पुलिया के सौंदर्य के सम्मोहन के आगे बेचारे पुल की क्या बिसात!!!

01-07-2020

पुलिया के सौंदर्य के सम्मोहन के आगे बेचारे पुल की क्या बिसात!!!

संजीव शुक्ल (अंक: 159, जुलाई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

पुलिया, पुल का छोटा रूप है। यह पुल की विराटता-भयावहता के विपरीत सूक्ष्मता और कोमलता का प्रतीक है। जहाँ पुल सिर्फ़ बड़ी-बड़ी नदियों के ऊपर ही बनाए जाते हैं, वहीं पुलिया छोटे-मोटे सभी नदी-नालों के ऊपर बन जाती है। यह बड़ी नदियों को छोड़कर अपनी सर्वव्यापक आवश्यकता के चलते हर जगह पाई जाती है। 

यद्यपि दोनों के उद्देश्य एक जैसे हैं, फिर भी पुलिया के अपने आकर्षण हैं। जो बात पुलिया में है वह बात पुल में कहाँ!! पुलिया के सौंदर्य के सम्मोहन के आगे बेचारे पुल की क्या बिसात!! लिहाज़ा पुल हमेशा ही हाशिये पर रहा और पुलिया हमेशा अपने इंजीनियरों-ठेकेदारों की चहेती रही। 

पुलिया के प्रति इंजीनियरों-ठेकेदारों का पैदाइशी खिंचाव इतना अधिक होता है कि पुल के निर्माण की घोषणा के बावजूद ये जनता को पुलिया ही बना के देते हैं। इसे आधुनिक विश्वकर्माओं की विवशता ही कहेंगे कि पुल का एस्टीमेट होने के बावजूद उनका दिल घूम-फिरकर पुलिया पर ही आ जाता है। पुलिया उनकी कमज़ोरी है।

पुलिया बनने के लिए नदी या नाला का होना ज़रूरी है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। बिलकुल "हम बने, तुम बने एक दूजे के लिए" की तरह। बल्कि हमें तो लगता है कि हो-न-हो यह गाना भी पुलिया पर बैठकर के ही लिखा गया होगा अन्यथा गीत में इस तरह के नैकट्य-भाव का आ पाना असंभव है।

पर कई बार पुलिया होने के बावजूद क्षेत्र में नदी या नाला की भौतिक उपस्थिति निराकार ब्रह्म के सदृश आपको आश्चर्यचकित कर सकती है!! ऐसे में आप घबराएँ नहीं। अगर पुलिया अस्तित्वमान है, तो नदी के होने के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है। यह माना जा सकता है कि यहाँ कभी नदी रही होगी। दरअसल यह और कुछ नहीं; पुलिया के प्रति उसके निर्माताओं का एकमेव निश्छल अनुराग ही है, जो उन्हें पानी के प्रवहमान होने के अवशेष-मात्र से ही संतुष्ट हो जाने और पुलिया की अपरिहार्यता को स्वीकार कर पुलिया-निर्माण की घोषणा कर देने के लिए बाध्य कर देता है।

वैसे तो ख़ैर कोई बात नहीं पर नदी-नालों के बिना पुलिया मज़ा नहीं देती। "नदी बिन पुलिया ना सोहै राजा" के मूल भाव को हमारे पुलिया निर्माताओं को समझना चाहिए। फिर इसके अलावा एक बात और दिल को कचोटती है वह यह कि हमारे पास-पड़ोस के उदीयमान लड़के दोपहर में पुलिया पर चढ़कर किसमें झड़ाम से कूदेंगे और किसमें छप्प-छप्प करके तैरेंगे। गाँव के लड़के तैराकी का पहला पाठ इन्हीं नदियों-तालाबों में सीखते हैं। वहाँ सीनियर लड़कों के नाक बंद करके पानी में डुबकी लगाने और फिर दस-बारह फर्लांग आगे कछुए की तरह से एक दम से प्रकट होने के नयनाभिराम दृश्य किसे नहीं रोमांचित करते!! इस कला का अपना अद्भुत सम्मोहन है। माँएँ अपने लड़कों की गोताखोरी की इन अद्भुत क्षमताओं पर बलि-बलि जाती हैं।

कहने का मतलब नदी भी हमारे लिए उतनी ही ज़रूरी हैं जितनी कि पुलिया।

इसलिए बच्चों के उज्ज्वल भविष्य को देखते हुए, पुलिया निर्माताओं से आग्रह है कि जहाँ तक हो सके वह नदियों पर ही अपनी पुलिया खड़ी करें।

पुल की तुलना में पुलिया स्वभावतः कोमल होती है और इसलिए वह बनते ही उखड़ने लगती है। गाँव के ज़िम्मेदार नागरिक उन उखड़ी हुई ईंटों को बहुत श्रद्धाभाव से ले जाकर अपने घर में नल के पास बिछा देते हैं ताकि वहाँ बैठकर बरतन माँजने या कपड़े छाँटने जैसे ज़रूरी काम सम्पादित किए जा सकें। पुलिया का उखड़ना तथा उसके अवशेषों पर फिर नई पुलिया का बनना, हमारी निर्माण के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

पुलिया हमारे जीवन के हर चरण, हर कार्य-व्यापार की साक्षी है। यह गाँव के वीर लड़ाकों के लिए हल्दीघाटी है। प्रायः पुलिया पर ही किसी को देख लेने की धमकी दी जाती। लाठी-डंडों के अलावा पुलिया की ईंटें लड़ाई को अंजाम तक पहुँचाने के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराती रहीं हैं।

