प्रोफ़ेसर तरंगिता

15-08-2021

प्रोफ़ेसर तरंगिता

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

तुमसे हज़ार बार क्षमा माँगते हुए कहती हूँ माते कि अच्छा हुआ जो तुम अब बिल्कुल नहीं सुन पाती। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि अपनी ही पूज्य माँ के लिए ऐसी भावना रखना अक्षम्य अपराध है, घोर निंदनीय है, फिर भी मन में ऐसी भावना उत्पन्न हुई है, इसलिए ईश्वर से भी प्रार्थना करती हूँ कि वह मुझे क्षमा करें।

इसके बावजूद भी यदि उन्हें अपनी व्यवस्था को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए मुझे कठोर दंड देना अनिवार्य लगता है, तो उनसे और साथ ही तुमसे भी यही करबद्ध प्रार्थना है कि मुझे दंड देने से पहले, मेरी इस दंडनीय भावना के भीतर छिपी मूल भावना पर ध्यान अवश्य देना। मेरा यह अटल विश्वास है कि ऐसा करते ही भगवान और तुम्हें भी मेरी भावना दंडनीय नहीं लगेगी।

यह भावना मन में इसलिए आई माते क्योंकि आज तुमने भोर में ही फिर बहुत ही कटु बातों से भरी-पूरी मेल भेजी। मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर, उससे पहले माँ होते हुए भी तुमने उसमें मुझे तमाम अपशब्द कहे। मुझसे फिर वही सब करने के लिए कहा, जिसके लिए मैं तभी से बार-बार कहती आ रही हूँ, जब तुम मेरी ही तरह से ख़ूब सुन लेती थी, नहीं..नहीं..नहीं।

माते मैं मानती हूँ कि कुछ विशेष परिस्थितियों में बहुत ही नकारात्मक बातें भी बड़ी सकारात्मक लगने लगती हैं। जैसे इस प्रकरण में तुम्हारा न सुन पाना। तुम सुनने में सक्षम होती तो मेल ही की तरह बार-बार फोन करती। मेल से भी ज़्यादा ख़ूब कटु बातें करतीं, बार-बार एक ही बात करती। मुझे मान जाने के लिए कहती। मैं परेशान होकर बार-बार मना करती, इससे बातें ख़ूब कटु होती जातीं, इतनी कि हमारे बीच भयानक झगड़ा हो जाता. फिर हम-दोनों कई-कई दिनों तक मुँह फुलाए रहतीं।

अब क्योंकि हम माँ-बेटी हैं तो मुँह स्थायी रूप से फूला नहीं रह सकता। इसलिए जल्दी ही मुँह पिचकता। मुँह पिचकने पर बातें फिर शुरू होतीं, और हम फिर वही पुराना इतिहास दोहरा रहे होते। क्योंकि तुम फिर वही बात कहती और मैं फिर मना करती। 

मेल में इतनी कटुता नहीं आ पाती। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ, क्योंकि तुम्हारी हर मेल में ध्यान देने पर मैं एक बात बराबर देख रही हूँ कि मुझे बहुत कटु बातें कहते-कहते कई बार तुम ठहर सी जाती हो। शब्दों, भावनाओं पर आख़िरी समय पर नियंत्रण कर लेती हो। मगर यह सीधी बातचीत में नहीं कर पाओगी। 

माते तुमने जितनी लम्बी मेल भेजी है, उसे एक उँगली से टाइप करने में तुमने कम से कम चार घंटे का समय लिया होगा। सोचो तुमने अपनी युवा नहीं प्रौढ़ता की ओर बढ़ चली अपनी प्रोफ़ेसर बेटी से, अपनी बात मनवाने के लिए पूरी रात व्यर्थ ही बर्बाद की। 

जानती हो, अभी जल्दी ही एक अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में छपी शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि जो लोग सात-आठ घंटा पूरी नींद नहीं सोते, उनमें डिमेंशिया, न्यूरो सम्बन्धी बीमारियाँ होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। और तुम तो न्यूरो सम्बन्धी समस्या का दस वर्षों से सामना करती चली आ रही हो। सुनने की क्षमता भी गँवा बैठी हो, फिर भी अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ क्यों कर रही हो। कितनी बार कह चुकी हूँ कि वर्तमान परिवेश में अपना स्वस्थ शरीर ही अपना एकमात्र सच्चा साथी है। लेकिन बात तुम्हारी समझ में नहीं आती।  

वैसे भी पिछले आठ सालों से ना तुम मुझे अपनी बातों से कन्वींस कर पा रही हो, ना मैं तुम्हें। तुम चाहती हो कि मैं ताल में बँधे हुए निबद्ध संगीत की तरह जीवन जिऊँ। जैसे तुम अब-तक जीती आ रही हो। जबकि मैं अंतिम साँस तक ताल-मुक्त अनिबद्ध संगीत की तरह जीवन जीना चाहती हूँ। 

माते तुम कहती हो कि ईश्वर के बिना ब्रह्माण्ड नहीं। स्त्री के बिना पुरुष नहीं। पुरुष के बिना स्त्री नहीं। यही सनातन सत्य है। इसलिए मैं तुम्हारी बात मान कर वह करने के लिए तैयार हो जाऊँ, जिसके लिए तुम आठ वर्षों से कहती आ रही हो। और तुम्हारी बात ना मानकर मैंने अब-तक जीवन के आठ वर्ष व्यर्थ गँवा दिए हैं। 

माते तुम समझती क्यों नहीं कि यह सोच कर ही मुझे उबकाई आने लगती है कि कोई पुरुष अंग मुझ में प्रविष्ट हो कर, वहाँ मुझ पर प्रहार करे, और फिर अपनी निकृष्ट गंदगी वहाँ छोड़ कर विजेता की तरह जय-घोष करे, उत्सव मनाए। और मैं पराजित नष्ट-भ्रष्ट हुई सेना की तरह, शर्मिंदगी, अपमान से आहत, टूटती हुई, स्वयं को समेटती, उसकी गंदगी से मुक्ति के सारे उपक्रम करूँ। तुम्हारी बात मान लेने से जीवन भर, मेरा जीवन, मेरा नहीं रह जाएगा। वह जय-घोष करने वाले की इच्छाओं का दास बन कर रह जाएगा। 

