पूर्ण विराम

28-03-2009

पूर्ण विराम

वीणा विज ’उदित’

मिनी दुल्हन बनी फूलों की सेज पर बैठी घबराए जा रही थी। इन अमूल्य क्षणों में हर नई नवेली दुल्हन जो कुछ सोचकर लाज से छुई मुई हुई ती है व हर आने वाले पल में उस सपनों के राजकुमार के कदमों की आहट की बाट जोहती है, जो आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में भरकर उसे जीवन की अमूल्य निधि से सरोबार कर देगा...ऐसा किसी भी प्रकार का भावनात्मक आंदोलन उसके अन्तर में प्रस्फुटित नहीं हो रहा था। वो तो चाह रही थी कि वो पल वहीं ठहर जाए... समय की गति थम जाए व वह किसी घटनाक्रम का हिस्सा न बने।

दोनों  घुटनो में ठोडी टिकाए वह अतीत के पृष्ठ पलटने लगी। जिस पृष्ठ पर मेजर मेहरा यानि कि उसके पापा अख़्‍ाबारों में से वर ढूँढने के लिए पते ढूँढकर 2-3 पत्र डाक में हर हफ़्ते डाल ही देते थे। उसका ध्यान वहीं जम गया। फिर पृष्ठ दर पृष्ठ अतीत चलचित्र की भाँति उसके समक्ष था। पापा को कोई रिश्ता जँच नहीं रहा था। तभी कैप्टन विक्रम खन्ना का पत्र आया। जो उन्हें जँच गया। उन्होंने मौका हाथ से जाने नहीं दिया। चंदीगढ़ के एक बढ़िया होटल में विक्रम व मिनी को मिलाने का प्रोग्राम बनाया गया। मिनी को विक्रम पहली नज़र में ही भा गया। वह बहुत स्माट| व खुले स्वभाव का था। लेकिन साथ ही मिनी को कुछ खटक रहा था जो उसे रोक रहा था। क्या... वह समझ नहीं पा रही थी। उसे मन का वहम समझ वह संयत हो गई। उधर विक्रम को भी मिनी एकदम पसंद आ गई। रिश्ता पक्का हो गया। विक्रम के पास बस यही छुट्टियाँ थीं.. सो पंद्रह दिनों के भीतर शादी का मुहूर्त निकाल लिया गया। शादी की जोरदार तैय्यारियों में किसी को भी कुछ सोचने की फुर्सत ही कहाँ थी।

शुभ दिन में शुभ मुहूर्त पर रिश्ते नातेदारों व दोस्तों की भीड़ में मिनी दुल्हन बनी डोली से उतरी। बहनों ने नेग लिए और भाभियों ने दुल्हन को लाकर फूलों की सेज पर बैठाया। विक्रम के दोस्तों ने जान बूझकर उसे देर से छोड़ा। मिलन की पहली रात को ढेरों उमंगे लिए विक्रम जैसे ही कमरे के भीतर आया व जल्दी से दरवाजा बंद करने लगा, तो उस आवाज से मिनी की तन्द्रा टूटी। वो अतीत से पलटकर वर्तमान में आई। उसका शरीर थर्र-थर्र काँपने लगा। घबराहट व डर के मारे वो ठंडी पड़ने लगी एवम्‌ उसके दाँत किट-किट बजने लग गए। विक्रम ने जब यह सब देखा, तो बहुत ही प्यार से उसे पकड़कर कुछ कहना चाहा कि तभी मिनी ने जोर से झटककर उसे अपने से दूर कर दिया। भयभीत हिरनी सी आँखों से उसे देखने लगी। विक्रम हतप्रभ सा पत्थर का बुत बना उसे देख रहा था। वह इस अप्रत्याशित व्यवहार का कोई कारण नहीं समझ पा रहा था। हैरान,परेशान सा वह उसकी  भयभीत दृष्टि को झेल नहीं पा रहा था। पहली रात का नशा तो हवा हो गया था। मिनी चिल्ला रही थी ’न..न..न. मुझे हाथ न लगाना। मेरे पास न आना।’ बोलते... बोलते वो धीरे-धीरे पीछे चलती हुई दीवार से सटती चली गई थी। विक्रम ने हिम्मतकर आगे बढ़ते हुए उसका गिरा आँचल उठाते हुए कहा, "क्या बात है मिनी? डर क्यों रही हो? चलो भई नहीं लगाता हाथ। आओ बैठो, डरो मत।" यह कह कर विक्रम आगे बढ़ा ही था कि मिनी चीखी "आगे मत बढ़ना, सिर फोड़ दूँगी तुम्हारा" उसे कुछ होश नहीं था। घर में ढेरों रिश्तेदार थे। उनका ध्यान आते ही, विक्रम ने चुपचाप कदम पीछे हटा लिए। उसकी समझ तो मानो घास चरने चली गई थी। उसके मीठे स्वप्न टूट कर बिखर गए थे। मौके की नजाकत को समझते हुए वह कमरे से बाहर निकला व छिपता छुपाता ऊपर टेरेस पर चला आया। वहीं वह सारी रात सिगरटें फूँकता रहा। मिनी का अप्रत्याशित व्यवहार उसे भीतर तक ज़ख्म दे गया था। उसके भीतर हाहाकार मचा हुआ था।

