोनों सुसंपन्न और सुशिक्षित थे इसलिए बालक का पालन पोषण तदनुरूप ही होने लगा। एक लड़के के रूप में जन्म लेने के बावजूद सोमनाथ को घर में लक्ष्मी माना गया। यह मानो आने वाली घटनाओं का पूर्वाभास था। मानोबा ने इस सत्य को स्वीकार किया है कि उसे बाल्यावस्था से ही अपने शरीर में विपरीत विकारी तत्व की मौजूदगी का आभास होने लगा था। घर में संगीत और साहित्य का वातावरण प्रबल था जिस कारण सोमनाथ का बचपन टैगोर के साहित्य और संगीत के बीच बीता। बाल्यावस्था से ही सोमनाथ में नृत्य, संगीत और साहित्यिक अभिरुचि का विकास होता चला गया जिस कारण जो आगे चलकर कॉलेज जीवन में उसे सुंदर नर्तक और नृत्यांगना के रूप में ख्याति मिली। स्कूली जीवन में ही सोमनाथ को अनुभव होने लगा था कि उसके वय के लड़के उसे सामान्य से अधिक आकर्षित करने लगे थे। उसके व्यवहार, चालढाल में स्त्रैण तत्व स्पष्ट रूप से झलकने लगा था। इस परिवर्तन को माता-पिता बहुत समय तक नकारते रहे किन्तु उसे स्वयं इसका अनुभव होने लगा था। उसमें बचपन से कामातुरता जाग चुकी थी और वह लड़कों के सहवास के लिए तड़पता था। स्कूली जीवन में ही कुछ लड़कों ने उसका यौन शोषण करना शुरू कर दिया था जिसे मानोबी ने स्वीकार किया है। विपरीत लिंगी के प्रति यौनाकार्षण सहज मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है जिसे सोमनाथ पुरुष के शरीर में स्थित स्त्री की मन:स्थिति में क़ैद होकर एक तरह की यातना को भोग रहा था जो अकथनीय और घोर सामाजिक वितृष्णा का विषय है। सोमनाथ के शारीरिक और मानसिक स्थिति के प्रति परिवार के सभी सदस्य उदासीन थे। उसकी दोनों बहनें सोनाली और रूपाली भी उसके साथ भाई के रूप में ही व्यवहार करती रहती हैं। लेकिन वह हर पल एक भयानक मानसिक द्वंद्व से गुज़र रहा था। एक ओर उसके बाह्य और आंतरिक अवयव तेज़ी से स्त्री-लैंगिक मनोजगत में डूब रहे थे तो दूसरी ओर वह अपने वैयक्तिक और सामाजिक अस्तित्व में उत्पन्न दोहरेपन से आतंकित होने लगा था। घर में में उसे बहनों की छींट वाली फ्रॉकों से लगाव था इसलिए वह अपने निक्कर-शर्ट उतारकर उनकी फ्रॉक पहन लेता था। ये सब उसके भीतर पनपने वाले स्त्री-लैंगिक लक्षण थे जिसे वह स्वीकार करने लगा था। सोमनाथ का स्कूली जीवन उपहास और अपमान से भरा हुआ था। बहुत जल्द स्कूल में लड़कों को पता चल गया कि कक्षा में एक लड़के के रूप में लड़की मौजूद है। पाँचवीं कक्षा तक आते आते वह सुंदर नौजवानों की ओर आकर्षित होने लगा। उसमें कामेच्छा जागृत होने लगी। एक बार इक्कीस साल के उसके कज़िन ने उसका बलपूर्वक यौन शोषण किया। इस अनुभव ने उसके भीतर की स्त्री को जगाना आरंभ कर दिया जो पहले ही अपने पंख खोलकर उड़ान भरने को तैयार थी। वे दोनों नियमित रूप से छिपकर यौन तुष्टि करने लगे।
इन वर्जित अनुभवों को मानोबा ने बेबाकी से आत्मकथा में वर्णित किया है जो पाठकों को झकझोर देता है। सातवीं में वह सब लड़कों की आँखों का तारा बन गया था। जब वह मनचले लड़कों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता तो उसे कहीं भीतर गुदगुदी होती। आठवीं कक्षा में पहुँचते ही वह पूरे आत्मविश्वास के साथ घर में बहनों के कपड़े पहनने लगा। एक बार माँ ने उसे अकेले में समझाना चाहा कि लड़का होकर, लड़कियों की तरह रहना और कपड़े पहनना, उसका यह विचित्र व्यवहार पूरे खानदान के लिए बदनामी का कारण बन रहा है। तब वह कहता – “परंतु माँ! मैं एक स्त्री हूँ ... क्या आपको विश्वास नहीं आता? क्या मुझे आप लोगों से बेहतर तरीके से कपड़े पहनने नहीं आते? माँ, आप मुझे एक लड़की बनने दो ...।“ सोमनाथ के इस जवाब से माँ विस्फारित नेत्रों से उसे ताकती रह जातीं किन्तु उन्होंने कभी अपनी पीड़ा बाहर प्रकट नहीं की। सोमनाथ को माँ पर तरस आता क्योंकि माँ, संतान की खुशी के लिए अपना सरस्व निछावर कर देती है। सोमनाथ को बचपन से इस बात का अपराधबोध था कि उसकी माँ सदा स्वयं को दोषी मानतीं रहीं कि उन्होंने एक हिजड़े को जन्म दिया! क्योंकि उसे सारी दुनिया इसी नाम से बुलाने लगी थी। पिता भी दुनिया वालों के तानों और अपमानजनक व्यवहार से दुखी हो रहे थे। सारा परिवार अवसाद में डूब रहा था और सोमनाथ अपनी स्थिति से विवश था। सोमनाथ तन-मन के अंतर्विरोधी अवस्था में होते भी पढ़ाई में अच्छा था, कुशाग्र बुद्धि का था, सदा अच्छे अंकों से पास होता जिससे कुछ सीमा तक लोगों का मुँह बंद रहता। सोमनाथ के संघर्ष को उसके बौद्धिक सामर्थ्य से मानसिक बल प्राप्त होता था। स्कूली जीवन में सोमनाथ सदैव कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करता रहा।