माते हर बार तुम मेल में जब यह लिखती हो कि बिना पुरुष के स्त्री, पूर्ण स्त्री बन ही नहीं पाती, पूर्णत्व प्राप्त ही नहीं कर पाती, तो मुझे यही महसूस होता है कि तुम अपनी बात मनवाने के लिए मुझे संभोग के आनंद का लालच देती हो। लगता है जैसे तुम मुझे छोटी बच्ची समझ कर, टॉफी दिखा कर लालच दे रही हो। संभोग सुख की टॉफी का लालच। माते तुम्हारे लिए, दुनिया के लिए सम्भोग होगा आनंद, पूर्णत्व पाने का एक माध्यम, लेकिन मेरी दृष्टि में घृणा, दासत्व का पर्याय है। 

मैं तुम्हारी या किसी की भी इस बात को निरर्थक, तर्क-हीन और डस्टबिन में फेंक देने योग्य समझती हूँ कि स्त्री अपनी सम्पूर्णता पुरुष मिलन के बाद ही पाती है।

अजब है यह थ्योरी। क्या तुम यह बताओगी कि स्त्री अंग के भीतर पुरुष अंग के कुछ मिनट उत्पात मचा लेने के बाद ऐसे कौन से परिवर्तन स्त्री शरीर, मन, विचार में आ जाते हैं, जो उसे पूर्णत्व प्रदान कर देते हैं। उसके पहले उसमें ऐसे कौन से अंग, बातों का अभाव होता है जिससे वह अपूर्ण रहती है।

माते मैं यही मानती हूँ, विश्वास करती हूँ कि स्त्री या पुरुष का पूर्णत्व संभोगानुभूतियों में नहीं है। यह एक भ्रम है, छद्म सोच है। स्वयं के साथ छल है। और मैं तुम्हारी तरह स्वयं को जीवन-भर धोखा नहीं देते रहना चाहती। स्वयं के साथ छल नहीं करना चाहती। 

माते तुम तो स्वयं को मनोविज्ञान, दर्शन-शास्त्र का ज्ञाता मानती हो। लेकिन स्त्री पूर्णत्व को लेकर तुम्हारे विचार मुझे बड़े अधूरे लगते हैं। मैं तुम्हारी तरह मनोविज्ञान नहीं जानती-समझती। मैं तो दर्शन की प्रोफ़ेसर हूँ। सीधी सी बात यह जानती हूँ कि ''हम कौन हैं?'' जिस दिन हम यह जान लेंगे, समझ लेंगे, उसी दिन हम पूर्णत्व को प्राप्त कर लेंगे। 

अब यह कहकर बात को नहीं काटना कि यह तो आध्यात्मिक बातें हैं, योगियों, ध्यानियों, संत महात्माओं के लिए हैं। तुम अध्यात्म को कुछ समय के लिए पृथक कर स्वयं से केवल इतना पूछो कि हम कौन हैं? कैसे बने? क्यों बने? किसके द्वारा बनाए गए? और हम ख़त्म क्यों हो जाते हैं? हम सोचते कैसे हैं? अपने बनाने वाले को हम अब-तक जान क्यों नहीं पाए? यह सारी बातें सच में दैवी घटनाएँ हैं या ब्रह्माणड में निरंतर होती असंख्य क्रियाओं में से कुछ का परिणाम मात्र हैं। और फिर यह ब्रह्माण्ड! यह क्या है? ब्रह्माण्ड में ईश्वर है? या ईश्वर ने उसे सृजित किया? कौन है आदि शक्ति? सारी ब्रह्माण्डीय गतिविधियों का उद्देश्य क्या है? क्या है रहस्य? क्यों बना हुआ है अब-तक ?

माते मैं समझती हूँ कि जिस समय हम इन बातों को पूर्णतः जान-समझ लेंगे, उसी समय हम पूर्णता प्राप्त कर लेंगे। न कि पुरुष से सम्भोग करके। सम्भोग तो ब्रह्माण्ड में, विभिन्न माध्यमों में घटित हो रही अनंत क्रियायों में से एक क्रिया मात्र। और यह भी कि यदि कोई पुरुषों के लिए यही कहता है कि स्त्री से सम्बन्ध के बिना वह अधूरा है, तो माते मैं इन बातों को इस ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी मूर्खता-पूर्ण बात, सोच ही कहूँगी।

तुम्हारे इस तर्क कि यदि ऐसा नहीं होता तो ईश्वर या प्रकृति सम्भोगानुभूति की क्षमता क्यों देता? शिशु की उत्पति को स्त्री-पुरुष की संयुक्त क्रिया का परिणाम क्यों बनाता? का सीधा सा जवाब यह है कि सम्भोगानुभूति दोनों के आनन्दानुभूति प्राप्त करने, संतानोत्पति का एक माध्यम मात्र है, पूर्णत्व-अपूर्णत्व का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। और मुझे आनंदानुभूति के इस माध्यम तथा संतानोत्पति में कोई रुचि नहीं है। इनके विषय में विचार करने मात्र से मुझे घुटन महसूस होने लगती है। 

माते सच यह है कि मैं ना तो तुम्हारी तरह जीवन प्रबंधन के बारे में सोचती हूँ, न प्रयास करती हूँ। न पूर्णत्व पाने के बारे में सोचती हूँ, न ही जानने का प्रयास करती हूँ। मुझे यह सब बिल्कुल भी आकर्षित नहीं करते। मैं वही सब करते रहने की सोचती हूँ, करती हूँ, जो मेरे मन को भाता है। जिससे मैं ख़ुशी महसूस करती हूँ। ख़ुशी पाने के अपने-अपने माध्यम हैं। सभी के माध्यम एक जैसे हों, यह क़तई आवश्यक नहीं है। 

माते तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं जीवन में कोई जटिलता नहीं चाहती। जब कि तुम जीवन तरह-तरह के खाँचे में बाँट कर उसे जटिल बनाई हुई हो, पिताश्री को भी उसी में उलझाई हुई हो। इतना कि बीते दो वर्षों से वो मुझसे बात नहीं कर रहे हैं। मेरी कॉल रिसीव नहीं करते। 