रात के पिछले पहर जब वह कमरे में दबे पाँव लौटा तो देखता क्या है कि मिनी वहीं फ़र्श पर बेसुध सी सोई पड़ी थी। विक्रम ने डरते हुए उसे धीरे से उठाकर बिस्तर पर डाल दिया व स्वंय पास पड़े सोफे पर लेट गया। अरमानो व बहारों की रात उसके जीवन में ऐसी होगी, उसने कभी ख़्‍वाब में भी नहीं सोचा था। पास ही तिपाई पर रखे शगुन के दो गिलास दूध के विक्रम ने उठाकर पी लिए।  जिससे सुबह माँ को सब कुछ स्वभाविक लगे...।

अगले दिन दोनों हनीमून पर ऊटी के लिए चल पड़े। बैंगलोर तक हवाईजहाज से, उसके आगे टेक्सी से। विक्रम ने सोचा, शायद मिनी नर्वस हो गई थी, अब घर से दूर ऊटी के प्राकृतिक माहौल में सौन्दर्यमयी छटाओं के मध्य उसके नवजीवन की नींव रखी जाएगी। उसने पुन: ढेरों स्वप्न सजाने आरंभ कर दिए। यहाँ पहुँचकर मी हँसती  खिखिलाती, दौड़ती, ढेरों तस्वीरें खिंचाती रही। दोनों घूमने जाते, बाहर खाना खाते, पर होटल पहुँचते ही वो फरैश होकर झट सो जाती। विक्रम टी.वी.पर प्रोग्राम देखता व सिगरेट फूँकता रहता। आस की एक नाज़ुक डोर के सहारे अंत में मायूसियों का दामन थामें थक कर सो जाता। वे वहाँ पाँच दिन ठहरे। मिनी ने विक्रम को अपने को छूने नहीं दिया। एक आध बार विक्रम ने हँसी-हँसी में उसके करीब जाने का यत्न किया। लेकिन मिनी घबराकर पीछे हट गई व पूछने पर कोई कारण भी नहीं बताया। विक्रम के धैर्य का बाँध टूट गया। आख़्‍ारी दिन उसने जबरदस्ती करनी चाही तो मिनी होटल के लॉन में भाग गई। लोक लाज से भरा विक्रम मन मार कर हनीमून से वापिस घर लौट आया। उसके अगले दिन मिनी मायके फेरा डालने चली गई। मम्मी पापा के कहने पर वो मिनी को दो दिन बाद घर वापिस लिवा लाया। लेकिन विक्रम का खोया-खोया व सूखा चेहरा उसके मम्मी पापा से छिप न सका। विक्रम के पापा रात को खाना खाने के पश्चात्‌ सैर करने के बहाने विक्रम को साथ लेकर लम्बी सैर को निकले। रास्ते में पापा के पूछने पर उसने उन्हें सारी बातें बताईं व उनके कंधे पर सिर रखकर रो पड़ा। पिछले दस दिनों से जिस अन्तर्वेदना को वह घुट घुट कर सह रहा था,आज पापा का कंधा उसे संबल दे रहा था। सब जानकर पापा भी परेशान हो गए थे। इकलौते बेटे का दु:ख... उनसे भी सहा नहीं जा रहा था। कितने प्रसन्न थे वे अपने बेटे का विवाह इतनी धूमधाम से करके....। और यहाँ बेटा इतना दुखी।

