प्रायश्चित

03-05-2012

प्रायश्चित

अलका प्रमोद

वर्तिका को न जाने क्यों रह रह कर बस यह ही लग रहा था कि यह सब उन्हीं द्वारा किये गए अपराध का दण्ड है, विशेष कर वह स्वयं को अधिक दोषी समझ रही थी, जो स्त्री हो कर भी स्त्री जाति की रक्षा करने में अक्षम रही। एक लम्बी अवधि के बाद आज पुन: स्मृति में धूमिल पड़ती अनेक जोड़ी आँखें उसके मन मस्तिष्क में छा गईं, उसने उनकी छवि को मिटाने के अनेक प्रयास किये पर असफल रही, मानों वो आँखें कह रही हों कि ‘तुमने जीवन से भले मुझे निष्कासित कर दिया पर तुम्हारी अन्तरात्मा पर मैं दस्तक देती ही रहूँगी।’ इस दस्तक से वर्तिका के समक्ष अतीत अनावृत्त हो उठा था।

सप्तरंगी स्वप्नों की चूनर ओढ़े लजायी सी तरुणी... चूनर पर नित जड़ते सास और पति के प्यार एवं लाड़ के सितारे... एक नवीन चाँद के आने की सम्भावना से आकाश सा गरिमामयी हो उठा वर्तिका का व्यक्तित्व... पर अचानक मानो सारे सपने टूट गए। उस दिन रात्रि के एकान्त में जब उसके बालों को सहलाते हुए विलास ने कहा था, “वर्तिका कल हम लोग चल कर डा. चौधरी की क्लीनिक में अल्ट्रासाऊँड करवा लेते हैं।”

वर्तिका ने तनिक सिर उठा कर प्रश्न वाचक दृष्टि से जब विलास को देखा तो उसने उसे समझाते हुए लापरवाही से कहा, “अरे आज कल तो तीसरे माह ही पता चल जाता है कि आने वाला लड़का है या लड़की।” सपनों की डोर थामे वर्तिका ने अंधमुदे नेत्रों से कहा, “क्यों विकल हो रहे हैं, कुछ माह में पता चल ही जाएगा।”

“पर तब तक बहुत देर हो जाएगी, कहीं लड़की हुई तो गर्भ से मुक्ति जितनी शीघ्र सम्भव हो पा लेना ठीक होगा।” सप्तरंगी चूनर के सितारे अचानक झरने लगे थे। वह उत्तेजना से उठ बैठी और अविश्वास से बोल, “यह तो पाप है क्या हम स्वयं ही अपने प्रेम के प्रथम अंकुर को नष्ट कर देंगे?” इतने दिनों से विलास की जिस प्रिय मूर्ति को उसने हृदय में बसाया हुआ था वह खंडित होने लगी, उसने विलास को समझाने का हर सम्भव प्रयास किया ? पर विलास के अपने तर्क थे, अपने जीवन के कटु अनुभवों ने विलास के निश्चय को दृढ़ से दृढ़तर बनाया था। उसके पिता का सम्पूर्ण जीवन अपनी पाँच बेटियों के लिये दहेज संचय में ही चुक गया था, उन्होनें जीवन भर न जाने कितनी आकांक्षाओं का गला घोटा रहा होगा पुत्रियों को पार लगाने के लिये और फिर प्रारम्भ हुई थी वर खोजने और उनकी माँगों को पूरा करने की दुष्कर यात्रा जिसकी मध्य राह में ही वह चुक गए थे और उस उत्तरदायित्व को पूरा करने का भार एकमात्र भाई विलास के कंधों पर आ गया था। अपने जीवन के अमूल्य वर्ष दे कर ही वह इन दायित्वों से मुक्ति पा सका था और अब किसी भी परिस्थिति में वह पुन: उस राह पर जाना नहीं चाहता था। वर्तिका ने उसे समझाया, “तब और आज के समय में एक पीढ़ी का अन्तर है, फिर हम एक या दो सन्तानों को ही जन्म देंगे।”

“और दोनो लड़कियाँ हो गईं तो?”