कोविड-१९ की दूसरी भयावह लहर में रोज़ हज़ारों लोगों की मृत्यु हो रही थी। हर तरफ़ हाहाकार मचा हुआ था। जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष करती हुई मैं डेढ़ महीने हॉस्पिटल में एडमिट रही। वेंटिलेटर पर जाने से पहले मैंने कई बार कॉल की, लेकिन उन्होंने ऐसी स्थिति में भी मेरी कॉल काट दी। तिरुवनंतपुरम से दोनों भाई-भाभी और तुम ही बात कर रही थी।

माते यदि तुम स्वयं मुझको ठीक से समझती, पिताश्री को भी समझाती तो हमारे उनके बीच यह समुद्र-सी खाई नहीं बनती। माते घर में यह सब जो हो रहा है, यह तुम्हारी जटिल जीवन-शैली ही का परिणाम है। और तुम अपनी इसी जटिल दुनिया में मुझे डालना चाहती हो। जिससे बचने के लिए मैंने छात्र-जीवन में ही तुम्हारी इस दुनिया को हमेशा के लिए प्रणाम कह दिया था। 

अपना कर्तव्य मानती हुई, तुम इस बात को मानती क्यों नहीं कि जीवन बंधन में, प्रबंधन में, स्वतंत्रता में नहीं, स्वछंदता की साँस में जीने से जीवंत होता है। मैं बहुत स्पष्ट यह मानती हूँ कि प्रबंधन, स्वतंत्रता, बहुत से नियम-क़ानून व्यवस्था में जकड़ देते हैं, जिससे जीवंतता का क्षरण होता है. 

माते ऐसा नहीं है कि मैं तुमसे ही ऐसा कहती हूँ, यही बात मैं अपने संगीत गुरु से भी, ऐसे ही स्पष्ट रूप से समय-समय पर कहती रहती थी। उनसे बड़ी बहस भी हो जाती थी।

एक बार निबद्ध गान के बारे में समझाते हुए उन्होंने कहा कि ''स्वर, ताल, पद के बिना निबद्ध गान नहीं होता। और इसे शास्त्रों में प्रबंध, रूपक, वस्तु कहते हैं। प्रबंध सर्वाधिक स्वीकार्य नाम है। क्योंकि इसका अर्थ है, ‘प्रकृष्ट रूपेण बंध:’ अर्थात्‌ वह रचना जो गेय हो। मतलब की सभी अंगों को सुंदरता के साथ जोड़ा गया हो।'' 

यह सुनते ही मेरी ज़ुबान से अनायास ही निकल गया कि ''इतनी निबद्धता के कारण ही शास्त्रीय संगीत जकड़न का शिकार हो गया है, खुलकर आगे बढ़ ही नहीं पा रहा है। न जाने कितनी सदियाँ बीत गईं, लेकिन शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में सच में कुछ नया खोजा गया हो यह कहना बहुत मुश्किल है। आप ज़बरदस्ती यह न कहियेगा कि बहुत कुछ नया हुआ है।''

मेरी यह बात सुनकर वह बहुत हैरान हुए। मुझे बड़ी देर तक अपनी पलकों को स्टेच्यू मोड में रखकर देखते रहे। उनकी आँखों में उस समय मेरे लिए दया भाव उमड़ा हुआ दिख रहा था। मैं यह भी जानती हूँ कि उनमें यह भाव मुझे नादान समझने की उनकी भारी भूल ही के कारण पैदा हुआ था।

उस समय वह एक ऊँची चौकी पर पालथी मार कर बैठे हुए थे। पैरों पर विचित्र-वीणा रखे हुए थे। वह बीच-बीच में उसे बजाते जा रहे थे। उस समय वह 'बंदिश' पर बातें कर रहे थे।

कह रहे थे कि ''प्रबंध का सीधा सा मतलब यह समझो कि हर अंग परस्पर बँधा हुआ हो। बंदिश या चीज़ इसी के अंतर्गत आती है।''

माते जब उनकी पलकें ऐक्टिव मोड में आईं, तब मुझे लगा कि उनकी उबले अंडे जैसी बड़ी-बड़ी आँखें, उनकी विचित्र-वीणा के दो बड़े-बड़े तम्बूरों से मेरे स्तनों से टकराकर नीचे तक फिसल गईं हैं।

माते अब तुम कहोगी कि यह क्या तरीक़ा है बात करने का। बातचीत में कहीं अपने शरीर को इस तरह खोलते हैं। तुम बहुत बेशर्म हो गई हो। बंद करो यह बेहयाई बेशर्मी।

तुम्हारी इस डाँट पर मैं हर बार की तरह कहूँगी कि शरीर हमारा है, उसकी बात करने पर हम पर दुनिया भर की बंदिशें क्यों हैं? उसकी बात करना बेहयाई बेशर्मी कैसे हो गई?

हमारे शरीर का कुछ हिस्सा प्राइवेट क्यों हो गया है? किसने बना दिया उसे प्राइवेट? क्यों बना दिया? किससे पूछ कर बना दिया? कुछ हिस्सा प्राइवेट है तो शेष क्या सार्वजनिक है। उस पर हमारा नहीं दुनिया का अधिकार है। और तुम्हारी जैसी औरतें इन बातों को और पक्का क्यों कर रही हैं? मुझे इन सारी बातों से घृणा होती है। 

इसलिए मैं अपनी तरह से बात करती हूँ। स्वछंद होकर साफ़-साफ़ कहती हूँ कि उनकी आँखें, मेरे स्तनों, पेट, स्त्रियांग को स्कैन करती हुईं लौट कर उनकी वीणा के तारों पर टिक गईं। वह चुप थे। मेरी बात पर एक शब्द नहीं बोल रहे थे।

उस समय उस हॉल में कुल बीस लड़के-लड़कियाँ थीं। वह ग़ुस्सा पीकर फिर प्रबंध पर आ गए। इससे मुझे ग़ुस्सा आया कि मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं दिया?