खैर, विक्रम की मम्मी से सलाह करके उन्होंने मिनी को अपने पास बुलाया व पूछा कि क्या उसे कोई कष्ट है? जवाब में मिनी ने चुप्पी साधे रखी। आखिर में मिनी के माता-पिता को बुलवा भेजा गया। सम्पूर्ण तथ्यों की जानकारी होने पर वे भी हैरान हो गए। उन्होंने भी बहुत यत्न किया कि मिनी कुछ बताए, लेकिन वह चुप रही। गुमसुम सी। आखिरकार उसे मनोवैज्ञानिक चिकित्सक के पास चलने को राजी कर लिया गया। कुछ बैठकों के पश्चात्‌ जिस राज़ का पर्दाफाश हुआ, उसे जानकर सभी स्तब्ध रह गए।

मिनी के कथनानुसार....जब मिनी छोटी थी, व उसके पापा की फील्ड पोस्टिंग थी, उन दिनों वह घर में मम्मी के साथ अकेली होती थी। पापा के कई दोस्त व कई ’कपल’ पीछे से मम्मी को मिलने व हाल चाल पूछने आया करते थे। स्कूल से लौटकर जब वह सो जाती थी तो मम्मी कभी सहेलियों के घर गप्पें मारने, कभी पड़ौस में तो कभी ताश खेलने चली जाती थी। पापा के दोस्त वर्मा अंकल अधिकतर ऐसे समय ही उनके घर आते थे। यह उसके सोकर उठने और होमवर्क करने का समय होता था। वर्मा अंकल उसे प्यार करके गोद में बैठाते और होमवर्क कराने के बहाने उसके नाजु़क अंगों को छेड़ते रहते थे। मिनी उनके हाथ हटाती तो वे और बढ़ जाते। मिनी किसी से भी कुछ कह नहीं पाती न मम्मी को कुछ बता पाती थी। किन्तु उसे इतना अवश्य लगता कि यह सब ग़लत है। वह मुँह खोलने पर तरह तरह की आशंकाओं को अपने भीतर मँडराते हुए पाती थी। चेतनाशून्य सी, मशीनी पुर्जे की तरह वह चुप्पी साध गई। अन्य बच्चों से भिन्न। उधर मम्मी घर आकर फूली न समाती कि वर्मा अंकल होमवर्क करा गए क्योंकि उनकी सिरदर्द कम जो हो जाती थी। अर्दली से पूछतीं कि उनको चाय नाश्ता ठीक से कराया था न।

ज़िदंगी की नियति कहिए कि उन्हीं दिनों उसके पापा का फोन आया कि फील्ड में मैस में इंतज़ाम हो गया है सो मिनी को मि. वर्मा के घर छोड़कर बीस पच्चीस दिनों के लिए मम्मी उनके पास आ जाएँ। पीछे से मिनी का स्कूल मिस नहीं होगा। उसकी पढ़ाई चलती रहेगी। मिनी बहुत रोई चिल्लाई कि वह वर्मा अंकल के घर पर नहीं रहेगी, लेकिन उससे अधिक सुरक्षित जगह मम्मी को कोई दूसरी नहीं लगी। साथ ही वे पढ़ा भी देते थे मिनी को। सो, वे छटपटाती मिनी को गहरी खाई में धकेलकर चली गईं। उधर मिनी भयभीत सी भविष्य के घिनौने पलों की परछाई को अपने ऊपर छाते देखकर सहम सी गई थी।