“तो क्या हुआ हम एक को पायलट और दूसरी को आई. पी.एस. बनाएँगे, फिर देखना हमारी बेटियों का हाथ माँगने लोग स्वयं आएँगे” वर्तिका ने स्वप्नों में खोते हुए कहा।

“बस बस ऊँची ऊँची बातें मत करो, लड़कियों को चाहे जो बना लो, वो तो चली ही जाएँगी। जब बुढ़ापे में कोई पानी देने वाला नहीं रहेगा तब पता चलेगा।”

वर्तिका भी बहस पर उतर आई थी, “तो क्या हम अपने स्वार्थ के लिये अपनी ही संतान की हत्या कर देंगे?” जब आरोपों का सामना करना विलास की सामर्थ्य से बाहर होने लगा तो बड़ी चतुरता से उसने बन्दूक माँ के कन्धे पर रख दी। दोनो के संयुक्त मोर्चे के समक्ष वर्तिका का विरोध कब तक टिकता? उसे हथियार डालने ही पड़े। उसके मातृत्व को पूर् कार मिलने से पूर्व ही समाप्त कर दिया गया। उसके और विलास के मध्य उस दिन जो दीवार खड़ी हुई वह दिन पर दिन दृढ़ होती गई। इसके बाद दो बार उनके मिलन के अंकुर प्रस्फुटित हुए पर उनका अपराध यही था कि वे कन्या बन कर आने की ध्Íष्टता कर बैठे और इसी लिये उन्हें क्रूरता से कुचल दिया गया। बाह्य आवरण तो सामान्य रंग लिये था पर उसके परोक्ष में उनके सम्बंधों में अनेक काँटे उग आए थे, जिसकी चुभन से दोनों लहू लुहान होते रहे। विवश वर्तिका का अन्तर मन अपनी अजन्मी बेटियों के रुदन सुन कर चीत्कार करता रहा, वह उन्हें न बचा पाने के कारण स्वयं को अपराधी समझती थी। संभवत: ईश्वर को ही वर्तका पर दया आ गई अत: चिर प्रतीक्षित अतिथि, वंश का भावी उत्तराधिकारी आ ही गया। मृतप्राय मातृत्व और अतीत की चोटों से लहू लुहान शिथिल वर्तिका को जब पुत्र रत्न के जन्म की सूचना दी गई तो वह प्रसन्न होने के स्थान पर रो दी, लोगों ने उसे प्रसन्नता के आँसू का नाम दिया पर सत्य तो यह था कि उसे आज अपनी अजन्मी बेटियाँ और भी तीव्रता से याद आ रही थीं।

इतनी प्रार्थनाओं से प्राप्त पुत्र रत्न पिता और दादी की आँखों का तारा था, वहीं न जाने वर्तिका के मन में कौन सा हठ घर कर गया था जो वह उसे वह प्यार दुलार नहीं दे पाई जो वांछित था। कुछ उसकी उदासीनता और कुछ दादी और पिता के अतिरिक्त लाड़ प्यार ने वंशज का पालन पोषण असंतुलित कर दिया। अपनी प्रत्येक इच्छा की तत्क्षण पूर्ति के कारण स्वार्थ और हठी होता गया। उसने पढ़ना प्रारम्भ किया तो नित्य उसकी शिकायतों का पुलिन्दा घर आने लगा कभी किसी बच्चे की पिटाई कर देता तो कभी रबर और पेंसिल चुरा लेता, पढ़ाई तो वह तब करता जब अन्य शरारतों से समय बचता? वर्तिका ने उसे पढ़ाने का हर सम्भव प्रयास किया पर वह जब भी उसे त्रुटियों पर टोकती या उसे वश में करने के लिये कठोर अँकुश लगाती, उसका रोना प्रारम्भ हो जाता और दादी उसकी ढाल बन कर आ खड़ी होतीं। उसने विलास को भी समझाना चाहा कि यदि ऐसे माँ जी उसकी प्रत्येक त्रुटि पर आवरण डालती रहीं तो वंशज कैसे कुछ सीख पाएगा, पर वह तो यही कह कर अपने दायित्व से मुँह मोड़ लेता कि माँ उसकी शत्रु तो हैं नहीं, बच्चा है बड़ा हो कर समझ जाएगा। जैसे जैसे वह बड़ा होता गया उसकी झूठ बोलने की लत उच्छृंखलता शरारतें और आवश्यकताएँ भी बढ़ने लगीं। मोहल्ले में तो स्थिति यह थी कि उसकी हरकतों के कारण वर्तिका और विलास लोगों से कतराने लगे थे कि न जाने कब कौन उसकी किस शरारत की उलाहना देने लगे। पर फिर भी विलास के लिये तो वह वृद्धावस्था का सुरक्षा बीमा था अत: वह पूँजी निवेश करता रहा। सहज इच्छा पूर्ति ने उसकी आकांक्षाओं को अनियंत्रित कर दिया परिणामत: यदि वह बुरी संगत में पड़ गया तो कोई आश्चर्य कर बात तो थी नहीं।