वह अपनी ही बात आगे बढ़ाते हुए बोले, ''संगीत में प्रबंध प्राचीनतम शब्द है। लेकिन आज प्रचलन से वैसे ही बाहर हो गया है जैसे राग, ताल, वाद्य संगीत की तमाम परिभाषाएँ। क्योंकि नई परिभाषाओं ने इन्हें टिकने नहीं दिया।''

यह कहते हुए उनकी निगाहें मेरी निगाहों से मिलीं और फिर से मेरे स्तनों को स्कैन करने लगीं। इस तरह जैसे वह मुझे यह बताना चाह रहे थे कि हे मूर्खा, तानपुरे के तंबूरे से बड़े स्तनों वाली विद्रोहिणी, यदि सदियों से कुछ नया नहीं हुआ है, तो नई परिभाषाएँ कहाँ से आईं।

नित्य प्रति दोनों समय ईश्वर की पूर्ण समर्पण के साथ पूजा करने वाली, हर एकादशी को सारे कामकाज स्थगित कर, माते जैसे कथा सुनने पर विशेष ध्यान लगाती हो। कथा सुनने पर तुम्हारी अगाध श्रद्धा की यह पराकाष्ठा ही है कि सुनने की समस्या के बाद भी कथा का आयोजन कराती हो, माते ऐसे ही ध्यान के साथ आगे जो लिखा है उसे पढ़ो।
माते गुरु जी के इस मूक कटाक्ष से मैं चुप नहीं हुई। डर या संकोच में डूबी उतराई नहीं। मेरा रक्त भगोने में गैस चूल्हे पर चढ़े दूध की तरह खौल रहा था। 

मैंने पूरे विश्वास, दृढ़ता से कहा, ''जिन्हें नई परिभाषाओं के नाम पर संगीताचार्यों ने प्रचलित, स्थापित किया है, उन्हें आप वैसी ही तीक्ष्ण निगाहों से पुनः देखें, जाँचें, विश्लेषण करें, जैसे मेरे स्तनों, पेट, स्त्रियांग का निरीक्षण कर रहे हैं, तो आपको तथा-कथित सारी नई परिभाषाएँ, प्राचीन परिभाषाओं की उतरन मात्र ही दिखेंगी।'' 

माते मेरा इतना कहना था कि वह विचित्र-वीणा के ढीले तार की कर्कश ध्वनि की तरह झंकृत हो उठे। उनका चेहरा आग के गोले सा हो गया। 

दाँत पीसते हुए बोले, ''तरंगिता! स्वयं को इतनी महान संगीताचार्य समझती हो, तो क्या आवश्यकता है यहाँ चार घंटे समय बर्बाद करने की। अपना स्कूल खोल कर अपने अद्यतन संगीत सिद्धांतों, परिभाषाओं, खोज से दुनिया को परिचित कराओ।''

माते मैंने बड़ा सा गोल टीका लगाए इन गुरुजी की आँखों में सीधे देखा, क्योंकि उनकी जैसी रुचि मेरे शरीर में थी, वैसी मेरी कोई रुचि उनके शरीर के किसी हिस्से में नहीं थी। मुझे घृणा है।

उस समय मेरी आँखों में उनके लिए ना क्रोध था, ना उनका उपहास करने की भावना। मैंने बिल्कुल सामान्य तरीक़े से कहा, ''आप क्रोधित न हों। मेरी बात क्रोधित होने का विषय नहीं है। मैं सच में संगीत के नए सिद्धांत प्रतिपादित करूँगी, तो निश्चित ही स्कूल खोल कर नहीं, किसी ऐसे नए तौर-तरीक़े से उसका प्रचार-प्रसार करूँगी जो, इस कोविड-१९ महामारी की तरह देखते-देखते दुनिया के कोने-कोने में आख़िरी व्यक्ति तक पहुँचा दे।”
 लेकिन अभी तक मैंने कोई नया सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किया है, भविष्य में ऐसा कुछ कर पाऊँगी इसकी भी गारंटी नहीं देती, लेकिन प्रयास ज़रूर होगा। हाँ मैं उतरन वाली बात पर अभी भी अडिग हूँ और स्पष्ट रूप से कहती हूँ कि आप अपने सामने रखी इस विचित्र-वीणा को ही देख लीजिए, यह भी तो प्राचीन होने के बावजूद आदि एक-तंत्री वीणा का ही परिवर्तित रूप है। 

मूल तो एक-तंत्री वीणा ही है। विचित्र-वीणा, रूद्र-वीणा, विश्व मोहन भट्ट की मोहन-वीणा, इन सब के बारे में एक भी ऐसा तथ्य बताइए जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि यह सब एक-तंत्री वीणा से एकदम भिन्न वाद्य यंत्र हैं। ये इतना मिलते हैं एक-तंत्री वीणा से कि इन्हें उतरन ना कहना सच से धृष्टता-पूर्वक मुँह मोड़ना है। सचाई यह है कि तारों से ध्वनित होने वाला दुनिया का हर वाद्य यंत्र एक-तंत्री वीणा का एक और संस्करण मात्र है। क्योंकि एक-तंत्री वीणा तारों पर आधारित आदि वाद्य यंत्र है। शेष इसके पश्चात ही आये हैं। 

माते मैंने सोचा था कि विचित्र-वीणा के प्रकांड पंडित, उसे अपने प्राणों सा चाहने वाले गुरु जी किसी अनाड़ी की भयानक थाप से फट पड़े तबले की तरह फट पड़ेंगे। 

चीख़ते हुए कहेंगे, तरंगिता तुम तुरंत ही मेरी आँखों के सामने से हट जाओ। अब इस स्कूल में फिर कभी मत आना। लेकिन इस बार मैं आश्चर्य में पड़ गई। वह बिल्कुल शांत रहे। लेकिन उनके चेहरे पर मैं ग़ुस्से के साथ-साथ ऐसा भाव भी देख रही थी कि सुन भी लिया जाए ये मूर्खा, ये विद्रोहिणी, क्या कहना चाहती है।

यह समझते ही मैंने कहा, ''वर्तमान क्या पिछली कई सदियों से शास्त्रीय संगीत में जो कुछ जोड़ा गया है, उसे मैं प्राचीन का उतरन ही कहूँगी। आप बार-बार प्रबंध की, गेयता की बात कर रहे हैं, लेकिन आप ही बताइए सारंग देव के पिचहत्तर, मतंग के उनचास, भरत मुनि ने नृत्य के बारे में ध्रुव और गीत दो प्रबंध प्रतिपादित किये हैं, इन सारे प्रबंधों के अलावा जो भी प्रबंध प्रतिपादित किए गए हैं, क्या इन पर मतंग, सारंग, भरत मुनि के प्रबंधों की गहरी छाप नहीं है? यदि है तो इन्हें उतरन क्यों ना कहा जाए?