विवाह, पूजा आदि अवसरों पर वह स्त्रियों को सुंदर ढंग से सजा सँवरा देखता तो उसके मन में यह विचार ज़रूर पैदा होता कि उन परिधानों और आभूषणों में वहाँ मौजूद अनेक स्त्रियों से वह ज़्यादा सुंदर है। स्कूल के संगीत और नृत्य के कार्यक्रमों में वह भाग लेता और लोगों को अपनी जन्मजात कलात्मक प्रतिभा से चकित कर देता। सोमनाथ के जीवन से नृत्य का गहरा नाता रहा है। कॉलेज की पढ़ाई के बाद वह विधिवत नृत्य सीखने के लिए सुप्रसिद्ध नृत्य मंडलियों में शामिल होने लगा था। उसे आभास होने लगा था कि नृत्य कला ट्रांसजेंडर का जन्मजात गुण है। उनकी नाट्य मंडली में उसके जैसे और भी कलाकार थे जो शारीरिक रूप से पुरुष थे पर मानसिक रूप से स्त्री।
प्रस्तुत आत्मकथा से ट्रांसजेंडर समुदाय की भाषा, बोली, संस्कार और उनके तौर तरीक़ों पता चलता है। इस दृष्टि से यह आत्मकथा ट्रांसजेंडर समुदाय के समाजशास्त्रीय अध्ययन का महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकता है। ऐसे ट्रांसजेंडर लोग आपस में एक दूसरे को ‘मीठा चावल, मामा, कोटी‘ आदि नामों से पुकारते हैं। इनके समुदाय में आपसी व्यवहार के लिए कोड भाषा का इस्तेमाल किया जाता जो केवल ये लोग ही समझ पाते हैं। इन लोगों में काफ़ी एक जुटता रहती है। आत्मकथा में सोमनाथ ने उसके जीवन में आए व्यक्तियों के वास्तविक नामों को बदलकर लिखा गया है जिससे कि उनकी पहचान गोपनीय हो।
नवीं कक्षा में सोमनाथ को जीवन में पहली बार प्रेम का अनुभव हुआ, जब वह सुंदर कली की तरह खिल रहा था। वह धीरे धीरे आकर्षक रूप धारण कर रहा था। लोग उसकी लैंगिकता को लेकर चर्चा करने लगे थे। इस अवस्था में सोमनाथ के जीवन में श्याम और श्वेत नामक दो भाई प्रवेश करते हैं। जो उसके जीवन को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। ये दोनों भाई अलग अलग छिपकर सोमनाथ से प्रेम और यौन संबंध बनाते हैं। सोमनाथ भावनात्मक स्तर पर श्याम से गहरे जुड़ जाता है (स्त्री के रूप में)। वह उसे ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लेता है। इस आसक्तिपूर्ण संबंध में सोमनाथ अपनी सारी हदें पार कर काम क्रीड़ाओं में लिप्त हो जाता है। मानोबा ने जीवन के उस पड़ाव का चित्रण खुलकर बिना दुराव के किया है। अक्सर आत्मकथाएँ शत-प्रतिशत ईमानदारी से कम लिखी जाती हैं किन्तु मानोबा की आत्मकथा इसका अपवाद है। मानोबा ने जीवन में घटित जुगुप्सा पूर्ण प्रसंगों को भी उन्मुक्त होकर व्यक्त किया है। उस अवस्था में अपने भीतर उठते हुए पाशविक प्रेम और काम के उन्माद को वह स्वीकार करती है। श्वेत और श्याम दोनों सोमनाथ के जीवन में एक अस्थायी पड़ाव थे जो कुछ समय के लिए हलचल पैदा करके ओझल हो जाते हैं। दो प्रेमियों के बिछुड़ जाने के बाद उसमें एक अजीब ख़ालीपन आ गया था जिसे सहना उसके लिए कठिन था। दसवीं कक्षा में ‘देब’ नामक एक ट्रांसजेंडर लड़के से संपर्क होता है। बीते हुए विफल प्रेम के अनुभव के बाद सोमनाथ के जीवन में देब का प्रवेश एक नए रिश्ते को जन्म देता है। यह रिश्ता भी परस्पर आकर्षण और शारीरिक संबंध के लिए के लिए ही विकसित हुआ था। ट्रांसजेंडर के जननांग अविकसित, अल्पविकसित या निष्क्रिय होते हैं। जबकि की थर्ड जेंडर (हिजड़ा) के जननांग नहीं होते। अपने उस निष्क्रिय अवयव से सोमनाथ को घृणा थी। वह अपने निष्क्रिय जननांग से छुटकारा पाना चाहता था। उसे अपने शरीर में स्त्री के गुप्तांग का अभाव खटकता था। इसीलिए स्त्री की योनि को अपने शरीर में विकसित करने के लिए उसके मन में लिंग परिवर्तन कराने का विचार उत्पन्न हुआ। वह स्त्री के रूप में काम क्रीड़ा का भरपूर आनंद प्राप्त करने की कल्पना करता रहता था। मानोबा ने आत्मकथा में ट्रांसजेंडर लोगों के यौन व्यवहार के संबंध में अनेक वास्तिवकताएँ उजागर की हैं। ट्रांसजेंडर उद्दाम कामुक होते हैं इसलिए वे अनुकूल साथी की तलाश में खोए रहते है। उपयुक्त साथी के मिलते ही वे अपनी काम कुंठा की तुष्टि में डूब जाते हैं। सोमनाथ उर्फ मानोबी इसी विसंगति का शिकार थी जिसकी स्वीकारोक्ति आत्मकथा की अरुचिकर विशेषता है। देब से वह प्रेम करने लगा था, वह उसके साथ स्थायी संबंध बनाए रखना चाहता था किन्तु वह देब को संतुष्ट करने में असमर्थ था क्योंकि उसके पास स्त्री के अवयव नहीं थे।
अक्सर ट्रांसजेंडर को समलैंगिक समझा जाता है क्योंकि वे पुरुष या स्त्री के शरीर में विपरीत लिंगी से संबंध बनाना चाहते हैं। मानोबी इसे स्पष्ट कर देती है वह विपरीतलिंगकामी (हेटरोसेक्सुअल) थी न कि समलैंगिक (होमोसेक्सुअल)। मनुष्य का यौनाचार उसकी सामाजिकता को परिभाषित करता है। संयमित यौनाचार के लिए ही विवाह नामक सामाजिक संस्था बनी है। मानोबी अंतत: किसी विपरीत लिंगी व्यक्ति के साथ विवाह के बंधन में बँधने का सुनहरा सपना भी देखने लगी थी। इसके लिए उसे कोई निश्छल प्रेमी की तलाश थी। वह अपने तन और मन के बेमेल अस्तित्व से जूझते जूझते निराशा और अवसाद में डूब जाती। उसे पुरुष तन में क़ैद स्त्री मन को आज़ाद करना था। सोमनाथ पूर्ण स्त्री के रूप में नया जीवन शुरू करना चाहता था।
