प्रेमचंद की कहानियों में संवेदना तत्त्व

01-05-2020

प्रेमचंद की कहानियों में संवेदना तत्त्व

डॉ. भवानी दास

प्रेमचंद हिंदी के महान् साहित्यकार हैं। उनसे पूर्व हिंदी साहित्य में यथार्थ चित्रण की सबल परंपरा नहीं थी। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में यथार्थवादी परम्परा के चित्रण का सूत्रपात किया। वे अपने युग के सर्वाधिकार जागरूक साहित्यकार थे। इसीलिए उनकी रचनाओं में तत्कालीन समाज का चित्रण अत्यंत सूक्ष्मता से हुआ है जिसका आधार तथ्यात्मक है। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज के दलित शोषित वर्ग के किसान, मज़दूरों और अछूतों का दुख-दर्द अधिक उभरा है जो उनके संवेदनशील हृदय का ही परिचायक है।

प्रेम के बाद संवेदना ही मानव के अंतरतम की सर्वाधिक पवित्र भावना है। हमदर्दी द्वारा कहे शब्द भले ही किसी व्यक्ति के कष्ट का निवारण न करें पर उसके मन को राहत अवश्य देते हैं। कष्ट में व्यक्ति जब किसी दूसरे व्यक्ति को देखता है तो उसका मन और अधिक भाव-विह्वल, नयन और अधिक अश्रुमंडित तथा मुखाकृति और अधिक करुणाविमलित हो उठती है। निश्चय ही संवेदना हमें आत्मीयता के घनिष्ठ बंधन में बाँधती है। 

‘संवेदना’ शब्द साहित्य और मनोविज्ञान, दोनों विषयों में ही अंगीकृत किया है। मनोविज्ञान में संवेदना का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द ‘sensation’ है और वहाँ इसका अर्थ ज्ञानेंद्रियों का अनुभव है। साहित्य में संवेदना शब्द का प्रयोग व्यापक रूप से किया गया है। मानवीय संवेदना की बात जब हम करते हैं तो उसका आशय मात्र ज्ञानेंद्रियों का केवल मात्र अनुभव न रहकर मानव-मन की अथाह गहराइयों में छिपी करुणा, दया एवं सहानुभूति की उदात्त वृत्तियों तक हो जाता है। ‘संवेदना’ शब्द अपने व्यापक अर्थ में ‘अनुभूति’ का भी व्यंजक है। डॉ. सिन्हा का कथन—"संवेदना से अभिप्राय है वह अनुभूति-प्रवणता, जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रभावों को ग्रहण करने की क्षमता से पूरित होती है। इसका अर्थ यह भी होता है कि कोई साहित्य किन भावनाओं की प्रतीति हमें करा सकने में समर्थ होता है। भावनाओं के ये स्तर विविध होते हैं। वह आधुनिक बोध भी हो सकता है या मानव-अस्तित्व की बुनियादी विशेषताएँ भी। वह व्यक्ति-स्वातंत्र्य की भावना भी हो सकता है या यथार्थ के नए तत्त्वों की अन्विति भी। संवेदना का धरातल चाहे जो हो, अभिव्यक्ति उसे साहित्य के माध्यम से ही मिलती है। नई अनुभूति, नई भाषिक अर्थवत्ता, अनुभवों का नया संजोयन तथा मानव-संबंधों के परिवर्तन की सूक्ष्म परख आदि से ही साहित्य की संवेदना व्यंजित होती है।"1

कथा-सम्राट प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में संवेदना के विविध रूपों को दर्शाया है—सामाजिक यथार्थ अमीर–ग़रीब, बच्चा–बूढ़ा, शिक्षित–अशिक्षित, किसान–साहूकार आदि संपूर्ण समाज उनकी कहानियों में प्रतिबिंबित हो उठा है और मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित-भाव में संलग्न है। शुरुआत में आदर्शोन्मुखी यथार्थ के— अंत तक पहुँचते-पहुँचते प्रेमचंद समाज के बदलते रूप को देखकर आदर्श के महोपाश से मुक्त होकर यथार्थ की सरज़मीन पर आकर खड़े हो गए हैं। उनकी यथार्थवाद को व्यक्त करने वाली कहानियाँ हैं—‘बड़े घर की बेटी’, ‘नमक का दरोगा’, ‘ईदगाह’, ‘ठाकुर का कुँआ’, ‘नशा’, ‘कफन’ और बूढ़ी काकी, ‘पूस की रात’ जो संवेदनाशीलता को बड़े सही मायने में व्यक्त करती हैं।

