प्रत्युत्तर

04-02-2008

प्रत्युत्तर

पाराशर गौड़

जैसे ही चुनाव आए
प्रत्याशी गाँव गाँव घूम रहे थे
अपना और अपनी पार्टी का
मिल कर प्रचार कर रहे थे
लच्छेदार भाषणों को देकर
वोटरों को लुभा रहे थे!


"भाईयो! बहनों! और माताओ!
चाचा! काका! काकियो!
ताऊ! ताई! साला! और सालियो —
अपना कीमती वोट मुझे ही देना
क्योंकि —
मैं रात दिन तुम्हारे ही 
बारे में सोचता हूँ,
याद रखें —
आपका भला केवल 
मैं ही कर सकता हूँ...!"


एक वृद्धा के पास जाकर
प्रत्याशी बोला -
"ताई! अबकी बार अपना वोट
मुझको ही देना
मैं तेरा कल्याण कर दूँगा!
कुछ हो, न हो ...
पर ...
तेरी पेंशन तो लगावा ही दूँगा!!"


वो बोली—
"बेटा, पहले वाले ने 
भी यही कहा था,
जीतने के बाद वह, 
आज तक नज़र नहीं आया था
कुछ उसने किया - 
कुछ तुम करोगे,
जैसे उसने किया ,
तुम भी वैसे ही करोगे !"


वो बोला—
"ताई! पाँचों उँगलियाँ 
बराबर नहीं हुआ करती हैं..!"


तपाक से वृद्धा बोली —
"पर बेटा! खाते वक़्त तो वो,
सब एक ही हो जाया करती हैं ..!!"

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