सोमनाथ का स्कूली आचरण और उसके मित्र जिसमें उसका यौन शोषण करने वाले दोस्त भी शामिल थे। उसके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य उसके दोस्तों के साथ के अनैतिक और विकृत संबंधों से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। प्रारम्भ से सोमनाथ का रुझान कला एवं साहित्य की ओर अधिक था। उसके पिता उसे आगे की पढ़ाई विज्ञान विषय में कराना चाहते थे। किन्तु सोमनाथ की रुचि इसके विपरीत थी। उम्र के साथ सोमनाथ के विचारों में परिपक्वता जैसे-जैसे बढ़ती गई उसका ध्यान अपने शरीर और मन की असंगति को सुलझाने के उपायों को खोजने की दिशा में सक्रिय होने लगा। उसने मेडिकल कॉलेज के एक विशेषज्ञ से अपनी समस्या बताई। उसे पता चला कि सेक्स परिवर्तन के ऑपरेशन होते हैं। तभी अपना उसने ऑपरेशन कराने का फैसला कर लिया। उसे बताया गया कि यह ऑपरेशन बहुत महँगा और जोखिम भरा होता है। उसे इसके लिए अभी काफी समय तक प्रतीक्षा करनी होगी क्योंकि उसकी आयु इस ऑपरेशन के योग्य नहीं थी और अभी उसकी पढ़ाई चल रही थी। उसे कॉलेज की पढ़ाई करनी थी। वह अपने भविष्य को सुनिश्चित करना चाहता था जिससे वह दोहरेपन की यातना से मुक्त हो जाए। इस संबंध में उसने अन्य विशेषज्ञों से भी सलाह ली। जटिल हारमोनल असंतुलन के कारण ऐसी असामान्यता उत्पन्न होती है जिसे उन्नत मेडिकल तकनीकों व इलाज की मदद से सुधारा जा सकता है। उसे इस संबंध में मैनाक मुखोपाध्याय नामक विशेषज्ञ ने इलाज करने आश्वासन दिया। वह पारिवारिक धरातल पर जो जीवन जी रहा था, बाह्य समाज में उसका व्यवहार इसके विपरीत था। सोमनाथ ऐसे अनेक किन्नर और ट्रांसजेंडर वर्ग के लड़कों के संपर्क में आ जाता था जो उसकी ओर आकर्षित होते थे। वे लोग उसका यौन शोषण करते और छोड़ देते।
कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसने अपने ही क़स्बे ‘नैहाटी ‘ के ऋषि बंकिमचंद्र कॉलेज में प्रवेश लिया। यहाँ उसके जीवन का दूसरा अध्याय प्रारम्भ हुआ। चौदह वर्षों के स्कूली जीवन के अनुशासन से अब वह मुक्त हो गया था। वह अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र था। कॉलेज में उसकी उपस्थिति से सभी अचंभित हो गए ‘लंबा कुर्ता और सलवार पहने उस सुंदर युवक को सभी छात्र अपलक ताकते रह जाते थे जों स्त्री सुलभ चेष्टाओं के साथ कॉलेज परिसर में घूमता था। बहुत जल्द वह कॉलेज में आकर्षण का केंद्र बन गया। यहाँ ‘अभि ‘ नामक एक लड़के और बंदना और दीपान्विता नामक दो लड़कियों की संगत में उसका कॉलेज का जीवन बीतने लगा। अभि के साथ सोमनाथ ने शारीरिक संबंध बना लिया था और वह उसके साथ भावनात्मक रूप से भी गहरे जुड़ गया। अपने अबोधपन में वह अभि के साथ दाम्पत्य संबंध की कल्पना करने लगा। अभि के साथ मिलकर दंपति की तरह उसने तस्वीर भी खिंचवा ली थी। यह सब क्रियाएँ उसकी मानसिक दुर्बलता का प्रतीक थीं जिसे मानोबी ने स्वीकार किया। मानोबी ने आत्मकथा में अपनी चंचल और अस्थिर मनोवृत्ति को साहस और ईमानदारी के साथ कबूला है। किन्तु अभि का साथ भी उसे रास नहीं आया और वह भी उसे छोड़कर चला गया। सोमनाथ के जीवन में लैंगिक संबंधों का सिलसिला निरंतर चलत रहा।
आत्मकथा में मानोबी ने अपनी धार्मिक प्रवृत्ति का भी बखान किया है। भगवान शिव उसके इष्ट देव हैं। निराशा और पराजय के क्षणों में उसे शिव की प्रार्थना से सदैव बल प्राप्त हुआ। ऋषि बंकिमचंद्र कॉलेज, नैहाटी से सोमनाथ ने बी.ए. पास किया। पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में प्रवेश पाने के लिए उसकी पहली पसंद कोलकाता यूनिवर्सिटी थी। लेकिन जादवपुर यूनिवर्सिटी का नाम भी उसके मन में गूँजता था। जादवपुर यूनिवर्सिटी में प्रवेश परीक्षा लिखने में उसके कॉलेज के एक और साथी ‘देबू‘ ने मदद की। जे यू (जादवपुर यूनिवर्सिटी) में सोमनाथ को बंगाली विषय में एम.ए. करने के लिए प्रवेश मिल गया। जे यू के निर्बंध स्वच्छंद वातावरण में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भरपूर थी। हर तरह के विचार और जीवन शैली को वहाँ स्वीकार किया जाता है जिस कारण निर्भीक रूप से सोमनाथ ने अपना उच्छृंखल जीवन नए सिरे से शुरू कर दिया। विश्वविद्यालय परिसर में अपने वास्तविक रूप में अपनी पहचान बनाने में वह सफल हो गया। उस वातावरण में किसी प्रकार की वर्जनाएँ नहीं पनप सकती थीं। जे यू परिसर में वह पुरुषों जैसे कपड़े पहनता था पर वह सबसे अलग था जिसे लोग पसंद करते थे।