“सारंगदेव ने प्रबंधों को सूड, आलिक्रम , विप्रकीर्ण के नाम से वर्गीकृत भी कर दिया था। मतंग ने सभी प्रबंधों को देशी बताया और हाँ सारंगदेव ने सरलीकृति करते हुए सूड को दो और भागों शुद्ध सूड, सालग सूड में बाँट दिया।''
 माते यह सब कहते हुए मैं सोच रही थी कि कंधों तक झूलते अपने काले केशों को झटक कर गुरुजी मुझसे तर्क करेंगे, बहस पर उतर आएँगे। पश्चिमपरस्त विद्वानों की हम भारतियों पर थोपी गई छद्म थ्योरी आर्गुमेंटेटिव इंडियंस को सही साबित करने लगेंगे कि भारतीय बहस करने वाले होते हैं। 

जानती हो माते, बहस वह लोग करते हैं जो दूसरों की नहीं सुनते, अपनी सही हो या ग़लत हर बात को किसी भी तरह से सही साबित करने का प्रयास करते हैं। अदालतों में वकील तर्क-कुतर्क, बहस ही करते हैं।

लेकिन गुरु जी ने छद्म थ्योरी को दरकिनार करते हुए सनातन परंपरा विचार-विमर्श को चरितार्थ किया। वह बहस पर नहीं उतरे। अपने पैरों पर रखी विचित्र-वीणा को सम्मान के साथ बाईं तरफ़ रखकर, दोनों हाथों से उसे छूकर माथे पर लगाया। फिर दाहिने तरफ रखी एक गाव तकिया उठाकर पैरों पर रख ली। 

उसी पर अपना हाथ रखा और हल्का आगे झुक कर बोले, ''प्राचीन, आधुनिक गायन शैली, मौलिक या उतरन पर तुम्हारा विश्लेषण सुनने के बाद ही आगे कुछ कहूँगा।''

इतना कहकर उन्होंने एक दृष्टि वहाँ पर बैठे अन्य लोगों पर डाली और कहा, ''आप लोग भी सुनिए और मन में कोई बात आए तो कहिए।''

माते यह कहने के साथ ही उनकी नज़रें फिर से मेरे स्तनों पर ही आकर ठहर गईं। ऐसे जैसे मेरे स्तन न हो कर उनकी आँखों की विश्राम स्थली हैं। जब मन हुआ तब आकर उन पर आराम करने लगीं। 

उनकी आँखों की आवारगी, लम्पटता को पहले मैंने रोकने की सोची, कि उनसे कहूँ कि यह मेरे स्तन हैं, आपकी विश्राम स्थली या पिकनिक स्पॉट नहीं। लेकिन फिर सोचा कि उनकी आँखों की शर्म ख़त्म हो गई है और अभी ऐसा समय, ऐसी स्थिति नहीं है कि इनकी आँखों को शर्म-शील बना सकूँ। तो यह जो कर रहे हैं, वह करें।

मैं अपनी बात कहती हूँ। मन में आया कि दुपट्टा ही निकाल कर अलग रख दूँ, जैसे इन्होंने अपनी वीणा अलग रख दी है। देख लें इन्हें जितना देखना है। जब इनकी सारी उत्सुकता ख़त्म हो जाएगी तो अपने आप ही नज़र इधर नहीं करेंगे। लेकिन फिर यह सोच कर रुक गई कि केवल दुपट्टा हटाने से इनकी उत्सुकता और प्रबल हो उठेगी। क्योंकि यह तो अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इनकी उत्सुकता है या कामुकता। 

माते अब तुम कहोगी कि मैं बेशर्मी की सारी सीमाएँ लाँघ गई हूँ। लेकिन तुम यह क्यों नहीं सोचती कि ऐसी हर आँखों के सामने हम सारी औरतें अनावृत ही रहती हैं। हमारे कपड़े ऐसी आँखों के सामने ट्रांसपेरेंट ही होते हैं। और तुम हो कि मुझे तरह-तरह की बातें कहकर चाहती हो कि मैं तुम्हारी बात मान लूँ।

लेकिन माते मेरी घृणा उस स्तर पर पहुँच चुकी है कि तुम लाख नहीं करोड़ों, अरबों बार समझाओ मैं मानने वाली नहीं। तुम मेरी बात से सहमत हो जाओ इसलिए आगे क्या हुआ वह बताती हूँ।

जानती हूँ कि यह सब पढ़कर तुम और क्रोधित होगी। अपना मस्तक पीटती हुई कहोगी कि मैं इस लड़की से क्या करने को कह रही हूँ, और यह मुझे शास्त्रीय संगीत का इतिहास समझा रही है। लेकिन ऐसा मैं इसलिए कर रही हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि मैं इसी विधि से तुम्हें अपनी बातें समझा पाऊँगी।

तो मैंने अपने भीमकाय, पिचके पेट वाले गुरु जी से कहा, ''मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि मध्य काल से लेकर आज तक के सारे संगीताचार्य लीक पर चलते रहने वाले लोग हैं। ये नया करने के लिए साहस, जोश, उत्साह से शून्य आलसी लोग हैं। यही कारण है कि सभी पिछला ही दोहराते चले आ रहे हैं। बात चाहे वाद्य यंत्रों की हो या गायन की। उदाहरणार्थ हम गायन को ही ले लेते हैं।

“आज की जो गायन शैलियाँ हैं क्या वह आदि कालीन स्वर, विरुद, पद, तेनक, पाट, ताल, मेदनी जाति, आनन्दिनी जाति, दीपिनी जाति, भाविनी जाति, तारावली जाति, उदग्राह, ध्रुव, मेलापक, अभोग, राग कदंब, मातृका प्रबंध, पंचतालेश्वर प्रबंध, कैवाड़ प्रबंध, द्विपदी प्रबंध, द्विपथक प्रबंध, निर्युक्त प्रबंध, अनिर्युक्त प्रबंध, रूपक और वस्तु आदि के प्रभाव से बिल्कुल मुक्त हैं?