प्रेमचंद की कहानियों का आयाम बड़ा व्यापक है, उन्होंने भारतीय मूल्यों एवं जीवन और उसमें उत्पन्न निम्न मध्यम वर्ग की समस्याओं को बड़ी सरलता और मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद की अधिकांश कहानियों में संवेदना को उजागर करने के लिए आर्थिक विषमता का वर्णन किया गया है। उन्होंने सामाजिक संरचना की अव्यवस्था को आर्थिक विषमता का मूल कारण माना है। अभाव व्यक्ति के जीवन की सबसे बड़ी विवशता है। ‘कफन’ कहानी में माधव की पत्नी बुधिया प्रसव-वेदना से पीड़ित एवं छटपटाती है पर माधव उसकी देखभाल करने की बजाय अपशब्द कह उसकी भावना को चोट पहुँचाता है और कहता है—"मरना ही है तो जल्दी मर नहीं जाती? उसके तड़पने-चीखने से उसका मर जाना ही अच्छा है।" माधव सोचता था कि कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? घर में सोंठ, गुड़, तेल कुछ भी तो नहीं है। माधव और उसके पिता घीसू सारे गाँव में बदनाम थे। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना कामचोर था कि आधे घंटे काम करता तो घंटे भर चिल्म पीता। इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की क़सम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाज़ार में बेच लाता। जब तक पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। विचित्र जीवन था इनका। घर में मिट्टी के दो चार बर्तन के सिवा कोई संपत्ति नहीं थी। फटे-चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाके हुए जिये जाते थे।"2 प्रेमचंद ने यहाँ पर आर्थिक विवशता को संवेदना का कारण माना है। काम करके भी उतना मेहनताना नहीं मिलता था तो बिना काम के भूखों मरना अच्छा समझा गया था। इसी प्रकार ‘पूस की रात’ में आर्थिक व्यवस्था के कारण नायक हल्कू परेशान और पीड़ित रहता है उस पर नीलगायें उसका खेत भी बर्बाद कर देती हैं जिससे सारी फ़सल का सत्यनाश हो जाता है और उसकी गृहस्थी का भी अंत हेा जाता है। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े काँपने लगता है तो पंत्तियाँ जलाकर गर्म राख के पास बैठे हुए गीत गाने लगता है कि अचानक कुछ कूदने-दौड़ने की आवाज़ें सुनाई देती हैं तो उसे यह प्रतीत होता है कि खेत में नीलगाय आकर खेत को चर रही हैं। लेकिन वह फिर यह सोचता है कि—"जबरा के होते हुए कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। फिर उसे आलस्य ने दबा रखा था तो अकर्मण्यता ने भी रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ़ से जकड़ रखा था एवं वह रात भर भी सोता रहा। फलतः सारे खेत का सत्यनाश हो गया।"3

कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ में निम्न वर्ग की नायिका गंगी की संवेदना को दर्शाया गया है। कहानी में एक हरिजन स्त्री यह समझ ही नहीं पाती कि कुएँ से पानी लेने के लिए उसे मना क्यों किया जाता है। गंगी के मन में अनेक सवाल उठते हैं और वह मन ही मन सोचती है कि हम नीच क्यों है और ये लोग ऊँचे क्यों हैं। एक ही माँ के बच्चों को भाई-भाई समझा जाता है पर परिचारिका के बच्चे के साथ दुर्व्यव्यवहार क्यों किया जाता है। निम्न तथा अछूत जाति का मंदिर में प्रवेश अथवा उच्च जाति द्वारा निर्मित कुँआ पर निम्न जाति के लोगों का पैर रखना निषेध था। ऐसा क्यों यह इस बात को दर्शाती है कि कहानी में जोखू जाति-भेद के कारण प्यास से तड़पता हुआ अपनी जाति के कुँए का ही बदबूदार पानी पीने को बाध्य हो जाता है। उसकी पत्नी या किसी अन्य जाति को ये हक़ नहीं कि वे ठाकुर के कुएँ पर पैर रख सके। निम्न जाति के कुएँ में कोई जानवर गिर जाने से कुएँ का सारा पानी सड़ जाता है तथा उसमें बदबू आने लगी। बदूब के कारण पानी पीया नहीं जाता था, गला सूखा जा रहा था। नज़दीक ही ठाकुर का कुआँ था_ किंतु ठाकुर के कुएँ पर जोखू तथा उसकी पत्नी जैसे निम्न लोगों का चढ़ना मना था। जोखू अपनी पत्नी से कहता है कि—"हाथ-पाँव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा, बैठ चुपके से। ब्राह्मण-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, पाहूजी एक के पाँव लेंगे। ग़रीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे।"4 यहाँ पर लेखक ने निम्न जाति में हो रहे अनाचार, अत्याचार और शोषण की मार्मिक संवेदना को व्यक्त किया है।