“मैं न तो पुरुष थी और न ही सहज रूप से स्त्री लगती थी। हालाकि मेरी आत्मा एक स्त्री की आत्मा थी। उस प्रगतिशील जे यू के माहौल में मेरी लैंगिकता से किसी को कोई अंतर नहीं पड़ा। मैं केवल एक छात्र थी जो यूनिवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण करने आयी थी और वही सबसे बड़ा कारण था। “ (आत्मकथा से)
बदलती परिस्थितियों के संग सोमनाथ के जीवन में भी बदलाव होना स्वाभाविक ही था। यूनिवर्सिटी में लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों से उसका परिचय होने लगा। प्रोफेसर शंख घोष के लेक्चर उसे विशेष प्रिय थे। इनसे सोमनाथ ने निकटता बढ़ाई और अपनी वास्तविकता से उन्हें अवगत कराया। उसने उन्हें पत्र लिख अपनी स्थिति से अवगत कराया – “मैं बहुत कष्ट में हूँ, क्योंकि मैं अपनी पुरुष देह की इस यौन क़ैद से बाहर आकर, अपने स्त्री रूप व आत्मा को पाना चाहता हूँ।“ प्रत्युत्तर में शंख घोष ने उसे धैर्य से स्थितियों का सामना करने की सलाह दी जिससे उसके मनोबल में वृद्धि हुई। जे यू में प्रथम वर्ष से ही वह लोकप्रिय छात्र बन गया था। वहाँ आयोजित नृत्य आदि के कार्यक्रमों में उत्साह से वह भाग लेने लगा। जे यू के यूथ फेस्टिवल में उसने सर्वश्रेष्ठ पुरुष नर्तक का पुरस्कार पाया। यूनिवर्सिटी के सीनीयर्स जैसे शुभाशीष भट्टाचार्य और शुभो बासु आदि उसे पसंद करने लगे। वह नियमित रूप से यूनिवर्सिटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए कक्षाओं के बाद देर शाम तक रिहर्सल आदि के लिए ठहर जाता था। जे यू में पढ़ने के लिए वह रोज ‘नैहाटी‘ से लोकल ट्रेन द्वारा यात्रा करता था। नैहाटी से रोज लोकल ट्रेन से आने जाने में काफी समय नष्ट होता था। यह काफी असुविधाजनक जनक था। नृत्य और रंगमंच से प्रभावी ढंग से जुड़ने के लिए वह जे यू हॉस्टल में रहना चाहता था। किन्तु माता-पिता ने इसकी इजाज़त नहीं दी। उसे अपनी आर्थिक पराधीनता का अहसास होने लगा था। वह स्वयं को माता-पिता की बेटी मानता था। रह रहकर माता-पिता के प्रति बेटे के कर्तव्य को पूरा न कर पाने का अपराधबोध उसे दुखी कर देता था। उस समय तक उसके पिता तिरानवे वर्ष के हो चुके थे और नैहाटी के घर में निष्क्रिय अवस्था में दिन बिता रहे थे। जल्द से जल्द सोमनाथ को स्वावलंबी होकर माता-पिता की देखभाल करने की चिंता सताने लगी। वह 1985 का वर्ष था, जब जे यू के ही एक और प्राध्यापक पबित्र सरकार जो एक प्रसिद्ध भाषाविद थे, शंख घोष की तरह सोमनाथ की मदद के लिए तैयार हुए। इन्हीं दिनों जे यू के सुप्रसिद्ध यात्रा- संस्मरण लेखक के पुत्र ‘सागर बोस‘ के मोह जाल में वह फंस गया। सागर बोस के लिए सोमनाथ ने एक बार फिर अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। किन्तु यह संबंध भी अल्पकालिक क्षणिक था। जे यू में ही एक और प्रभावशाली व्यक्ति ‘कपिल‘ के संसर्ग में सोमनाथ पहले ही आ चुका था। कपिल को सागर-बोस के साथ सोमनाथ की निकटता पसंद नहीं थी। सागर-बोस, कपिल के अधीन था, दोनों मिलकर सोमनाथ का शारीरिक और शोषण करते हैं।
जे यू में अधिकतर मित्रों को यकीन हो गया था कि वह एक मर्द के चोले में औरत ही है। किन्तु कुछ ऐसी भी लड़कियां थीं जो उसकी ओर उसे मर्द मानकर आकर्षित होती थीं और उसे मर्द ही मानती थीं। उन लोगों ने उसे मर्द ही बने रहने की सलाह भी दे डाली, रुमा दास, कृष्णा और सुपर्णा ऐसे ही पात्र थे।
सोमानाथ जादवपुर यूनिवर्सिटी से एम ए पास हो गया किन्तु वह प्रथम श्रेणी नहीं प्राप्त कर सका इसका पछतावा उसे हमेशा रहा। उसने अपना अध्ययन जारी रखने के लिए एम फिल में प्रवेश ले लिया। वह नाट्य और रंगमंच के क्षेत्र में शोध करना चाहता था इसलिए उसने एक नाट्य शोध संस्थान के शोधार्थी के रूप में काम करने लगा। मानोबी के व्यक्तित्व की यह विशेषता है कि विषम और प्रतिकूल सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से निरंतर जूझते हुए भी उसने ज्ञानार्जन के प्रयासों को कभी विराम नहीं दिया। शोध कार्य को जारी रखते हुए तेईस वर्ष की आयु में उसने ‘बगुला‘ नामक कस्बे के श्री कृष्णा कॉलेज में एक सौ पच्चीस रुपया प्रतिमाह वेतन पर अंशकालिक प्राध्यापक के रूप में काम करने लगा। ‘बगुला’ के अनुभव सोमनाथ के लिए उतने दुखदायी नहीं थे। वहाँ के छात्र उसे ‘सर‘ कहकर संबोधित करते थे, जो उसे प्रीतिकर लगता। उसके सह-अध्यापक उसे पसंद करते थे। यहाँ वह बिना किसी विवाद में फंसे अपना कार्य करने लगा। प्रकारांतर से रोजगार कार्यालय के माध्यम से ‘पतुलिया‘ ब्वायज स्कूल में अध्यापन के लिए उसे स्थायी नियुक्ति मिल गई। 