जिस बात से वह डर रही थी, वही सब घट रहा था अब उसके साथ।  सारी अनुभूतियाँ अवचेतन मानसिकता की गहरी झील में वजनदार पत्थरों के साथ बाँधे गए अवैध शिशु की तरह कहीं बहुत गहरे डूबती चली जा रही थीं। दुष्ट राक्षस की तरह वर्मा अंकल की बाँछें खिल गई थीं। चुपके चुपके उनकी छेड़खानी की सीमा अपनी हदें लाँघ गई थी। आंटी भी मम्मी जैसी ही थीं। वो सारी-सारी रात दर्द से कराहती व छटपटाती। उसके जिस्म पर निशान बनते जा रहे थे। नाज़ुक बदन पर नील पड़ गए थे। इन बीस दिनों में बाल सुलभ मन परिपक्वता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था। पत्थर की मूक शिला बन कर रह गई थी मिनी। मम्मी के लौटने पर मिनी अपनी मम्मी से बेहद नफ़रत करने लग गई थी। वे सोचतीं कि बेटी उनके बिना उदास हो गई है.. तभी पीली पड़ गई है। उधर मिनी कमरा बंद करके किताबों में डूबी रहती थी। स्कूल व घर... इसके अलावा वह किसी से भी नहीं मिलती थी। वर्मा अंकल से भी नहीं......।

कुछ महीनों पश्चात्‌ उसके पापा की पोस्टिंग सिकन्दराबाद की हो गई। माहौल बदल गया। यहाँ पर भी मिनी ने पुस्तकों के अलावा किसी से दोस्ती नहीं की। वह यथाश्क्ति अपने जिस्म को ढाँक कर रखती थी। कि कहीं कोई खुला अंग अपनी बर्बादी की दास्तां न सुना दे किसी को। यौवन के भरपूर पर्दापण पर भी उसने उसे खिलकर महकने नहीं दिया। वह सकुचाई ही रही।

विक्रम का खुलापन उसे भाया था। प्रथम बार कोई उसे भी अच्छा.. स्मार्ट व सुन्दर लगा था। विक्रम के साथ घूमना फिरना, हँसना खेलना, बातें करना उसे आनन्दित करता था। ऐसी खुशी उसे पहली बार मिली थी। लेकिन शरीर को हाथ लगाना....नहीं वो यह नहीं सह सकती। सुहाग रात को विक्रम को अपनी ओर बढ़ते देख उस उसमें वर्मा अंकल दिखाई दे रहे थे। वे सारी अनुभूतियाँ जो अवचेतन मानसिकता की गहरी झील में डूबी पड़ी थीं, वे बड़ी तेजी से सतह की ओर उठती चली आई थीं। फलस्वरूप, आँखों से अंधेरे में उड़ती हुई चिन्गारियों के अलावा कुछ और नहीं निकल रहा था। वह बदहवास चीखे जा रही थी, उसे होश नहीं था।

यह सब सुनते हुए मिनी की मम्मी का रो-रोकर बुरा हाल था। उसके मम्मी-पापा आत्मग्लानि से भर उठे थे। मिनी के नयन सरोवरों का तो सारा जल कब से सूख चुका था। वह जानती थी कि जीवन पर्यन्त वो इस रोग से ग्रसित रहेगी। मनोवैज्ञानिक चिकित्सक व अन्य सब ने भी उसे बहुत समझाया, लेकिन सब निर्रथक रहा। उसी आधार पर मिनी का विक्रम से तलाक हो गया। बालकुण्ठा ने मिनी की जीवन भर की खुशियों को ऐसा पूर्ण विराम लगा दिया कि वह जीवन पर्यन्त एकाकीपन के अंधकूप में सिसकती रह गई।

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