प्रेमहंता 

01-11-2019

प्रेमहंता 

जावेद आलम खान 

मैं आज भी तुमको दोषी मानता हूँ
ठीक वैसे ही जैसे तुम मुझे समझती हो
वंचक ....परपीड़क ....प्रेमहन्ता


रिसीवर पर परवान चढ़ता प्रेम
किशोर उम्र के साथ बढ़ता गया
बढ़ते गए हमारे हौंसले
बढ़ती रही हमारी जीने की ललक
और साथ ही साथ बात बढ़ती गयी
बात बढ़ती गयी ढलती रात के साथ


सुहानी सुबह दहकती दोपहर ख़ुशनुमा शाम
यूँ आती थी और चली जाती थी
मगर बातें थीं कि चलती रहतीं थीं अनवरत 
बेसिरपैर की बेतरतीब बेजा बातें
सरगम के सात सुरों का रस घोलती थीं

रेंगती ज़िन्दगी को तुमने दौड़ना सिखाया
मुझे याद है जब पराजित मन 
हताश होकर बैठने लगता था
मुरझाये फूलों की तरह झरने लगता था विश्वास
तब कानों में दिव्य मन्त्र सा फूँकते हुए
तुम्हारा ’यू कैन डू इट’ कहना
मन की क्यारियों को हरा कर जाता था


दोस्ती के शकुन का पहला पीत पुष्प 
स्नेहसिक्त होकर सुर्ख होता गया
और फिर सूख गया मुरझाकर 
हम अलग हो गए अपने अपने रास्तों के साथ
शायद अलग होना ही हमारी नियति थी


तुम नहीं हो तुम कहीं नहीं हो
नहीं ही हो कहीं नहीं हो
पर वह कौन है मेरे साथ
जो काली परछाहीं बनकर बेचैन रखता है मुझे
वह आवाज़ किसकी है
जो रात की तन्हाइयों में सोने नहीं देती
कभी मुँह चिढ़ाते कभी ढाढ़स बँधाते
कभी उम्मीद जगाते कभी प्रेरणा बनते
जीवन की दिशा बदलने वाले तुम्हारे शब्द
मेरी गाँठ में बँधे हैं आजतक
वेलेंटाइन का उपहार समझकर
मैंने सँभालकर रखे हैं वह तीन शब्द -
’आई लव सर्विसमैन’

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