20 दिसंबर 1989 को उसने उस स्कूल में पांचवीं से दसवीं कक्षा को पढ़ाना शुरू किया। स्कूल का अध्यापकीय जीवन उसके लिए उत्साहवर्धक बना। माइकेल जैक्सन की याद दिलाने वाले हावभावों से युक्त शिक्षक को देखकर छात्र उसे ‘जैक्सन सर’ बुलाने लगे। पुरुष रूप में उसके हावभाव स्त्रियों जैसे होने के कारण बहुत जल्द उसे ट्रांसजेंडर समझ गए। इस पड़ाव पर भी उसकी संगत में ऐसे लोग आए जो अल्पकालिक विलासी संबंध बनाकर गुम हो गए। ‘बिमान चौधरी‘ नामक एक सह-अध्यापक के संग सोमनाथ पुन: जुड़ गया। बिमान उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए व्याकुल था क्योंकि उसने सोमनाथ में मौजूद स्त्री की आत्मा को पहचान लिया था । वह सोमनाथ को लिंग परिवर्तन का ऑपरेशन जल्द से जल्द कराने के लिए आग्रह करने लगा। किन्तु बिमान भी डॉक्टरों की सलाह पर उसके जीवन से एकाएक दूर हो गया। इस प्रकार सोमनाथ के एक और प्रेम प्रकरण का दुखद अंत हो गया। बिमान चौधरी के विछोह के अवसाद से घिरे हुए सोमनाथ को पश्चिम बंगाल कॉलेज सर्विस कमीशन की ओर से ‘झाड़ग्राम‘ के विवेकानंद सतवार्षिकी महाविद्यालय में लेक्चरर के पद पर नियुक्ति का पत्र मिला। सोमनाथ के जीवन का यह एक निर्णायक मोड़ था।
झाड़ग्राम कॉलेज में सोमनाथ के जीवन को तहस नहस करने वाला ‘अरिंदम पर्बत’ नामक एक आकर्षक युवक प्रवेश करता है। अरिंदम, सोमनाथ का विश्वास जीतने के लिए प्रारम्भ में मर्यादित व्यवहार करता है। दोनों में प्रेम हो जाता है। सोमनाथ भी उसकी ओर आकर्षित होकर उसे जीवन साथी बनाने के सपने सँजोने लगता है। अरिंदम पूर्ण स्त्री के रूप में सोमनाथ को भोगने लिए उस पर ऑपरेशन शीघ्र करवाने के लिए दबाव डालता है। सोमनाथ, डॉ. खन्ना को अरिंदम के साथ अपने संबंध के बारे में बता देता है। वह बताता है कि उसे अरिंदम के रूप में उसका पति मिल गया है और उनके संबंध को साकार रूप देने के लिए उसे औरत के जिस्म की जरूरत थी। वह अरिंदम से विवाह रचने के अपने उद्देश्य को व्यक्त करता है। यह तभी संभव होगा जब वे उसकी देह को एक औरत के साँचे में ढाल देंगे। डॉ. खन्ना उसके लिए बहुत खुश हुए थे। जब सोमनाथ मानोबी बनकर पुन: अपने काम पर आई तो अरिंदम की कंपनी का मालिक समरजित प्रकट होता है। अरिंदम और समरजित ने मानोबी को अपने जाल में फांस लिया था। समरजित, मानोबी को भोगना चाहता था इसके लिए उसने अरिंदम को अपना मोहरा बनाकर इस्तेमाल किया था। अरिंदम एकाएक अदृश्य हो जाता है। मानोबी पर इसका गहरा असर पड़ता है। वह चारों ओर से मुसीबतों से घिर जाती है। अरिंदम और समरजित उस पर बलात्कारी और अपराधी होने का आरोप लगाकर उसके जीवन को बरबाद करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। मानोबी भी उनके खिलाफ मुकदमा दायर करती है। दोनों ओर से मुकदमे बाजी होती है। समरजित अपने पैसों के प्रभाव से बच निकलता है लेकिन मुकदमा चलता रहता है। यह प्रसंग मानोबी के जीवन को कलंकित करने के लिए रचा गया एक भयावह षडयंत्र था।
मानोबी आत्मकथा में विभिन्न अवस्थाओं में उसके व्यक्तिगत जीवन में उथल पुथल मचाने वाले पात्रों का विस्तार से वर्णन करती है। सोमनाथ ने अपनी रचनात्मक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करने के लिए अपने घर में डांस और थियेटर के लिए एक ग्रुप बना लिया था। इसे उसने अर्द्धनारीश्वर नाट्य संस्था का नाम दिया – पुरुष व प्रकृति का सामंजस्य। जगदीश नामक एक और ट्रांसजेंडर से सोमनाथ की अंतरंग मैत्री उल्लेखनीय है। वह भी सोमनाथ के जीवन में प्रवेश कर घातक रूप से उसके जीवन को प्रभावित करता है। मानोबी अपनी व्यावहारिक विकृतियों और विरोधाभासों को स्वीकार करती है। वह हर बार स्थायी विश्वसनीय संबंध के लालच में स्वार्थी विलासी ट्रांसजेंडर और थर्ड जेंडर लोगों के चंगुल में फँसती जाती है। इनमें से कई पात्र अपना सर्वनाश खुद कर लेते हैं और मानोबी के जीवन से बाहर हो जाते हैं। सोमनाथ ने झाड़ग्राम स्थित विवेकानंद सतवार्षिकी कॉलेज में अध्यापन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। नैहाटी से झाड़ग्राम की दूरी प्रतिदिन की आवाजाही के लिए अनुकूल नहीं थी। इस कारण उसे झाड़ग्राम में ही अपने लिए आवास की व्यवस्था करनी पड़ी। कॉलेज का वातावरण सोमनाथ के अनुकूल नहीं था। सोमनाथ बद्योपाध्याय के नाम से पुरुष नहीं बल्कि कोई आधी स्त्री आ पहुँची थी। इस कॉलेज में सोमनाथ ने तिरस्कार के साथ साथ अमानवीय व्यवहार और मानसिक यंत्रणा को भोगा। उस असहनीय यातना के बावजूद उसे टैगोर के गीतों व कविताओं में निहित दर्शन को पढ़ने और चर्चा का अवसर मिला। बांग्ला साहित्य के श्रेष्ठ प्राध्यापक के रूप में सोमनाथ को छात्रों का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हुआ। लिंग परिवर्तन के लिए सर्जरी कराने का उसका संकल्प दृढ़ होता गया। वह इसके परिणामों से अवगत था। अध्यापन कार्य के साथ सोमनाथ ने