“मैं पूरे विश्वास से कहती हूँ कि बड़े से बड़ा संगीत मर्मज्ञ भी स्पष्ट शब्दों में कुछ नहीं कहेगा।

“आलाप में ही देख लीजिये। रूपकालाप को प्राचीन आलाप का एक और प्रकार के सिवा कुछ और नहीं कह सकते। मैंने तो अपनी रिसर्च में यही पाया है। आप यदि प्राचीन आलाप से रूपकालाप को एकदम पृथक, नवीन मानते हैं, तो बताइए उसमें ऐसे कौन से गुण हैं जिनके आधार पर रूपकालाप को बिल्कुल नवीन कहा जा सके।” 

माते मुझसे, तुमसे भी ज़्यादा गोरे-चिट्टे स्निग्ध त्वचा वाले गुरुजी सुनते ही रहे। उनकी आँखें मेरे शरीर के उसी हिस्से पर ठहरी हुई थीं, जिन्हें तुम और दुनिया प्राइवेट कहती है। सोचो इस बारे में। 

ख़ैर मैंने अपनी बातों को सूक्ष्म और अकाट्य बनाने के लिए संगीत के प्रस्थान बिंदु, दुनिया के आदि ग्रंथ वेदों को सादर स्पर्श किया। मैंने कहा, ''चारो वेदों की ऋचाएँ गेय हैं। क्योंकि वह छंदबद्ध हैं। यजुर्वेद को कुछ हद तक अपवाद मान लें। गुरुदेव आप ही ना जाने कितनी बार यह कह चुके हैं कि संगीत का मुख्य उद्गम सामवेद है। इसमें स्पष्ट वर्णन है कि सभी स्वर उदात्त, अनुदात्त, स्वरित इन्हीं तीन समूहों में समाहित हैं। ऋग्वेद की ऋचाएँ स्वरावलियों में निबद्ध हैं। इसी लिए स्त्रोत हैं। 

“आप ही बताइए जब इन वेदों में स्वर, पद, ताल, मार्ग आदि जो कुछ है, उन्हीं सब पर आधारित है आधुनिक संगीत भी, तो किसे नया कहूँ, क्यों कहूँ, उतरन क्यों ना कहूँ? आप ही बताइए सारंगदेव के रागों और उन्होंने जो कुछ वर्गीकरण किया ग्रामराग, उपराग, राग, भाषा, विभाषा, अंतरभाषा, भाषांग, रागांग, क्रियांग और उपांग, आधुनिक संगीत की दुनिया क्या इस प्राचीन व्यवस्था, संगीत सिद्धांत विधान से अछूती है। यदि नहीं तो उतरन कहने पर आपको आपत्ति क्यों है?

“मैं साथ में यह भी कहूँगी कि जैसे आपको उतरन कहने पर आपत्ति है, वैसे ही मुझे आपकी इस क्रिया पर पर घनघोर आपत्ति है, क्रोध है कि इन सारी बातों के होते रहने के दौरान आप लगातार मेरे शरीर के उन हिस्सों को ही क्यों स्कैन करते आ रहे हैं, जिन्हें आप सहित दुनिया प्राइवेट पार्ट कहती है। प्राइवेट कहते हुए भी उस पर निंदनीय ढंग से अतिक्रमण का निर्लज्जतापूर्ण कुकृत्य क्यों कर रहे हैं?''

माते मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह द्रुत गति से उठकर अंदर कमरे में चले गए। वहाँ बैठे सारे लोग अचरज से मुझे देखने लगे। कईयों के मुँह आश्चर्य से खुले रह गए। आँखें फैली हुई थीं कि मैंने यह कैसा अनर्थ कर दिया। 

मुझे ऐसे डरे सहमें लोगों के बीच अचानक भयानक रूप से घुटन महसूस होने लगी तो उठ खड़ी हुई। अपना सेक्सोफोन, शहनाई उठाई और चौकी पर रखी विचित्र-वीणा को आख़िरी बार देख कर बाहर की ओर चल दी।

लेकिन तभी उनकी एक प्रिय शिष्या बोली, ''तरंगिता तुम्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। वह गुरु हैं, तुम्हारा करियर चौपट हो जाएगा।''

माते मेरी आवाज़, उसमें कौंधता मेरा क्रोध, प्रतिरोध अंदर उनके कानों में पिघले शीशे की तरह पड़े, इसलिए मैंने बहुत तेज़ स्वर में उस डरी-सहमी शिष्या से कहा, “तुम्हें या किसी को भी मेरे करियर की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरा करियर उनके या किसी अन्य के हाथ में नहीं, स्वयं मेरे हाथ में है। जैसा चाहूँगी वैसा बना लूँगी। 

“प्रतिभा अपने लक्ष्य का रास्ता स्वयं बना लेती है। तुम्हारे लक्ष्य का रास्ता तुम्हें कोई और बना कर नहीं दे सकता, उसे स्वयं ही बनाना पड़ता है। इसलिए तुम लोग इस भ्रम, भय से बाहर निकलो कि कोई तुम्हारे करियर को बना, बिगाड़ सकता है।

“मैं अचंभित हूँ इस बात से कि वह हम सबके सामने, हमारी पूर्ण चैतन्य अवस्था में हमारे साथ दृष्ट संभोग कर रहे हैं, और तुम सब जानते-समझते हुए भी इसलिए प्रतिरोध नहीं कर रही कि वो करियर चौपट कर देंगे। धिक्कार है! मैं दुनिया के ऐसे सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ करियर पर भी, थूकना भी अपनी थूक का अपमान समझती हूँ, जो अपना स्वाभिमान, अपनी काया बेचकर मिले।
“फिर इनके जैसे कामासक्त क्या किसी के करियर को बनाएँगे, सजाएँगे, सँवारेंगे जिनके पास ना कोई विज़न है, ना बताने सिखाने के लिए कुछ नया। लकीर पीटने वालों से कभी कुछ नहीं सीखा जा सकता। यह सब जानते हुए भी यदि आप सभी आँखें बंद रखना चाहते हैं तो रखें, मैं नहीं रख सकती।''

माते यह कहकर मैं चल दी। मैंने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि उनमें से कोई मेरी बात से सहमत होकर मेरे पीछे उठ कर चला या नहीं।

माते मैं यह बातें बता कर यह समझाना चाह रही हूँ कि जैसे संगीत वेद काल के बाद से ही पूर्णतः मौलिक नई खोज के अभाव में एकरसता का शिकार है, वैसे ही हमारा जीवन भी। और मुझे एकरसता में कोई रुचि नहीं है। खिंची हुई लकीर को नापने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं है।