मात्र चौदह वर्ष की आयु में ही अपने धनवान मित्रों को देख कर वह मोटर साइकिल की माँग कर बैठा विलास ने बहुत समझाया पर उसे तो अपनी हर बात मनवाने की आदत थी, ‘न’ तो उसके लिये अनापेक्षित था अत: वह उत्तेजित हो कर पाँव पटकने लगा, हठ अधिक बढ़ा तो उसकी उद्दंडता से क्रोधित हो कर अथवा उसकी माँग पूरी करने की अक्षमता की कुंठा के कारण विलास ने प्रथम बार उसके उपर हाथ उठा दिया। वंशज तो अवाक्‌ रह गया वह उस समय कुछ नहीं बोला घर में सन्नाटा छा गया उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया सब ऐसे ही सो गए। प्रथम बार वंशज पर हाथ उठा कर विलास विचलित थे पर इससे पूर्व कि वह प्रायश्चित करें वंशज ने अपनी दृष्टि में, उनके इस अक्षम्य अपराध का दंड उन्हें दे दिया। रात्रि के अंधेरे में सबकी आशाओं पर तुषारापात कर के वंशज आभूषण और रुपये ले कर घर छोड़ गया। वर्तिका और विलास ने कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा ,पर वंशज का कहीं पता नही चला, अन्त में वे हार कर विवश हो कर बैठ गए। वंश का दीपक क्या गया अपने साथ सब की आशाएँ भी ले गया, सम्पूर्ण घर अंधकार में डूब गया।

वर्तिका चाहे कितनी भी उदासीन रही हो पर थी तो माँ ही, वंशज का इस प्रकार घर छोड़ कर चले जाना उसके वर्तमान से ले कर अतीत तक की सभी पीड़ाओं को जाग्रत कर गया था और सम्भवत: इसीलिये आज अतीत के रुदन की प्रतिध्वनि पुन: गुंजायमान हो उठी। मन की विकलता असह्य हो गई तो उसने मन ही मन एक निश्चय किया। अब यूँ भी माँ जी रही नही थीं और विलास अब उसके उपर उतने प्रभावी नही रहे थे, वह थोड़ा बहुत अपनी भी चला लेती थी।

वह उसी समय अपनी परम मित्र सुनीता के पास गई और उसे ले कर अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये निकल गई। जब वह लौटी तो विलास कार्यालय से आ चुके थे और उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे, उसे देख कर बोले, “कहाँ चली गई थी ?” उसने कहा, “बस हमें तुरंत ही कहीं चलना है।” विलास ने जानना चाहा पर आज वर्तिका कुछ बदली सी थी उसने कहा, “बस कुछ देर प्रतीक्षा करिये सब पता चल जाएगा बस जहाँ मैं कहूँ चलते रहिये।” विलास ने भी इस समय चुप रहना ही उचित समझा। कुछ देर में वे एक अनाथाश्रम के सामने खड़े थे। वर्तिका विलास का हाथ थामें हुए, तीव्र गति से चलती हुई अन्दर गई। वहाँ की अधीक्षक को सम्भवत: उनके आने का पता था,उन्होने तुरंत ही अपनी परिचारिका को संकेत दिया और कुछ ही क्षणों में उनके समक्ष एक आठ नौ वर्ष की बालिका खड़ी थी। सहमी हिरनी सी परिचारिका का आँचल थामे वह उन्हें ही देख रही थी, इसस पूर्व कि वह उसके बारे में कुछ पूछता वर्तिका ने उस बच्ची के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “विलास आज हम इस बच्ची को गोद ले कर अतीत में किये अपराधों का प्रायश्चित करेंगे ?” वर्तिका ऐसा कुछ करने जा रही है ऐसा तो उसने स्वप्न में भी न सोचा था,उसे क्रोध भी आ रहा था कि कम से कम वर्तिका को उससे पहले पूछना तो चाहिये था। वह वर्तिका को ले कर कमरे से बाहर आया। सम्भवत: उसके मन में उठ रहे प्रश्न और इस निर्णय में असहमति का आभास वर्तिका को उसके चेहरे के भावों को देख कर हो गया था, उसने कहा, “ विलास दांपत्य जीवन की दो दशकों से साथ की गई जीवन यात्रा में, उचित अनुचित जो आपने चाहा मैंने वही किया और उसके परिणाम भी भोगे हैं, पर आज मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं इसे गोद लूँगी चाहे इसके लिये मुझे कुछ भी छोड़ना पड़े।”  इस कुछ भी में विलास भी सम्मिलित है यह वर्तिका के कहने से स्पष्ट हो रहा था। इसके पश्चात वर्तिका बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये वापस अधीक्षक के कक्ष में जा चुकी थी। अवाक्‌ खड़ा विलास समझ गया था कि वह बेटे को तो खो चुका था यदि आज उसने वर्तिका का साथ न दिया तो... नहीं.. नहीं.. आगे की कल्पना मात्र से वह घबरा गया और वर्तिका का साथ देने कक्ष की ओर मुड़ गया।

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