पत्रकारिता जगत में भी प्रवेश किया और ट्रांसजेंडरलोगों की समस्याओं को स्वानुभव के आधार पर समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए व्यक्तिगत रूप से पत्रिका प्रकाशित करने का निर्णय लिया। इस तरह भारत की पहली ट्रांसजेंडर पत्रिका का प्रकाशन हुआ जिसे उसने ‘अबोमानोब‘ (subhuman) नाम दिया। यह एक प्रकार से समाज के खिलाफ उसका विद्रोह था जो बाहरी तौर पर उदारमना और सबको एक साथ लेकर चलाने का दिखावा करता है परंतु भीतर से ज़ालिम और निर्दयी है। पत्रिका में ट्रांसजेंडर लोगों से जुड़ी हर बात को प्रकाशित किया गया। सोमनाथ के सहयोगियों ने पत्रिका के लिए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साक्षात्कार लिए, उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा से संबंधित विषयों पर बात की, उनके रहन-सहन और बोलचाल के तौर तरीकों चर्चा हुई, प्रेम, सेक्स और बधिया आदि विषयों को भी इसमें शामिल किया गया। यह पत्रिका खूब लोकप्रिय हुई। पाठक पत्रिका पढ़कर सार्थक सवाल करने लगे। इस तरह मानोबी इसे बड़ी उपलब्धि मानती हैं। इसकी उपलब्धि इसी बात में थी कि उसने आम जनता के मन में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए एक जगह बनाने में सफलता पाई। मानोबी ने ‘श्यामोली दी‘ नामक एक ट्रान्सजेंडर के जीवन पर बांग्ला में एक उपन्यास लिखा – ‘अंतहीन अंतरीन प्रोसीतोबोर्तिका’ अर्थात रहस्यमयी क्षितिज। यह अबोमानोब पत्रिका में धारावहिक रूप से प्रकाशित हुआ और साहित्य जगत में सराहा गया।
सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2014 को अपने फैसले में ट्रांसजेंडर लोगों को थर्ड जेंडर – तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी और संविधान में उनके समान अधिकारों की सुरक्षा की बात की गई। इस निर्णय ने मानोबी को बहुत राहत दी। इस संदर्भ में मानोबी ने स्वप्नमोय चक्रवर्ती की ट्रांसजेंडर लोगों के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘होलदे गोलप’ का उल्लेख किया है जिसे ‘आनंद पुरस्कार‘ से सम्मानित किया गया। बांग्ला के प्रसिद्ध फ़िल्मकार ऋतुपर्णों घोष ने ट्रांसजेंडर के सत्य को प्रदर्शित करने के लिए ‘चित्रांगदा‘ फिल्म बनाई थी जिसे लोगों ने देखा जरूर था लेकिन ट्रांसजेंडर के सत्य को पूरी तरह स्वीकारा नहीं गया। मनोबी के अनुसार अब एक निश्चित परिवर्तन समाज में दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि पहले की तुलना में अब काफी ट्रांसजेंडर अपनी सच्चाई समाज के सामने स्वीकार करने में झिझकते नहीं हैं।
अबोमानोब पत्रिका के प्रकाशन के बाद सोमनाथ के जीवन में तेज़ी से परिवर्तन आया। उसे मीडिया में काफी लोकप्रियता मिली। उसकी लोकप्रियता ने कॉलेज के आततायियों से मुक्ति दिलाने में मदद की। उसने अपना खाली समय सेक्स परिवर्तन ऑपरेशन के संबंध में अधिक से अधिक जानकारी एकत्रित करने में लगाया। उसने सेक्स बदलने की सर्जरी करवाने का संकल्प तो ले लिया था, लेकिन उसे मालूम था कि यह प्रक्रिया बहुत जटिल और जोखिम से भारी होगी। हालाँकी अबोमानोब के कारण शहर में उसकी ख्याति में वृद्धि और कोलकाता के साहित्य जगत से नियमित संपर्क के कारण उसके आत्मविश्वास में वृद्धि हो गई थी। इसलिए वह हर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो गया। इस ऑपरेशन से पूर्व उसने कई मनोचिकित्सकों और मनोविश्लेसकों से सलाह ली। सभी ने उसे उचित मार्गदर्शन दिया। सबसे ज्यादा मदद डॉ. अनिर्बान मजूमदार नामक एक प्रसिद्ध एन्डोक्रोनोलॉजिस्ट ने की। उन्होंने सोमनाथ को पूरी प्रक्रिया वैज्ञानिक ढंग से समझाई। सोमनाथ ने पाया कि डॉ. अनिर्बान मजूमदार कोलकाता में अपने क्षेत्र के महारथियों में से थे। डॉ. अनिर्बान ने उसकी सर्जरी करने के लिए हामी भर दी। इस ऑपरेशन के लिए सोमनाथ ने अपनी मेहनत से काफी बड़ी राशि की बचत की थी, जो इस अवसर पर उसके काम आई। डॉ. अनिर्बान मजूमदार के प्रति मानोबी ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है क्योंकि उनके समर्थन और प्रोत्साहन के बिना यह ऑपरेशन संभव नहीं था। उन्होंने अन्य ट्रांसजेंडर लोगों को भी ऐसी सर्जरी के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से ही सोमनाथ की सर्जरी करने के लिए आगे बढ़े। उन्होंने अपनी फीस भी बहुत घटा दी थी ताकि अधिक से अधिक ट्रांसजेंडर उनके पास आने के लिए हिम्मत कर सकें। मानोबी ने इस बात का उल्लेख विशेष रूप से किया कि डॉ. अनिर्बान ने उससे एक रुपया भी नहीं लिया। सोमनाथ के ऑपरेशन के निर्णय का विरोध करने वाले संगी साथियों की भी कमी नहीं थी। कई लोगों ने इसे खतरनाक बताया और उसे इस ऑपरेशन को कराने से रोकने का भरपूर प्रयास किया। कुछ लोगों ने पहले किए गए ऐसे ऑपरेशन की विफलता के उदाहरण दिए लेकिन इन सबका कोई असर सोमनाथ पर नहीं हुआ। डॉ. अनिर्बान ने उसका हौसला बढ़ाया। डॉ. अनिर्बान के साथ डॉक्टरों की एक अनुभवी टीम ने हॉरमोनल दवाओं के मेल से उसका इलाज करना शुरू कर दिया था। इन डॉक्टरों के पास उस समय इस सर्जरी के लिए कोई कारगर मार्गदर्शन मौजूद नहीं था। फिर भी डॉक्टरों ने हिम्मत नहीं हारी और एक चुनौती के रूप में इस ऑपरेशन को किया।। मानोबी ने आत्मकथा में उस लंबी प्रक्रिया को लिखा है जिससे जनसामान्य को उसके इलाज के बारे में सविस्तार जानकारी मिल सके। पहले उसके भीतर मौजूद पुरुष हारमोन को घटाया जाना था, उसके शारीर तंत्र में इसकी मात्रा अधिक थी इसके साथ ही इंजेक्शन और दवाओं की मदद से शरीर में ऐस्ट्रोजन नामक मादा हॉरमोन को बढ़ाना था। यह एक क्रमिक चिकित्सा थी, जिसमें उसके शरीर में जाने वाले कृत्रिम हॉरमोन गहरी उथल-पुथल मचाने वाले थे। यह हॉरमोन उपचार सन् 1999 में आरंभ हुआ था और अंतत: वर्ष 2003 में सोमनाथ की सर्जरी की गयी। अगले तीन वर्षों तक मानोबी हॉरमोन थेरेपी लेती रही और उसने अपने शरीर को धीरे धीरे बदलते देखा। उसने अनुभव किया कि वह बेहद खूबसूरत और आकर्षक होती जा रही है। उसके देह की पुरुषोचित कठोरता घुलती जा रही थी और धीरे धीरे त्वचा कोमल और चमकदार दिखने लगी थी। वक्ष भी विकसित होने लगे थे। जब वह अपने बदलते हुए शरीर को को देखती तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते। पहले भी पुरुष का शरीर होने के बावजूद उसके नैन-नक्श काफी तीखे हुआ करते थे इस वजह से डॉ. अनिर्बान का काम थोड़ा आसान हो गया था। वह पहले से ही एक स्त्री की तरह ही सोचती और व्यवहार करती थी, इससे भी कृत्रिम होरामोनों को बढ़ावा मिला। सर्जरी के बाद सोमनाथ को काफी मनोवैज्ञानिक दबाव से गुजरना पड़ा क्योंकि बाह्य समाज में लोग उसे फब्तियों और अपशब्दों से परेशान करने लगे थे। अब उसे स्त्री के रूप में समाज की मान्यता की आवश्यकता थी। इसके लिए भी उसे काफी संघर्ष करना पड़ा। हर ऐसे अवसर पर डॉ. अनिर्बान चट्टान की तरह उसके साथ खड़े थे। वह नियमित रूप से उसका परीक्षण करते रहे। उसकी मनोचिकत्सीय काउंसिलिंग बढ़ा दी गई ताकि वह आगे आने वाले उस भारी बदलाव के तनाव को झेल सके। तब उसे समझ में आया कि जन्मजात पुरुष के देह के साथ नारीत्व को महसूस करना एक अलग बात थी और शरीर की प्राकृतिक प्रक्रियाओं को रोककर सजग भाव से दूसरे सेक्स में बदलने का निर्णय लेना पूरी तरह से अलग चुनौती थी। एक बार यह सब होने के बाद वह अपने पहले के रूप में वापस नहीं जा सकती थी। उसने डॉ. अनिर्बान को आश्वस्त किया कि वह स्त्री होने के लिए ही जन्मी थी और उसने इसके लिए अपने जीवन को दांव पर लगा दिया था ताकि उसे एक नारी देह मिल सके। उसके रूपांतरित देह में स्त्री की कृत्रिम योनि भी रोपित कर दी गयी। यह डॉ. अनिर्बान के प्लास्टिक सर्जन मित्र डॉ. मनोज खन्ना के सहयोग से संभव हो सका। अब सोमनाथ पूर्ण रूप से एक आकर्षक सुंदर स्त्री में परिवर्तित हो चुका था। अब स्त्री देह में समाज का सामना करने की बड़ी चुनौती उसका इंतजार कर रही थी। उसने सर्जरी के बाद कानूनी तौर पर अपना नाम बदल लिया क्योंकि नाम भी उसके नवीन रूपांतरित स्त्री स्वरूप के अनुरूप होना चाहिए था। यही भाव उसके नाम में झलकना चाहिए था। उसने मानोबी नाम इसलिए चुना क्योंकि इसका अर्थ है सर्वोत्कृष्ट मादा, जैसा प्रकृति ने उसे बनाया है। इस तरह उसने अपना नाम सोमनाथ से बदलकर मानोबी रखा और यह काम कोर्ट में मैजिस्ट्रेट के सामने किया गया। इसके बाद शीर्षस्थ अखबारों को अपने नाम और लिंग परिवर्तन के बारे में सूचित किया।
मानोबी ने 2005 में पीएच डी का काम पूरा कर लिया और उसे डॉक्टरेट की उपाधि कल्याण विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में सन् 2006 में दी गई। मानोबी ने कल्याण विश्वविद्यालय से ट्रांसजेंडर से जुड़ी समस्याओं पर शोध कार्य सम्पन्न किया। आज वह डॉ. मानोबी बद्योपाध्याय के नाम से शैक्षिक जगत में जानी जाती है। उसके सारे सर्टिफिकेटों पर सोमनाथ लिखा था जब कि उसे पीएच डी की डिग्री पर मानोबी बद्योपाध्याय के नाम से मिली थी। पहले के सरकारी दस्तावेजों और नौकरी से जुड़े दस्तावेजों में अलग अलग नाम के होने से उसके शैक्षिक जीवन की प्रगति में बाधाएँ उत्पन्न हुईं। इस असंगति को दूर करना आवश्यक था। इस असंगति के कारण मानोबी को पदोन्नतियों आदि से प्राप्त वेतन वृद्धि आदि लाभ नहीं मिल सके। किन्तु पश्चिम बंगाल में सत्ता परिवर्तन के बाद सुश्री ममता बेनर्जी के शासन काल में उसके अभ्यावेदन पर तत्काल कार्यवाही हुई और उसे मानोबी बद्योपाध्याय के नाम पर सारे पहले के सारे दस्तावेज़ों में परिवर्तन कर दिया गया और उसे वह सब वित्तीय लाभ भी मुहैया कराए गए जिनसे वह वंचित थी। मानोबी के पिता का देहांत मार्च 2011 में हो गया उससे पहले ही माता का भी निधन हो चुका था। मानोबी माता-पिता के प्रति भावुक हो उठती हैं क्योंकि वे दोनों सोमनाथ के लिए आजीवन कष्ट उठाते रहे और उसकी सुरक्षा की चिंता आजीवन करते रहे।जब वह बेटी बन गयी तब भी उनके प्यार में कोई कमी नहीं आयी। उनमें संसार के खिलाफ लड़ने का साहस भले ही नहीं था, पर वे अपने शांत स्वभाव के साथ सदा मानोबी के संग रहे।