इस स्थिति के लिए मैं बिना किसी संकोच के कहती हूँ कि वही लोग ज़िम्मेदार हैं, जिनके लिए तुम कहती हो कि उनके बिना कोई स्त्री पूर्णत्व प्राप्त ही नहीं कर सकती। जबकि सच इसका ठीक उल्टा है। वे अपने जीवन को रसासिक्त हमसे बनाते हैं। उनकी संतति हमसे चलती है। 

वे अपना जीवन बिना हमारे जी ही नहीं पाते, फिर भी हमें अपना पोस्टर ऑब्जेक्ट ही बनाए रखते हैं। सदियों से हमें यही ताना मिलता आ रहा है कि पुरुष ही सक्षम है। आदि से अब-तक वही सब कुछ करता आया है।

स्त्री का अस्तित्व, उसकी रक्षा भी पुरुष के हाथों ही सुनिश्चित होती है। उनके यह विचार स्त्रियों के विरुद्ध उनकी नाकेबंदी का प्रतीक है। और मैं इस नाकेबंदी के समक्ष एक पल को भी अपनी पलकें भी नहीं झपकाना चाहती।

यहाँ तक आ पहुँची दुनिया के वर्तमान स्वरूप में मेरा दम घुटता है। मैं इस प्रकृति के सृजन, उसकी रचना को जानने समझने में ताज़गी नवीनता देखती और महसूस करती हूँ। मैं अनवरत रचना-शीलता में जीवन आनंद अनुभव करती हूँ।

माते यह कैसी विडंबना है कि प्रकृति अपनी रचना के बारे में सब कुछ एकदम स्पष्ट जानती है, तुम मेरी अम्मा हो, मेरी सृजनकर्ता हो लेकिन आश्चर्य कि अपनी रचना के ही बारे में स्पष्ट समझ नहीं रखती। फ़र्स्ट लॉक-डाऊन में 'महाभारत' सीरियल देखने के बाद तुम्हें माते और पापा को पिताश्री कहना मुझे सुखकर लगता है। लेकिन तुम इसे भी ग़लत कह रही हो, अम्मा-पापा ही कहने का दबाव डालती हो। कैसी माँ हो माते? 

मेल में तुमने क़रीब-क़रीब स्पष्ट रूप से यह संदेह व्यक्त किया है कि मैं और प्रोफ़ेसर अदीबा कई वर्षों से साथ रह रहे हैं, और हम-दोनों समलैंगिक रिश्तों में हैं, इसीलिए मैं तुम्हारी बात नहीं मान रही।

माते तुम अपने दिमाग़ को, जैसे अपना लैपटॉप बार-बार फ़ॉर्मेट करती रहती हो ना, उसी तरह फ़ॉर्मेट कर दो। जैसे उसकी सी ड्राइव का सारा डाटा डिलीट हो जाता है, वैसे ही अपने दिमाग़ की ऐसी सारी नकारात्मक बातें डिलीट कर दो।

मेरा पूरा विश्वास है कि तुम्हारे दिमाग़ में यह नकारात्मक बातें हम-दोनों की उन फोटुओं को देख कर आई होगी, जो मैं तुम्हें मेल करती रहती हूँ। जिसमें हम-दोनों एक दूसरे को पकड़े, हँसते खिलखिलाते दीखते हैं।
मैं यह सारी तस्वीरें इसलिए भेजती रहती हूँ, जिससे कि तुम देख समझ सको कि तुम्हारी आशंका, चिंता, निराधार, ग़लत है कि मैंने अब-तक तुम्हारी बात नहीं मानी, अकेली हूँ, इसलिए दुखी परेशान भी हूँ। अकेलापन मुझे चिड़चिड़ा, ज़िद्दी बना रहा है। तुमने मेरा ही तरीक़ा अपनाते हुए मुझे समाचार पत्रों में प्रकाशित एक शोध-पत्र का विवरण भेजा कि एकांकी जीवन व्यतीत करने वालों की मृत्यु जल्दी होती है। 
 नहीं-नहीं माते ऐसा कदापि नहीं है। जब प्रोफ़ेसर अदीबा मेरे साथ नहीं थीं, अकेलापन जैसी समस्या मेरे साथ तब भी नहीं थी. जिसे तुम अकेलापन समझती हो उसे मैं जीवन आनंद उठाने का स्वर्णिम पल समझती हूँ।

जहाँ तक प्रोफ़ेसर अदीबा का प्रश्न है तो हम-दोनों एक साथ इसलिए हैं, क्योंकि हमारे बीच उत्कृष्ट स्तर का सामंजस्य है। क्योंकि हम-दोनों के विचार एक दूसरे के अत्यंत निकट हैं। हम-दोनों ही अलग-अलग कॉलेज में दर्शन-शास्त्र पढ़ाते हैं। हमारी तरह ही वो भी शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि रखती हैं।

उनका थोड़ा झुकाव मोज़ार्ट, बीथोविन की तरफ़ भी है। लेकिन मैं भारतीय शास्त्रीय संगीत को उसके मूल तक जानने-समझने के लिए विधिवत्‌ शिक्षा ग्रहण कर रही हूँ। इसके बाद पाश्चात्य और अरबी संगीत को भी उसकी पूरी गहराई में जाकर समझूँगी। बाख, शूबर्ट , मोज़ार्ट , बीथोविन जैसे संगीतकारों को अभी ऊपरी तौर पर ही जान समझ रही हूँ।

मैं समग्र रूप से समझने के बाद संगीत में कुछ ऐसा सृजित करना चाहती हूँ, जो वेद-कालीन संगीत के बाद पूर्णतः नवीनतम सृजन हो। उस सृजन पर दुनिया वैसे ही मंत्र-मुग्ध हो, उस में खो जाए, जैसे प्रकृति की रचनात्मकता पर मोहित हो मैं उसी में खो जाती हूँ।

मैं महिलाओं को प्रकृति की अद्भुत अनुपम कृति मानती हूँ, इसीलिए मैं उसे बहुत सँभाल कर, सँजो कर रखना चाहती हूँ। प्रकृति की इस अद्भुत कृति के सौंदर्य से सम्मोहित होकर, हम-दोनों एक दूसरे को निर्निमेष घंटों निहारते हैं।

कभी बंद कमरे में मानव निर्मित उजाले में, तो कभी छत पर प्रकृति के तेज़ उजाले में, तो कभी चंद्रदेव के शीतल प्रकाश में। हम-दोनों प्रकृति वस्त्रों में ही एक दूसरे को स्पर्श करते हैं।

अंग-प्रत्यंग को निहार, स्पर्श कर जानने-समझने का प्रयत्न करते हैं कि आख़िर प्रकृति ने किस प्रयोजन से इन अंगों की रचना की है। इस रचना के पीछे उसका प्रयोजन क्या है? इस सम्बन्ध में अब-तक हमें जो बताया, पढ़ाया गया, वही उद्देश्य है या कि कुछ और। 

अब यदि हमारे इस उपक्रम को तुम समलिंगी कामुकता, मानसिक विकृति कहती हो, तो यही कहूँगी कि यह दुर्भाग्य है हम-दोनों का, कि माँ होकर तुम अपनी बेटी को नहीं समझा पा रही हो। और मैं पुत्री होकर, दर्शन-शास्त्र की प्रोफ़ेसर होकर भी तुम्हें अपनी बात नहीं समझा पा रही हूँ।

अगली बार मैं तुम्हें ऐसे कई वीडियो भेजूँगी जिनमें प्रकृति की अद्भुत कृति को जानने-समझने के लिए मैं और अदीबा एक दूसरे में खो जाते हैं। यह पहले से समझाने का प्रयत्न कर रही हूँ कि उनमें हम-दोनों को प्रकृति वस्त्रों में देखकर बेशर्म निर्लज्ज नहीं कहना।

तुमसे यह प्रार्थना मैं ज़रूर कर रही हूँ लेकिन जानती हूँ कि तुम हम-दोनों के लिए यही शब्द प्रयोग करोगी, बल्कि कुछ और भी कठिन और भी वीभत्स, निकृष्ट शब्द प्रयोग करोगी। जितना भी तुम्हारी क्षमता में होगा वह सब। लेकिन मैं इसके बाद भी अपने रास्ते से विचलित नहीं होऊँगी, क्योंकि मैं वास्तविक जीवन आनंद की अनुभूति पाने के रास्ते पर आगे बढ़ते रहना चाहती हूँ।

मुझे वास्तविक जीवन आनंद उस समय मिलेगा जिस समय मेरी अंतरात्मा यह जान लेगी कि मैं कौन हूँ? ''नेति-नेति से सब त्यागने के बाद जो चैतन्य बचता है वह मैं हूँ.।' 1902 में महर्षि रमण द्वारा विरुपाक्ष गुफा में शिव प्रकाशम पिल्लई के प्रश्न कि ''मैं कौन हूँ?'' के इस उत्तर से मैं सहमत नहीं हूँ। 

क्योंकि मुझे यह उत्तर तर्क-शास्त्र का श्रेष्ठ उदाहरण, शब्दों का सुंदरतम संजाल लगता है। माते मैं कौन हूँ? इसका वास्तविक उत्तर कोई व्यक्ति कितना ही महान दार्शनिक, ऋषि, महात्मा क्यों ना हो, वह नहीं दे सकता। इसका उत्तर हमारा सृजनकर्ता ही हमें दे सकता है। 

मैं अपनी तरह से उसी सृजनकर्ता के समीप पहुँचने के प्रयास में जुटी हुई हूँ। मेरी इस यात्रा में अदीबा मेरी सहयात्री हैं। बरसों से मेरी बहुत सी बातें जानने समझने के बाद वह स्वतःस्फूर्ति इस यात्रा में सम्मिलित हो गई हैं।

माते मैं समझती हूँ कि यह सब जानने समझने के बाद, अब तुम मुझसे वह करने के लिए समझाने-बुझाने, सख़्ती करने का प्रयास नहीं करोगी, जिसके लिए मैं बरसों से इतना मना करती आ रही हूँ, बार-बार कह रही हूँ नहीं..नहीं ..नहीं, मेरे लिए असंभव है। 

अतः अपना, पिताश्री के स्वास्थ्य का ध्यान रखो, जीवन को आनंदमय बनाने का प्रयास करो। अपनी तरह से जीवन जीते हुए मैं पूर्ण आनंद में हूँ। यह सूचना भी तुम्हारे लिए जीवन आनंद का एक कारण हो सकती है, मैं ऐसा विश्वास करती हूँ। मेरी बातों से तुमको जो कष्ट हो रहा है, उसके लिए क्षमा माँगते हुए चरण-स्पर्श करती हूँ। 
 

6 टिप्पणियाँ

  • 23 Mar, 2023 12:45 AM

    संगीत की विस्तृत जानकारी देती कहानी स्त्री के स्वतंत्र रहने की इच्छा को उद्घाटित करती है। स्वाधीनता में विश्वास रखने वाली कोई भी स्त्री यह सोच सकती है। महिला को यदि वास्तव में किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करनी है तो उसे पुरुष के मोह से दूर ही रहना चाहिए। समाज के युगों से चले आ रहे मान्य व्यवस्था में, यह बात बहुजन को अस्वीकार्य होगी, परन्तु मैं स्वयं इस सोच, इस विचारधारा का समर्थन करती हूँ। नायिका का सीमा से अधिक 'बोल्ड' होना लोगों को निर्लज्जता लग सकता है, परन्तु यदि पुरुष की लिप्सा से सुरक्षित रहना है तो, ऐसा व्यवहार करना ही पड़ेगा। आपने पुरुष हो कर स्त्री मन के अनछुए पहलुओं को शब्द दिये, यह आपकी सम्वेदनशीलता को बताता है। हिन्दी साहित्य के लिए ऐसा लेखन क्रांतिकारी और स्वागत योग्य है।

  • 30 Aug, 2021 09:30 AM

    Aklapnee ,adbhut, ek yatharth katu satya. Ap ka abhinandan barmbaar..

  • 12 Aug, 2021 01:51 PM

    कुछ अलग हट कर..अद्भुत प्रशंसनीय

  • 12 Aug, 2021 12:46 PM

    अद्भुत! कभी न भूलने वाली कथा

  • 11 Aug, 2021 01:35 PM

    अद्भुत, साधुवाद

  • गहन-गंभीर अभिव्यक्ति

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