पुलिया हमारी आस्था का प्रतीक है; पुलिया (जैसी भी हालत में हो) हमारी विकास की अवधारणा का भौतिकीय प्रमाण है। पुलिया हमारी चेतना है; पुलिया हमारा पहला प्यार है!! हम पुलिया के बग़ैर नहीं जी सकते। हम घर पर बैठना छोड़ सकते हैं, पर पुलिया पर बैठना नहीं छोड़ सकते। 

इतिहास गवाह है कि गाँव स्तर की राजनीति की पहली पाठशाला पुलिया ही रही है। राजनीतिक गतिविधियों और सामाजिक विसंगतियों पर सम्यक विचार यहीं पर बैठकर किया जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं में किसको-किसको हिस्सा नहीं मिला आदि जैसे कुछ ज्वलंत सवाल बैठकी की मुख्य विषयवस्तु हुआ करते। चर्चा में भाग लेने वाले माननीय एक स्वर में इस बात का समर्थन करते कि कौन सा मुखिया जी को अपनी जेब से देना था? सबका हिस्सा डकार जाना कहाँ का न्याय है? सरकारी पैसे का इस तरह दबा ले जाना तो सहकारिता की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। मिल-बाँट कर खाने की इन समाजवादी चिंताओं के अलावा किसको कहाँ, कैसे निपटाना है, जैसे गम्भीर मुद्दों पर भी चर्चा होती। इस तरह की चर्चाओं के लिए पुलिया सबसे अधिक सुरक्षित जगह मानी जाती। 

प्रायः चर्चा राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय मुद्दों से होते हुए गाँव-गौहान के आपसी सम्बन्धों तक आती। सम्बन्धों की अंतरंगता विश्लेषित करते हुए विषय-विशेषज्ञ अपनी दिव्य दृष्टि से यह देख पाने में समर्थ होते हैं कि फ़लाने के घर का खर्चा फ़लाने अपनी जेब से नहीं, बल्कि किसी दूसरे फ़लाने के खेत से रातों-रात ग़ायब हुई उन्हीं पाँच बोरी गेहूँ से चला रहें हैं।

इस तरह गाँव में किसके साथ, किसके कैसे ऊष्मीय सम्बंध हैं, पर गहन चर्चा के साथ ही बैठकें बरख़ास्त होकर अगले दिनों के लिए मुल्तवी होती रहतीं।

पुलिया के और भी अच्छे उपयोग हैं। पर देखा गया है कि कुछ स्वार्थी लोग पुलिया को राहज़नी जैसी अपनी वैयक्तिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन बनाने लगते हैं जो कि पुलिया के साथ अन्याय है। इस पवित्र कार्य के लिए पुलिया का चुनाव किये जाने के पीछे असली वज़ह यही है कि वहाँ आराम से बैठकर के अपने शिकार की प्रतीक्षा की जा सकती है, दूसरे पुलिया पर फँसा शिकार खुलकर भाग भी नहीं सकता है; कारण पुलिया और उसके आसपास की भौगोलिक सरंचना किसी भी प्रकार की शारीरक सक्रियता की अनुमति नहीं देती। क्योंकि शिकार यदि एक बार पुलिया पर आ गया तो फिर वह चाहे कितना ही सयाना हो बच नहीं सकता। इंजीनियरों और ठेकेदारों के संयुक्त प्रयासों से निर्मित इस सड़क, जो कि बड़े-बड़े गड्ढों के बीच अपने बहुत सूक्ष्म रूप में पाई जाती है, पर भागने की कौन कहे सामान्य चाल में बिना गिरे- बिना लरबराये चल पाना ही बहुत बड़ी बात है!! फिर भी अगर उस भोले ने भागने की कोशिश की, तो उसका पुलिया के आसपास पाई जाने वाली सनातन झाड़-झंखाड़ में कटी पतंग की तरह फँसना तय है।

इसी तरह कई बार चोट खाए आशिक़, जीवन की निस्सारता तथा शरीर की नश्वरता के बारे में सुस्पष्ट राय बनाकर पुलिया के पास आते हैं और नदी से अपनी गोद में लेने की गुहार लगाते हैं। पर अब नदियों में उतना पानी कहाँ?? सो कई बार लोगों को अपना प्रोग्राम स्थगित करना पड़ता है।

बताते हैं पड़ोस के गाँव के एक भाईसाब ज़िंदगी से तंग आकर पुलिया से कूद गए, पर हाय रे! उनका दुर्भाग्य वह कूद कर भी जी-भर मर नहीं पाए!!! उल्टे नदी में कम पानी होने की वज़ह से वह कुछ ज़्यादा ही चोट खा गए। वह चिल्लाते हुए बाहर भागे। बाहर निकलकर वह अब वाटरलेवल कम होने की वैश्विक चिंता में मरने लगे। उन्होंने आस-पास इकट्ठा हुए चरवाहों की भीड़ को बताया कि पानी इतना कम था कि अगर वह पलथी मार के बैठ जाते तो भी शायद न मर पाते!! 

ख़ैर पुलिया इस तरह कूदकर जान देने के लिए बनी भी नहीं है।

वैसे इस तरह के कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पुलिया गर्व करने लायक जगह है। विकास में इसकी सक्रिय सहभागिता को देखते हुए हमें इसके लिए एक अलग से विभाग बनाना चाहिए जो पूरी तरह से इसके लिए समर्पित हो। विकास की नदी निर्बाध रूप से बह सके इसलिए पुलियों के निर्माण को प्राथमिकता के आधार पर लेना होगा।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में