सन् 2012 में राज्य ने प्रधानाचार्य पद के लिए नियुक्तियों का विज्ञापन आया। इसके लिए मानोबी ने आवेदन किया। वह कॉलेज सर्विस कमीशन की कठिन चयन प्रक्रिया में सफल हुई। मार्च 2015 में डॉ. मानोबी बद्योपाध्याय की नियुक्ति देश की प्रथम ट्रांसजेंडर प्रिंसिपल के रूप में कृष्ण नगर वुमेन्स कॉलेज में हो गई।
झाडग्राम कॉलेज में अध्यापन काल में सन् 2011 में मानोबी को महिषादल राज कॉलेज में आशापूर्णा देवी पर आयोजित एक सेमिनार में भाग लेने का अवसर मिला। उस सेमिनार के दौरान कुछ छात्र उससे मिलने आए थे। उन छात्रों में से देबाशीष नामक एक निर्धन परिवार का दयालु स्वभाव का लड़का उसकी सहायता करने के लिए आया। उस लड़के की ईमानदारी और कर्मठता ने उसे आकर्षित किया। बहुत जल्द वह लड़का मानोबी के जीवन का हिस्सा बन गया। देबाशीष को उसने पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया। देबाशीष उसके लिए देबू हो गया और वह भी मानोबी के आग्रह पर उसे माँ कहने लगा। अब मानोबी, देबा की माँ बनकर उसका पालन करने लगी। मानोबी के जीवन में देबा का आगमन उसके जीवन को सार्थकता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ। देबू से उसे वह दुर्लभ मातृत्व की अनुभूति हुई जिसके लिए वह व्याकुल थी। आई तरह से उसका नारीत्व परिपूर्णता को प्राप्त हो रहा था। माँ बेटे के रूप में उन दोनों का रिश्ता मजबूत होने लगा। देबा के लिए एक सहारा मिल जाने से नैहाटी में रहने वाले उसके माँ बाप को भी संतोष हुआ क्योंकि मानोबी उसे पढ़ा रही थी। मानोबा स्वयं को यशोदा और देबा को बालगोपाल के रूप में देखने लगी थी। मानोबी कृष्ण नगर कैंपस में देबा के साथ रहने लगी थी। मानोबी के शब्दों में – “ हमारा क्वार्टर बेहद छोटा सा है पर मैं प्रसन्न हूँ। इसके आस-पास बहुत हरियाली है और मैं इसके आस-पास टहलते हुए, बदलती हुई ऋतुओं व उनके परिवर्तन को अपनी देह पर महसूस कर सकती हूँ। ताज़ी और शुद्ध हवा धीरे-धीरे मेरे भीतर बरसों से जमे तनाव को पिघलाने में कामयाब रही है। मुझे लगता है कि किस्मत ने पलटा खाया है जिसके लिए मैं भगवान शिव को धन्यवाद देती हूँ। आखिरकार, उन्होंने मेरी प्रार्थनाओं का प्रत्युत्तर दे ही दिया। देबा मेरी देखरेख करता है और हम बहुत ही शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मैंने देबा क बह सब दिया जो एक माँ अपने बच्चे को प्रसन्न करने के लिए दे सकती है – अच्छा भोजन, कपड़े, ख़रीदारी और बाहर घूमने –खाने के लिए पैसा। अब उसे अपने लिए नौकरी की तलाश करनी है, क्योंकि वह मेरी मुलाकातों, बैंक के कामों और दुनिया व मेरे बीच संपर्क सूत्र की तरह काम कराते हुए अपना पूरा जीवन नहीं बिता सकता। “ (आत्मकथा से)। देबा अपनी माँ की देखभाल करता है और उसके साथ साये की तरह रहकर उसकी सेवा करता है। मानोबी ने देबू के भविष्य के लिए काफी कुछ सोच रखा है।अंत में मानोबी ने आपने माता-पिता और दोनों बहनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करतीं हैं जो उसके रूपान्तरण की पूरी प्रक्रिया के दौरान उसके साथ रहीं। वह मुख्य मंत्री ममता बेनर्जी का आभार प्रकट करती हैं जिन्होंने उसे घूरे से उठाकर चमकने और दुनिया के सामने आने में मदद की।
मानोबी बन्ध्योपाध्याय द्वारा बांग्ला में रचित आत्मकथा हिंदी और अँग्रेज़ी में अनूदित होकर साहित्य जगत में चर्चा का विषय बन गई है। एक ट्रांसजेंडर महिला के स्वानुभवों का यह जीवंत दस्तावेज़ है। ट्रांसजेडर व्यक्ति का जीवन थर्ड जेंडर (किन्नर) समुदाय के लोगों से काफी भिन्न होता है, इस तथार्थ को समझने के लिए प्रस्तुत आत्मकथा उपयोगी है। लिंग परिवर्तन की प्रक्रिया से जुड़े अनेक अज्ञात तथ्यों को उद्घाटित करने में मानोबी की आत्मकथा सहायक हो सकती है। मानोबी ने बिना किसी दुराव के लोकलाज की परवाह किए बिना अपने शरीर और आत्मा पर हुए हिंसक हमलों का वर्णन करती हैं। प्रस्तुत आत्मकथा सभ्य समाज के लिए एक चुनौती है। निश्चित रूप से समाज में परिवर्तन की आवश्यकता को प्रस्तुत कृति रेखांकित करती है। आखिरकार मानोबी ने पुरुष तन में फंसे नारी मन को मुक्त कर ही दिया।