प्रेमचंद की कहानियों में संवेदनशीलता पहले-पहल आदर्शोंमुख यथार्थवादी रही, पर बाद में व्यक्तित्व के विकास तथा चिंतन के कारण उसकी कहानियों में संवेदना पूरी तरह यथार्थवादी हो गई। प्रेमचंद ने अपनी कई कहानियों में मनुष्य जीवन के यथार्थ रूप को प्रस्तुत कर संवेदना का भाव जागृत किया है साथ ही पात्रों के माध्यम से कहानियों में हृदय-परिवर्तन की भावना को भी व्यक्त किया है। द्वेष की भावना होते हुए भी संवेदनाशीलता का रूप प्रकट किया है। कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ में नायिका आनंदी एक उच्च कुल की लड़की थी। आनंदी का विवाह श्रीकंठ से हो जाता है पर जिस रहन-सहन की उसको आदत थी, ससुराल में उसे लेश-मात्र भी वह सब नहीं मिलता। आनंदी थोड़े ही दिनों में अपने आपको वातावरण के अनुसार ढाल लेती है। परिवार में कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं पर आनंदी अपनी बुद्धिमत्ता से उनका समाधान निकाल लेती है। एक दिन मांस पकाने के सिलसिले में देवर लाल-बिहारी सिंह से आनंदी का मन-मुटाव हो जाता है। पति श्रीकंठ आनंदी का साथ देते हुए घर से निकलने की बात पिता से कहते हैं तो पिताजी आग-बबूला हो जाते हैं। लालबिहारी अपनी भूल को स्वीकार कर क्षमा याचना करता है तो आनंदी का हृदय परिवर्तन हो जाता है तभी पिता बेनी माधव सिंह आनंदी की उदारता को सराहते हुए कहते हैं—"बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती है।"5 इसी प्रकार ‘नमक का दरोगा’ कहानी में वंशीधर नमक विभाग में दरोगा के पद पर प्रतिष्ठित हुए पाये जाते हैं। उन्होंने अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा और उच्च विचारों से सभी अफ़सरों को मोहित कर लेते हैं। वंशीधर अपनी ईमानदारी की नयी मिसाल लेकर उमंग से कार्य करते हुए देखे जाते हैं। वे उन लोगों के साथ नहीं होते हैं जो अपनी ईमानदारी कुछ रुपयों में बेचते-फिरते हैं। वंशीधर पंडित अलोपीदीन की नमक से भरी गाड़ियों को अपने कब्ज़े में ले लेते हैं। उनके निर्दशानुसार बदलू सिंह उन्हें हिरासत में ले लेते हैं। अलोपीदीन वंशीधर को चालीस हज़ार घूस देने को भी तैयार हो जाते हैं, पर वंशीधर स्वीकार नहीं करते हैं पर वहाँ कुछ अधिकारी वर्ग पंडित अलोपीदीन के कहेनुसार कार्य करने वाले भक्त प्रेमी भी थे। वंशीधर अलोपीदीन को अदालत ले जाता है तो वहाँ वंशीधर की एक नहीं सुनी जाती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। पर अलोपीदीन पर वंशीधर की उदारता और ईमानदारी का इतना अधिक प्रभाव पड़ता है कि एक सप्ताह बाद वह स्वयं अपने आपको उनकी हिरासत में कर देते हैं और कहते हैं "उन्होंने हज़ारों रईस और अमीर देखें, हज़ारों उच्च पदाधिकारियों से उनका काम पड़ा। किंतु मुंशी वंशीधर ही उन्हें परास्त कर लिया। उन्होंने सबको उनका और उनके धन का ग़ुलाम बना दिया।" पंडित अलीपीदीन में सद्भाव झलक रहा था। "उन्होंने मुंशी वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त कर लिया था। छह हज़ार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोज़ाना ख़र्च अलग, सवारी के घोड़े रहने को बंगला, नौकर-चाकर मुफ़्त। वंशीधर की आँखें डबडबा आयीं। हृदय के संकुचित पात्र में इसका एहसान न समा सका। एक बार वे फिर पंडित जी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखे और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिये। पं. अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।"6 यहाँ लेखक संवेदनशीलता का एक सुंदर चित्र प्रस्तुत करता हुआ नज़र आता है।

कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी में ज़ोरदार संवेदनहीनता की मानसिकता को दर्शाया गया है। कहानी में लखनऊ शहर के तद्युगीन परिस्थितियों के कारण आयी उच्छृंखलता (हलचल) से पूर्ण जन-जीवन का एक यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया गया है। वे लिखते हैं कि लखनऊ शहर में चारों तरफ़ हलचल मचा हुआ है। लखनऊ के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में विलासिता, भिन्न-भिन्न प्रकार के मनोरंजन के शौक़ और राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति उपेक्षा-भाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि पूरे समाज में खण्डीय चेतना समाप्त हो जाती है। राजनीतिज्ञों की महत्वाकांक्षा और अवसरवादिता, राजाओं व बादशाहों की विवेकहीनता एवं समाज में व्याप्त अज्ञानता और संवेदनहीनता देश की दुर्दशा बढ़ाने में सहायक हो रही थी। उदाहरण के तौर पर इस भीषण परिस्थिति में मिर्ज़ा सज्जाद अली और सज्जाद अली के कारनामों को देखा जा सकता है। मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली दो जागीरदार होते हैं जो शतरंज के खेल में इस क़दर मस्त होते हैं कि पूरे राज्य की घटित घटनाओं से बिल्कुल ही अनभिज्ञ हो जाते हैं। पूरे राज्य में हाहाकार मचा हुआ होता है। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जा रही थी, कोई सुनने वाला नहीं होता है। लेकिन ये दोनों तब भी अपने खेल में ही डूबे हुए होते हैं। प्रेमचंद ने जनता की भाव-शून्यता के क्षणों में जिस संवेदना और पीड़ा का अनुभव किया, उसी को कहानी में अभिव्यक्त कर दिया है। पात्र गुमान इस संवेदना की पीड़ा को महसूस करते हुए कहता है—"परमात्मा ने चाहा तो कल से लोग इस घर में मेरा बाल-बच्चों का भी आदर करेंगे। तुमने आज मुझे सदा के लिए जगा दिया, मानो मेरे कानों में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रेवश करने का उपदेश दिया हो।"7

इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने अपनी भावबोध के द्वारा अपनी कहानियों में नारी-पुरुष से जुड़ी सभी छोटी-बड़ी संवेदनाओं को साकार रूप देने का सफल प्रयास किया है। आज का व्यक्ति जिन सुखात्मक-दुखात्मक संवेदनाओं को अपने जीवन में आत्मसात का रहा है, जिसके अनुभव की प्रामाणिकता की अनुभूति कर रहा है, उनकी यथातथ्य अभिव्यक्ति प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से की है, जिसमें वह पूर्णतः सफल भी हुए हैं।

डॉ. भवानी दास
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
मुक्त शिक्षा विद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

संदर्भ-सूची

  1. हिंदी उपन्यास—डॉ. सुरेश सिन्हा, पृ. 57

  2. कफन—प्रेमचंद की कहानियाँ, पृ. 41

  3. पूस की रात—प्रेमचंद की सामाजिक कहानियाँ, पृ. 32

  4. ठाकुर का कुआँ—प्रेमचंद की सामाजिक कहानियाँ, पृ. 139

  5. बड़े घर की बेटी—प्रेमचंद की सामाजिक कहानियाँ, पृ. 70

  6. नमक का दरोगा—प्रेमचंद की सामाजिक कहानियाँ, पृ. 41

  7. शतरंज के खिलाड़ी—प्रेमचंद की सामाजिक कहानियाँ, पृ. 32

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें